महिलाओं का पर्यावरण से क्या संबंध हो सकता है ? क्या यह संबंध पुरुषों से अलग होता है ? यूरोप में बढ़ते पर्यावरण नारीवाद खासकर अमरीका में इस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है । विकासशील देशों में अस्तित्व के लिए हो रहे संघर्षों से महिला और पर्यावरण के संबंध का भौतिक आधार तो मिलता है और एक पर्यावरण नारीवाद के लिए वैकल्पिक पृष्ठभूमि भी । ग्रामीण भारत की औरतें पर्यावरण में हो रहे क्षरण के कारण परेशानियों का सामना कर रही हैं । यह परेशानिया खासतौर से लिंग आधारित हैं । दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण और पुर्नउत्पाद से जुड़े आंदोलनों में महिलाओं की खूब सक्रिय भागीदारी देखने को मिलती है । इसे देखकर हमें पर्यावरण के मुद्दों को अलग से देखने का मौका मिलता है । इस चर्चा को धारणा के स्तर पर ले जाने के लिए और यह देखने के लिए पर्यावरण के मामले में औरत को कितना भुगतना पड़ता है और वो खुद इसके नुकसान में कितना भागीदार है ।
दरअसल, जल, जंगल, जमीन को बाजार अर्थव्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा बना कर भरपूर दोहन किया जाता है। आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो वह जिस नीव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है। अब तक पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, जैसे मुद्धो पर दिसम्बर 2012 तक 165 संन्धिया एवं समझौते हुए है जिसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। इसका कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्धों पर भी विभिन्न राष्ट्र समझौतो के दौरान लाभ-हानि को देखती है और यहाँ तो सृष्टि नष्ट होने के कगार पर है, इन राष्ट्रांे को लाभ हानि की पड़ी हुई है। आज पर्यावरण संरक्षण के नाम पर या जलवायु परिवर्तन, जैव विविद्यता, कार्बन कटौती, के नाम पर कई संन्धि, समझौता, प्रोटोकाल, सम्मेलन हुए है या हो रहे है, कोई ठोस नतीजा नहीं आ रहा है, केवल वे लोग मीटिंग में इटिंग करते है। पर्यावरण संरक्षण हितार्थ ही नहीं वरन् राष्ट्र की हर समस्या के निदान में आज भी पूर्ण प्रासंगिक है और पर्यावरणवाद जो कि आज एक समाजिक आन्दोलन का रूप धारण कर चुकी है। पर्यावरण कोई स्वाधीन राजनीतिक सिद्धान्त नहीं, यह एक विचारधारात्मक आन्दोलन है, जो पश्चिमी राजनीति में 1970 के दशक में उभरकर सामने आया है जो धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल गया।
पर्यावरणीय नारीवाद ने महिला को प्रकृति के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि समाज में प्रचीन काल से महिलओं के शोषण के लिए पुरूषों वर्ग ही जिम्मेदार रहा है। इसी तरह पुरूष वर्ग ने पर्यावरण संसाधन का अतिदोहन कर पर्यावरण को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। अतः महिला और प्रकृति दोनो के दमन का श्रेय संयुक्त रूप से पुरूष वर्ग को ही है। सुसान ग्रिफ्रीन 1984, एड्री कोलार्ड्र 1988, कोल्डकोट और लेलंड 1983 आदि विचारकों ने अपनी पुस्तक में इस बात को स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार से पुरूषों ने महिलाओं का शोषण व दमन किया है, ठीक उसी प्रकार से पुरूषों ने पर्यावरण का शोषण किया है। वंदना शिवा और प्लावुड एडिना मर्चेन्ट आदि पर्यावरणविदांे का मानना है कि प्रकृति और महिला में समानता है क्योंकि दोनांे ही पोषण करते है। प्रकृति और महिला दोनांे में चक्रिय प्रक्रिया होती है तथा दोनांे ही शोषण के शिकार है। इस वर्ग का भी यह मानना है कि, प्रकृति के शोषण का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है क्योंकि ये प्रकृति पर अधिक निर्भर है। (जैसे-जलावन, पानी की व्यवस्था महिलाए ही करती है)। अतः प्रकृति से खिलवाड का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर ही पड़ता है क्यांकि महिलाएं प्रकृति के निकट होती है। वंदना शिवा ने अपनी पुस्तक में हरितक्रांन्ति की विफलता का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार यह वृहद पूँजीपति के लक्षणों वाली विकास की परियोजना जिसे औद्योगीकरण कहती है का दुष्प्रभाव ग्रामीण महिलाओं पर ही पड़ा है। महिलाओं की पहचान और भाग्य प्रकृति के साथ घुला मिला है। महिलाओं का सरल स्वभाव ही उसे पर्यावरण के साथ जोड़ता है। इसी कारण एण्डीकोलार्ड ने महिलाओं को प्रकृति का शिशु कहाँ है। इन्ही कारणा से महिलाएँ पर्यारण को क्षति पहुँचाने वाले सैन्यवाद, औद्योगिकरण का विरोध करती है। इसी क्रम में हम चिपको आंदोलन को देख सकते है। 1970 के दशक में हिमालय क्षेत्रों में वनो का विनाश रोकने के लिए स्त्रीयों के जान देने की घटना के बाद इस आंदोलन को चिपको आन्दोलन का नाम दिया गया। यह आन्दोलन सफल आन्दोलन था जिसमें सुन्दर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, जैसे पर्यावरणविद्ो ने किया है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में आप्पिकों आन्दोलन का श्री गणेश किया गया। इस संदर्भ में पर्यावरण महिलावाद का मानना है कि पुरूषो को भी महिला के समान अपने स्वभाव में करूणा ममता के भाव को लाना होगा। स्त्री के समान ही पुरूषों को पर्यावरण के साथ सम्बद्ध रखने होंगे।
हम आपको बता दें कि वंदना शिवा दुनिया भर में जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भौतिकविद हैं। नवदान्य के तहत वह जैव विविधता बचाने के लिए महिलाओं के ही साथ अभियान चलाती हैं। जीन संवर्धित बीजों और जीवों के वह खिलाफ हैं। बार्बरा उनमुसिग ने पर्यावरण के लिए फायदेमंद नीति बनाने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी और विकास नाम का गैर सरकारी संगठन बनाया है। हबीबा साराबी अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में गर्वनर हैं। उन्होंने यहां पहला राष्ट्रीय उद्यान बनाया लेकिन इसे पर्यटकों से ही नुकसान पहुंचने लगा। उन्होंने समुदाय के नेताओं के साथ संरक्षण मुहिम शुरू की। कनाडा के अट्टावापिस्काट की प्रमुख थेरेसा स्पेंस ने कनाडा के आदिवासियों के लिए संघर्ष शुरू किया और उनके अधिकारों की उच्च स्तर तक पैरवी कर रही हैं। अदाकारा एवा मेंडेस पेटा के एंटी फर अभियान में शामिल तो हुई लेकिन फर की जगह मैं नग्न रहना पसंद करूंगी, इस टैगलाइन के साथ निर्वस्त्र। कारेन क्रिस्टिना फिगुएरेस ओलसेन संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन समझौते के प्रोग्राम से जुड़ी हैं. वह कोस्टारिका की ओल्सेन टिकाऊ विकास के लिए काम करती हैं। रियो़20 में जब ब्रिटनी ट्रिलफर्ड ने पहली बार भाषण दिया तो वह सिर्फ 17 साल थीं। उन्होंने कहा था, हम सब जानते हैं कि समय निकल रहा और तेजी से निकल रहा है।
गौर करने योग्य यह भी है कि बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का सृजन ही नहीं किया जा सकता, उन्हें बढ़ाना तो सर्वथा असभंव है। वे उनका अन्धाधुन उपयोग करके आधुनिक औद्योगिक समाज ऐसा व्यवसाय चला रहा है जो अपनी जमा पुँजी को खाए जा रहा है, वह अपनी ही क्रब खोद रहा है। धरती किसी कि निजी संम्पती नहीं है यह हमे अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिली, बल्कि यह हमारे पास भावी पीढियों का धरोहर है। पारिस्थिति विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि आर्थिक विकास की अंधी दौड़ ने हमारे पर्यावरण को कितना छती पहुँची है। पिछली कुछ वर्षों यह प्रचार तेजी से चल रहा है कि आंतकवाद ही इस देश के लिए खास खतरा है। मैं हर प्रकार की हिंसा का विरोधी हूँ और मानता हूँ कि वैचारिक शक्ति खत्म होने पर ही इंसान हिंसा, शक्ति का प्रयोग करता है। मैं इस बात को नहीं मानता हूँ कि आतंकवाद को जिस प्रकार आज परिभाषित किया गया है, उसी से देश को या दुनिया को खतरा है। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार या उत्तर प्रदेश में थोड़ा सा भ्रमण करके आइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि आंतक के पीछे असल में कौन है ? खदान चलाने वालों एवं सेज निर्माण में लगी कंम्पनीयों से पीडि़त लाखों-करोड़ों जनता अपनी जान बचाने के लिए मारी मारी फिर रही है। इन्हे पाकिस्तान या इराक के आतंक से फिलहाल कोई खतरा नहीं इनके ऊपर दिन प्रतिदिन जो आतंक का कहर चल रहा है उससे उन्हें कौन मुक्ति दिलाएगा ? आज यही वजह है कि जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में नागरिक और राज्य आमने-सामने हो रहे है, जिसे हम नक्सलवादी कहते हैं।
आदिकाल से ही महिलाओं का प्रकृति से तादात्म्य व जुड़ाव रहा है तथा वे प्रकृत्ति के स्वरूप को यथावत् रखने व उसके संरक्षण के प्रति सजग, सचेत व सचेष्ट रही हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् वन्दना शिवा ने भी इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहा है कि, ष्प्रकृति और महिला में समानता है, क्योंकि दोनों ही पोषण करती हैं।ष् देश की महिलाएं वृक्षों, नदियों, जल स्रोतों व कुओं की पूजा विविध रूपों में करती हैं, जो कि उनके प्रकृत्ति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति आस्था व समर्पण का परिचायक है। वृक्षों में विशेष रूप से पीपल, वटवृक्ष, खेजड़ी, केला, आंवला व तुलसी की पूजा व सिंचन करते हुए महिलाएं पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान दे रही हैं। गौरतलब है कि पीपल अत्यधिक मात्रा में आक्सीजन छोड़कर एवं उससे लगभग दुगुनी मात्रा में कार्बन डाई-आक्साइड गैस को अवशोषित करके पर्यावरण शुद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। इसी भांति, तुलसी जैसा पवित्र पादप श्रद्धा, आस्था व प्रेम का केन्द्रबिन्दु है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी तुलसी पर्यावरण संरक्षण हेतु बेहद लाभप्रद है। यह अंतरिक्ष के ओजोन परत के छिद्रों को भरने में सक्षम है जिससे पराबैंगनी किरणों से मानव की रक्षा होती है। गंगा, यमुना, नर्मदा एवं काबेरी जैसी पवित्र नदियों को ष्मांष् की उपमा से विभूषित किया जाता है तथा महिलाएं उनको भी पूजा-अर्चना करके व उनमें स्नान को पवित्र मानते हुए समाज को उनके संरक्षण का संदेश दे रही हैं।
महिलाओं ने विविध आंदोलन व कार्यक्रमों के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम हेतु सतत् व प्रभावी प्रयास किये हैं। ज्ञातव्य है कि लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व राजस्थान के एक राजा ने चूना बनाने के लिए अपने रजवाड़े को खेजड़ी के पेड़ों को कटवाने का आदेश दिया। अमृतादेवी नामक विश्नोई महिला के नेतृत्व में अनेक महिलाओं ने इन वृक्षों से चिपककर वृक्षों की कटाई को रोका एवं समाज को वृक्षों के संरक्षण का संदेश दिया। यद्यपि तत्कालीन सामन्तशाही ने इन महिलाओं को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया, किन्तु इस आंदोलन ने पर्यावरण-संरक्षण का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार, उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी की महिलाओं ने ष्रक्षा सूत्रष् आंदोलन का सूत्रपात करते हुए पेड़ों पर ष्रक्षा धागाष् बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। पर्यावरणविद् वंदना शिवा, सुनीता नारायण, मेनका गांधी आदि पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण जागरूकता एवं महिलाओं में पर्यावरण चेतना के बीज बोने हेतु अथक व अनवरत प्रयास कर रही हैं। वर्ष 2004 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित बंगारी मथाई ने ष्ग्रीन बेल्ट आंदोलनष् का शुभारम्भ करते हुए पर्यावरण के क्षेत्र में महिलाओं को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने हेतु अनवरत संघर्ष किया। बंगारी मथाई द्वारा प्रस्तुत चार ष्आरष् की अवधारणा अर्थात् ष्रिड्यूस, रियूज, रिसायकल व रिपेयरष् को मूत्र्त रूप प्रदान करके सम्पूर्ण विश्व को पर्यावरण-संरक्षण का कवच उपलब्ध कराना संभव है।
यदि हम यह कहें कि पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्वव्यापी सहयोग की आवश्यकता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । यूं तो भारत देश गांवों का देश हैं व इसकी ७० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण अंचलों में निवास करती हैं अतरू जब तक हम गांवाों में पर्यावरण को संरक्षित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण संरक्षण की बातें करना बेमानी होगी । ग्रामीण अंचलों में महिलाएं पर्यावरण को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े करकट व गन्दगी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है । अतीत में ग्रामीण क्षेत्र स्वर्ग थे वे अब नरक में परिवर्तित हो रहे हैं क्योंकि अब वहां न तो पहले जैसी सफाई है व न ही सहयोग की भावना है। आमतौर पर ग्रामीण महिलाएं अपने घर का कूड़ा करकट निकाल कर गली में या किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर डाल देती हैं जिससे मक्खी मच्छर व बदबूदार वातावरण का निर्माण होता है । यह भी देखने में आया है कि ग्रामीण बहनें अपने पशुओं का गोबर गांव के जोहड़ के किनारे डाल देती हैं व जब वर्षा होती है तो वह गोबर बह कर जोहड़ में चला जाता है व जोहड़ का पानी प्रदूषित हो जाता है । जब उसी प्रदूषित पानी को गांव के पशु पीते हैं तो वे बीमार होकर मर जाते हैं । अतरू ग्रामीण बहनों को चाहिए कि वे अपने घर का कूड़ा करकट व पशुओं का गोबर क्रमशरू गली व जोहड़ के पास न डालें। कूड़े करकट व गोबर के लिए एक उपयुक्त स्थान का चयन करके व वहां गड्डा बनाकर डालें तो कई प्रकार के प्रदूषण से बचा जा सकता है । महिलाएं प्लास्टिक की थैलियों का भरपूर उपयोग करती देखी गई है । प्लास्टिक की थैलियों से सामान निकाल कर थैलियों को कूड़ें में या गली मोहल्ले में फैंक देना बहुत ही हानिकारक व घातक सिद्ध होता है । प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण की दुश्मन हैं व जहां एक ओर इनसे मृदा प्रदूषण बढ़ता है वहीं दूसरी ओर नाले एवं सीवर बंद हो जाते हैं जिससे प्रशासन को प्रवाह तंत्र साफ करने में काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है । अतरू बहनों को चाहिए कि जहां तक हो सके वे प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल ही न करें व बाजार से समान लाने हेतु जूट या कपड़े के थैलों का इस्तेमाल करें। यदि किसी कारणवश उन्हें प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल मजबूरन करना भी पड़ता है तो वे खाली थैलियों को गली में ना फैंके बल्कि उनका एक स्थान पर संग्रह करलें व किसी कबाड़ी वाले को बेंच दें ताकि उनका पुनरू किसी कार्य हेतु प्रयोग किया जा सके । ऐसा करने से न तो मृदा प्रदूषण होगा और न ही नालियां बाधित होंगी । बहनों का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चें में भी प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों का निर्माण करें कि वे प्लास्टिक की थैलियों के प्रयोग से परहेज करें । बहनें इंर्धन के लिए लकड़ी या गोबर के बने उपलों का प्रयोग करती हैं। लकड़ी व उपलों के प्रयोग से जहां एक ओर हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है वहीं दूसरी ओर धूएं से बहनों को काफी बीमारियों हो जाती है । महिलाओं को चाहिए कि वे गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों का इस्तेमाल करें । रसोई के लिए बहनें बायोगैस का प्रयोग कर सकती हैं । बायो गैस के प्रयोग से न तो पर्यावरण ही प्रदूषित होता है और न ही इसके इस्तेमाल में धूएं की वजह से होने वाली कोई बीमारी होती है । आमतौर पर यह देखने में आता है कि इंर्धन का प्रबंध करना महिलाओं की ही जिम्मेवारी होती है क्योंकि खाना बनाने का दायित्व महिला का ही निर्धारित किया गया है ।
पर्यावरण की रक्षा हेतु बिश्नोई सम्प्रदाय की महिला अमृतादेवी का बलिदान अविस्मरणीय है । राजस्थान राज्य के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव की महिला अमृत देवी के नेतृत्व में विक्रम संवत १७८७ में ३६३ स्त्री, पुरूषों ने वृक्षों की रक्षार्थ अपने प्राणों की बलि दी थी। अमृता देवी की प्रतिमा संयुक्त राष्ट्र के पुस्तकालय हाल में लगी हुई इस बात का प्रतीक है कि भारतीय महिलाएं वृक्षों की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहूति भी दे सकती हैं । हमारी महिलाओं को अमृता देवी के बलिदान से प्रेरणा लेकर वृक्षों की तन-मन-धन से रक्षा करनी चाहिए ताकि पर्यावरणीय असंतुलन को दूर किया जा सके ।
गौर करने योग्य यह भी है कि संभवतः पहली बार उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर महाकुंभ में पर्यावरण और बेटी बचाओ, महिला सशक्तिकरण तथा प्रदूषणमुक्त भारत के लिए संतों की ओर से अभियान चलाया गया था। महाकुंभ में आए अखाडे तथा तथा संतों के शिविर से पर्यावरण और बेटी बचाओ का संदेश निकला। इतिहास गवाह है कि सनातन धर्म पर जब भी खतरा सामने दिखा, तो संतो ने शास्त्र एक किनारे रख शस्त्र उठाए। नागा साधु बनने की कथा भी इसमें शामिल है। कडी तपस्या से बनने वाले नागा साधुओं को शास्त्र के साथ शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती है। सतुआ बाबा पीठ के महामंडलेश्वर बाबा संतोष दास ने पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा था कि वायु स्नान को भी महत्वपूर्ण माना गया है। यदि वायु प्रदूषित हुई तो देह भी प्रदूषित होगी तथा कुछ भी सही नहीं होगा। वह अपने आश्रम में आने वाले लोगों को कम से कम एक पौधा लगाने की सीख भी देते है। पेडो से ऑक्सीजन मिलता है, जो किसी के भी जीने के लिए सबसे जरूरी है। जल और वायु तेजी से प्रदूषित हो रही है। शहर ही नहीं गांवो में भी कॉंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे है। लोग पेड़ों को काट कर मकान बना रहे है। मकान किसी को रहने के लिए छत तो दे सकते है, लेकिन जिंदा रहने के लिए शुद्ध वायु जरूरी है।
बीतें दिनों, द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (टेरी) द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, पुरुषों की तुलना में महिलाओं का एक बहुत बड़ा प्रतिशत भी पर्यावरण संरक्षण और विकास को समान महत्व देता है। हाल में टेरी द्वारा जारी पर्यावरण सर्वेक्षण 2014 रिपोर्ट जल और जल संबंधी मुद्दों पर केंद्रित है। यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, कोयंबटूर, गुवाहाटी, इंदौर, जमशेदपुर, कानुपर और पुणे को मिलाकर कुल आठ शहरों में हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है, ष्यह ध्यान देने योग्य बात है कि पुरुषों (36 प्रतिशत) की तुलना में महिलाओं (48 प्रतिशत) के एक उच्च अनुपात ने महसूस किया कि पर्यावरण संरक्षण और विकास साथ साथ चले हैं।ष् इसके अलावा, करीब 40 प्रतिशत महिलाओं ने महसूस किया कि पर्यावरण और विकास बिना किसी दुविधा के साथ चले हैं, जबकि 30 प्रतिशत ने माना कि सरकार को विकास के बजाय पर्यावरण को प्राथमिकता देनी चाहिए।
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