Tuesday, 30 June 2015

किसान बेहाल, तो मिठास कहां से होगी गन्ना में





किसान चैतरफा बदहाल है। प्रकृति की मार से भी, और सरकार से भी। बेमौसम की बारिश ने जहाॅं उसकी गेंहॅू आदि फसलों को चैपट कर दिया वहीं हुदहुद नामक तूफान और तेज बारिश ने गन्ने की फसल को क्षति पहुॅंचायी थी। अब रही-सही कसर सरकार पूरी कर रही है। किसानों की इस उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण है उनका असंगठित होना। उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार ने विकट मॅंहगाई और कृषि पर हो रहे प्राकृतिक प्रकोपों के बावजूद बीते तीन वर्षों से गन्ने का दाम बढ़ाना बन्द कर दिया है। किसान वही पुराना दाम पा रहे हैं जो बसपा की सरकार ने तय किया था। देश में पैदा होने वाली लगभग सभी फसलों के दाम बढ़ रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों को अखिलेश यादव की सरकार ने खूॅंटे से बाॅंध दिया है। इस कोढ़ में खाज वाली हालत यह है कि यह दाम भी उसे समय से मिल नहीं रहा है। इस वर्ष का गन्ना सीजन बीत गया, विवाह का मौसम बीत गया तथा स्कूल में बच्चों के एडमीशन का समय बीत गया और अभी तक गन्ना किसानों को उनका पैसा नहीं मिल सका है। चालू सत्र में गन्ना किसानों का रु. 9000 करोड़ प्रदेश की चीनी मिलें दबाए बैठी हैं। प्रदेश में कुल 123 चीनी मिलें कार्य करती हैं जिसमें से 52 का भुगतान बहुत खराब है और इनमें से सिर्फ 43 के खिलाफ एफ.आई.आर. पुलिस में दर्ज की गई है क्योंकि उच्च न्यायालय का आदेश था कि भुगतान न कर रही चीनी मिलों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही यथा, कुर्की, नीलामी आदि कर किसानों का पैसा दिलाया जाय लेकिन एफ.आई.आर. दर्ज होने के बावजूद इन मिलों के रवैये पर कोई असर नहीं पड़ा है क्योंकि सरकार इन पर मेहरबान है। प्रतिबन्ध है कि किसान द्वारा गन्ना आपूर्ति करने के 14 दिन के अन्दर अगर मिल पैसे का भुगतान नहीं करती तो उसे बैंकों द्वारा निर्धारित ब्याज का भुगतान उस धनराशि पर किसानों को करना होगा। लेकिन कोई भी मिल ऐसा नहीं कर रही है।
बहरहाल, बकाया भुगतान के लिए संघर्ष कर रहे गन्ना किसानों को मोदी सरकार से खास राहत मिलती नहीं दिख रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नई सरकार द्वारा किए गए समर्थन मूल्य की घोषणा है। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणापत्र में उल्लेख था कि सरकार बनते ही लागत से 50 फीसद अधिक समर्थन मूल्य की घोषणा की जाएगी मगर सत्ता में आने के बाद पूर्व सरकार द्वारा तय फॉर्मूले के आधार पर ही समर्थन मूल्य की घोषणा हुई। यही नहीं, सरकार ने चीनी मिलों को 4400 करोड़ के ब्याज मुक्त कर्ज के साथ निर्यात पर दी जा रही सब्सिडी भी सितम्बर माह तक बढ़ा दी। सरकार ने पेट्रोल में एथनाल का मिशण्रपांच फीसद से बढ़ाकर दस कर दिया। इसके बावजूद चीनी का थोक व खुदरा मूल्य लगातार बढ़ता गया है। मगर किसी ने नहीं सोचा कि उसका लाभ किसानों को मिला है या नहीं। वास्तव में भुगतान संकट की मुश्किलें ज्यों की त्यों हैं।
 यूपीए सरकार ने भी चीनी मिल मालिकों को 6,600 हजार का ब्याज मुक्त कर्ज और निर्यात सब्सिडी का पैकेज दिया था। साफ है कि इतनी रियायतों के बाद भी चीनी मिलें आगे भी रियायत की उम्मीद कर रही हैं। अहम सवाल यह है कि चीनी मिलों को ब्याज मुक्त कर्ज के बाद भी गन्ना किसानों को गन्ना मूल्य का भुगतान क्यों नहीं हो पा रहा है ? पूरे देश में गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 11 हजार करोड़ रुपए का गन्ना मूल्य अब भी बकाया है। जाहिर है दिए गए कर्ज की समीक्षा करने और उसका गन्ना मूल्य में भुगतान होना सुनिश्चित किए जाने की परवाह किए बिना सरकार उन्हें कर्ज पर कर्ज देती जा रही हैं लेकिन गन्ना किसानों को तो कोई फायदा नहीं हो रहा है। यही कारण किसानों को गन्ने की अगली फसल से लेकर अन्य फसलों की बुआई, सिंचाई के लिए गहरे आर्थिक संकट से जूझना पड़ता है।
दूसरी तरफ, गौर करने वाली बात यह है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने 2015-16 के पेराई सत्र में गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) सिर्फ  10 रु पये बढ़ाने की सिफारिश है। अक्टूबर से शुरू होने वाले पेराई सत्र के लिए सरकार 220 रुपये प्रति क्विंटल एफआरपी तय कर चुकी है, जो अगले साल 230 रु पये हो सकती है। इस बारे में अंतिम फैसला कैबिनेट की बैठक में होगा। केंद्र की ओर से तय गन्ने के उचित व लाभकारी मूल्य के ऊपर राज्य सरकार व चीनी मिलें अपनी तरफ से भाव तय कर सकती हैं। केंद्र की ओर से तय भाव यूपी में गन्ने के मौजूदा 280 रु पये के भाव से 60 रुपये कम है। ऐसे में, जब चीनी मिलें उत्पादन लागत के आधार पर मूल्य तय करती हैं तो किसानों का समर्थन मूल्य लागत पर तय क्यों नहीं होता? किसानों के अनुसार, प्रति क्विंटल गन्ने की फसल पर 240 चालीस रुपये लागत आ जाती है। जबकि गन्ने का सरकारी रेट यूपी में 280 रु पये प्रति क्विंटल है। किसानों की मांग है कि गन्ने का मूल्य कम से कम 350 रुपये प्रति क्विंटल किया जाए क्योंकि डीजल, कीटनाशक, बीज, खाद इत्यादि के दामों में भारी इजाफा हो रहा है। यह विडम्बना ही है कि बकाया पैसों के भुगतान व उचित मूल्य के लिए देश के करोड़ों किसान आंदोलन कर रहे हैं, मगर न्याय मिला मिल मालिकों को. किसान तो प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भारत, चीनी के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है।
भले सरकार द्वारा उठाये गये कदम आर्थिक सुधारों की दिशा में सकता है, मगर इसे दूरगामी इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे गन्ना किसानों को सीधा लाभ होता नहीं दिख रहा है। इसमें दो राय नहीं कि गन्ना और चीनी क्षेत्र में व्यापक सुधार की जरूरत है, मगर इसमें संतुलन तो होना चाहिए। फिलहाल तो हर फसल के समय गन्ना किसानों को वाजिब दाम के लिए आंदोलन करना पड़ता है। यह विडंबना ही है कि आज तक गन्ने के दाम को लेकर संतुलित नीति नहीं बनाई जा सकी है।
उचित व लाभकारी मूल्य प्रणाली (एफआरपी) या राज्य परामर्शित मूल्य (सैप) जैसी व्यवस्था में घोर असंतुलन है, जिसका खमियाजा किसान भुगतना है। इसके अलावा किसानों को चीनी मिलों द्वारा भुगतान की समस्या अलग है। रंगराजन समिति ने तो यह भी सिफारिश की है कि चीनी मिलें 15 किलोमीटर के दायरे से बाहर भी गन्ना खरीद सकेंगी।
छह महीने के भीतर तीसरी बार गन्ना मिलों पर सरकारों की उदारता की बरसात हुई है। दशकों से किसानों का हजारों करोड़ रुपया दबाए बैठी इन मिलों को सरकार से सख्ती के बजाय तमाम तरह के उपहार मिल रहे हैं। अज़ब है कि उच्च अदालतें सरकार से मिलों पर सख्ती कर किसानों का बकाया दिलाने को कहती हैं लेकिन सरकारें मिल मालिकों का मनुहार कर उन्हें अरबों रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज यानी उधार तथा व्यापार सम्बन्धी वे तमाम रियायतें दे रही हैं जिनसे उनके मुनाफे में कई गुना ज्यादा वृद्धि हो सके। इन दुरभिसन्धियों के क्रम में ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है जहाॅं वर्षों पुराने अरबों रुपये के बकाए को दरकिनार करते हुए चीनी मिलों ने सिर्फ वर्ष 2013-14 के बकाए का भुगतान किया है और सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है कि उसके प्रयासों से 10 साल में पहली बार एक वित्तीय वर्ष के बकाए का पूर्ण भुगतान हो सका है। सरकार का दावा है कि इससे पूर्व वर्ष 2005 की सपा की सरकार में ही ऐसा हुआ था।
वर्ष 2013 में देश की चीनी मिलों पर किसानों का रु. 3400 करोड़ का बकाया था लेकिन शुगर लाॅबी के प्रति सम्प्रग सरकार की उदारता देखिए कि उसने चीनी मिलों के लिए रु. 7500 करोड़ का ब्याजमुक्त ऋण स्वीकार किया। एकदम उसी राह पर केन्द्र की मौजूदा भाजपा सरकार भी चल रही है और उसने भी बीते 10 जून को चीनी मिलों के लिए रु. 6000 करोड़ का कर्ज मन्जूर कर लिया है। इसे कर्ज के बजाय उधार कहना ज्यादा उपयुक्त इसलिए होगा कि सरकार इस विशालकाय धनराशि पर मिल मालिकों से ब्याज नहीं लेगी और शर्त है कि मिल मालिक इसे एक साल बाद वापस करेंगें (?)। इस एक साल में सरकार को इस धनराशि पर रु. 600 करोड़ का ब्याज खुद भरना पड़ेगा! बावजूद इसके, इंडियन शुगर मिल्स एसोसियेशन इससे खुश नहीं है। उसका कहना है कि उसका समग्र कर्ज रु. 36,000 करोड़ से अधिक का है और सरकार के 6000 करोड़ की मदद से उसका क्या भला होगा। ऐसे में सम्भावना इस बात की है कि किसानों के बकाया भुगतान के नाम पर दी जा रही यह विशालकाय रकम शायद ही उन तक पूरी की पूरी पहुॅंच सके।
गन्ना किसानांे को भूखा रखकर उत्तर प्रदेश सरकार ने चीनी मिल मालिकों के आगे समर्पण करते हुए उन्हें तमाम तरह की छूट और सहूलियतें देना पिछले साल दिसम्बर में ही स्वीकार कर लिया था। इसमें बेचे गए प्रति कुन्तल गन्ने पर रु. 20 का भुगतान रोक लेना, गन्ने के रस से निकलने वाले शीरे की बिक्री पर सरकारी नियन्त्रण ढ़ीला करना, गन्ने की खोई यानी बैगास से बिजली उत्पादन करने वाली चीनी मिलों से बिजली खरीदना, खरीद शुल्क व प्रवेश शुल्क माफ करना तथा किसानों की गन्ना सहकारी समितियों, जो कि किसानों से गन्ना खरीदकर मिलों को आपूर्ति करती हैं, को मिलों से मिलने वाला निर्धारित कमीशन माफ करना आदि अनेक आर्थिक सहूलियतें शामिल थीं। केन्द्र से मिलने वाली ब्याजमुक्त आर्थिक सहायता इस सबके अतिरिक्त है। एक तरफ चीनी मिल मालिकों को इतनी सारी सहूलियतें और दूसरी तरफ, कोई बता सकता है कि किसानों को भी क्या कोई सहूलियत दी गई है? बावजूद इसके देश में किसानों का 21000 करोड़ तो उत्त्र प्रदेश में रु. 9000 करोड़ चीनी मिलें दबाए बैठी हैं। यहाॅं यह बताना जरुरी है कि किसानों की गन्ना सहकारी समितियों का गन्ना आपूर्ति की व्यवस्था करने के एवज में मिलों से जो कमीशन मिलता है उससे किसानों की तमाम तरह से मदद तथा गन्ना उत्पादक गाॅवों में पक्के सम्पर्क मार्ग आदि का निर्माण कराया जाता है। अधिकृत कमीशन न मिलने से समितियाॅं किसानों के लिए उक्त कार्य नहीं कर पाऐंगीं।

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