Tuesday, 30 June 2015

किसान बेहाल, तो मिठास कहां से होगी गन्ना में





किसान चैतरफा बदहाल है। प्रकृति की मार से भी, और सरकार से भी। बेमौसम की बारिश ने जहाॅं उसकी गेंहॅू आदि फसलों को चैपट कर दिया वहीं हुदहुद नामक तूफान और तेज बारिश ने गन्ने की फसल को क्षति पहुॅंचायी थी। अब रही-सही कसर सरकार पूरी कर रही है। किसानों की इस उपेक्षा का सबसे बड़ा कारण है उनका असंगठित होना। उत्तर प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार ने विकट मॅंहगाई और कृषि पर हो रहे प्राकृतिक प्रकोपों के बावजूद बीते तीन वर्षों से गन्ने का दाम बढ़ाना बन्द कर दिया है। किसान वही पुराना दाम पा रहे हैं जो बसपा की सरकार ने तय किया था। देश में पैदा होने वाली लगभग सभी फसलों के दाम बढ़ रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों को अखिलेश यादव की सरकार ने खूॅंटे से बाॅंध दिया है। इस कोढ़ में खाज वाली हालत यह है कि यह दाम भी उसे समय से मिल नहीं रहा है। इस वर्ष का गन्ना सीजन बीत गया, विवाह का मौसम बीत गया तथा स्कूल में बच्चों के एडमीशन का समय बीत गया और अभी तक गन्ना किसानों को उनका पैसा नहीं मिल सका है। चालू सत्र में गन्ना किसानों का रु. 9000 करोड़ प्रदेश की चीनी मिलें दबाए बैठी हैं। प्रदेश में कुल 123 चीनी मिलें कार्य करती हैं जिसमें से 52 का भुगतान बहुत खराब है और इनमें से सिर्फ 43 के खिलाफ एफ.आई.आर. पुलिस में दर्ज की गई है क्योंकि उच्च न्यायालय का आदेश था कि भुगतान न कर रही चीनी मिलों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही यथा, कुर्की, नीलामी आदि कर किसानों का पैसा दिलाया जाय लेकिन एफ.आई.आर. दर्ज होने के बावजूद इन मिलों के रवैये पर कोई असर नहीं पड़ा है क्योंकि सरकार इन पर मेहरबान है। प्रतिबन्ध है कि किसान द्वारा गन्ना आपूर्ति करने के 14 दिन के अन्दर अगर मिल पैसे का भुगतान नहीं करती तो उसे बैंकों द्वारा निर्धारित ब्याज का भुगतान उस धनराशि पर किसानों को करना होगा। लेकिन कोई भी मिल ऐसा नहीं कर रही है।
बहरहाल, बकाया भुगतान के लिए संघर्ष कर रहे गन्ना किसानों को मोदी सरकार से खास राहत मिलती नहीं दिख रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नई सरकार द्वारा किए गए समर्थन मूल्य की घोषणा है। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणापत्र में उल्लेख था कि सरकार बनते ही लागत से 50 फीसद अधिक समर्थन मूल्य की घोषणा की जाएगी मगर सत्ता में आने के बाद पूर्व सरकार द्वारा तय फॉर्मूले के आधार पर ही समर्थन मूल्य की घोषणा हुई। यही नहीं, सरकार ने चीनी मिलों को 4400 करोड़ के ब्याज मुक्त कर्ज के साथ निर्यात पर दी जा रही सब्सिडी भी सितम्बर माह तक बढ़ा दी। सरकार ने पेट्रोल में एथनाल का मिशण्रपांच फीसद से बढ़ाकर दस कर दिया। इसके बावजूद चीनी का थोक व खुदरा मूल्य लगातार बढ़ता गया है। मगर किसी ने नहीं सोचा कि उसका लाभ किसानों को मिला है या नहीं। वास्तव में भुगतान संकट की मुश्किलें ज्यों की त्यों हैं।
 यूपीए सरकार ने भी चीनी मिल मालिकों को 6,600 हजार का ब्याज मुक्त कर्ज और निर्यात सब्सिडी का पैकेज दिया था। साफ है कि इतनी रियायतों के बाद भी चीनी मिलें आगे भी रियायत की उम्मीद कर रही हैं। अहम सवाल यह है कि चीनी मिलों को ब्याज मुक्त कर्ज के बाद भी गन्ना किसानों को गन्ना मूल्य का भुगतान क्यों नहीं हो पा रहा है ? पूरे देश में गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 11 हजार करोड़ रुपए का गन्ना मूल्य अब भी बकाया है। जाहिर है दिए गए कर्ज की समीक्षा करने और उसका गन्ना मूल्य में भुगतान होना सुनिश्चित किए जाने की परवाह किए बिना सरकार उन्हें कर्ज पर कर्ज देती जा रही हैं लेकिन गन्ना किसानों को तो कोई फायदा नहीं हो रहा है। यही कारण किसानों को गन्ने की अगली फसल से लेकर अन्य फसलों की बुआई, सिंचाई के लिए गहरे आर्थिक संकट से जूझना पड़ता है।
दूसरी तरफ, गौर करने वाली बात यह है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने 2015-16 के पेराई सत्र में गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) सिर्फ  10 रु पये बढ़ाने की सिफारिश है। अक्टूबर से शुरू होने वाले पेराई सत्र के लिए सरकार 220 रुपये प्रति क्विंटल एफआरपी तय कर चुकी है, जो अगले साल 230 रु पये हो सकती है। इस बारे में अंतिम फैसला कैबिनेट की बैठक में होगा। केंद्र की ओर से तय गन्ने के उचित व लाभकारी मूल्य के ऊपर राज्य सरकार व चीनी मिलें अपनी तरफ से भाव तय कर सकती हैं। केंद्र की ओर से तय भाव यूपी में गन्ने के मौजूदा 280 रु पये के भाव से 60 रुपये कम है। ऐसे में, जब चीनी मिलें उत्पादन लागत के आधार पर मूल्य तय करती हैं तो किसानों का समर्थन मूल्य लागत पर तय क्यों नहीं होता? किसानों के अनुसार, प्रति क्विंटल गन्ने की फसल पर 240 चालीस रुपये लागत आ जाती है। जबकि गन्ने का सरकारी रेट यूपी में 280 रु पये प्रति क्विंटल है। किसानों की मांग है कि गन्ने का मूल्य कम से कम 350 रुपये प्रति क्विंटल किया जाए क्योंकि डीजल, कीटनाशक, बीज, खाद इत्यादि के दामों में भारी इजाफा हो रहा है। यह विडम्बना ही है कि बकाया पैसों के भुगतान व उचित मूल्य के लिए देश के करोड़ों किसान आंदोलन कर रहे हैं, मगर न्याय मिला मिल मालिकों को. किसान तो प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भारत, चीनी के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है।
भले सरकार द्वारा उठाये गये कदम आर्थिक सुधारों की दिशा में सकता है, मगर इसे दूरगामी इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे गन्ना किसानों को सीधा लाभ होता नहीं दिख रहा है। इसमें दो राय नहीं कि गन्ना और चीनी क्षेत्र में व्यापक सुधार की जरूरत है, मगर इसमें संतुलन तो होना चाहिए। फिलहाल तो हर फसल के समय गन्ना किसानों को वाजिब दाम के लिए आंदोलन करना पड़ता है। यह विडंबना ही है कि आज तक गन्ने के दाम को लेकर संतुलित नीति नहीं बनाई जा सकी है।
उचित व लाभकारी मूल्य प्रणाली (एफआरपी) या राज्य परामर्शित मूल्य (सैप) जैसी व्यवस्था में घोर असंतुलन है, जिसका खमियाजा किसान भुगतना है। इसके अलावा किसानों को चीनी मिलों द्वारा भुगतान की समस्या अलग है। रंगराजन समिति ने तो यह भी सिफारिश की है कि चीनी मिलें 15 किलोमीटर के दायरे से बाहर भी गन्ना खरीद सकेंगी।
छह महीने के भीतर तीसरी बार गन्ना मिलों पर सरकारों की उदारता की बरसात हुई है। दशकों से किसानों का हजारों करोड़ रुपया दबाए बैठी इन मिलों को सरकार से सख्ती के बजाय तमाम तरह के उपहार मिल रहे हैं। अज़ब है कि उच्च अदालतें सरकार से मिलों पर सख्ती कर किसानों का बकाया दिलाने को कहती हैं लेकिन सरकारें मिल मालिकों का मनुहार कर उन्हें अरबों रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज यानी उधार तथा व्यापार सम्बन्धी वे तमाम रियायतें दे रही हैं जिनसे उनके मुनाफे में कई गुना ज्यादा वृद्धि हो सके। इन दुरभिसन्धियों के क्रम में ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है जहाॅं वर्षों पुराने अरबों रुपये के बकाए को दरकिनार करते हुए चीनी मिलों ने सिर्फ वर्ष 2013-14 के बकाए का भुगतान किया है और सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है कि उसके प्रयासों से 10 साल में पहली बार एक वित्तीय वर्ष के बकाए का पूर्ण भुगतान हो सका है। सरकार का दावा है कि इससे पूर्व वर्ष 2005 की सपा की सरकार में ही ऐसा हुआ था।
वर्ष 2013 में देश की चीनी मिलों पर किसानों का रु. 3400 करोड़ का बकाया था लेकिन शुगर लाॅबी के प्रति सम्प्रग सरकार की उदारता देखिए कि उसने चीनी मिलों के लिए रु. 7500 करोड़ का ब्याजमुक्त ऋण स्वीकार किया। एकदम उसी राह पर केन्द्र की मौजूदा भाजपा सरकार भी चल रही है और उसने भी बीते 10 जून को चीनी मिलों के लिए रु. 6000 करोड़ का कर्ज मन्जूर कर लिया है। इसे कर्ज के बजाय उधार कहना ज्यादा उपयुक्त इसलिए होगा कि सरकार इस विशालकाय धनराशि पर मिल मालिकों से ब्याज नहीं लेगी और शर्त है कि मिल मालिक इसे एक साल बाद वापस करेंगें (?)। इस एक साल में सरकार को इस धनराशि पर रु. 600 करोड़ का ब्याज खुद भरना पड़ेगा! बावजूद इसके, इंडियन शुगर मिल्स एसोसियेशन इससे खुश नहीं है। उसका कहना है कि उसका समग्र कर्ज रु. 36,000 करोड़ से अधिक का है और सरकार के 6000 करोड़ की मदद से उसका क्या भला होगा। ऐसे में सम्भावना इस बात की है कि किसानों के बकाया भुगतान के नाम पर दी जा रही यह विशालकाय रकम शायद ही उन तक पूरी की पूरी पहुॅंच सके।
गन्ना किसानांे को भूखा रखकर उत्तर प्रदेश सरकार ने चीनी मिल मालिकों के आगे समर्पण करते हुए उन्हें तमाम तरह की छूट और सहूलियतें देना पिछले साल दिसम्बर में ही स्वीकार कर लिया था। इसमें बेचे गए प्रति कुन्तल गन्ने पर रु. 20 का भुगतान रोक लेना, गन्ने के रस से निकलने वाले शीरे की बिक्री पर सरकारी नियन्त्रण ढ़ीला करना, गन्ने की खोई यानी बैगास से बिजली उत्पादन करने वाली चीनी मिलों से बिजली खरीदना, खरीद शुल्क व प्रवेश शुल्क माफ करना तथा किसानों की गन्ना सहकारी समितियों, जो कि किसानों से गन्ना खरीदकर मिलों को आपूर्ति करती हैं, को मिलों से मिलने वाला निर्धारित कमीशन माफ करना आदि अनेक आर्थिक सहूलियतें शामिल थीं। केन्द्र से मिलने वाली ब्याजमुक्त आर्थिक सहायता इस सबके अतिरिक्त है। एक तरफ चीनी मिल मालिकों को इतनी सारी सहूलियतें और दूसरी तरफ, कोई बता सकता है कि किसानों को भी क्या कोई सहूलियत दी गई है? बावजूद इसके देश में किसानों का 21000 करोड़ तो उत्त्र प्रदेश में रु. 9000 करोड़ चीनी मिलें दबाए बैठी हैं। यहाॅं यह बताना जरुरी है कि किसानों की गन्ना सहकारी समितियों का गन्ना आपूर्ति की व्यवस्था करने के एवज में मिलों से जो कमीशन मिलता है उससे किसानों की तमाम तरह से मदद तथा गन्ना उत्पादक गाॅवों में पक्के सम्पर्क मार्ग आदि का निर्माण कराया जाता है। अधिकृत कमीशन न मिलने से समितियाॅं किसानों के लिए उक्त कार्य नहीं कर पाऐंगीं।

Saturday, 27 June 2015

प्रत्येक भारतीय को आन्दोलित करते हैं बंकिमचन्द्र




रबीन्द्रनाथ ने एक स्थान पर कहा है- राममोहन ने बंग साहित्य को निमज्जन दशा से उन्नत किया, बंकिम ने उसके ऊपर प्रतिभा प्रवाहित करके स्तरबद्ध मूर्ति का अपसरित कर दी। बंकिम के कारण ही आज बंगभाषा मात्र प्रौढ़ ही नहीं, उर्वरा और शस्यश्यामला भी हो सकी है।राष्‍ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' के रचयिता बंकिमचन्द्र जी का नाम इतिहास में युगों-युगों तक अमर रहेगा क्योंकि यह गीत उनकी एक ऐसी कृति है जो आज भी प्रत्येक भारतीय के ह्रदय को आन्दोलित करने की क्षमता रखती है।
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय (जन्म: 26 जून, 1838; मृत्यु: 8 अप्रैल, 1894) 19वीं शताब्दी के बंगाल के प्रकाण्ड विद्वान तथा महान कवि और उपन्यासकार थे। 1874 में प्रसिद्ध देश भक्ति गीत वन्देमातरम् की रचना की जिसे बाद में आनन्द मठ नामक उपन्यास में शामिल किया गया। प्रसंगतः ध्यातव्य है कि वन्देमातरम् गीत को सबसे पहले 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था।बंगला भाषा के प्रसिद्ध लेखक बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून, 1838 ई. को बंगाल के 24 परगना ज़िले के कांठल पाड़ा नामक गाँव में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय बंगला के शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनकी लेखनी से बंगला साहित्य तो समृद्ध हुआ ही है, हिन्दी भी अपकृत हुई है। वे ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त थे। वे भारत के एलेक्जेंडर ड्यूमा माने जाते हैं। इन्होने 1865 में अपना पहला उपन्यास 'दुर्गेश नन्दिनी' लिखा।
बंकिमचंद्र का जन्म उस काल में हुआ जब बंगला साहित्य का न कोई आदर्श था और न ही रूप या सीमा का कोई विचार। 'वन्दे मातरम्' राष्ट्रगीत के रचयिता होने के नाते वे बड़े सम्मान के साथ सदा याद किए जायेंगे। उनकी शिक्षा बंगला के साथ-साथ अंग्रेज़ी व संस्कृत में भी हुई थी। आजीविका के लिए उन्होंने सरकारी सेवा की, परन्तु राष्ट्रीयता और स्वभाषा प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। युवावस्था में उन्होंने अपने एक मित्र का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ पत्र बिना पढ़े ही इस टिप्पणी के साथ लौटा दिया था कि, 'अंग्रेज़ी न तो तुम्हारी मातृभाषा है और न ही मेरी'। सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे कभी अंग्रेज़ों से दबे नहीं। बंकिम ने साहित्य के क्षेत्र में कुछ कविताएँ लिखकर प्रवेश किया। उस समय बंगला में गद्य या उपन्यास कहानी की रचनाएँ कम लिखी जाती थीं। बंकिम ने इस दिशा में पथ-प्रदर्शक का काम किया। 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने 'दुर्गेश नंदिनी' नाम का उपन्यास लिखा। इस ऐतिहासिक उपन्यास से ही साहित्य में उनकी धाक जम गई। फिर उन्होंने 'बंग दर्शन' नामक साहित्यिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। रबीन्द्रनाथ ठाकुर 'बंग दर्शन' में लिखकर ही साहित्य के क्षेत्र में आए। वे बंकिम को अपना गुरु मानते थे। उनका कहना था कि, 'बंकिम बंगला लेखकों के गुरु और बंगला पाठकों के मित्र हैं'।
बंकिम के दूसरे उपन्यास 'कपाल कुण्डली', 'मृणालिनी', 'विषवृक्ष', 'कृष्णकांत का वसीयत नामा', 'रजनी', 'चन्द्रशेखर' आदि प्रकाशित हुए। राष्ट्रीय दृष्टि से 'आनंदमठ' उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसी में सर्वप्रथम 'वन्दे मातरम्' गीत प्रकाशित हुआ था। ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बहुत योगदान दिया। लोगों ने यह समझ लिया कि विदेशी शासन से छुटकारा पाने की भावना अंग्रेज़ी भाषा या यूरोप का इतिहास पढ़ने से ही जागी। इसका प्रमुख कारण था अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों का अपमान और उन पर तरह-तरह के अत्याचार। बंकिम के दिए ‘वन्दे मातरम्’ मंत्र ने देश के सम्पूर्ण स्वतंत्रता संग्राम को नई चेतना से भर दिया।
'देवी चौधरानी' उनका एक अन्य उपन्यास और 'कमलाकान्त का रोजनामचा' गम्भीर निबन्धों का संग्रह है। एक ओर विदेशी सरकार की सेवा और दूसरी ओर देश के नवजागरण के लिए उच्चकोटि के साहित्य की रचना करना यह काम बंकिम के लिए ही सम्भव था।

Monday, 22 June 2015

Is social sites alarming for Teenagers ?


Facebook is the most popular and frequently used social media platform among teens; half of teens use Instagram, and nearly as many use Snapchat. Facebook remains the most used social media site among American teens ages 13 to 17 with 71% of all teens using the site, even as half of teens use Instagram and four-in-ten use Snapchat.24% of teens go online “almost constantly,” facilitated by the widespread availability of smartphones.
Aided by the convenience and constant access provided by mobile devices, especially smartphones, 92% of teens report going online daily — including 24% who say they go online “almost constantly,” according to a new study from Pew Research Center. More than half (56%) of teens — defined in this report as those ages 13 to 17 — go online several times a day, and 12% report once-a-day use. Just 6% of teens report going online weekly, and 2% go online less often.
Much of this frenzy of access is facilitated by mobile devices. Nearly three-quarters of teens have or have access1 to a smartphone and 30% have a basic phone, while just 12% of teens 13 to 17 say they have no cell phone of any type. African-American teens are the most likely of any group of teens to have a smartphone, with 85% having access to one, compared with 71% of both white and Hispanic teens. These phones and other mobile devices have become a primary driver of teen internet use: Fully 91% of teens go online from mobile devices at least occasionally. Among these “mobile teens,” 94% go online daily or more often. By comparison, teens who don’t access the internet via mobile devices tend to go online less frequently. Some 68% go online at least daily.African-American and Hispanic youth report more frequent internet use than white teens. Among African-American teens, 34% report going online “almost constantly” as do 32% of Hispanic teens, while 19% of white teens go online that often.
Teens are diversifying their social network site use. A majority of teens — 71% — report using more than one social network site out of the seven platform options they were asked about. Among the 22% of teens who only use one site, 66% use Facebook, 13% use Google+, 13% use Instagram and 3% use Snapchat.
This study uses a somewhat different method than Pew Research Center’s previous reports on teens. While both are probability-based, nationally representative samples of American teens, the current survey was administered online, while our previous work involved surveying teens by phone. A great deal of previous research has found that the mode of interview — telephone vs. online self-administration — can affect the results. The magnitude and direction of these effects are difficult to predict, though for most kinds of questions, the fundamental conclusions one would draw from the data will be similar regardless of mode. Accordingly, we will not compare specific percentages from previous research with results from the current survey. But we believe that the broad contours and patterns evident in this web-based survey are comparable to those seen in previous telephone surveys.
Social networking websites are causing alarming changes in the brains of young users, an eminent scientist has warned. Sites such as Facebook, Twitter and Bebo are said to shorten attention spans, encourage instant gratification and make young people more self-centred
More than 150 million use Facebook to keep in touch with friends, share photographs and videos and post regular updates of their movements and thoughts. A further six million have signed up to Twitter, the 'micro-blogging' service that lets users circulate text messages about themselves. But while the sites are popular - and extremely profitable - a growing number of psychologists and neuroscientists believe they may be doing more harm than good. Baroness Greenfield, an Oxford University neuroscientist and director of the Royal Institution, believes repeated exposure could effectively 'rewire' the brain. Experts are concerned children's online social interactions can 'rewire' the brain Computer games and fast-paced TV shows were also a factor, she said.'We know how small babies need constant reassurance that they exist.' My fear is that these technologies are infantilising the brain into the state of small children who are attracted by buzzing noises and bright lights, who have a small attention span and who live for the moment.'
I am worried about the impact the constant use of social media is having on the lives of millions of teenagers. I am worried about the impact of excessive use on their well being, their equilibrium and yes their mental health. There is no particular new body of evidence that leads me to feel this way. Rather, just a growing concern that for all its undoubted uses and benefits, the constant use of social media and all the pressures that go with it could be damaging.
Is there a link between excessive use of social networks and depression, loneliness and isolation? Some scientists and researchers say there is, others insist with equal vehemence that there isn't. The truth is we don't really know the truth. And that leaves me with a nagging sense that tens of millions of children the world over are being used as unwitting guinea pigs in an enormous and unprecedented social experiment the scale of which I'm not sure we have ever seen before.
This study analyzes a dataset of 701 U.S. teenagers (ages 12–18) that merges an online survey of social network site (SNS) preferences with administrative records from their public school districts. Using a multinomial logistic model, I examine whether off–line divides across gender, ethnicity, socioeconomic status, self–esteem, and social capital predict teenagers’ membership in the popular SNSs, Facebook and Myspace. The results show that the characteristics of teens that use Facebook, Myspace, or both SNSs show distinct differences, which illuminate questions of digital divide and complex adolescent social practices as they relate to online participation. The study offers two main contributions by providing an analysis of: (a) teenage SNS users, a population that is less examined in research on online communities; and, (b) the relationship between their off–line characteristics and online social networks.

Sunday, 21 June 2015

विश्व शांति के लिए महात्मा गांधी जरूरी





महात्मा गाँधी के शांति के संदेश को समझने की आवश्यकता है. यह संदेश क़ज़ाख़स्तान के राष्ट्रपति नूरसुल्तान नज़रबायेव ने 40 देशों के 80 राजनीतिज्ञों और धर्मगुरुओं को दिया. हर तीन साल में होने वाली इस विश्व धर्म कांग्रेस का यह पाँचवा सत्र था. इस बार संयुक्त राष्ट्र महासभा के महासचिव बान की मून, जॉर्डन के शाह अब्दुल्लाह और फिनलैंड के राष्ट्रपति सोली नीनेत्सो भी शरीक हुए. नूरसुल्तान ने कहा कि इस्लाम के मूल सिद्धांत और मात्मा गाँधी की शिक्षाओं को समझने का वक्त है. उन्होंने कहाकि हमारे इन प्रयासों से आतंकवाद और कट्टरता पर रोक लगेगी। दुनिया को आज नफ़रत और अलगाव को त्यागने की आवश्यकता है। उन्होंने कहाकि कज़ाख़स्तान के इस पाँचवे सत्र को इतिहास में याद किया जाएगा कि शांति की स्थापना के लिए कज़ाख़स्तान ने प्रयास किया। नूरसुल्तान ने देश के शांति प्रयासों का हवाला देते हुए कहाकि हमने परमाणु हथियारों से निजात पाने का वचन लिया है। शांति के नाम पर कज़ाख़स्तान की शानदार नई राजधानी अस्ताना में तैयार की गई पैलेस ऑव इंडडिपेंडेंस एंड अकॉर्ड में राष्ट्रपति ने कहाकि 2003 में इस इमारत को इस बात के लिए बनाया कि शांति और भाईचारा का कज़ाख़स्तान का संदेश दुनिया के हर हिस्से में जाए। सभी धर्मगुरुओं, नेताओं और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का स्वागत करते हुए नूरसुल्तान ने कहाकि नए विश्व के निर्माण में हमारी ज़िम्मेदार बनती है कि हम नई दुनिया के लिए मिलकर काम करें। महात्मा गाँधी ने कहाकि धर्म शांति के लिए है। नूरसुल्तान ने उपनिषद् का हवाला देते हुए कहाकि यदि हम अधर्म को अपनाएंगे तो विश्व को क्षति होगी। उन्होंने  कज़ाख़स्तान के धर्म निरपेक्ष ढांचे के बारे में कहाकि आप देखेंगे कि लोग बिना किसी बाधा के अपने धर्म की पालना करते हैं। उन्होंने दोहराया कि कज़ाख़स्तान में हम बच्चों को धर्मनिरपेक्षता की तालीम देते हैं एवं धर्म और शांति की स्थापना इस कांग्रेस की आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने सत्र में कहाकि मैं नूरसुल्तान की चमत्कारी लीडरशिप का सम्मान करता हूँ। उन्होंने कहाकि आपने सिर्फ़ सिद्धांत ही नहीं बल्कि वाक़ई शांति के लिए काम किया है। मैं कट्टरता के विरुद्ध आपके इन प्रयासों की प्रशंसा करता हूँ. हम एक ऐसे विश्व में रहते हैं जिसमें बहुत चुनौतियां हैं और विश्व तेज़ी से बदलाव की प्रक्रिया में है। नागरिक टकराव, ड्रग, स्वास्थ्य, कट्टरता और आतंकवाद की चुनौतियों से विश्व गुज़र रहा हैं और इस संकट में धर्मगुरू बेहतर काम कर सकते हैंं। मून ने कहाकि वह संवाद पर ज़ोर दें, धर्म गुरू इस बात को बताएं कि धर्म के नाम पर हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। हमें संयुक्त राष्ट्र के प्लैटफार्म को इस्तमाल कर दुनिया में शांति के लिए काम करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहाकि सत्रहवें सत्र में हम इस पर विस्तार से चर्चा कर रहे हैं। आतंकवादी संगठन अलशबाब, अलक़ायदा, बोको, आईएस धर्म की पालना नहीं कर रहे क्योंकि धर्म बच्चों और लोगों की हत्या की इजाज़त नहीं देता। महिलाओं और बच्चियों की स्थिति पर दुख जताते हुए बान की ने कहाकि महिलाएँ नियोजित अपराध की शिकार हो रही हैंं। उनका शोषण और बलात्कार बहुत घिनौने अपराध हैंं। उन्होंने दोहराया कि युवाओं की भागीदारी से हम उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते हैं। मून ने दोहराया कि हमें अल्पसंख्यकों के हितों का ख़याल रखना है और इसका मतलब है अल्पसंख्यकों को मान्यता देना।
जॉर्डन के बादशाह अब्दुल्लाह द्वितीय ने कहाकि दुनिया की आबादी का आधे मुसलमाना और ईसाई हैं लेकिन आज कुछ लोगं हमें बाँटने की कोशिश कर रहे हैं। खारिजीन धर्म के नाम पर समाज को बांटने में लगे हैं। इस्लाम किसी पर भी अत्याचार की इजाज़त नहीं देता। अपने लोगो की रक्षा के लिए हमें यह लड़ाई लड़नी होगी। इस मौक़े पर फिनलैंड के राष्ट्रपति सौली नीनेत्सो ने कहाकि हमें तेज़ी से बदलते विश्व के लिए कज़ाखस्तान जैसे प्रयासों की आवश्यकता है। धर्म का रोल शांति और समृद्धि की स्थापना है लेकिन कुछ लोग इसका प्रयोग विनाश के लिए करते हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए।
भारत के प्रतिनिधि इंस्टीट्यूट ऑव हिन्दुइज्म एंड इंटर सोसाइटी डायलॉग के प्रमुख समीर सुमैया ने कहाकि महात्मा गाँधी ने मानवता के विरुद्ध सात गंभीर अपराधों का ज़िक्र किया है। यह. बिना काम किए धन, बिना संवेदना के आराम, बिना चरित्र का ज्ञान, बिना मूल्यों के व्यापार, बिना मानवता का विज्ञान, बिना त्याग के धर्म एवं बिना उसूल की राजनीति हैं। देखा जाए तो आज विश्व के सामने यही चुनौतियाँ हैं। उन्होंने कहाकि स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के नैतिक होने पर इसीलिए ही ज़ोर दिया है। उन्होंने पुरषार्थ और धर्म को याद करते हुए कहाकि यदि चार पुरुषार्थों का सार समझा जाए तो जीवन में संकट नहीं होगा। उन्होंने कहाकि आज दुनिया को लालच और भूख से निजात चाहिए।  उन्होंने महात्मा गांधी का अनमोल वाक्य दोहराया कि शांति का मार्ग नहीं होता बल्कि शांति ही मार्ग है।
वर्ल्ड मुस्लिम लीग के उपमहासचिव अब्दुर्रहमान अब्दुल्लाह अलज़ैद ने कहाकि अस्ताना में प्रस्ताव पारित करने से हमें हिंसा से निजात में मदद मिलेगी। उन्होंने कहाकि अतिवाद नीतियों में दोहरेपन भी हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है जैसे रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बर्ताव किया जा रहा है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि रोहिंग्या और फ़िलस्तीन के मुसलमानों की समस्या को समझना होगा। ऑर्गेनाइज़ेशन ऑव इस्लामिक कॉर्पोरेशन के महासचिव इयान बिन अमीन मदनी ने कहाकि हमारा संगठन 57 देशों का संगठन है। उन्होंने कहाकि आर्थिक स्थितियों, गरीबी और लोगों को हाशिये पर धकेलने से पिछले 10 सालों में नस्ल और धर्म की राजनीति बहुत तेज़ हुई है और इससे हिंसा बढ़ी है। मदनी ने कहाकि लाखों लोग नाज़ीवाद का शिकार हुए हैं और हथियारों की बेतहाशा होड़ मची है। उन्होंने कहाकि धर्म के नाम पर हिंसा जायज नहीं है पर हम इस्लामोफोबी से ग्रस्त लोगों से भी बात करना चाहते हैं। सिर्फ़ सैनिक उपायों से हिंसा पर काबू नहीं पाया जा सकता। उन्होंने मीडिया पर भी दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगाया।
सम्मेलन के अंत में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें यह तय किया गया कि राजनीतिक चर्चा और संवाद पर ज़ोर देने, अपने नागरिकों और मानवीय जानों की रक्षा करने, शांति के लिए अन्तरराष्ट्रीय समझौतों की पालना करने, सभी धर्मों के सम्मान पर ज़ोर देंने,  धर्मोंगुरुओं के आपसी सहयोग पर ज़ोर देंने, कट्टरता और आतंकवाद से लड़ने लेकिन यह ध्यान रखने पर ज़ोर दिया गया  कि धर्म के आधार पर नफ़रत नहीं फैलने देने, मीडिया और साइबर मीडिया से अपनी नैतिक ज़िम्मेदारियों का निर्वाहकरने, गरीबी, बेरोज़गारी, बीमारी और हिंसा से लड़ने की कोशिश करने का प्रस्ताव पारित किया गया। अंत में राष्ट्रपति नूरसुल्तान ने घोषणा की कि अगली सभा 2018 जून में होगी। सम्मेलन में 40 देशों के क़रीब 100 प्रतिनिधि शामिल हुए और सेमिनार के कवरेज के लिए दुनिया भर के करीब 100 पत्रकार जमा हुए.

Friday, 19 June 2015

सही राह दिखाते हैं पिता


एक शोध के मुताबिक आज भी दुनिया भर में बच्चे सर्वप्रथम आदर्श के रूप में अपने पिता को ही देखते हैं। मां उनकी पहली पाठशाला है तो पिता पहला आदर्श। वे अपने पिता से ही सीखते हैं और उनके जैसा ही बनना चाहते हैं। इसलिए जीवन में जीतना मां महत्व होता है, उतना ही पिता का भी है। हम सभी को बचपन में अनुशासनप्रियता व सख्ती के चलते पिता हमें क्रूर नजर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है और हम जीवन की कठिन डगर पर चलने की तैयारी करने लगते हैं, हमें अनुभव होता है कि पिता की वो डांट और सख्ती हमारे भले के लिए ही थी। उनकी हर एक सीख जब हमें अपनी मंजिल की ओर बढ़ने में मदद करती है, तब हमें मालूम पड़ता है कि पिता हमारे लिए कितने खास थे और हैं।

नींव की ईंट की तरह
भार साधे पूरे घर का अपने ऊपर
अडिग खड़े रहे पिता
आए अपार भूकंप
चक्रवात अनगिन
गगन से गाज की तरह गिरती रहीं विपदाओं
में झुका नहीं पिता का ललाट

भारतीय संस्कृति में माता-पिता को देवता कहा गया है: मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। भगवान गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गये। श्रवण कुमार ने माता-पिता की सेवा में अपने कष्टों की जरा भी परवाह न की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिये। देवव्रत भीष्म ने पिता की खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और विश्वप्रसिद्ध हो गये। मैंने माता-पिता- गुरु की सेवा की तो मुझे कितना सारा लाभ हुआ है, मैं वर्णन नहीं कर सकता।
एक पिता अपने छोटे-से पुत्र को गोद में लिये बैठा था। एक कौआ सामने छज्जे पर बैठ गया। पुत्र ने पूछा: ‘‘पापा! यह क्या है?’’ पिता ने बताया: ‘‘कौआ है।’’
पुत्र ने फिर पूछा: ‘‘यह क्या है?’’
पिता ने कहा: ‘‘कौआ है।’’
पुत्र बार-बार पूछता: ‘‘पापा! यह क्या है?’’
पिता स्नेह से बार-बार कहता: ‘‘बेटा! कौआ है कौआ!’’
कई वर्षों के बाद पिता बूढ़ा हो गया। एक दिन पिता चटाई पर बैठा था। घर में कोई उसके पुत्र से मिलने आया। पिता ने पूछा: ‘‘कौन आया है?’’ पुत्र ने नाम बता दिया। थोड़ी देर में कोई और आया तो पिता ने फिर पूछा।
पुत्र ने झल्लाकर कहा: ‘‘आप चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते! आपको कुछ करना-धरना तो है नहीं, ‘कौन आया-कौन गया’ दिन भर यह टाँय-टाँय क्यों लगाये रहते हैं?’’
पिता ने लम्बी सांस खींची, हाथ से सिर पकड़ा। बड़े दुःख भरे स्वर में धीरे-धीरे कहने लगा: ‘‘मेरे एक बार पूछने पर तुम कितना क्रोध करते हो और तुम दसों बार एक ही बात पूछते थे कि यह क्या है? मैंने कभी तुम्हें झिड़का नहीं। मैं बार-बार तुम्हें बताता: बेटा! कौआ है।’’
माता-पिता ने तुम्हारे पालन-पोषण में कितने कष्ट सहे हैं! कितनी रातें मां ने तुम्हारे लिए गीले में सोकर गुजारी हैं, तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक और भी कितने कष्ट तुम्हारे लिए सहन किये हैं, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।
कितने-कितने कष्ट सहकर तुमको बड़ा किया और अब तुमको वृद्ध माता-पिता को प्यार से दो शब्द कहने में कठिनाई लगती है! पिता को ‘पिता’ कहने में भी शर्म आती है!
अभी कुछ वर्ष पहले की बात है - इलाहाबाद में रहकर एक किसान का बेटा वकालत की पढ़ाई कर रहा था। बेटे को शुद्ध घी, चीज-वस्तु मिले, बेटा स्वस्थ रहे इसलिए पिता घी, गुड़, दाल-चावल आदि सीधा-सामान घर से दे जाते थे।
एक बार बेटा अपने दोस्तों के साथ चाय-ब्रेड का नाश्ता कर रहा था। इतने में वह किसान पहुंचा। धोती फटी हुई, चमड़े के जूते, हाथ में डंडा, कमर झुकी हुई... आकर उसने गठरी उतारी। बेटे को हुआ, ‘बूढ़ा आ गया है, कहीं मेरी इज्जत न चली जाय!’ इतने में उसके मित्रों ने पूछा: ‘‘यह बूढ़ा कौन है?’’ लड़के ने कहा :यह तो मेरा नौकर है।
लड़के ने धीरे से कहा किंतु पिता ने सुन लिया। वृद्ध किसान ने कहा: ‘‘भाई! मैं नौकर तो जरूर हूँ लेकिन इसका नौकर नहीं हूँ, इसकी मां का नौकर हूँ। इसीलिए यह सामान उठाकर लाया हूँ।’’
यह अंग्रेजी पढ़ाई का फल है कि अपने पिता को मित्रों के सामने ‘पिता’ कहने में शर्म आ रही है, संकोच हो रहा है! ऐसी अंग्रेजी पढ़ाई और आडम्बर की ऐसी-की-तैसी कर दो, जो तुम्हें तुम्हारी संस्कृति से दूर ले जाय! पिता तो आखिर पिता ही होता है, चाहे किसी भी हालत में हो।

पिता से है नाम तेरा
पिता पहचान तेरी
जिए जिस सहारे पे तू
पिता से वो सांस मिली
है पिता रब तेरा
हो ईश्वर अल्लाह जितने भी रब हैं
नूर तेरा तुझ में ही सब है
हो ईश्वर अल्लाह जितने भी रब हैं
नूर तेरा तुझ में ही सब है
रब है…है…
तू ही सब है…है…
रब है…है…
तू ही सब है…है…

Thursday, 18 June 2015

राहुल गांधी का नया अवतार


कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का आज जन्मदिन है। आज वे 45 साल के हो गए हैं। राहुल गांधी एक भारतीय नेता और भारत की संसद के सदस्य हैं और भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा में उत्तर प्रदेश में स्थित अमेठी चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। राहुल गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबद्ध हैं। राहुल भारत के प्रसिद्ध गांधी-नेहरू परिवार से हैं। राहुल को 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत का श्रेय दिया गया है। उनकी राजनैतिक रणनीतियों में जमीनी स्तर की सक्रियता को बल देना, ग्रामीण भारत के साथ गहरे संबंध स्थापित करना और कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश करना, प्रमुख हैं। अनुभवहीनता के चलते राहुल ने मनमोहन सिंह की सरकार में मन्त्रीपद लेने से इंकार किया है। आजकल राहुल अपना सारा ध्यान राजनीतिक अनुभव प्राप्त करने और पार्टी को जड़ से मजबूत बनाने पर केंद्रित कर रहे हैं।
राहुल का जन्म 19 जून 1970 को दिल्ली में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर हुआ था। वे अपने माता-पिता की दो संतानों में बड़े हैं और प्रियंका गांधी के बड़े भाई हैं। राहुल की शुरुआती पढ़ाई दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में हुई थी और इसके बाद वो दून में पढ़ने चले गए। 1981-83 तक सुरक्षा कारणों के कारण राहुल को अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी। राहुल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से 1994 में अपनी कला स्नातक की डिग्री ली। इसके बाद 1995 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से एमफिल की उपाधि ली। 2003 में राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी के साथ कई राजनीतिक कार्यक्रमों में दिखाई देने लगे। 2004 में राहुल ने राजनीति में एंट्री की और अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा। यहां राहुल की रिकॉर्ड वोटों से जीत हुई। 2006 तक राहुल किसी पद पर नहीं रहे और मुख्य तौर पर अपने निर्वाचन क्षेत्र और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ही ध्यान केंद्रित किया। राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था। 2009 के लोकसभा चुनावों में राहुल ने अमेठी में 3 लाख 33 हजार वोटों से जीत हासिल की। इस चुनाव में कांग्रेस ने यूपी की कुल 80 लोकसभा सीटों में से 21 में जीत हासिल की। राज्य में पार्टी की इस सफलता का श्रेय राहुल गांधी को दिया गया।
 मोदी सरकार के दौरान सियासी गलियारे में किसानों की आत्महत्या को लेकर इतनी चिंता कभी नहीं दिखी थी, जितनी आजकल दिख रही है। बेमौसम बारिश से किसानों की तबाही, भूमि अधिग्रहण बिल के साथ एक और ऐसी राजनैतिक घटना हुई, जिसने इस मुद्दे को अलग रंग दे दिया है, वो है राहुल गांधी की वापसी। सरकार पहले से लैंड बिल मुद्दे पर घिरी थी और बारिश की मार के बाद किसानों की आत्महत्याओं की खबरें बढ़ी और फिर इन सबने एक साथ कांग्रेस को ऐसा मुद्दा दिया जिस पर लगातार राहुल गांधी सरकार को घेर रहे हैं।  राहुल गाँधी ने सत्ता के इस खेल में वापसी करने विकल्प चुना है, इन सबके बीच राहुल गाँधी  पार्टी को बदलने से पहले खुद को बदलते हुए नज़र आ रहे है, छुट्टी से वापसी के बाद राहुल गांधी का नया अवतार सामने आया है ।

Tuesday, 16 June 2015

RAMZAN TEACHES EVERY HUMAN BEINGS


Ramzan is the ninth month according to Islamic Lunar calendar. Ramzan (written as Ramadan) is derived from the Arabic root word 'ramida' or 'arramad' that means intense scorching heat and dryness, especially of the ground. Ramadan is so called to indicate the heating sensation in the stomach as a result of thirst. Others said it is so called because Ramadan scorches out the sins as it burns the ground. Some said it is so called because the hearts and souls are more readily receptive to the admonition and remembrance of Allah during Ramadan, as the sand and stones are receptive to the sun's heat.
Ramadan begins after the month of Shaban, after the new moon has been sighted. In case new moon is not sighted then after 30 days of Shaban, Ramadan begins. The month of Ramadan lasts for 29 or 30 days depending on the sighting of the moon. If the moon is sighted on the night of 29th fast then the month of Shawwal begins from tomorrow and Ramadan is over. The 1st of Shawwal is the Eid also know as Eid-ul-fitr to distinguish it from Eid-ul-azha (Bakri Eid).
Ramadan is the month in which the Quran was revealed. The Quran clearly says "O you who believe! Fasting is prescribed to you as it was prescribed to those before you, that you many learn piety and rightousness" - Al Baqarah, 2:183. Fasting is to be done by all able bodied men and women and children who have reached puberty. If a person is sick or has some medical reason or if a women is pregnant then they are waived from fasting.
During Ramadan the people who fast are not allowed to eat or drink anything (including water) from dawn to after sunset. Also one has to restrain other body parts, which may render the fast worthless despite the main factor of hunger and thirst; so the tongue, for instance, must avoid backbiting, slander, and lies; the eyes should avoid looking into things considered by the Lawgiver as unlawful; the ears must stop from listening to conversation, words, songs, and lyrics that spoil the spirit of fasting; and finally restraining of the heart, and mind from indulging, themselves in other things besides zikr or Allah (remembrance of Allah).
Also when one is fasting and feels hunger and thirst he has to remember other people in the world who do not have food and water. Charity is one of the extremely recommended acts during fasting. Muslims are required to give minimum of 2.5% of their annual savings as charity to poor and needy people. Also there are various sayings of the prophet (pbuh) where he has said that any charity made in Ramadan is multiplied upto 70 times. If some people are poor and cannot afford to give money then even a smile is an act of charity.
In recent years lot of research has been done about the medical benifits of Ramadan. The physiological effect of fasting includes lower of blood sugar, lowering of cholesterol and lowering of the systolic blood pressure. In fact, Ramadan fasting would be an ideal recommendation for treatment of mild to moderate, stable, non-insulin diabetes, obesity and essential hypertension. There are psychological effects of fasting as well. There is a peace and tranquility for those who fast during the month of Ramadan. Personal hostility is at a minimum, and the crime rate decreases. Muslims take advice from the Prophet who said, "If one slanders you or aggresses against you, say I am fasting.'" This psychological improvement could be related to better stabilization of blood glucose during fasting as hypoglycemia after eating, aggravates behavior changes. There is a beneficial effect of extra prayer at night. This not only helps with better utilization of food but also helps in output. There are 10 extra calories output for each rikat of the prayer. Again, we do not do prayers for exercise, but a mild movement of the joints with extra calorie utilization is a better form of exercise. Similarly, recitation of the Quran not only produces a tranquility of heart and mind, but improves the memory. There is a beneficial effect of extra prayer at night. This not only helps with better utilization of food but also helps in output. There are 10 extra calories output for each rikat of the prayer. Again, we do not do prayers for exercise, but a mild movement of the joints with extra calorie utilization is a better form of exercise. Similarly, recitation of the Quran not only produces a tranquility of heart and mind, but improves the memory.
Some people think that one month of fasting is too much while others feel that its only one month where they can get their sins forgiven and get their rewards increased. May Allah bless us all and forgive all our sins and make us good Muslims and good human beings.
Ramzan is the ninth month according to Islamic Lunar calendar. Ramzan (written as Ramadan) is derived from the Arabic root word 'ramida' or 'arramad' that means intense scorching heat and dryness, especially of the ground. Ramadan is so called to indicate the heating sensation in the stomach as a result of thirst. Others said it is so called because Ramadan scorches out the sins as it burns the ground. Some said it is so called because the hearts and souls are more readily receptive to the admonition and remembrance of Allah during Ramadan, as the sand and stones are receptive to the sun's heat.
Ramadan begins after the month of Shaban, after the new moon has been sighted. In case new moon is not sighted then after 30 days of Shaban, Ramadan begins. The month of Ramadan lasts for 29 or 30 days depending on the sighting of the moon. If the moon is sighted on the night of 29th fast then the month of Shawwal begins from tomorrow and Ramadan is over. The 1st of Shawwal is the Eid also know as Eid-ul-fitr to distinguish it from Eid-ul-azha (Bakri Eid).
Ramadan is the month in which the Quran was revealed. The Quran clearly says "O you who believe! Fasting is prescribed to you as it was prescribed to those before you, that you many learn piety and rightousness" - Al Baqarah, 2:183. Fasting is to be done by all able bodied men and women and children who have reached puberty. If a person is sick or has some medical reason or if a women is pregnant then they are waived from fasting.
During Ramadan the people who fast are not allowed to eat or drink anything (including water) from dawn to after sunset. Also one has to restrain other body parts, which may render the fast worthless despite the main factor of hunger and thirst; so the tongue, for instance, must avoid backbiting, slander, and lies; the eyes should avoid looking into things considered by the Lawgiver as unlawful; the ears must stop from listening to conversation, words, songs, and lyrics that spoil the spirit of fasting; and finally restraining of the heart, and mind from indulging, themselves in other things besides zikr or Allah (remembrance of Allah).
Also when one is fasting and feels hunger and thirst he has to remember other people in the world who do not have food and water. Charity is one of the extremely recommended acts during fasting. Muslims are required to give minimum of 2.5% of their annual savings as charity to poor and needy people. Also there are various sayings of the prophet (pbuh) where he has said that any charity made in Ramadan is multiplied upto 70 times. If some people are poor and cannot afford to give money then even a smile is an act of charity.
In recent years lot of research has been done about the medical benifits of Ramadan. The physiological effect of fasting includes lower of blood sugar, lowering of cholesterol and lowering of the systolic blood pressure. In fact, Ramadan fasting would be an ideal recommendation for treatment of mild to moderate, stable, non-insulin diabetes, obesity and essential hypertension. There are psychological effects of fasting as well. There is a peace and tranquility for those who fast during the month of Ramadan. Personal hostility is at a minimum, and the crime rate decreases. Muslims take advice from the Prophet who said, "If one slanders you or aggresses against you, say I am fasting.'" This psychological improvement could be related to better stabilization of blood glucose during fasting as hypoglycemia after eating, aggravates behavior changes. There is a beneficial effect of extra prayer at night. This not only helps with better utilization of food but also helps in output. There are 10 extra calories output for each rikat of the prayer. Again, we do not do prayers for exercise, but a mild movement of the joints with extra calorie utilization is a better form of exercise. Similarly, recitation of the Quran not only produces a tranquility of heart and mind, but improves the memory. There is a beneficial effect of extra prayer at night. This not only helps with better utilization of food but also helps in output. There are 10 extra calories output for each rikat of the prayer. Again, we do not do prayers for exercise, but a mild movement of the joints with extra calorie utilization is a better form of exercise. Similarly, recitation of the Quran not only produces a tranquility of heart and mind, but improves the memory.
Some people think that one month of fasting is too much while others feel that its only one month where they can get their sins forgiven and get their rewards increased. May Allah bless us all and forgive all our sins and make us good Muslims and good human beings.

Monday, 15 June 2015

तमाम गलत कामों से बचने की प्रेरणा देता है रमजान


इस्लाम धर्म में अच्छा इंसान बनने के लिए पहले मुसलमान बनना आवश्यक है और मुसलमान बनने के लिए बुनियादी पांच कर्तव्यों का अमल में लाना आवश्यक है। पहला ईमान, दूसरा नमाज़, तीसरा रोज़ा, चौथा हज और पांचवा ज़कात। इस्लाम के ये पांचों कर्तव्य इंसान से प्रेम, सहानुभूति, सहायता तथा हमदर्दी की प्रेरणा देते हैं। रोज़े को अरबी में सोम कहते हैं, जिसका मतलब है रुकना। रोज़ा यानी तमाम बुराइयों से परहेज़ करना। रोज़े में दिन भर भूखा व प्यासा ही रहा जाता है। इसी तरह यदि किसी जगह लोग किसी की बुराई कर रहे हैं तो रोज़ेदार के लिए ऐसे स्थान पर खड़ा होना मना है।
जब मुसलमान रोज़ा रखता है, उसके हृदय में भूखे व्यक्ति के लिए हमदर्दी पैदा होती है।रमज़ान में पुण्य के कामों का सबाव सत्तर गुना बढ़ा दिया जाता है। ज़कात इसी महीने में अदा की जाती है। रोजा झूठ, हिंसा, बुराई, रिश्वत तथा अन्य तमाम गलत कामों से बचने की प्रेरणा देता है। इसका अभ्यास यानी पूरे एक महीना कराया जाता है ताकि इंसान पूरे साल तमाम बुराइयों से बचे। कुरआन में अल्लाह ने फरमाया कि रोज़ा तुम्हारे ऊपर इसलिए फर्ज़ किया है, ताकि तुम खुदा से डरने वाले बनो और खुदा से डरने का मतलब यह है कि इंसान अपने अंदर विनम्रता तथा कोमलता पैदा करे?
रमजान के पूरे महीने कुछ खास बातों का ध्‍यान रखना जरूरी है। इंसान रमजान की हर रात उससे अगले दिन के रोजे की नियत कर सकता है। बेहतर यही है कि रमजान के महीने की पहली रात को ही पूरे महीने के रोजे की नियत कर लें। अगर कोई रमजान के महीने में जानबूझ कर रमजान के रोजे के अलावा किसी और रोजे की नियत करे तो वो रोजा कुबूल नहीं होगा और ना ही वो रमजान के रोजे में शुमार होगा। बेहतर है कि आप रमजान का महीना शुय होने से पहले ही पूरे महीने की जरूरत का सामान खरीद लें, ताकि आपको रोजे की हालत में बाहर ना भटकना पड़े और आप ज्‍यादा से ज्‍यादा वक्‍त इबादत में बिता सकें।
 रमजान के महीने में इफ्तार के बाद ज्‍यादा से ज्‍यादा पानी पीयें। दिनभर के रोजे के बाद शरीर में पानी की काफी कमी हो जाती है। मर्दों को कम से 2.5 लीटर और औरतों को कम से कम 2 लीटर पानी जरूर पीना चाहिए। इफ्तार की शुरुआत हल्‍के खाने से करें। खजूर से इफ्तार करना बेहतर माना गया है। इफ्तार में पानी, सलाद, फल, जूस और सूप ज्‍यादा खाएं और पीएं। इससे शरीर में पानी की कमी पूरी होगी। सहरी में ज्‍यादा तला, मसालेदार, मीठा खाना न खाएं, क्‍यूंकि ऐसे खाने से प्‍यास ज्‍यादा लगती है। सहरी में ओटमील, दूध, ब्रेड और फल सेहत के लिए बेहतर होता है  रमजान के महीने में ज्‍यादा से ज्‍यादा इबादत करें, अल्‍लाह को राजी करना चाहिए क्‍यूंकि इस महीने में कर नेक काम का सवाब बढ़ा दिया जाता है।
रमजान में ज्‍यादा से ज्‍यादा कुरान की तिलावत, नमाज की पाबंदी, जकात, सदाक और अल्‍लाह का जिक्र करके इबादत करें। रोजेदारों को इफ्तार कराना बहुत ही सवाब का काम माना गया है। अगर कोई शख्‍स सहरी के वक्‍त रोजे की नियत करे और सो जाए, फिर नींद मगरिब के बाद खुले तो उसका रोजा माना जाएगा, ये रोजा सही है।  रमजान के महीने को तीन अशरों में बांटा गया है. पहले 10 दिन को पहला अशरा कहते हैं जो रहमत का है। दूसरा अशरा अगले 10 दिन को कहते हैं जो मगफिरत का है और तीसरा अशरा आखिरी 10 दिन को कहा जाता है जो कि जहन्‍नम से आजाती का है। अगर कोई रोजेदार रोजे की हालत में जानबूझकर कुछ खा ले तो उसका रोजा टूटा जाता है, लेकिन अगर कोई गलती से कुछ खा-पी ले तो उसका रोजा नहीं टूटता है। अगर कोई बीमार शख्‍स रमजान के महीने में जोहर से पहले ठीक हो जाता है और तब तक उसने कोई ऐसा काम नहीं किया हो जिससे रोजा टूटता हो, तो नियत करके उसका उस दिन का रोजा रखना जरूरी है। अगर रोजेदार दांत में फंसा हुआ खाना जानबूझकर निगल जाता है तो उसका रोजा टूट जाता है ।  मुंह का पानी निगलने से रोजा नहीं टूटता है। अगर किसी लजीज खाने की ख्‍वाहिश से मुंह में पानी आ जाए तो उस पानी को निगलने से रोजा नहीं टूटता है। रमजान के महीने में इंसान बुरी लतों से दूर रहता है, सिगरेट की लत छोड़ने के लिए रमजान का महीना बहुत अच्‍छा है। रोजा रखकर सिगरेट या तंबाकू खाने से रोजा टूट जाता है। रोजे की हालत में दांत निकलवाने से रोजा मकरूह हो जाता है, या रोजे में कोई ऐसा काम करने से जिससे मुंह से खून निकलने लगे, इससे भी रोजा मकरूह हो जाता है। आपने अगर रोजे की हालत में पूरी तरह से गीले कपड़े पहन रखे हैं तो आपका रोजा मकरूह हो सकता है। कोई खाने की चीज जिसके खाने से रोजा टूट जाता है, जबरदस्‍ती किसी रोजेदार के हलक में डाल दिया जाए और वो उसे निगल जाए तो रोजा नहीं टूटता है।
अगर किसी रोजेदार को जान और माल के नुकसान की धमकी देकर कोई खाना खाने को मजबूर करता है और रोजेदार उस नुकसान से बचने के लिए खाना खा लेता है तो रोजा नहीं टूटता है। रमजान के महीने में नेकियों का सवाब 10 से 700 गुणा तक बढ़ा दिया जाता है। नफ्ल नमाज का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब 70 फर्ज के बराबर हो जाता है। रमजान के महीने में अल्‍लाह अपने बंदों पर खास करम फरमाता है और उसकी हर जायज दुआ को कुबुल करता है। रमजान में जन्‍नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं और जहन्‍नुम के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। रमजान में नमाज के बाद कुरान पाक की तिलावत की आदत डालें, इसका बहुत सवाब है। रमजान में कुछ वक्‍त निकालकर कुरान-ए-मजीद को सुनें, क्‍यूंकि रमजान का लम्‍हा-लम्‍हा इबादत और सवाब का है।
रमजान के महीने में कोशिश करें कि आप हर वक्‍त बा-वजू रहें. रात को जल्‍दी सोने की आदत डालें ताकि आप फज्र की नमाज के लिए उठ सकें। हर रात सोने से पहले अपने किए हुए आमाल के बारे में जरूर सोचें. अपने नेक आमाल पर अल्‍लाह का शुक्र अदा कीजिए और अपनी गलतियों और कोताहियों के लिए अल्‍लाह से माफी मांगिये और तौबा कीजिए। रमजान के महीने में रोजाना सद्दाका करने की आदत डालें, चाहे थोड़ा ही क्‍यूं ना हो इसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्‍सा बनाएं। रमजान में नफ्ल नमाजों का तहाजुद की नमाज की तरह एहतेमाम करें, बहुत सवाब है. ज्‍यादा से ज्‍यादा वक्‍त कुरान और हदीथ, फिकह और इस्‍लामी किताबों के मुताले में गुजारें।  किसी ऐसे आदमी को इफ्तार की दावत दें जो आपका जानकार हो, आप महसूस करेंगे कि आपके रिश्‍ते और भी मजबूत हो गए हैं। कोशिश करें कि घर में तमाम लोग एकसाथ आपस में मिलकर इफ्तार करें। रमजान में अपनी तमाम बुरी आदतों को छोड़ दें और इस बा-बरकत महीने का इस्‍तेमाल नेक कामों में करें।

Friday, 12 June 2015

Where’s the change?


A year later, Modi is the Prime Minister and heads a notionally NDA Government as the BJP has a majority of its own. last month he completes 1year in office, that is just more than three months of the sixty-month mandate he has secured. The promise of development was the pact that Modi fought during the elections, which resulted in high hopes from the newly formed government. Although a lot was anticipated, there was no huge unleashing moment of reforms. So as to maintain growth rate what India needs is a sustainable way. All hopes were pinned onto him after the annual growth rate of Gujarat was revealed. Also when it came to maiden budget of the Modi government it turned out to be disappointing. Although the budget came up with increased FDI in defence and Insuarance fields,markets gave a thumbs up to the budge, it did not provide anything exceptional for the common man and also left out less developed states. In normal course, a Government’s performance should really be judged at the end of five years. Modi would have wanted it that way. Recall his repeated appeal to the voters during the arduous campaign he ran: ‘You gave the Congress 60 years; give me only 60 months.’
  But that is not the way it has played out for Modi. Both his critics and his supporters have been reluctant to even accord him the customary three-month ‘honeymoon period’ when no questions are asked or explanations sought. Those who have been unable to reconcile themselves to the loss of Lutyens’s Delhi to an ‘outsider’ have been nit-picking and fault-finding from the first day. As for those who placed their trust in Modi, they have been extraordinarily impatient in expecting policy and delivery. It would, therefore, be safe to suggest that he has been denied the luxury of leisure.
Modi has insisted on keeping the media at an arms length and his Ministers have dutifully complied. As a result, the Government of India is not working in the full glare of intrusive media. That is the way it should be. We could mock at Modi for not being transparent but that would be so much water off a duck’s back. Between publicity and delivery, he has opted for the latter. And delivery, as we all know, is far less exciting than grandstanding.
 It would be easy to prepare a dhobi list of promises that were made in the party Manifesto as also by Modi during the campaign. And hold them up for scrutiny. That, however, would be an erroneous method to demand accountability and fix responsibility. Modi is far too shrewd to be shanghaied in this manner. What we should instead look for are big picture initiatives and results.
however, issues that appear to have escaped the Modi Sarkar’s attention. Food prices remain a discomfiting factor. Big ticket reforms related to land, labour, power, insurance, pensions are yet to take form and shape. Infrastructure spending has to gather steam. Foreign investors are once again looking at India keenly, but they need more than assurances and comfort to bet their money on India. In brief, the revival of the ‘India Story’ has begun, but it has to gather speed.
exactly one year  back from now on May 26, 2014 was the glorious day for Modi when he was sworn in as the 16th Prime Minister of India. The start of the NDA era bought back the hope of Ache Din and a lot of anticipation and expectations from the Modi Sarkar. In the aftermath of 2002 Gujarat riots he had this air of controversy surrounding him nationally as well as internationally but he looked forward as a leader.
He has been praised for the economic growth of Gujarat and economic policies. And with a Prime Minister like Narendra Modi, people still look at him with a personality that incites the Hindu rage. He is known for the pro Hindu political cult that was reviled by the new force of BJP. Modi was condemned for inciting religious persecution and initiating and condoling violence in the past. However, Narendra Modi took various initiative like Swachch Bharat Abhiyan and Make In india but as of now failed to present any concrete policy to boost the economy of the country. Many policies are simply a follow up of the policies initiated by the previous United Progressive Alliance (UPA) government. When BJP was in the opposition, they opposed foreign direct investment (FDI) proposed by UPA, but now the BJP has invited FDI in railways, insurance and defence. Likewise, the Jan Dhan Yojna seems a new version of UPA’s subsidy scheme on the basis of the Aadhar card, which also made it mandatory to open a bank account. The Modi government has given old things in new packages.

सवालों का जवाब क्यों नहीं देती भाजपा ?

हमारी पार्टी अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी के नुमांइदें से केवल आठ ही तो सवाल किए थे, उसका भी जवाब ये लेाग क्यों नहीं देते..




पहला, किसानों की सहमति वाले प्रवधान को हटाने के लिये बीजेपी इतनी उतावली क्यों है?

सरकार ने सहमति के अधिकार को हटा दिया है (2013 के कानून में प्रभावित परिवारों को दिया गया था)। न सिर्फ सरकार ज्यादातर परियोजनाओं के लिये जमीन का अधिग्रहण जमीन मालिकों की सहमति के बगैर कर सकती है, बल्कि सामाजिक प्रभाव आकलन (Social Impact Assessment) के प्रावधान को भी हटा दिया है; जिसके अंतर्गत जिस परियोजना के लिये जमीन ली जानी थी, उससे संबंधित पूरी जानकारी देना सरकार के लिये जरूरी था। सामाजिक प्रभाव के आकलन से अधिग्रहण और अधिक जवाबदेह बनता। इस प्रवधान को हटाने के लिये बीजेपी इतनी उतावली क्यों है?

दूसरा, अध्यादेश पास करने से पहले किसान समूहों या किसी दूसरे हितधारकों के साथ विचार-विमर्श क्यों नहीं किया गया?

सरकार अध्यादेश को लागू करने को लेकर बहुत जल्दबाजी में थी। एक ऐसा कानून जिसके लिए लोगों की व्यापक और जागरुक विचार-विमर्श की जरूरत थी, क्या यह सही था कि बंद दरवाजे के पीछे, सिर्फ अधिकारियों के साथ मंत्रणा कर, यहां तक की ग्रामीण विकास मंत्री की गैर मौजूदगी में किसानों के हितों की चिंता किये बिना प्रावधानों को बदलने का फैसला लिया जाए? राज्य के प्रतिनिधियों के साथ एक या दो बैठक से विचार-विमर्श की प्रकिया पूरी नहीं हो सकती।

तीसरा, वो कौन लोग हैं जिनके फायदे के लिये ये संशोधन किये गये?

सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन (Consent and Social Impact Assessment) के प्रावधानों को दूर कर अधिग्रहण को आसान बनाने के लिये कई श्रेणियों में छूट दी गई है। जमीन लौटाने की शर्तों को कड़ा कर दिया गया है, जिससे कोर्ट के लिये यह कठिन हो गया है कि वो अनुचित अधिग्रहण को रद्द कर सके। रक्षा हमेशा से छूट की श्रेणी में थी इसलिय कोई ओर अतिरिक्त छूट विवादास्पद है। ये सब कई सवालों को जन्म देती है कि इन संशोधनों का वास्तव में लाभार्थी कौन है। जाहिर तौर पर किसान नहीं। क्या यही सरकार की ‘न्यूनतम सरकार’ और ‘अधिकतम शासन’ की अभिव्यक्ति है?

चौथा, किसानों की चिंताओं पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया?

किसानों के हितों की रक्षा कैसे की गई है या नहीं ऐसी एक भी शर्त क्या बीजेपी बता सकती है, जबकि यह साफ और जाना हुआ है कि इससे किसानों के हित खतरे में है। मजदूरों के लिये अनिवार्य रोजगार से संबंधित एक संशोधन किया गया है जो किसान समर्थक लगता है। लेकिन, अगर संशोधनकर्ताओं ने 2013 के कानून को पढ़ा है तो ऐसी र्शतें (विषय 4, अनुसूची 2) पहले से मौजूद हैं जो न सिर्फ खेतिहर मजदूरों के लिए नौकरी(या 5 लाख रुपये) का वादा करता है बल्कि जमीन से विस्थापित परिवारों के लिए भी।

पांचवां, पहले से अधिग्रहीत जमीन का इस्तेमाल क्यों नहीं?

बजाये इसके कि नई जमीन का अधिग्रहण किया जाए, लैंड बैंक के पास मौजूद जमीन का इस्तेमाल क्यों नहीं? केंद्र और राज्य दोनों सरकार के पास जमीन का भारी भंडार है जिसके इस्तेमाल करने की जरूरत है। सरकार को बंजर, व्यर्थ और विभिन्न राज्यों के स्वामित्व वाले निगमों के पास मौजूद भूमि पर एक श्वेत पत्र या स्टेटस रिपोर्ट लेकर आना चाहिये।

छठा, संसद के पटल पर अध्यादेश में  किये गये नये संशोधनों में क्या शामिल है?

संसद में पेश विधेयक में किये गये संशोधनों के बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है कि ये सतही हैं। अगर आपके सहयोगियों ने बिल को पढ़ा था तो आप महसूस करेंगे कि संशोधनों का समर्थन नहीं किया जा सकता। सरकार ने मनमाने ढंग से जमीन के अधिग्रहणों से रक्षा की शर्तों को हटा दिया है, न सिर्फ कंपनियों के लिये जमीन के अधिग्रहण को आसान कर दिया गया है बल्कि उनसब के लिये भी जो अधिग्रहण करना चाहते हैं। इसके साथ साथ विधेयक उन अधिकारियों का भी बचाव करता है जो कानून का उल्लंघन करते हैं। यह स्पष्ट करना जरूरी है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के द्वारा डाले गये दबाव के आगे झुकते हुए सरकार ने अस्पष्ट और अपरिभाषित शब्द 'सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर' को नई श्रेणी से निकाला है, लेकिन यह कोई मेहरबानी नहीं है।

सातवां,  2013 के मूल कानून के पास होने के वक्त खड़े अपने रुख से बीजेपी इतनी तेजी से पीछे क्यों हट रही है?

2013 का कानून पास होना ऐतिहासिक था क्योंकि यह विधायकी के दोहरे दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता था। जिसमें बीजेपी एक विरोधी ताकत की बजाए एक सकारात्म भागीदार की भूमिका में थी।संसद के पटल पर दिये गये भाषणों में दर्ज अपने घोषित रुख से बीजेपी के पीछे हटने के क्या कारण हैं?

आठवां, अपने संशोधनों की खूबियों को लेकर अगर बीजेपी इतनी आश्वस्त है तो फिर इसे स्थायी समिति(Standing Committee) के पास क्यों नहीं भेज रही?

बिना देरी किये यूपीए ने अपने पहले मसौदे को बीजेपी सदस्य की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति को भेज दिया था। कानून की खूबियों को लेकर हमें इतना विश्वास था कि हमने किसी भी तरह की जांच और सुझावों का स्वागत किया।यहां तक की हमने सभी सुझावों को शामिल किया। आखिर क्यों बीजेपी सरकार ऐसे कदम उठाने से संकोच कर रही है?
किसानों के इतनी बड़ी संख्या में सामने आने के कारण हैं।यह सिर्फ एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है, जैसा कि साफ है जिन समूहों की दूसरे मुद्दों पर अलग राय होती है वो सभी विरोध के लिये इस अहम मुद्दे पर एक हैं।

Thursday, 11 June 2015

अच्छे दिन’ केवल बीजेपी के लिए


पहले साल के पूरा होने पर लोगों को अहसास हो गया कि ‘अच्छे दिन’ केवल मोदी और भाजपा के लिए हैं। इसमें देश के बारे में कभी नहीं सोचा गया। मोदी सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ केवल झूठ बोलकर सत्ता में आए हैं और अब वह इन्हीं झूठ के बलबूते आगे बढ़ना चाहते हैं। यह जनादेश ‘‘अनिश्चितकालीन’’ नहीं है। इसका निश्चित कार्यकाल है और समय बहुत तेजी से बीत रहा है।  इस सरकार की सबसे ‘‘बड़ी विफलता’’ यह रही कि इसके अधिकतर पद संभवत: सभी मंत्रालयों पर पीएमओ के अत्यधिक नियंत्रण के कारण अनिश्चितकाल के लिए खाली हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने  आरोप लगाया है कि वह अपने नेताओं को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए भय और दबाव का माहौल बनाने की अनुमति देकर खतरनाक दोहरा खेल खेल रही है। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरेंद्र मोदी को अपने से अच्छा ‘सेल्समैन व ईवेंट मैनेजर’ बताया।  सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि वे भूमि विधेयक और खाद्य सुरक्षा कानून पर सरकार के कदमों का मजबूती से विरोध करें। एक तरफ प्रधानमंत्री खुद को सुशासन और संवैधानिक मूल्यों के बड़े पैरोकार के रूप में पेश करना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ वह अपने कई सहकर्मियों को घृणास्पद बयानों और सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने की अनुमति देते हैं। यह पहले ही हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने बाने को नष्ट कर चुका है। डर और दबाव का माहौल जानबूझकर उत्पन्न किया गया है। सरकार की वास्तविकता और शैली दोनों बड़ी चिंता का कारण है। नई सरकार ने एक साल से कुछ समय पहले ही केंद्र की कमान संभाली है। इसकी वास्तविकता और शैली-दोनों सभी को प्रत्यक्ष हैं। दोनों बड़ी चिंता का कारण हैं। उनसे कई परेशान करने वाले सवाल खड़े होते हैं। इन सबसे हमें ठहरना, सोचना और उचित जवाब देना चाहिए।
कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि यह चिंताजनक है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत कवरेज को 67 फीसद से घटाकर 40 फीसद किया जाना प्रस्तावित है और एमएसपी सहित खाद्य खरीद की समूची प्रणाली खतरे में है । कांग्रेस अध्यक्ष ने पार्टी के मुख्यमंत्रियों से कहा कि वे अपने राज्यों के हित के लिए केंद्र के साथ मिलकर काम करें, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि जब यह जनहित के खिलाफ काम करे तो वे आंदोलन करें। उन्होंने सहयोग व आम सहमति के लिए उपकारी माहौल उत्पन्न करने की जिम्मदारी केंद्र पर डाली।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा कि वह मुझसे अच्छे सेल्समैन, इवेंट प्रबंधक और संवाद करने वाले हैं। अपर्याप्त संवाद के कारण यूपीए की कहानी खत्म नहीं होनी चाहिए।  मैं चिंतित हूं कि योजना आयोग को जिसने कमजोर राज्यों और निर्धन क्षेत्रों की मदद की, जल्दबाजी में समाप्त कर दिया गया है। हमने जीएसटी को वास्तविकता में बदलने के लिए हर प्रयास किया लेकिन हमारे खिलाफ विध्नकारी भाजपा थी। अब, भाजपा जीएसटी की सबसे बड़ी हिमायती बन गई है। नई जीडीपी संख्याओं की वैधता को लेकर संदेह व्यक्त किए गए हैंं। कुछ हद तक उत्साह है कि 2014-15 से हमारी जीडीपी वृद्धि में एक बार फिर तेजी आने लगी है। नई जीडीपी संख्याओं की वैधता को लेकर सरकार के अंदर और बाहर दोनों स्थानों पर संदेह व्यक्त किए गए हैं।

Wednesday, 10 June 2015

नई खेप में आ रही है महंगाई

महंगाई क्यों बढ़ती है, आज तक कोई समझ नहीं पाया। सरकार को महंगाई की सेहत और गति की खासी चिन्ता रहती है, पर वह सरकार की बिगडै़ल बहू जैसी रत्तीभर भी परवाह नहीं करती। सरकार उसके कद को रोकन के लिए घोषणाएं करती है। सरकार कहती है कि वह महंगाई पर लगाम लगाएगी। अब आप ही बताइए कि महंगाई कोई घोड़ी है, जिस पर लगाम कसी जाए। सरकार के इस रवैए से महंगाई चिढ़ जाती है। कई बार सरकार महंगाई से सीधे-सीधे अपील भी करती है पर महंगाई के कानों में जूं तक नही रेंगती, ढीठ जो ठहरी। विपक्षी दलां को बहुत भाती है महंगाई। महंगाई की भरी-पूरी सेहत देख कर उनकी बांछें खिल जाती हैं। महंगाई उन्हें बयान देने, सदन में बोलने और टेलीविजन की खबरों में आने का अवसर देती है। खासतौर पर इलेक्शन इयर में महंगाई का चढ़ता ग्राफ देख कर कुछ विपक्षी मारे खुशी के पागल हो उठते हैं। महंगाई आम आदमी को भले ही कष्ष्ट देती हो, लेकिन विपक्ष वालों को इसमें अवसर दिखाई देता है। वे इसको ऐसे मुद्दे की शक्ल देने में भी माहिर होते हैं, जो मतदान को तेवर देता है। महंगाई की उन्नति में गरीबी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। झुग्गी -झोपड़ी में बड़ी आसानी और तेजी से बढ़ती है महंगाई। गरीबों से अच्छी पट जाती है महंगाई की।
असलियत में देश के आर्थिक-सामाजिक हालात में सुधार का नाम ही वास्तविक विकास है। एक वर्ग के अमीर बनते चले जाने और किसान-मजदूरों के दरिद्र बनते जाने का नाम विकास नहीं बल्कि देश का विनाश है। निरंतर गति से बढ़ती महंगाई और शोषण के बीच चोली-दामन का संबंध है। महंगाई वास्तव में ताकतवर अमीरों द्वारा गरीबों को लूटने का एक अस्त्र है। इस खतरनाक साजिश में सरकारें भी अमीरों के साथ शामिल हैं। वास्तव में सरकार ने बाजार की ताकतों को इतना प्रश्रय और समर्थन दे दिया है कि घरेलू बाजार व्यवस्था सरकारी नियंत्रण से बाहर होकर बेकाबू हो चुकी है। सटोरिए, दलाल और बिचैलिए इसमें सबसे अहम किरदार हो गए हैं। और तय मानिए ये अहम किरदार बिना सरकार की शह के अपनी भूमिका नहीं निभा सकते। जाहिर है जब तक ये किरदार सरकार पर हावी रहेंगे, महंगाई की नई-नई किस्तें देश की जनता के नाम जारी होती रहेंगी।
आम बजट 2015-16 में प्रस्तावित सेवा कर में वृद्धि एक जून 2015 से लागू है। इसके साथ ही वर्तमान में 12.36 फीसदी सेवा कर की दर बढ़कर 14 फीसदी हो जाएगी। महंगाई की इस नई किस्त से रोजाना की तमाम सेवाओं के लिए आपकी जेब और ज्यादा ढीली होगी। कहने का मतलब यह कि मोदी सरकार की अर्थनीति के चलते आम आदमी की जिंदगी में मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। सेवा कर की नई दरें लागू होने से घर खरीदना महंगा हो जाएगा। इसका असर निर्माणाधीन घरों पर भी पड़ेगा। प्रॉपर्टी की कीमतें बढ़ने के साथ नए खरीददारों को घर खरीदने के लिए अधिक कीमत चुकानी होगी। एक जून से एक करोड़ से कम कीमत की प्रॉपर्टी पर सर्विस टैक्स 3.50 फीसदी की दर से या प्रॉपर्टी की आधार मूल्य के 25 फीसदी पर 12.36 फीसदी सर्विस टैक्स चुकाना होगा। वहीं, एक करोड़ से अधिक की प्रॉपर्टी पर सर्विस टैक्स 4.2 फीसदी की दर से या प्रॉपर्टी के आधार मूल्य के 30 फीसदी पर 14 फीसदी की दर से सर्विस टैक्स चुकाना होगा। इसके अलावा दूसरे शुल्क भी बढ़ जाएंगे जैसे लीगल फीस, होम इंश्योरेंस व रजिस्ट्री फीस आदि।
 रेस्टोरेंट में खाना, होटल में ठहरना, मनोरंजन, हवाई यात्रा, ट्रेनों के एसी क्लास के टिकट, माल ढुलाई, ईवेंट मैनेजमेंट, केटरिंग, सैलून, शराब, बीमा प्रीमियम, टिकट बुकिंग आदि महंगे हो जाएंगे। प्रथम श्रेणी और एसी श्रेणी के टिकटों पर अभी यात्रियों को 3.078 फीसदी की दर से सेवा कर देना होता है। एक जून से यह दर बढ़कर 4.2 फीसदी हो जाएगी। यानी इन यात्रियों को 0.5 फीसदी की दर से अधिक सेवा कर चुकाना होगा। जीवन बीमा के पहले वर्ष के प्रीमियम पर सेवा कर की दर 3 फीसदी से बढ़कर 3.5 फीसदी हो जाएगी। इसके आगे के प्रीमियम पर अभी 1.5 फीसदी का सेवा कर लग रहा है। एक जून से इसकी दर 1.75 फीसदी हो जाएगी। नई सेवा कर की दरें लागू होने से घरेलू उड़ानों में सेवा कर की दरें 0.6 फीसदी से बढ़कर 0.7 फीसदी जबकि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए सेवा कर की दरें 1.2 फीसदी से बढ़कर 1.4 फीसदी हो जाएंगी।
अभी हाल में उद्योग संगठन भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) के एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि महानगरों और बड़े शहरों में अधिकाधिक लोग घर में खाना बनाने की बजाय बाजार में बिकने वाले श्रेडी टू ईटश् खाद्य पदार्थों का सहारा ले रहे हैं। इस सर्वेक्षण में 78 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि रसोई के बजट को नियंत्रित करने की सारी कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। सर्वेक्षण के अनुसार बेमौसम बरसात की वजह से पैदावार घटने से पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने और बिचैलियों की बढ़ती भूमिका के कारण बाजार में इस वर्ष आम, केला, अंगूर और सेब जैसे फलों की कीमतों में भी पिछले वर्ष के इसी सीजन की तुलना में 45 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इस कारण मौसमी फल भी आम जनता की पहुंच से दूर हो गए हैं। सब्जियों के साथ-साथ फलों के दाम भी आसमान छू रहे हैं जिससे आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा पौष्टिक आहार से वंचित हो गया है। सभी महानगरों और प्रमुख नगरों में सब्जियों और फलों के दाम आम आदमी की पहुंच से दूर हो गए हैं। दाल पहले ही थाली से दूर हो चुकी है।
बहरहाल, दुनिया के कई दिग्गज अर्थशास्त्रियों का भले ही यह मानना हो कि महंगाई श्मात्रश् मौद्रिक घटना है, लेकिन अगर आप इसका व्यवहारिक अध्ययन करें तो पाएंगे कि महंगाई हमेशा श्गंभीर राजनीतिक और सामाजिक विघटनश् से जुड़ी घटना का प्रतिफल होता है। यह बात हम इसलिए कह रहे हैं कि महंगाई राजनीतिक दलों क्रिएटिव बना देती है। जो भाजपा महंगाई को लेकर मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ भारत बंद किया करती थी, वह आजकल भारत की सरकार चला रही है। इसके बाद भी उन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पा पा रही है जिनसे राष्ट्रीय परिस्थितियों में महंगाई को बल मिलता है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि जो बातें मनमोहन सिंह बोला करते थे, वही बातें आज मोदी सरकार भी कहने लगी है।

Tuesday, 9 June 2015

क्या दिल्ली पुलिस नजीर बनेगी ?


दिल्ली के कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर को धोखाधड़ी और जालसाजी से कानून की डिग्री हासिल करने के आरोपों के तहत  गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी के तत्काल बाद सत्तारूढ आप ने केंद्र पर जोरदार हमला बोलते हुए इसे राजनीतिक प्रतिशोध करार दिया। त्रिनगर से विधायक और पहली बार मंत्री बने 49 वर्षीय तोमर को ऐसे समय पर गिरफ्तार किया गया है जब शहर की सरकार में शक्तियों को लेकर आप सरकार और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच पहले ही तनातनी चल रही है। पुलिस ने आम आदमी पार्टी के नेता को उनके घर से गिरफ्तार किया। इसके बाद उन्हें पूछताछ के लिए वसंत विहार पुलिस थाना ले जाया गया। तोमर का दावा है कि उन्होंने बिहार के एक विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त की है जबकि दूसरे पक्ष का आरोप है कि यह डिग्री फर्जी है। पुलिस सूत्रों ने बताया कि उन्हें कथित फर्जी डिग्री मामले में गिरफ्तार किया गया है।
मौजूदा वक्त में लोकसभा में 543 में से 185 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के या आपराधिक मामले दर्ज हैं। यानी जनता की नुमाइन्दगी करने वाले 34 फीसदी सांसद दागी हैं। इसी तरह राज्यसभा में 232 में से 40 सांसद ऐसे है जिनपर आपराधिक या भ्रष्टाचार के मामले दर्ज है। यानी जिन राज्यों में सांसदों के खिलाफ जहां जहां मामले चल रहे हैं, वहां वहां पुलिस तेजी से कार्रवाई कर संसद को पाक साफ बनाने की दिशा में बढ़ सकती है । नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट के मुताबिक समूचे देश में तो कुल 4032 विधायकों में 1258 विधायक दागी हैं। यानी जिस देश में 36 फीसदी विधायक दागी हैं, उस देश में अब हर राज्य की पुलिस को दिल्ली पुलिस की तर्ज पर कार्रवाई तो शुरु कर ही देनी चाहिये। क्योंकि दिल्ली पुलिस ने उस मिथ को भी तोड़ दिया कि किसी मंत्री की गिरफ्तारी/हिरासत के साथ संबंधित सरकार और स्पीकर/सभापति को सूचना भेजी जाए। हालाकि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन यह भी बताती है कि आपराधिक मामलों में विधायकों-सासंदों की गिरफ्तारी पर कोई पाबंदी नहीं है। यानी किसी को कोई जानकारी पहले से देने की कोई जरुरत नहीं है ।
दिल्ली के कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर की गिरफ्तारी देश में ऐसी पहली गिरफ्तारी नहीं है जो किसी मंत्री या मुख्यमंत्री की पद पर रहते हुई है। इससे पहले भी कई ऐसे मंत्री और नेता रहे हैं जिन्हें पद पर रहते हुए गिरफ्तार किया गया है या उन्हें गिरफ्तारी की वजह से तत्काल इस्तीफा देना पड़ा है। मध्यप्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री राघवजी ने 5 जुलाई 2013 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया जब उनका एक अश्लील सीडी अचानक प्रकट हो गया। उन्हें 9 जुलाई को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आरोप था कि उन्होंने अपने नौकर के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाए थे। फिलहाल वे जमानत पर हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व उच्च शिक्षा, तकनीकी और जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को राज्य की एसटीएफ ने व्यापमं घोटाले के सिलसिले में 15 जून 2014 को गिरफ्तार कर लिया। 16 जून 2014 को शर्मा ने बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। फिलहाल लक्ष्मीकांत शर्मा जेल में हैं। मायावती सरकार में परिवार कल्याण मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा को सीबीआई ने 3 मार्च 2012 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर 5000 करोड़ के राष्ट्रीय ग्रामीण हेल्थ मिशन घोटाले में शामिल होने का आरोप था। कुशवाहा फिलहाल जेल में हैं। 27 सितंबर 2014 को आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में एक विशेष अदालत ने जे जयललिता को जेल भेज दिया और उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया और उन्होंने फिर से मुख्यमंत्री का पद संभाल लिया। जयललिया को पहली बार 1996 में जेल भेजा गया था जब उन पर रंगीन टीवी खरीद में घोटाले का आरोप लगा था।
3 अक्टूबर 2013 को चारा घोटाला मामले में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को 5 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई जिस वजह से तत्काल लोकसभा की उनकी सदस्यता रद हो गई और अगले 11 साल तक वे चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिए गए। वे सबसे पहले 1997 में इसी मामले में जेल गए थे जब वे बिहार के मुख्यमंत्री थे। फिलहाल लालू जमानत पर हैं। पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा को सीबीआई ने 2 फरवरी 2011 को 2जी घोटाले के आरोप में गिरफ्तार किया था। ए राजा, फिलहाल जमानत पर हैं। 28 नवंबर 2006 को तत्कालीन कोयला मंत्री शिबू सोरेन को शशिनाथ झा हत्याकांड में दोषी ठहराया गया और तत्काल जेल भेज दिया गया। 2007 में हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को 22 जनवरी 2013 को जेल भेज दिया गया। उन्हें जेबीटी स्कैम के मामले में 10 साल के सश्रम कारावास की सजा सुऩाई गई। फिलहाल जेल में हैं लेकिन पिछले दिनों अस्पताल जाने की अनुमति दी गई है। 30 नवंबर 2009 को झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को 2000 करोड़ के एक घोटाले के मामले में राज्य विजिलेंस कमीशन ने गिरफ्तार कर लिया। मधु कोड़ा को 2013 में जमानत मिली।
कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा को 15 अक्टूबर 2011 को जेल भेज दिया गया। उन्हें 23 दिनों के बाद जमानत मिली। सीबीआई ने छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को 18 मार्च 2007 को गिरफ्तार कर लिया। उन पर एनसीपी के कोषाध्यक्ष राम अवतार जग्गी की हत्या का आरोप लगा था। 2008 में रायपुर की एक अदालत ने उन्हें बरी कर दिया पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल को 1 दिसंबर 2003 को जेल भेज दिया गया जब पटियाला की एक अदालत ने आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में उनकी जमानत अर्जी खारिज कर दी। उन्हें 9 दिसंबर 2003 को जमानत मिली।
अब सवाल महत्वपूर्ण हो चला है कि जिस प्रकार से दिल्ली पुलिस ने फौरी कार्रवाई की, क्या यह देश के दूसरे राज्य पुलिस के लिए नजीर बन पाएगी ? दिल्ली पुलिस ने कई बार अपनी कर्तव्यनिष्ठा और तत्परता को दिखाया है। कई लोग इसे केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच जारी तानातानी से भी जोड़कर देख रहे हैं, लेकिन कार्रवाई तो दिल्ली पुलिस ने अच्छी की है। उसे दाद तो मिलनी ही चाहिए...

Thursday, 4 June 2015

पर्यावरण को देखें, नारी के नजरिए से


महिलाओं का पर्यावरण से क्या संबंध हो सकता है ? क्या यह संबंध पुरुषों से अलग होता है ? यूरोप में बढ़ते पर्यावरण नारीवाद खासकर अमरीका में इस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है । विकासशील देशों में अस्तित्व के लिए हो रहे संघर्षों से महिला और पर्यावरण के संबंध का भौतिक आधार तो मिलता है और एक पर्यावरण नारीवाद के लिए वैकल्पिक पृष्ठभूमि भी । ग्रामीण भारत की औरतें पर्यावरण में हो रहे क्षरण के कारण परेशानियों का सामना कर रही हैं । यह परेशानिया खासतौर से लिंग आधारित हैं । दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण और पुर्नउत्पाद से जुड़े आंदोलनों में महिलाओं की खूब सक्रिय भागीदारी देखने को मिलती है । इसे देखकर हमें पर्यावरण के मुद्दों को अलग से देखने का मौका मिलता है । इस चर्चा को धारणा के स्तर पर ले जाने के लिए और यह देखने के लिए पर्यावरण के मामले में औरत को कितना भुगतना पड़ता है और वो खुद इसके नुकसान में कितना भागीदार है ।
दरअसल, जल, जंगल, जमीन को बाजार अर्थव्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा बना कर भरपूर दोहन किया जाता है। आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो वह जिस नीव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है। अब तक पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, जैसे मुद्धो पर दिसम्बर 2012 तक 165 संन्धिया एवं समझौते हुए है जिसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। इसका कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्धों पर भी विभिन्न राष्ट्र समझौतो के दौरान लाभ-हानि को देखती है और यहाँ तो सृष्टि नष्ट होने के कगार पर है, इन राष्ट्रांे को लाभ हानि की पड़ी हुई है। आज पर्यावरण संरक्षण के नाम पर या जलवायु परिवर्तन, जैव विविद्यता, कार्बन कटौती, के नाम पर कई संन्धि, समझौता, प्रोटोकाल, सम्मेलन हुए है या हो रहे है, कोई ठोस नतीजा नहीं आ रहा है, केवल वे लोग मीटिंग में इटिंग करते है। पर्यावरण संरक्षण हितार्थ ही नहीं वरन् राष्ट्र की हर समस्या के निदान में आज भी पूर्ण प्रासंगिक है और पर्यावरणवाद जो कि आज एक समाजिक आन्दोलन  का रूप धारण कर चुकी है। पर्यावरण कोई स्वाधीन राजनीतिक सिद्धान्त नहीं, यह एक विचारधारात्मक आन्दोलन  है, जो पश्चिमी राजनीति में 1970 के दशक में उभरकर सामने आया है जो धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल गया।
पर्यावरणीय नारीवाद ने महिला को प्रकृति के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि समाज में प्रचीन काल से महिलओं के शोषण के लिए पुरूषों वर्ग ही जिम्मेदार रहा है। इसी तरह पुरूष वर्ग ने पर्यावरण संसाधन का अतिदोहन कर पर्यावरण को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। अतः महिला और प्रकृति दोनो के दमन का श्रेय संयुक्त रूप से पुरूष वर्ग को ही है।  सुसान ग्रिफ्रीन 1984, एड्री कोलार्ड्र 1988, कोल्डकोट और लेलंड 1983 आदि विचारकों ने अपनी पुस्तक में इस बात को स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार से पुरूषों ने महिलाओं का शोषण व दमन किया है, ठीक उसी प्रकार से पुरूषों ने पर्यावरण का शोषण किया है। वंदना शिवा और प्लावुड एडिना मर्चेन्ट आदि पर्यावरणविदांे का मानना है कि प्रकृति और महिला में समानता है क्योंकि दोनांे ही पोषण करते है। प्रकृति और महिला दोनांे में चक्रिय प्रक्रिया होती है तथा दोनांे ही शोषण के शिकार है। इस वर्ग का भी यह मानना है कि, प्रकृति के शोषण का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है क्योंकि ये प्रकृति पर अधिक निर्भर है। (जैसे-जलावन, पानी की व्यवस्था महिलाए ही करती है)। अतः प्रकृति से खिलवाड का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर ही पड़ता है क्यांकि महिलाएं प्रकृति के निकट होती है। वंदना शिवा ने अपनी पुस्तक में हरितक्रांन्ति की विफलता का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार यह वृहद पूँजीपति के लक्षणों वाली विकास की परियोजना जिसे औद्योगीकरण कहती है का दुष्प्रभाव ग्रामीण महिलाओं पर ही पड़ा है। महिलाओं की पहचान और भाग्य प्रकृति के साथ घुला मिला है। महिलाओं का सरल स्वभाव ही उसे पर्यावरण के साथ जोड़ता है। इसी कारण एण्डीकोलार्ड ने महिलाओं को प्रकृति का शिशु कहाँ है। इन्ही कारणा से महिलाएँ पर्यारण को क्षति पहुँचाने वाले सैन्यवाद, औद्योगिकरण का विरोध करती है। इसी क्रम में हम चिपको आंदोलन को देख सकते है। 1970 के दशक में हिमालय क्षेत्रों में वनो का विनाश रोकने के लिए स्त्रीयों के जान देने की घटना के बाद इस आंदोलन को चिपको आन्दोलन का नाम दिया गया। यह आन्दोलन सफल आन्दोलन था जिसमें सुन्दर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, जैसे पर्यावरणविद्ो ने किया है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में आप्पिकों आन्दोलन का श्री गणेश किया गया। इस संदर्भ में पर्यावरण महिलावाद का मानना है कि पुरूषो को भी महिला के समान अपने स्वभाव में करूणा ममता के भाव को लाना होगा। स्त्री के समान ही पुरूषों को पर्यावरण के साथ सम्बद्ध रखने होंगे।
हम आपको बता दें कि वंदना शिवा दुनिया भर में जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भौतिकविद हैं। नवदान्य के तहत वह जैव विविधता बचाने के लिए महिलाओं के ही साथ अभियान चलाती हैं। जीन संवर्धित बीजों और जीवों के वह खिलाफ हैं। बार्बरा उनमुसिग ने पर्यावरण के लिए फायदेमंद नीति बनाने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी और विकास नाम का गैर सरकारी संगठन बनाया है। हबीबा साराबी अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में गर्वनर हैं। उन्होंने यहां पहला राष्ट्रीय उद्यान बनाया लेकिन इसे पर्यटकों से ही नुकसान पहुंचने लगा। उन्होंने समुदाय के नेताओं के साथ संरक्षण मुहिम शुरू की। कनाडा के अट्टावापिस्काट की प्रमुख थेरेसा स्पेंस ने कनाडा के आदिवासियों के लिए संघर्ष शुरू किया और उनके अधिकारों की उच्च स्तर तक पैरवी कर रही हैं। अदाकारा एवा मेंडेस पेटा के एंटी फर अभियान में शामिल तो हुई लेकिन फर की जगह मैं नग्न रहना पसंद करूंगी,  इस टैगलाइन के साथ निर्वस्त्र। कारेन क्रिस्टिना फिगुएरेस ओलसेन संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन समझौते के प्रोग्राम से जुड़ी हैं. वह कोस्टारिका की ओल्सेन टिकाऊ विकास के लिए काम करती हैं। रियो़20 में जब ब्रिटनी ट्रिलफर्ड ने पहली बार भाषण दिया तो वह सिर्फ 17 साल थीं। उन्होंने कहा था, हम सब जानते हैं कि समय निकल रहा और तेजी से निकल रहा है।
गौर करने योग्य यह भी है कि बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का सृजन ही नहीं किया जा सकता, उन्हें बढ़ाना तो सर्वथा असभंव है। वे उनका अन्धाधुन उपयोग करके आधुनिक औद्योगिक समाज ऐसा व्यवसाय चला रहा है जो अपनी जमा पुँजी को खाए जा रहा है, वह अपनी ही क्रब खोद रहा है। धरती किसी कि निजी संम्पती नहीं है यह हमे अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिली, बल्कि यह हमारे पास भावी पीढियों का धरोहर है। पारिस्थिति विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि आर्थिक विकास की अंधी दौड़ ने हमारे पर्यावरण को कितना छती पहुँची है। पिछली कुछ वर्षों यह प्रचार तेजी से चल रहा है कि आंतकवाद ही इस देश के लिए खास खतरा है। मैं हर प्रकार की हिंसा का विरोधी हूँ और मानता हूँ कि वैचारिक शक्ति खत्म होने पर ही इंसान हिंसा, शक्ति का प्रयोग करता है। मैं इस बात को नहीं मानता हूँ कि आतंकवाद को जिस प्रकार आज परिभाषित किया गया है, उसी से देश को या दुनिया को खतरा है। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार या उत्तर प्रदेश में थोड़ा सा भ्रमण करके आइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि आंतक के पीछे असल में कौन है ? खदान चलाने वालों एवं सेज निर्माण में लगी कंम्पनीयों से पीडि़त लाखों-करोड़ों जनता अपनी जान बचाने के लिए मारी मारी फिर रही है। इन्हे पाकिस्तान या इराक के आतंक से फिलहाल कोई खतरा नहीं इनके ऊपर दिन प्रतिदिन जो आतंक का कहर चल रहा है उससे उन्हें कौन मुक्ति दिलाएगा ? आज यही वजह है कि जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में नागरिक और राज्य आमने-सामने हो रहे है, जिसे हम नक्सलवादी कहते हैं।
आदिकाल से ही महिलाओं का प्रकृति से तादात्म्य व जुड़ाव रहा है तथा वे प्रकृत्ति के स्वरूप को यथावत् रखने व उसके संरक्षण के प्रति सजग, सचेत व सचेष्ट रही हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् वन्दना शिवा ने भी इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहा है कि, ष्प्रकृति और महिला में समानता है, क्योंकि दोनों ही पोषण करती हैं।ष् देश की महिलाएं वृक्षों, नदियों, जल स्रोतों व कुओं की पूजा विविध रूपों में करती हैं, जो कि उनके प्रकृत्ति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति आस्था व समर्पण का परिचायक है। वृक्षों में विशेष रूप से पीपल, वटवृक्ष, खेजड़ी, केला, आंवला व तुलसी की पूजा व सिंचन करते हुए महिलाएं पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान दे रही हैं। गौरतलब है कि पीपल अत्यधिक मात्रा में आक्सीजन छोड़कर एवं उससे लगभग दुगुनी मात्रा में कार्बन डाई-आक्साइड गैस को अवशोषित करके पर्यावरण शुद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। इसी भांति, तुलसी जैसा पवित्र पादप श्रद्धा, आस्था व प्रेम का केन्द्रबिन्दु है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी तुलसी पर्यावरण संरक्षण हेतु बेहद लाभप्रद है। यह अंतरिक्ष के ओजोन परत के छिद्रों को भरने में सक्षम है जिससे पराबैंगनी किरणों से मानव की रक्षा होती है। गंगा, यमुना, नर्मदा एवं काबेरी जैसी पवित्र नदियों को ष्मांष् की उपमा से विभूषित किया जाता है तथा महिलाएं उनको भी पूजा-अर्चना करके व उनमें स्नान को पवित्र मानते हुए समाज को उनके संरक्षण का संदेश दे रही हैं।
महिलाओं ने विविध आंदोलन व कार्यक्रमों के माध्यम से पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम हेतु सतत् व प्रभावी प्रयास किये हैं। ज्ञातव्य है कि लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व राजस्थान के एक राजा ने चूना बनाने के लिए अपने रजवाड़े को खेजड़ी के पेड़ों को कटवाने का आदेश दिया। अमृतादेवी नामक विश्नोई महिला के नेतृत्व में अनेक महिलाओं ने इन वृक्षों से चिपककर वृक्षों की कटाई को रोका एवं समाज को वृक्षों के संरक्षण का संदेश दिया। यद्यपि तत्कालीन सामन्तशाही ने इन महिलाओं को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया, किन्तु इस आंदोलन ने पर्यावरण-संरक्षण का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार, उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी की महिलाओं ने ष्रक्षा सूत्रष् आंदोलन का सूत्रपात करते हुए पेड़ों पर ष्रक्षा धागाष् बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। पर्यावरणविद् वंदना शिवा, सुनीता नारायण, मेनका गांधी आदि पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण जागरूकता एवं महिलाओं में पर्यावरण चेतना के बीज बोने हेतु अथक व अनवरत प्रयास कर रही हैं। वर्ष 2004 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित बंगारी मथाई ने ष्ग्रीन बेल्ट आंदोलनष् का शुभारम्भ करते हुए पर्यावरण के क्षेत्र में महिलाओं को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने हेतु अनवरत संघर्ष किया। बंगारी मथाई द्वारा प्रस्तुत चार ष्आरष् की अवधारणा अर्थात् ष्रिड्यूस, रियूज, रिसायकल व रिपेयरष् को मूत्र्त रूप प्रदान करके सम्पूर्ण विश्व को पर्यावरण-संरक्षण का कवच उपलब्ध कराना संभव है।
यदि हम यह कहें कि पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्वव्यापी सहयोग की आवश्यकता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । यूं तो भारत देश गांवों का देश हैं व इसकी ७० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या ग्रामीण अंचलों में निवास करती हैं अतरू जब तक हम गांवाों में पर्यावरण को संरक्षित नहीं करेंगे तब तक पर्यावरण संरक्षण की बातें करना बेमानी होगी । ग्रामीण अंचलों में महिलाएं पर्यावरण को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े करकट व गन्दगी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है । अतीत में ग्रामीण क्षेत्र स्वर्ग थे वे अब नरक में परिवर्तित हो रहे हैं क्योंकि अब वहां न तो पहले जैसी सफाई है व न ही सहयोग की भावना है। आमतौर पर ग्रामीण महिलाएं अपने घर का कूड़ा करकट निकाल कर गली में या किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर डाल देती हैं जिससे मक्खी मच्छर व बदबूदार वातावरण का निर्माण होता है । यह भी देखने में आया है कि ग्रामीण बहनें अपने पशुओं का गोबर गांव के जोहड़ के किनारे डाल देती हैं व जब वर्षा होती है तो वह गोबर बह कर जोहड़ में चला जाता है व जोहड़ का पानी प्रदूषित हो जाता है । जब उसी प्रदूषित पानी को गांव के पशु पीते हैं तो वे बीमार होकर मर जाते हैं । अतरू ग्रामीण बहनों को चाहिए कि वे अपने घर का कूड़ा करकट व पशुओं का गोबर क्रमशरू गली व जोहड़ के पास न डालें। कूड़े करकट व गोबर के लिए एक उपयुक्त स्थान का चयन करके व वहां गड्डा बनाकर डालें तो कई प्रकार के प्रदूषण से बचा जा सकता है । महिलाएं प्लास्टिक की थैलियों का भरपूर उपयोग करती देखी गई है । प्लास्टिक की थैलियों से सामान निकाल कर थैलियों को कूड़ें में या गली मोहल्ले में फैंक देना बहुत ही हानिकारक व घातक सिद्ध होता है । प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण की दुश्मन हैं व जहां एक ओर इनसे मृदा प्रदूषण बढ़ता है वहीं दूसरी ओर नाले एवं सीवर बंद हो जाते हैं जिससे प्रशासन को प्रवाह तंत्र साफ करने में काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है । अतरू बहनों को चाहिए कि जहां तक हो सके वे प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल ही न करें व बाजार से समान लाने हेतु जूट या कपड़े के थैलों का इस्तेमाल करें। यदि किसी कारणवश उन्हें प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल मजबूरन करना भी पड़ता है तो वे खाली थैलियों को गली में ना फैंके बल्कि उनका एक स्थान पर संग्रह करलें व किसी कबाड़ी वाले को बेंच दें ताकि उनका पुनरू किसी कार्य हेतु प्रयोग किया जा सके । ऐसा करने से न तो मृदा प्रदूषण होगा और न ही नालियां बाधित होंगी । बहनों का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चें में भी प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों का निर्माण करें कि वे प्लास्टिक की थैलियों के प्रयोग से परहेज करें । बहनें इंर्धन के लिए लकड़ी या गोबर के बने उपलों का प्रयोग करती हैं। लकड़ी व उपलों के प्रयोग से जहां एक ओर हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है वहीं दूसरी ओर धूएं से बहनों को काफी बीमारियों हो जाती है । महिलाओं को चाहिए कि वे गैर पारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों का इस्तेमाल करें । रसोई के लिए बहनें बायोगैस का प्रयोग कर सकती हैं । बायो गैस के प्रयोग से न तो पर्यावरण ही प्रदूषित होता है और न ही इसके इस्तेमाल में धूएं की वजह से होने वाली कोई बीमारी होती है । आमतौर पर यह देखने में आता है कि इंर्धन का प्रबंध करना महिलाओं की ही जिम्मेवारी होती है क्योंकि खाना बनाने का दायित्व महिला का ही निर्धारित किया गया है ।
पर्यावरण की रक्षा हेतु बिश्नोई सम्प्रदाय की महिला अमृतादेवी का बलिदान अविस्मरणीय है । राजस्थान राज्य के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव की महिला अमृत देवी के नेतृत्व में विक्रम संवत १७८७ में ३६३ स्त्री, पुरूषों ने वृक्षों की रक्षार्थ अपने प्राणों की बलि दी थी। अमृता देवी की प्रतिमा संयुक्त राष्ट्र के पुस्तकालय हाल में लगी हुई इस बात का प्रतीक है कि भारतीय महिलाएं वृक्षों की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहूति भी दे सकती हैं । हमारी महिलाओं को अमृता देवी के बलिदान से प्रेरणा लेकर वृक्षों की तन-मन-धन से रक्षा करनी चाहिए ताकि पर्यावरणीय असंतुलन को दूर किया जा सके ।
गौर करने योग्य यह भी है कि संभवतः पहली बार उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर महाकुंभ में पर्यावरण और बेटी बचाओ, महिला सशक्तिकरण तथा प्रदूषणमुक्त भारत के लिए संतों की ओर से अभियान चलाया गया था। महाकुंभ में आए अखाडे तथा तथा संतों के शिविर से पर्यावरण और बेटी बचाओ का संदेश निकला। इतिहास गवाह है कि सनातन धर्म पर जब भी खतरा सामने दिखा, तो संतो ने शास्त्र एक किनारे रख शस्त्र उठाए। नागा साधु बनने की कथा भी इसमें शामिल है। कडी तपस्या से बनने वाले नागा साधुओं को शास्त्र के साथ शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती है। सतुआ बाबा पीठ के महामंडलेश्वर बाबा संतोष दास ने पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा था कि वायु स्नान को भी महत्वपूर्ण माना गया है। यदि वायु प्रदूषित हुई तो देह भी प्रदूषित होगी तथा कुछ भी सही नहीं होगा। वह अपने आश्रम में आने वाले लोगों को कम से कम एक पौधा लगाने की सीख भी देते है। पेडो से ऑक्सीजन मिलता है, जो किसी के भी जीने के लिए सबसे जरूरी है। जल और वायु तेजी से प्रदूषित हो रही है। शहर ही नहीं गांवो में भी कॉंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे है। लोग पेड़ों को काट कर मकान बना रहे है। मकान किसी को रहने के लिए छत तो दे सकते है, लेकिन जिंदा रहने के लिए शुद्ध वायु जरूरी है।
बीतें दिनों, द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (टेरी) द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, पुरुषों की तुलना में महिलाओं का एक बहुत बड़ा प्रतिशत भी पर्यावरण संरक्षण और विकास को समान महत्व देता है। हाल में टेरी द्वारा जारी पर्यावरण सर्वेक्षण 2014 रिपोर्ट जल और जल संबंधी मुद्दों पर केंद्रित है। यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, कोयंबटूर, गुवाहाटी, इंदौर, जमशेदपुर, कानुपर और पुणे को मिलाकर कुल आठ शहरों में हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है, ष्यह ध्यान देने योग्य बात है कि पुरुषों (36 प्रतिशत) की तुलना में महिलाओं (48 प्रतिशत) के एक उच्च अनुपात ने महसूस किया कि पर्यावरण संरक्षण और विकास साथ साथ चले हैं।ष् इसके अलावा, करीब 40 प्रतिशत महिलाओं ने महसूस किया कि पर्यावरण और विकास बिना किसी दुविधा के साथ चले हैं, जबकि 30 प्रतिशत ने माना कि सरकार को विकास के बजाय पर्यावरण को प्राथमिकता देनी चाहिए।

Tuesday, 2 June 2015

बिहार ने कभी संप्रदायिकता को परवान नहीं चढ़ने दिया


हिन्दुस्तान में बिहार की पहचान कई रूपों में समय-समय पर होती रही है। गौरवमयी अतीत की विरासत और वर्तमान की राजनीति को देखें, तो इस बात को कहने में तनिक भी संदेह नहीं है कि बिहार ने कभी भी संप्रदायिकता को परवान नहीं चढ़ने दिया। हमेशा ही इस देश को रास्ता दिखाया है। राजनीति को नई दिशा दी है। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन का दौर रहा हो अथवा या आज की बात है। हाल के दिनों में जिस प्रकार से राजनीति में कई प्रकार के गुण दोष आ रहे हैं, उसमें भी बिहार की राजनीति ने सामाजिक तुष्टीकरण अथवा संप्रदायिकता को बढ़ावा नहीं दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पूरी राजनीति को आप इस परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं। नीतीश कुमार ने अपनी छवि एक विकास की बात करने और उसे पूरा करने वाले नेता के रूप में बनाई है। यही कारण है कि कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी भी कई मौके पर नीतीश कुमार की नीतियों की सराहना कर चुकी हैं। परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों, राजनीति में अपनी नीति और सिद्धांत पर कायम रहना चाहिए। बिहार की राजनीति में आने वाले दिनों में यदि धर्मनिरपेक्ष ताकत यदि एक मंच पर एक साथ आए और जनता के बीच जाएं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बिहार की राजनीति का ताजा पहलू यह है कि यहां नीतीश और लालू दोनों की राहें अलग हो गईं हैं। लालू नीतीश को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मानने को तैयार नहीं, तो नीतीश विलय के अलावा दूसरे विकल्प गठबंधन के पक्ष में नहीं। कांग्रेस ने नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद ये तय हो गया कि लालू और नीतीश अब साथ-साथ नहीं रहेंगे। लालू ने रघुवंश प्रसाद सिंह के बयान का खंडन तो दूर, उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर राजनीतिक सौदा नहीं पटा तो सबकी राहें अलग-अलग होंगी। हाजीपुर में लालू और नीतीश जब गले मिल रहे थे, तो उस वक्त भी इनका दिल नहीं मिला था। राजनीतिक मजबूरी ने इन दोनों को एक साथ खड़ा कर दिया पर उस वक्त ही ये कयास लगाए जा रहे थे कि ये दोस्ती कब तक? आज दोनों की पार्टीयां एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलने लग गईं हैं। राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की बात तो दूर, उनकी वजह से वोट का नुकसान होने की बात कह दी।
 नीतीश और लालू दोनों एक साथ बैठने को तैयार नहीं हैं। नीतीश विलय से नीचे किसी बात पर मानने को तैयार नहीं और लालू अब विलय के पक्ष में नहीं। पिछले कई दिनों से लालू और उनकी पार्टी के नेता मीडिया के जरिये नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे थे। लालू पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को अपने साथ लाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे, कुल मिलाकर नीतीश विरोधी नेताओं को साथ लेकर नीतीश पर दबाव बना रहे थे, पर नीतीश ने भी तय कर लिया है कि अब लालू के साथ जाना सम्भव नहीं। इसलिए नपे-तुले और सधे अंदाज में जवाब दे रहे हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव लालू और नीतीश के बीच सहमति बनाने की कोशिश करते रहे पर बात नहीं बनी। आखिर दोनों की दोस्ती टूट ही गई।
असल में, बीते कई दशक से देश की राजनीति गठबंधन युग में है। देश में राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ की राजनीति के तीन बड़े प्रयोग हुए हैं। जनता पार्टी, जनता दल और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन। बाद में यूपीए की कहानी भी जुड़ गई। आपातकाल के विरोध में 1977 में सत्ता में आते ही जनता पार्टी वैचारिक मतभेद की शिकार हो गई। दूसरी बार 1989 में गैर कांग्र्रेसी नेता जनता दल के रूप में एकजुट हुए, लेकिन यह प्रयोग भी कामयाब नहीं हो सका। मंडल कमीशन और राम मंदिर के मुद्दे पर सारे धड़े बिखर गए। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार को 13 दिन में ही इस्तीफा देना पड़ा। मध्यावधि चुनाव के बाद फिर बनी सरकार 13 महीने में गिर गई, मगर 1999 में राजग गठबंधन सफल रहा। अटल बिहारी वाजपेयी ने कई छोटे दलों को साथ लेकर पांच साल तक गठबंधन सरकार चलाई। बाद में कांग्रेस भी इसी राह पर चली और कई दलों के साथ लंबा रास्ता तय किया।
विधानसभा चुनाव से पहले जनता परिवार में विलय की कहानी के खत्म होते ही गठबंधन की कोशिशों और उसकी कामयाबी पर सवाल उठना लाजिमी है। विलय में पेंच के बाद बिहार के दो बड़े दल राजद और जदयू में अभी भी किंतु-परंतु बरकरार हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता के लिए सियासी दोस्ती का रास्ता कितना कामयाब रहा है। बिहार में इसकी परख हो चुकी है और बहुत हद तक यह प्रयोग सफल भी हो चुका है।
देश के कई राज्यों में सियासी उठापटक और दांव पेंच के दौर में गठबंधन के फॉर्मूले को एक विकल्प के तौर पर आजमाया जाता रहा है। कई बार जनता ने इसे स्वीकार भी किया है और एक हद तक कशमकश झेलने के बाद झटक भी दिया है। हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे से लेकर सरकार बनाने तक के मुद्दों पर शिवसेना और भाजपा की तकरार भी गठबंधन की राजनीति के लिए एक सबक है। मगर बिहार में भाजपा और जदयू (2003 के पहले समता पार्टी) की दोस्ती बिना किसी तकरार के लगभग 17 सालों तक जारी रही। केंद्र से लेकर राज्य में दोनों दलों ने धैर्य के साथ सरकारें चलाईं।
लालू प्रसाद के लंबे के एकाधिकार को चुनौती देने के लिए बिहार में नीतीश कुमार के साथ मिलकर भाजपा ने गठबंधन की नींव डाली थी। 1996 में नीतीश कुमार की समता पार्टी के साथ भाजपा की शुरू हुई दोस्ती 2013 तक निर्विवाद चलती रही। 2003 में नीतीश जब जदयू को लेकर अलग हो गए तो भी दोस्ती जारी रही। इसी गठबंधन ने 2005 में लालू प्रसाद का तिलिस्म तोड़ा। फिर राजधर्म और संयम के साथ लगभग सात वर्षों तक बिहार में भी साथ-साथ सरकार चलाई। सत्ता की मजबूरियों और दांव पेच की राजनीति ने आखिरकार लोकसभा चुनाव के पहले 2013 में दोनों को अलग-अलग रास्ते पर चलने को बाध्य कर दिया। भाजपा-जदयू गठबंधन के सफल प्रयोग से नसीहत लेकर 2010 के विधानसभा चुनाव में राजद और रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने भी दोस्ती कर ली, लेकिन चुनाव में कोई ख्रास उपलब्धि हासिल नहीं कर पाने के कारण दोनों अपने अपने रास्ते पर चल निकले।
असल में, राज्यों में गठबंधन सरकार की शुरुआत लगभग 48 साल पहले हुई थी। 1967 में जब सात प्रदेशों में कांग्रेस बहुमत से पिछड़ गई थी तो छह राज्यों में कई दलों ने मिलकर संयुक्त सरकार का गठन किया था। ऐसी ही कोशिशों से केरल में बनी सरकार बहुत दिन तक नहीं चल पाई, लेकिन पश्चिम बंगाल में लगभग तीन दशक तक गठबंधन सरकार चलती रही। वैसे इसके पहले बड़े स्तर पर बेमेल गठबंधन सबसे पहले उत्तर प्रदेश में हुआ था, जब मायावती के साथ भाजपा ने सरकार बनाई थी। कुछ दिनों तक तो यह प्रयोग सफल भी रहा था, मगर फिर दोनों की राहें अलग-अलग हो गई थीं।

Monday, 1 June 2015

मुसीबतों और परेशानियों से निजात की रात



शब-ए-बारात दो शब्दों, शब और बारात से मिलकर बना है, जहाँ शब का अर्थ रात होता है वहीं बारात का मतलब बरी होना होता है। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार यह रात साल में एक बार शाबान महीने की 14 तारीख को सूर्यास्त के बाद शुरू होती है। मुसलमानों के लिए यह रात बेहद फज़ीलत (महिमा) की रात होती है, इस दिन विश्व के सारे मुसलमान अल्लाह की इबादत करते हैं। वे दुआएं मांगते हैं और अपने गुनाहों की तौबा करते हैं। यह रात जहन्नम से निजात और छुटकारे की रात हैं। शब-ए-बारात त्योहार या मेला-ठेला नहीं बल्कि अल्लाह की ओर से विशेष तौर से रहमत बरसाने की रात है।इस इबादत के जरिये अमाल दुरुस्त किये जा सकते हैं। इबादत की बिनाह पर ही मगफिरत के दरवाजे खुल जाते हैं।
इस रात में अल्लाह की इबादत व दिन में रोजा रखना अफजल माना गया है। माहे शाबान से रमजान की तैयारी शुरु हो जाती है। शब-ए-बारात अल्लाह की मुकददस रातों में एक अनमोल रहमत व फजीलत वाली रात है। जिस का जिक्र कुरान व हदीश में कई बार आया है।
शब-ए-बारात को लेकर मुस्लिम धर्मावलम्बियों ने मस्जिदों, मदरसों, अपने घरों, दुकानों, प्रतिष्ठानों की साफ-सफाई के कार्य शुरु कर दिया है। कब्रिस्तानों में भी रोशनी की व्यवस्था को लेकर लोग लाइटिंग का काम जारी है। शब-ए-बारात मंगलवार को मनाया जाएगा। इसे लेकर हाट-बाजारों में रौनक बढ़ गई है। इस्लामी कैलेंडर के आठवीं महीने को शाबान कहा जाता है। और माहे शाबान के 15वीं की रात को शब-ए-बारात कहा जाता है। शब-ए-बारात का अर्थ है, एक बुलंदी रात। क्योंकि इस रात को अल्लाह पाक के दरबार में तौबा कबूल होती है। इस रात को अल्लाह की रहमतों व नेकियों के दरवाजे खुल जाते हैं। बरकतों का नजूल होता है और बंदों के खताएं (गुनाहे) बारगाहे इलाही में माफ किया जाता है। मजहबे इस्लाम में शाबान एक मुकददश महीना माना जाता है। इस महीना को हजरत मोहम्मद सलल्ललाहे अलैहे व सल्लत का महीना करार दिया गया है। मजहबे इस्लाम के पैगम्बार हजरत मोहम्मद (सल्ले) ने फरमाया है कि शब-ए-बारात की रात को जागा करो, और दिन में रोजा रखो। इस रात अल्लाह पाक अपने शान व शौकत के मुताबिक आसमान से दुनिया में रहमतों का नजूल फरमाता है और ऐलान करता है कि है कोई मगफीरत तलब करने वाला, है कोई रिज्क मांगने वाला, है कोई मुसीबत जदा इंसान ताकी मैं उसे निजात बखशूं। यह सिलसिला सुबह फजर तक जारी रहता है। इस रात को अल्लाह के जानीब से बंदों के लिए रोजी-रोटी, हयात-व-मौत व दिगर काम की सूची तैयार (फेहरिस्त) की जाती है। शब-ए-बारात की पूरी रात अल्लाह की इबादत में गुजारना बहुत बड़ी नेकी है। इस रात के पहले हिस्से में कब्रिस्तान जाकर पूर्वजों के कब्रो की जियारत करने और दूसरे हिस्से में कुरआन पाक को तिलावत, नफल व तहजूद की नमाज अदा कर रो-रो कर अल्लाह से अपनी गुनाहों की मगफीरत मांगने से अल्लाह बंदों की गुनाहों की बखशिश कर देते है। 

बढ़ रही महंगाई, कहां है अच्छे दिन


केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने महंगाई को एक बार फिर न्यौता दिया है। सर्विस टैक्स बढ़ने से तमाम चीजें महंगी हो गई है।केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा बजट में प्रस्तावित सेवा कर में वृद्धि आज से लागू हो गई। 12.36 प्रतिशत सर्विस टैक्स की दर आज से बढ़कर 14 फीसदी हो गई है। सर्विस टैक्स की नई दरें लागू होने से घर खरीदना महंगा हो गया है। इसका असर निर्माणाधीन प्रॉपर्टी पर भी होगा। प्रॉपर्टी की कीमतें बढ़ने के साथ नए खरीदारों को घर खरीदने के लिए अधिक कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा अन्य शुल्क भी बढ़ जाएंगे मसलन लीगल फीस, होम इंश्योरेंस व रजिस्ट्री फीस आदि। आज से सर्विस टैक्स 12.36 फीसदी से बढ़कर 14 फीसदी हो गया है. सर्विस टैक्स बढ़ने से खाना-पीना घूमना-फिरना, मोबाइल, क्रेडिट कार्ड और इंश्योरेंस समेत 120 सेवाएं महंगी हो गई है. इनमें 5 से 50 रुपए तक इजाफा हुआ है. ट्रेन में एसी में सफर करने पर भी अब पांच रुपए ज्यादा देने होंगे यानी 1000 रुपए के एसी टिकट पर 5 रुपया ज्यादा देना होगा. वहीं रेस्टोरेंट में खाना खाने पर 49 रुपए ज्यादा देने होंगे. मोबाइल बिल और डीटीएच रिचार्ज में16 रुपए ज्यादा देने होंगे. इंश्योरेंस का प्रीमियम भी महंगा हो गया है. पहले साल के प्रीमियम पर पहले 3 फीसदी सर्विस टैक्स लगता था जो अब बढ़कर 3.50 फीसदी हो गया है.

क्या हो गया महंगा?

-रेस्तरां में खाना, होटल में रहना, मनोरंजन, हवाई यात्रा, ट्रेनों के एसी क्लास के टिकट, माल ढुलाई, ईवेंट मैनेजमेंट, केटरिंग, सैलून, शराब, बीमा प्रीमियम, टिकट बुकिंग आदि।
-सेवा कर की नई दरें लागू होने से प्रॉपर्टी खरीदने पर भी जेब पर अधिक बोझ पड़ेगा। इसका असर निर्माणाधीन प्रॉपर्टी पर भी होगा।
- जीवन बीमा के पहले वर्ष के प्रीमियम पर सेवा कर की दर 3 फीसद से बढ़कर 3.5 फीसद हो जाएगी।
- नई सेवा कर की दरें लागू होने से घरेलू उड़ानों में सेवा कर की दरें 0.6 फीसद से बढ़कर 0.7 फीसद जबकि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए सेवा कर की दरें 1.2 फीसद से बढ़कर 1.4 फीसद हो जाएंगी।
-पहली जून से सर्विस टैक्स की बढ़ी दर लागू होने से रेलवे के फर्स्ट क्लास और वातानुकूलित दर्जों के किराये बढ़ जाएंगे
रेस्टोरेंट में खाना, होटल में रहना, मनोरंजन, हवाई यात्रा, ट्रेनों के एसी क्लास के टिकट, माल ढुलाई, ईवेंट मैनेजमेंट, केटरिंग, सैलून, शराब, बीमा प्रीमियम, टिकट बुकिंग आदि भी महंगी हो गई है। प्रथम श्रेणी और एसी श्रेणी के टिकटों पर अभी यात्रियों को 3.078 फीसदी की दर से सेवा कर देना होता है। एक जून से यह दर बढ़कर 4.2 फीसदी हो गई है। यानी इनके मुसाफिरों को 0.5 फीसदी की दर से अधिक सेवा कर चुकाना होगा।
जीवन बीमा के पहले वर्ष के प्रीमियम पर सेवा कर की दर 3 फीसदी से बढ़कर 3.5 फीसदी हो गई है। इसके आगे के प्रीमियम पर अभी 1.5 फीसदी का सेवा कर लग रहा है। आज से इसकी दर 1.75 फीसदी हो जाएगी। नई सेवा कर की दरें लागू होने से घरेलू उड़ानों में सेवा कर की दरें 0.6 फीसदी से बढ़कर 0.7 फीसदी जबकि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए सेवा कर की दरें 1.2 फीसदी से बढ़कर 1.4 फीसदी हो गई हैं।

बढ़ रही महंगाई, कहां है अच्छे दिन


केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने महंगाई को एक बार फिर न्यौता दिया है। सर्विस टैक्स बढ़ने से तमाम चीजें महंगी हो गई है।केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा बजट में प्रस्तावित सेवा कर में वृद्धि आज से लागू हो गई। 12.36 प्रतिशत सर्विस टैक्स की दर आज से बढ़कर 14 फीसदी हो गई है। सर्विस टैक्स की नई दरें लागू होने से घर खरीदना महंगा हो गया है। इसका असर निर्माणाधीन प्रॉपर्टी पर भी होगा। प्रॉपर्टी की कीमतें बढ़ने के साथ नए खरीदारों को घर खरीदने के लिए अधिक कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा अन्य शुल्क भी बढ़ जाएंगे मसलन लीगल फीस, होम इंश्योरेंस व रजिस्ट्री फीस आदि। आज से सर्विस टैक्स 12.36 फीसदी से बढ़कर 14 फीसदी हो गया है. सर्विस टैक्स बढ़ने से खाना-पीना घूमना-फिरना, मोबाइल, क्रेडिट कार्ड और इंश्योरेंस समेत 120 सेवाएं महंगी हो गई है. इनमें 5 से 50 रुपए तक इजाफा हुआ है. ट्रेन में एसी में सफर करने पर भी अब पांच रुपए ज्यादा देने होंगे यानी 1000 रुपए के एसी टिकट पर 5 रुपया ज्यादा देना होगा. वहीं रेस्टोरेंट में खाना खाने पर 49 रुपए ज्यादा देने होंगे. मोबाइल बिल और डीटीएच रिचार्ज में16 रुपए ज्यादा देने होंगे. इंश्योरेंस का प्रीमियम भी महंगा हो गया है. पहले साल के प्रीमियम पर पहले 3 फीसदी सर्विस टैक्स लगता था जो अब बढ़कर 3.50 फीसदी हो गया है.

क्या हो गया महंगा?

-रेस्तरां में खाना, होटल में रहना, मनोरंजन, हवाई यात्रा, ट्रेनों के एसी क्लास के टिकट, माल ढुलाई, ईवेंट मैनेजमेंट, केटरिंग, सैलून, शराब, बीमा प्रीमियम, टिकट बुकिंग आदि।
-सेवा कर की नई दरें लागू होने से प्रॉपर्टी खरीदने पर भी जेब पर अधिक बोझ पड़ेगा। इसका असर निर्माणाधीन प्रॉपर्टी पर भी होगा।
- जीवन बीमा के पहले वर्ष के प्रीमियम पर सेवा कर की दर 3 फीसद से बढ़कर 3.5 फीसद हो जाएगी।
- नई सेवा कर की दरें लागू होने से घरेलू उड़ानों में सेवा कर की दरें 0.6 फीसद से बढ़कर 0.7 फीसद जबकि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए सेवा कर की दरें 1.2 फीसद से बढ़कर 1.4 फीसद हो जाएंगी।
-पहली जून से सर्विस टैक्स की बढ़ी दर लागू होने से रेलवे के फर्स्ट क्लास और वातानुकूलित दर्जों के किराये बढ़ जाएंगे
रेस्टोरेंट में खाना, होटल में रहना, मनोरंजन, हवाई यात्रा, ट्रेनों के एसी क्लास के टिकट, माल ढुलाई, ईवेंट मैनेजमेंट, केटरिंग, सैलून, शराब, बीमा प्रीमियम, टिकट बुकिंग आदि भी महंगी हो गई है। प्रथम श्रेणी और एसी श्रेणी के टिकटों पर अभी यात्रियों को 3.078 फीसदी की दर से सेवा कर देना होता है। एक जून से यह दर बढ़कर 4.2 फीसदी हो गई है। यानी इनके मुसाफिरों को 0.5 फीसदी की दर से अधिक सेवा कर चुकाना होगा।
जीवन बीमा के पहले वर्ष के प्रीमियम पर सेवा कर की दर 3 फीसदी से बढ़कर 3.5 फीसदी हो गई है। इसके आगे के प्रीमियम पर अभी 1.5 फीसदी का सेवा कर लग रहा है। आज से इसकी दर 1.75 फीसदी हो जाएगी। नई सेवा कर की दरें लागू होने से घरेलू उड़ानों में सेवा कर की दरें 0.6 फीसदी से बढ़कर 0.7 फीसदी जबकि अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए सेवा कर की दरें 1.2 फीसदी से बढ़कर 1.4 फीसदी हो गई हैं।

सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्ध थे नीलम संजीव रेड्डी

आंध्र-प्रदेश के एक कृषक परिवार में जन्मे नीलम संजीवा रेड्डी एक अनुभवी राजनेता ही नहीं बल्कि एक अच्छे कवि और कुशल प्रशासक भी थे. वह विद्यार्थी जीवन से ही राष्ट्रवादी व्यक्तित्व के इंसान थे. एक सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार से संबंधित होने के कारण उनका स्वभाव बेहद सामान्य था. वह एक पक्के राष्ट्रवादी व्यक्ति थे.नीलम संजीवा रेड्डी भारत के छठें और अब तक के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर पहली बार असफल हुए थे, जबकि दूसरी बार उम्मीदवार बनाए जाने पर राष्ट्रपति पद के लिए इनका चुनाव निर्विरोध हुआ था. नीलम संजीव रेड्डी का जन्म 19 मई, 1913 को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के एक कृषक परिवार में हुआ था. इनका परिवार एक संभ्रांत और भगवान में आस्थावान था. नीलम संजीवा रेड्डी के पिता नीलम चिनप्पा रेड्डी कॉग्रेस के पुराने कार्यकर्ता और प्रसिद्ध नेता टी. प्रकाशम के साथी थे. नीलम संजीवा रेड्डी की प्रारंभिक शिक्षा थियोसोफिकल हाई स्कूल अडयार, मद्रास में सम्पन्न हुई थी. आगे की पढ़ाई उन्होंने आर्ट्स कॉलेज अनंतपुर से प्राप्त की. महात्मा गांधी से प्रभावित होकर जब लाखों युवा पढ़ाई-लिखाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद रहे थे तो नीलम संजीवा रेड्डी भी मात्र अठारह वर्ष की आयु में स्वतंत्रता आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे. इस दौरान उन्हें कई बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी.
मात्र अठारह वर्ष की आयु में नीलम संजीवा रेड्डी स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए थे. इतना ही नहीं, महात्मा गांधी से प्रभावित होकर विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने पहला सत्याग्रह भी किया. उन्होंने युवा कॉग्रेस के सदस्य के रूप में अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की. बीस वर्ष की उम्र में ही नीलम संजीवा रेड्डी काफी सक्रिय हो चुके थे. सन 1936 में नीलम संजीवा रेड्डी आंध्र प्रदेश कांग्रेस समिति के सामान्य सचिव निर्वाचित हुए. उन्होंने इस पद पर लगभग 10 वर्षों तक कार्य किया. नीलम संजीव रेड्डी संयुक्त मद्रास राज्य में आवासीय वन एवं मद्य निषेध मंत्रालय के कार्यों का भी सम्पादन करते थे. 1951 में इन्होंने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, ताकि आंध्र प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद के चुनाव में भाग ले सकें. इस चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी प्रोफेसर एन.जी. रंगा को हराकर अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे. इसी वर्ष यह अखिल भारतीय कांग्रेस कार्य समिति और केन्द्रीय संसदीय मंडल के भी निर्वाचित सदस्य बन गए. नीलम संजीवा रेड्डी ने कांग्रेस पार्टी के तीन सत्रों की अध्यक्षता की. 10 मार्च, 1962 को इन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और यह 12 मार्च, 1962 को पुन: आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. वह इस पद पर दो वर्ष तक रहे. उन्होंने खुद ही अपने पद से इस्तीफा दिया था. 1964 में नीलम संजीवा रेड्डी राष्ट्रीय राजनीति में आए और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इन्हें केन्द्र में स्टील एवं खान मंत्रालय का भार सौंप दिया. इसी वर्ष वह राज्यसभा के लिए भी मनोनीत हुए और 1977 तक इसके सदस्य रहे. 1971 में जब लोक सभा के चुनाव आए तो नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस-ओ के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे लेकिन इन्हें हार का सामना करना पड़ा. इस हार से श्री रेड्डी को गहरा धक्का लगा. वह अनंतपुर लौट गए और अपना अधिकांश समय कृषि कार्यों में ही गुजारने लगे. एक लम्बे अंतराल के बाद 1 मई, 1975 को श्री नीलम संजीव रेड्डी पुन: सक्रिय राजनीति में उतरे. जनवरी 1977 में यह जनता पार्टी की कार्य समिति के सदस्य बनाए गए और छठवीं लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की ओर से आंध्र प्रदेश की नंड्याल सीट से उन्होंने अपना नामांकन पत्र भरा. जब चुनाव के नतीजे आए तो वह आंध्र प्रदेश से अकेले गैर कांग्रेसी उम्मीदवार थे, जो विजयी हुए थे. 26 मार्च, 1977 को श्री नीलम संजीव रेड्डी को सर्वसम्मति से लोकसभा का स्पीकर चुन लिया गया. लेकिन 13 जुलाई, 1977 को उन्होने यह पद छोड़ दिया क्योंकि इन्हें राष्ट्रपति पद हेतु नामांकित किया जा रहा था, जिसमें नीलम संजीव रेड्डी सर्वसम्मति से निर्विरोध आठवें राष्ट्रपति चुन लिए गए. नीलम संजीवा रेड्डी को श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, त्रिमूर्ति द्वारा 1958 में सम्मानार्थ डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई.
राष्ट्रपति पद का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करने के चौदह वर्ष बाद नीलम संजीवा रेड्डी का निधन हो गया. नीलम संजीवा रेड्डी के जीवन वृत्तांत पर नजर डालें तो यह स्वीकार करना होगा कि उन्होंने राजनीति में रहते हुए उसकी गरिमा का सदैव पालन किया. राष्ट्रवादी सोच और राजनीतिज्ञ के रूप में इनका अनुशासन भाव निश्चय ही प्रंशसनीय रहा है. नीलम संजीवा रेड्डी ने एक राष्ट्रपति के रूप में भी संवैधानिक मर्यादाओं का सफलतापूर्वक निर्वहन किया था.