Thursday, 30 October 2014

‘लौह महिला’ थीं इंदिरा गांधी



भारतीय राजनीति के फलक पर श्रीमती इंदिरा गांधी का उभार ऐसे समय में हुआ था, जब देश नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था। शुरू में ‘गूंगी गुड़िया’ कहलाने वाली इंदिरा ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व से न केवल देश को कुशल नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की धाक जम दी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह के अनुसार, इंदिरा एक कुशल प्रशासक थीं। उनके सक्रिय सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया। जिससे इतिहास और भूगोल दोनों बदल गए। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बचपन से ही इंदिरा में नेतृत्व के गुण मौजूद थे। भारत की आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए इंदिरा ने बचपन में ही ‘वानर सेना’ का गठन किया था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कलीम बहादुर के अनुसार, इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्रित्व काल बहुत अच्छा था। उन्होंने बहुत से ऐसे काम किए, जिससे विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा। उन्होंने भारत की विदेश नीति को नए तेवर दिए, बांग्लादेश का बनना उनमें से एक उदाहरण है। इससे उन्होंने विश्व मानचित्र पर देश का दबदबा कायम किया। जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू के घर इंदिरा का जन्म 19 नवंबर 1917 को हुआ था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन में पढ़ाई करने वाली इंदिरा बचपन में काफी संकोची स्वभाव की थीं। इनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के आनंद भवन में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम है- श्इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधीश्। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरु और दादा का नाम मोतीलाल नेहरु था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम कमला नेहरु था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इंदिराजी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफी संपन्न था। अतरू इन्हें आनंद भवन के रूप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ। इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रूप में उन्हें मां लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरु ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरु और कमला नेहरु स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रूप श्इंदुश् था।
इंदिरा गांधी कभी भी अमेरिका जैसे राष्ट्रों के सामने झुकी नहीं। विकीलिक्स की ओर से किए गए खुलासों में यह बात सामने आई है कि निक्सन जैसे शक्तिशाली राष्ट्रपति भी उनसे काफी नाराज थे। लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। अपनी राजनीतिक पारी के शुरुआती दिनों में ‘गूंगी गुड़िया’ के नाम से जानी जाने वाली इंदिरा बाद के दिनों में बहुत बड़ी ‘जननायक’ बन कर उभरीं। उनके व्यक्तित्व में अजीब सा जादू था, जिससे लोग खुद ब खुद उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। वह एक प्रभावी वक्ता भी थीं, जो अपने भाषणों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं।
रूसी क्रांति के साल 1917 में 19 नवंबर को पैदा हुईं इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत को एक नया गौरवपूर्ण क्षण दिलवाया। दृढ़ निश्चयी और किसी भी परिस्थिति से जूझने और जीतने की क्षमता रखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न केवल इतिहास, बल्कि पाकिस्तान को विभाजित कर दक्षिण एशिया के भूगोल को ही बदल डाला और 1962 के भारत चीन युद्ध की अपमानजनक पराजय की कड़वाहट धूमिल कर भारतीयों में जोश का संचार किया।
यदि यह कहा जाए कि हमारे देश में इंदिरा गांधी आखिरी जन नायक थीं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके बाद कभी उन जैसे राजनेता नहीं हुआ। आपातकाल लगाने के बाद उन्हें चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर से चुनाव में वह विजयी होकर लौटीं और अकेले अपने दम पर सरकार का गठन किया। आज गठबंधन की सरकारें बन रही हंै। आज के किसी भी राजनेता में इंदिरा गांधी की तरह वह जादुई ताकत नहीं है कि अपने अकेले दल के दम पर सरकार बना सके। पंजाब में आतंकवाद का सामना करते हुए अपने प्राणों की आहूति देने वाली इंदिरा गांधी को अपने छोटे बेटे संजय गांधी के आकस्मिक निधन से काफी दुख पहुंचा था। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में लगभग 10 सालों तक शामिल रहे कर्ण सिंह ने कहा कि संजय के निधन से उन्हें काफी दुख पहुंचा था, लेकिन राजीव गांधी से उन्हें काफी संबल मिला।
1957 के आम चुनाव के समय पंडित नेहरू ने जहाँ श्री लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेसी उम्मीदवारों के चयन की जिम्मेदारी दी थी, वहीं इंदिरा गाँधी का साथ शास्त्रीजी को प्राप्त हुआ था। शास्त्रीजी ने इंदिरा गाँधी के परामर्श का ध्यान रखते हुए प्रत्याशी तय किए थे। लोकसभा और विधानसभा के लिए जो उम्मीदवार इंदिरा गाँधी ने चुने थे, उनमें से लगभग सभी विजयी हुए और अच्छे राजनीतिज्ञ भी साबित हुए। इस कारण पार्टी में इंदिरा गाँधी का कद काफी बढ़ गया था। लेकिन इसकी वजह इंदिरा गाँधी के पिता पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री होना ही नहीं था इंदिरा में व्यक्तिगत योग्यताएं भी थीं। इंदिरा गाँधी को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने के आरोप उस समय पंडित नेहरू पर लगे। 1959 में जब इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो कई आलोचकों ने दबी जुबान से पंडित नेहरू को पार्टी में परिवारवाद फैलाने का दोषी ठहराया था। लेकिन वे आलोचना इतने मुखर नहीं थे कि उनकी बातों पर तवज्जो दी जाती। वस्तुतः इंदिरा गाँधी ने समाज, पार्टी और देश के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त थी। विदेशी राजनयिक भी उनकी प्रशंसा करते थे। इस कारण आलोचना दूध में उठे झाग की तरह बैठ गई। कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा गाँधी ने अपने कौशल से कई समस्याओं का निदान किया। उन्होंने नारी शाक्ति को महत्त्व देते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी में महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किए। युवा शक्ति को लेकर भी उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लिए। इंदिरा गाँधी 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बनी थीं।
भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत भूमि को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुकघबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की गलतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया। इंदिरा गाँधी, नेहरू के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर कघयम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नजदीकी सम्बन्ध कघयम किए और पाकिस्तान-भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं। जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शक्ति और धैर्य था।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की साम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे जो एक ऐसी नेता की ओर इशारा करते थे, जो आज्ञा का पालन करवाने और डंडे के जोर पर शासन करने की क्षमता रखती थी। मौजूदा जटिल दौर में देश के कई कोनों से नेतृत्व संकट की आवाज उठ रही है। कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें मजबूती से कुछ चीजों के, कुछ मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना होता है और कुछ की उतनी ही तीव्रता से मुखालफत करनी होती है। आज भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी की छवि कुछ ऐसे ही संकल्पशील नेता की है। इंदिरा गांधी 16 वर्ष देश की प्रधानमंत्री रहीं और उनके शासनकाल में कई उतार-चढ़ाव आए। अंतरिक्ष, परमाणु विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा गांधी के बगैर नहीं की जा सकती थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय उन्हें ही जाता है। आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद उपजे तनाव के बीच उनके निजी अंगरक्षकों ने ही 31 अक्टूबर 1984 को गोली मार कर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी।

माटी के लाल थे रॉबिन शॉ पुष्प

वरिष्ठ साहित्यकार रॉबिन शॉ पुष्प नहीं रहे। अस्सी वर्षीय रॉबिन शॉ पुष्प ने आज दोपहर तकरीबन दो बजे पटना स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। वह पिछले कुछ दिनो से बीमार चल रहे थे। आजीवन स्वतंत्र लेखक रहे रॉबिन शॉ पुष्प की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें उपन्यास, कहानियां, कविताएं, लेख, नाटक और बाल साहित्य आदि शामिल है। अन्याय को क्षमा, दुल्हन बाजार जैसे उपन्यास, अग्निकुंड, घर कहां भाग गया कहानी संग्रह और फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखी संस्मरण पुस्तक सोने की कलम वाला हिरामन उनकी चर्चित कृतियां हैं।
शॉ का मुंगेर से पुराना वास्ता रहा है। यहां उन्होंने पढ़ाई की, खेला कूदा और साहित्य के आसमान में उड़ान भरना भी शुरु किया। सन 1955-58 में आरडी एंड डीजे कॉलेज के छात्र रहे। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के दौरान ही वे गोपाल प्रसाद नेपाली जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार के सानिध्य में रहने लगे। शॉ के गुरु रहे प्रोफेसर शिवचंद प्रताप ने शॉ के निधन पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि वे काफी खुशमिजाज किस्म के छात्र थे। वे इधर-उधर से ज्यादा समय किताबों को देते थे। वे बताते हैं कि शॉ के समकालीन प्रसिद्ध साहित्यकार गोपाल सिंह नेपाली मुंगेर आने पर प्राय: उन्हीं के घर ठहरते थे और कवि सम्मेलन में भाग लेते थे।




याद तुम्हारी
जैसे पलकों में झपकी
या दरवाज़े पर थपकी
याद तुम्हारी आई
कुछ वैसे, तब की अब की!

सुधियों से धुँआया
मन ऐसे
विधवा का जलता
तन जैसे

हूँ चौखट पर, बुझी-बुझी
मैं राख प्रतीक्षा-तप की!

पर साल रहे
पेटी कंगना
पीड़ा के चरण
उगे अंगना
ठहर-ठहर, ज्यों रुकी-रुकी
गुज़र गई, मीरा अब की!

फ़रक नहीं छूए
घूँघट में
या फिर मुहरे लगें
टिकट में
दोनों बोझिल, पड़े-पड़े
गड़ते, आँखों में सबकी!

धोबिन विधि के
हाथों टूटे
टाँके गए
खुशी के बूटे

आओ भी, लाज रखो अब
प्रीत हुई, नंगी कब की!

रॉबिन शॉ पुष्प, २८ अप्रैल २००८

Monday, 27 October 2014

कुप्रभाव से रक्षा करने का महापर्व


आशा, त्याग और विश्वास का महापर्व छठ, सोमवार को नहाए खाए से शुरू हो रहा है। संतान सुख की आशा और छठ मइया पर विश्वास के साथ व्रती 48 घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं। इसी आस्था के साथ घाटों पर भीड़ उमड़ती है। इसे लेकर तैयारी शुरू हो गई है। सूर्य उपासना का पर्व डाला छठ सोमवार से शुरू हो गया। महिलाओं ने सायंकाल चने की दाल, लौकी की सब्जी तथा हाथ की चक्की से पीसे आटे की पूड़ी खाया। मंगलवार को खरना है। इस दिन दिन में व्रत रखकर सायंकाल रोटी व गन्ने का रस अथवा गुड़ की बनी खीर खाएंगी। चार दिवसीय इस पर्व को लेकर महिलाओं में उत्साह देखा जा रहा है। प्रथम दिन से ही सूर्य की पूजा शुरू हो गई है। चार दिवसीय इस पर्व की तैयारी भी व्यापक रूप से की जा रही है। पर्व में प्रयुक्त होने वाले सामानों की अस्थाई दुकानें भी लग गई हैं। वहां खरीदने के लिए महिलाओं की भीड़ पहुंच रही है। सूप, दौरी, चलनी के अलावा मिट्टी के पात्रों की भी खूब खरीदारी की जा रही है। यह खरीदारी देर रात तक होती है, इसलिए शहर ही नहीं गांवों के बाजार तथा कस्बों में भी चहल-पहल बढ़ गई है।

इस दिन व्रतधारी दिनभर उपवास करते हैं और शाम में भगवान सूर्य को खीर-पूड़ी, पान-सुपारी और केले का भोग लगाने के बाद खुद खाते हैं. यह व्रत काफी कठिन होता है. पूरी पूजा के दौरान किसी भी तरह की आवाज नहीं होनी चाहिए. खासकर जब व्रती प्रसाद ग्रहण कर रही होती है और कोई आवाज हो जाती हो तो खाना वहीं छोड़ना पड़ता है और उसके बाद छठ के खत्म होने पर ही वह मुंह में कुछ डाल सकती है. इससे पहले एक खर यानी तिनका भी मुंह में नहीं डाल सकती इसलिए इसे खरना कहा जाता है. खरना के दिन खीर के प्रसाद का खास महत्व है और इसे तैयार करने का तरीका भी अलग है. मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर यह खीर तैयार की जाती है. प्रसाद बन जाने के बाद शाम को सूर्य की आराधना कर उन्हें भोग लगाया जाता है और फिर व्रतधारी प्रसाद ग्रहण करती है. इस पूरी प्रक्रिया में नियम का विशेष महत्व होता है. शाम में प्रसाद ग्रहण करने के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कहीं से कोई आवाज नहीं आए. ऐसा होने पर खाना छोड़कर उठना पड़ता है.
छठ, सूर्य की आराधना का पर्व है। वैदिक ग्रन्थ में सूर्य को देवता मानकर विशेष स्थान दिया गया है। प्रात: काल में सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण का नमन किया जाता है। सूर्य की उपासना भारतीय समाज में ऋग्वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य की उपासना के महत्व को विष्णु,भागवत और ब्र±ा पुराण में बताया गया है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार षष्ठी को एक विशेष खौगोलीय घटना होती है। इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है। इसके संभावित कुप्रभाव से रक्षा करने का सामथ्र्य पूजा पाठ में होता है।
छठ पर्व की शुरूवात को लेकर अनेक कथानक हैं। आध्यात्मिक कथा के अनुसार ब्रह्मा की मानस पुत्री प्रकृति देवी की आराधना कर संतान की रक्षा की कामना की जाती है। कार्तिक मास की षष्ठी व स#मी को वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। उनकी आराधना के लिए शाम को अस्त और सुबह उदय होते सूर्य को अघ्र्य देकर कामना की जाती है। यह भी कहा जाता है कि राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी को कोई संतान नहीं थी। इससे राजा व्यथित होकर खुदकुशी करने जा रहा था। तभी षष्ठी देवी प्रकट हुई। उन्होेंने राजा से संतान सुख के लिए षष्ठी देवी की पूजा करने के लिए कहा। राजा ने देवी की आज्ञा मानकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को षष्ठी देवी की पूजा थी। प्रियव्रत को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तब से छठ व्रत का अनुष्ठान चला आ रहा है। एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम 14 साल का वनवास खत्म होने पर अयोध्या लौट आए।
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा की। तब से जनमानस में ये पर्व मान्य हो गया।

Friday, 24 October 2014

सबका लेखा-जोखा भगवान चित्रगुप्त के पास

भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त और यमराज की मूर्ति स्थापित करके अथवा उनकी तस्वीर रखकर श्रद्धा पूर्वक सभी प्रकार से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं भांति भांति के पकवान, मिष्टान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा करें। और फिर जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए इनसे क्षमा याचना करें। यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है।
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है क्योकि यही विधि का विधान है। विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा। चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है। मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता। लेकिन जैसा कि हमारे वेदों एवं पुराणों में लिखा और ऋषि मुनियों ने कहा है उसके अनुसार इस मृत्युलोक के उपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है।

इस दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी ऊपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है। जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है। जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
जो जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है। मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं। इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है।
यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है। कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले भगवान हैं चित्रगुप्त। यही भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है तो उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं।

भाई बहन के प्यार का दिन

त्योहारों के इस मौसम में हर जगह उत्साह का माहौल है. बाजारों में भीड़ उमड़ी हुई है, वहीं घरों में भी खुशी का माहौल है. दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा के बाद बहनों को अब शनिवार को मनाए जाने वाले भैयादूज का इंतजार है. इसी दिन चित्रगुप्त पूजा का आयोजन भी होता है. कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को भ्रातृद्वितीया या यमद्वितीया के रूप में मनाने की परंपरा है. इसे भाईदूज भी कहा जाता है.इस दिन यमुना में स्नान, दीपदान आदि का महत्व है. इस दिन बहनें, भाइयों के दीर्घजीवन के लिए यम की पूजा करती हैं और व्रत रखती हैं. कहा जाता है कि जो भाई इस दिन अपनी बहन से स्नेह और प्रसन्नता से मिलता है, उसके घर भोजन करता है, उसे यम के भय से मुक्ति मिलती है. भाइयों का बहन के घर भोजन करने का बहुत महात्म्य है.

भाईदूज में हर बहन रोली और अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्‍जवल भविष्य के लिए आशीष देती हैं. भाई अपनी बहन को कुछ उपहार या दक्षिणा देता है. भाईदूज दिवाली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है और बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं.

इस त्योहार के पीछे एक किवदंती यह है कि यम देवता ने अपनी बहन यमी (यमुना) को इसी दिन दर्शन दिए थे. वह बहुत समय से उससे मिलने के लिए व्याकुल थी. अपने घर में भाई यम के आगमन पर यमुना ने प्रफुल्लित मन से उसकी आवभगत की. यम ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि इस दिन यदि जो भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी. इसी कारण इस दिन यमुना नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है.

इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी बहन के घर जाए. तभी से भाईदूज मनाने की प्रथा चली आ रही है. जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं और उनसे टीका कराकर उपहार देते हैं. बहनें पीढ़ी पर चावल के घोल से अल्पना बनाती हैं. उस पर भाई को बैठाकर बहनें उसके हाथों की पूजा करती हैं.

Wednesday, 22 October 2014

खुशहाली लाए दिवाली


त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।
दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है। दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चैदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है। तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।
दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चैथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति। भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं।ख्1, माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चैदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे।ख्2, अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ सुथरा का सजाते हैं। बाजारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाजार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नजर आते हैं।
दीपावली पर लक्ष्मीजी का पूजन घरों में ही नहीं, दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में भी किया जाता है। कर्मचारियों को पूजन के बाद मिठाई, बर्तन और रुपये आदि भी दिए जाते हैं। दीपावली पर कहीं-कहीं जुआ भी खेला जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर के भाग्य की परीक्षा करना है।
एक बार सनत्कुमारजी ने सभी महर्षि-मुनियों से कहा- श्महानुभाव! कार्तिक की अमावस्या को प्रातरूकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सन्ध्या समय विधिपूर्वक लक्ष्मीजी का मण्डप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वज और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए। अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी जी का षोडशोपचार पूजन तथा पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए। मुनिश्वरों ने पूछा- लक्ष्मी-पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?
इस सनत्कुमारजी बोले -श्लक्ष्मीजी समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा बलि के यहाँ बंधक थीं। आज ही के दिन भगवान विष्णु ने उन सबको बंधनमुक्त किया था। बंधनमुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मी जी के साथ जाकर क्षीर-सागर में सो गए थे। इसलिए अब हमें अपने-अपने घरों में उनके शयन का ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि वे क्षीरसागर की ओर न जाकर स्वच्छ स्थान और कोमल शैय्या पाकर यहीं विश्राम करें। जो लोग लक्ष्मी जी के स्वागत की उत्साहपूर्वक तैयारियां करते हैं, उनको छोड़कर वे कहीं भी नहीं जातीं। रात्रि के समय लक्ष्मीजी का आह्वान करके उनका विधिपूर्वक पूजन करके नाना प्रकार के मिष्ठान्न का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए। दीपक जलाने चाहिए। दीपकों को सर्वानिष्ट निवृत्ति हेतु अपने मस्तक पर घुमाकर चैराहे या श्मशान में रखना चाहिए।

इस दिन धन के देवता कुबेरजी, विघ्नविनाशक गणेशजी, राज्य सुख के दाता इन्द्रदेव, समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान तथा बुद्धि की दाता सरस्वती जी की भी लक्ष्मी के साथ पूजा करें।
इस प्रथा के साथ भगवान शंकर तथा पार्वती के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे। जहां तक धार्मिक दृष्टि का प्रश्न है, आज पूरे दिन व्रत रखना चाहिए और मध्यरात्रि में लक्ष्मी-पूजन के बाद ही भोजन करना चाहिए। जहां तक व्यवहारिकता का प्रश्न है, तीन देवी-देवों महालक्ष्मी, गणेशजी और सरस्वतीजी के संयुक्त पूजन के बावजूद इस पूजा में त्योहार का उल्लास ही अधिक रहता है। इस दिन प्रदोष काल में पूजन करके जो स्त्री-पुरुष भोजन करते हैं, उनके नेत्र वर्ष भर निर्मल रहते हैं। इसी रात को ऐन्द्रजालिक तथा अन्य तंत्र-मन्त्र वेत्ता श्मशान में मन्त्रों को जगाकर सुदृढ़ करते हैं। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंग पर सुख से सोते हैं और लक्ष्मी जी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं। इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं।
लक्ष्मी जी के पूजन के लिए घर की साफ-सफाई करके दीवार को गेरू से पोतकर लक्ष्मी जी का चित्र बनाया जाता है। लक्ष्मीजी का चित्र भी लगाया जा सकता है।
संध्या के समय भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, केला, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ होनी चाहिए। लक्ष्मी जी के चित्र के सामने एक चैकी रखकर उस पर मौली बांधनी चाहिए।
इस पर गणेश जी की व लक्ष्मी जी की मिट्टी या चांदी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए तथा उन्हें तिलक करना चाहिए। चैकी पर छरू चैमुखे व 26 छोटे दीपक रखने चाहिए और तेल-बत्ती डालकर जलाना चाहिए। फिर जल, मौली, चावल, फल, गुड़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करना चाहिए।
पूजा पहले पुरुष करें, बाद में स्त्रियां। पूजन करने के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें। एक छोटा तथा एक चैमुखा दीपक रखकर लक्ष्मीजी का पूजन करें।
इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेश जी तथा लक्ष्मी जी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें।
अपने व्यापार के स्थान पर बहीखातों की पूजा करें। इसके बाद जितनी श्रद्धा हो घर की बहू-बेटियों को रुपये दें।
लक्ष्मी पूजन रात के समय बारह बजे करना चाहिए।
दुकान की गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए।
रात को बारह बजे दीपावली पूजन के बाद चूने या गेरू में रूई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल-बट्टा तथा सूप पर तिलक करना चाहिए।
रात्रि की ब्रह्मबेला अर्थात प्रातरूकाल चार बजे उठकर स्त्रियां पुराने सूप में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाती हैं तथा सूप पीटकर दरिद्रता भगाती हैं।
सूप पीटने का तात्पर्य है- श्आज से लक्ष्मीजी का वास हो गया। दुख दरिद्रता का सर्वनाश हो।श् फिर घर आकर स्त्रियां कहती हैं- इस घर से दरिद्र चला गया है। हे लक्ष्मी जी! आप निर्भय होकर यहाँ निवास करिए।

पाप और नर्क से मुक्ति का दिन


नरक चतुर्दशी कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को कहा जाता है। इस चतुर्दशी को नरक चैदस, रूप चैदस, रूप चतुर्दशी, नर्क चतुर्दशी या नरका पूजा के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा का विधान है। नरक चतुर्दशी को छोटी दीपावली भी कहते हैं। दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी के दिन संध्या के पश्चात दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं।
इस रात दीये जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीयों की बारात सजाई जाती है।
इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक दूसरी कथा यह है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है।
 यह सुनकर यमदूत ने कहा कि हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक बार एक ब्राह्मण भूखा लौट गया था,यह उसी पापकर्म का फल है। इसके बाद राजा ने यमदूत से एक वर्ष समय मांगा। तब यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचे और उन्हें अपनी सारी कहानी सुनाकर उनसे इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय पूछा। तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया।
इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।

दिल्ली पुलिस की वीरता को सलाम


समाज व राष्ट्र की रक्षा करते हुए जीवन का बलिदान करने वाले जवानों की याद में मंगलवार को पुलिस स्मृति दिवस मनाया गया। जिसमें शहीद जवानों को श्रद्धांजलि दी गई और उनके परिजनों को सम्मानित किया गया। हम अपने घरों में रात में इसलिए चैन की नींद सोते हैं, चूंकि हमारे सैनिक सीमा पर और गली-मुहल्ले और शहरों में पुलिस हमारी रखवाली करती है। पुलिस स्मृति दिवस पर हम उन सभी वीर शहीदों को सलाम करते हैं, जिन्होंने अपना कर्तव्य निभाने में जीवन बलिदान कर दिया। हमारे पुलिसकर्मियों के समर्पण भाव और वीरता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उनकी बहादुरी, सेवा और त्याग की भावना से हमें सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।
यह दिन हर सिपाही के लिए महत्वपूर्ण होता है। पुलिस स्मृति दिवस पर हम उन सभी वीर शहीदों को सलाम करते हैं जिन्होंने अपना कर्तव्य निभाने में जीवन बलिदान कर दिया। हमारे पुलिसकर्मियों के समर्पण भाव और वीरता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उनकी बहादुरी, सेवा और त्याग की भावना से हमें सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।प्रत्येक वर्ष दिल्ली पुलिस 21 अक्तूबर को शहीदी दिवस के रूप में आयोजित करती है। जिसमें उन शहीदों को स्मरण दिया जाता है जिन्होंने राष्ट्र की सुरक्षा में ड्यूटी के दौरान अपने प्राणों की आहुहित दी थी। 55 साल पहले आज ही के दिन वर्ष 1959 में भारतीय पुलिस दल की एक छोटी टुकडी लद्दाख क्षेत्र में मातृभूमि की रक्षा के लिए तैनात थी। वहीं एक पहाड़ी पर छुपे चीनी सैनिकों के भारी दस्ते ने उन पर अचानक आक्रमण कर दिया। देश के शत्रुओं का सामना करते हुए भारतीय पुलिस दल के 10 जवान उस मुठभेड़ में वीरगति को प्राप्त हुए। तब से प्रत्येक वर्ष हम उन शहीदों को आज के दिन याद करते हैं। साथ ही देश की सेवा में गत वर्ष प्राण न्यौछावर करने वाले हर पुलिस कर्मी को अपनी श्रद्वाजंलि अर्पित करते है। इस दिन को सभी केन्द्रिय पुलिस संगठनों और राज्यों की पुलिस द्वारा शहीदी दिवस के रूप में आयोजित करते हैं।




Monday, 20 October 2014

असली धन है स्वास्थ्य


'धन्वन्तरि जयन्ती' के दिन धनतेरस का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस जयंती के सन्दर्भ में यह दिन धन और समृद्धि से सम्बन्धित है और लक्ष्मी-कुबेर की पूजा के लिए यह महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन लोग धन-सम्पत्ति और समृद्धि की प्राप्ति के लिए देवी लक्ष्मी के साथ-साथ भगवान कुबेर की भी पूजा करते हैं। भगवान कुबेर जिन्हें धन-सम्पत्ति का कोषाध्यक्ष माना जाता है और श्री लक्ष्मी जिन्हें धन-सम्पत्ति की देवी माना जाता है, की पूजा साथ में की जाती है।

आज ही के दिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता धन्वन्तरि समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रगट हुए थे। इसलिए वैद्य-हकीम और ब्राह्मण समाज इस शुभ तिथि पर धन्वन्तरि भगवान का पूजन कर 'धन्वन्तरि जयन्ती' मनाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने घरों में नए बर्तन ख़रीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि असली धन तो स्वास्थ्य है। धन्वंतरि ईसा से लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व हुए थे। वह काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्त्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। इस तरह सुश्रुत संहिता किसी एक का नहीं, बल्कि धन्वंतरि, दिवोदास और सुश्रुत तीनों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है।
धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का कलश जुड़ा है। वह भी सोने का कलश। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था। उन्होंने कहा कि जरा मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। सुश्रुत उनके रासायनिक प्रयोग के उल्लेख हैं। धन्वंतरि के संप्रदाय में सौ प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही निदान और चिकित्सा हैं। धन्वन्तरि जयन्ती कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाई जाती है। इस दिन को भगवान धन्वन्तरि, जो कि आयुर्वेद के पिता और गुरु माने जाते हैं, उनके जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। भगवान धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं और भगवान विष्णु के अवतारों में से एक माने जाते हैं। 'धन्वन्तरि जयन्ती' को 'धनतेरस' तथा 'धन्वन्तरि त्रयोदशी' के नाम से भी जाना जाता है।
भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। इनकी चौबीस अवतारों के अंतर्गत गणना होने के कारण भक्तजन भगवान विष्णु का अवतार, श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के समान पूजा करते हैं। आदिकाल में आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही मानते हैं। और आदि काल के ग्रंथों में रामायण-महाभारत तथा विविध पुराणों की रचना हुई है, जिसमें सभी ग्रंथों ने आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। महाभारत, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद भागवत महापुराणादि में यह उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि देव और अतुर एक ही पिता कश्यप ऋषि के संतान थे। किंतु इनकी वंशवृद्ध अधिक हो गई थी अतः अधिकारों के लिए परस्पर लड़ा करते थे। वे तीनों ही लोकों पर राज्याधिकार चाहते थे। असुरों या राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य थे जो संजीवनी विद्या के बल से असुरों का जीवितकर लेते थे। इसके अतिरिक्त दैत्य दानव माँसाहारी होने के कारण हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ तथा दिव्य शस्त्रों के ज्ञाता थे। अतः युद्ध में देवताओं की मृत्यु अधिक होती थी।
आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है। पुरुष अथवा स्त्री को अपने हाथ के नाप से 120 उंगली लंबा होना चाहिए, जबकि छाती और कमर अठारह उंगली। शरीर के एक-एक अवयव की स्वस्थ और अस्वस्थ माप धन्वंतरि ने बताई है। उन्होंने चिकित्सा के अलावा फसलों का भी गहन अध्ययन किया है। पशु-पक्षियों के स्वभाव, उनके मांस के गुण-अवगुण और उनके भेद भी उन्हें ज्ञात थे। मानव की भोज्य सामग्री का जितना वैज्ञानिक व सांगोपांग विवेचन धन्वंतरि और सुश्रुत ने किया है, वह आज के युग में भी प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है।

Sunday, 19 October 2014

धनतेरस सबके लिए मंगलकारी



पांच दिवसीय दीपोत्सव का शुभारंभ धनतेरस से होगा। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, इस बार धनतेरस मंगलवार को होने से सबके लिए मंगलकारी रहेगा। धनतेरस पर सुबह से दिनभर श्रेष्ठ मुहूर्त है। लगभग 110 वर्ष बाद इस वर्ष मंगल धनवर्षा योग बन रहा है। इससे धनतेरस सभी के लिए मंगलकारी रहेगा। भगवान कुबेर खजाने का द्वार खोलेंगे। बाजार में कुबेर धन की वर्षा होगी। हिंदू धर्म में धनतेरस का खासा महत्व है। खरीदारी के लिए इस दिवस को शुभ माना जाता है। भगवान धनवंतरी की पूजा अर्चना के साथ बर्तन और जेवरात की खरीदी की जाती है। इसके अलावा दूसरे उत्पादों की भी खरीदारी होती है। इस बार शुभ मुहूर्त सोमवार की रात्रि 23.23 बजे से लेकर मंगलवार की रात 1.14 बजे तक का है। यानि 26 घंटे शुभ मुहूर्त रहेगा।
जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
धनतेरस के दिन खरीदारी का विशेष महत्व है। इस दिन चांदी का बर्तन खरीदना अत्यंत शुभ माना जाता है। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदे। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें।शास्त्रों के अनुसार लक्ष्मी जी को घर में रोकने के लिए धनतेरस के दिन दीपक जलाना अनिवार्य है। इस दिन यमुना अथवा पवित्र नदी में स्नान कर यमराज के नाम पर दीपदान करने की परंपरा भी है। वैदिक देवता यमराज के नाम पर आटे का दीपक जलाकर घर के द्वार पर रखा जाता है। इस दीपक में चार बत्तियां लगाई जाती हैं। इधर, धनतेरस के मद्देनजर बाजार विभिन्न उत्पादों से सज गया है। वैसे दीपावली की रौनक मार्केट में नजर आने लगी है। बर्तन, सराफा, कपड़े सहित ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रानिक्स के उत्पादों की धनतेरस के दिन जमकर खरीदारी होती है। 

Tuesday, 14 October 2014

चाह लेंगे, तो बचेगी बिजली


बिजली की लगातार बढ़ती मांग और सीमित मात्रा में होने वाले उत्पादन के कारण असंतुलन पैदा हो गया है। असंतुलन की स्थिति में मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है।हालात कुछ ऐसे बन गये हैं कि बिजली उत्पादन के जो नए तरीके खोजे जा रहे हैं मांग उससे भी ज्यादा बढ़ती जा रही है। बिन बिजली सब सून है यह मान लिया जाना चाहिये। बिजली की कमी से जन जीवन प्रभावित होता है। बिजली के बगैर रहना कितना मुश्किल है इसे आसानी से समझा जा सकता है।
यह जानते हुए भी कि सभी संसाधनों के उपयोग करते हुए भी अब तक पर्याप्त विद्युत उत्पादन संभव नहीं हो पाया है, लोग बिजली का बेहिसाब, बेफालतू उपयोग करते हैं। बात शासकीय अशासकीय कार्यालयों की हो या घर, दुकान, गली, मुहल्ले, चैक चैराहों की आप हर कहीं-हर तरफ बिजली की बर्बादी के नज़ारे देख सकते है।बिजली के इस बेकार में हो रहे खर्च को रोकने के लिए जो जागरूकता अभियान, योजनाएं, नियम बनाये गये वे भी प्रभावी परिणाम नहीं दे पाये हैं। नतीजा यह है कि बिजली का बेहिसाब दुरूपयोग हो रहा है इसे रोकने की फिक्र नहीं है।
बिजली के दुरूपयोग को बढ़ाने में उन घोषणाओं ने भी बड़ा योगदान दिया है जिनमें झुग्गी बस्ती में रहने वालों, किसानों, आदमी की जाति बिरादरी को देख परखकर उसे मुफ्त में बिजली देने का ऐलान कर दिया गया। ‘‘माले मुफ्त दिले बेरहम’’ वाली कहावत ने ऐसा असर दिखाया कि लोगों ने खंभे पर तार डालकर मोटर पम्प,हीटर, फ्रिज, एयर कंडीशनर ही नहीं बड़ी बड़ी मशीनें भी खूब मुफ्त बिजली से चलाई और चला रहे हैं। बिजली उत्पादन को रसातल में पहुंॅचाने का काम करने में उद्योगपति भी पीछे नहीं रहे जिन्होंने रियायती दरों पर बिजली की सुविधा लेकर उसका सदुपयोग कम दुरूपयोग अधिक किया। बिजली चोरी करने वाले आज भी जमकर अपनी मनमानी कर रहे हैं। राजनीतिक, प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव में बिजली की बर्बादी खूब हो रही है।
अब सवाल यह है कि सीमित मात्रा में हो रहे बिजली उत्पादन की तुलना में बिजली के बेहिसाब खर्च को रोका जा सकता है ? आखिर ऐसा क्या किया जाये जिससे बिजली की बर्बादी को बचाया जा सके ? ऐसा क्या करें कि लोग खुद ही बिजली की बचत करने में जुट जायें ? अब समय आ गया है कि बिजली से जु़ड़े इन ज्वलंत सवालों के जवाब तलाशे जायें। इसका एक तरीका यह हो सकता है कि बिजली की मुफ्तखोरी को तत्काल बंद किया जाये। जो बिजली का उपयोग करते हैं उनके लिए इसका शुल्क अदा करना जरूरी हो।
इसके साथ ही बिजली की बचत का एक फार्मूला यह भी हो सकता है जिस अवधि में बिजली का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है उस अवधि के निर्धारित समय में बिजली की दरें कुछ बढ़ाकर वसूल की जायें। इसी के साथ देर रात को बिजली के उपयोग की दरें प्रति यूनिट लगभग आधी कर दी जाये जबकि दिन के समय में उपयोग की जाने वाली बिजली की दर भी वर्तमान दर से कुछ कम ही होना चाहिये। इसका अर्थ यह है कि विद्युत दरों को सबसे अधिक खपत, सामान्य खपत और कम खपत के आधार पर तय किया जाये तो इससे बचत करने वाले उपभोक्ताओं को प्रोत्साहन मिलेगा। यदि बिजली के उपयोग की दर 24 घंटे के लिए अलग अलग तीन स्लेब बनाकर निर्धारित की जायें तो इसके परिणाम निश्चित ही अच्छे देखने को मिलेगें।
प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि बिजली उपभोक्ता उत्पादन तो नहीं बढ़ा सकते लेकिन बिजली के अपव्यय को रोककर उसकी बचत अवश्य कर सकते हैं। यह सच है कि बिजली की बचत से ही बिजली उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। बचत के लिए बिजली उपभोक्ताओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। ‘पीक आवर्स’ में बिजली की दरें बढ़ाने का प्रस्ताव एक ऐसा प्रलोभन है जो विद्युत के बेहिसाब खर्च को नियंत्रित कर सकता है। बिजली उपभोक्ता अपना बिल कम करने के लिए इस प्रलोभन का लाभ अवश्य लेना चाहेगें।

फूल खिलते हैं तो आवाज कहाँ होती है


जीवन को सौंदर्य से आप्लावित करना है, उसे कलापूर्ण बनाना है तो सहजता का दामन थामना ही होगा और वो भी बाहरी नहीं, आंतरिक सहजता का। असली सौंदर्य सहजता में ही है। कली से फूल बनने में सहजता है, तभी फूल में असीम सौंदर्य है। जिसे हम तहजीब कहते हैं वह भी जीवन की सहजता ही है।
अधिकतर लोगों को अपने शारीरक व्यक्तित्व से शिकायत रहती है. कई बार मामूली शारीरक भिन्नताओं वाले लोग अपने खूबसूरत जीवन को इसी चिंता में बिता देते हैं. उन्हें लगता है कि सारी दुनिया सिर्फ उन्हें देखकर उन पर व्यंग्य कर रही है. वह कल्पनाओं में भी यही सोचते हैं कि वह जीवन में कभी प्रगति कर ही नहीं सकते ऐसा सोचना गलत है. सफलता के लिए जरुरी है आप खुद से प्रेम करें और सकारात्मक सोच रखें.
जो लोग सहज भाव से निरंतर प्रयास करते हैं, वे जीवन में बहुत आगे जाते हैं। सहजता का अनुगामी जीवन में कभी पीछे नहीं रहता। पिछड़ता नहीं। एक झटके में शिखर पर पहुँच जाने में आनंद नहीं है। लेकिन कई लोग सहज होते हुए भी अपेक्षित उन्नति क्यों नहीं कर पाते? वे जीवन में क्यों पिछड़ जाते हैं? यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि क्या ऊपर से सहज दिखने वाला व्यक्ति वास्तव में सहज है? कई बार व्यक्ति ऊपर से तो सहज दिखलाई पड़ता है लेकिन वास्तव में सहज नहीं होता। उसके अंदर एक तूफान चलता रहता है। वह बाहर भी थोड़ा-बहुत झलकना चाहिए, लेकिन नहीं झलकता। अंदर द्वंद्व है, पीड़ा है, राग-द्वेष है, नकारात्मक भावों का तूफान है, लेकिन बाहर फिर भी खामोशी है। इसका ये अर्थ हुआ कि बाहर की खामोशी अभिनय मात्र है। अब यदि अभिनय ही करना है, तो आंतरिक शांति का कीजिए। बाहर की खामोशी बेकार है।बाहर की मुखरता और चंचलता से अंदर की सहजता प्राप्त की जा सकती है। किसी भी प्रकार का शारीरिक श्रम, व्यायाम, योगासन, खेल-कूद, शिल्प और कलाएँ इन सभी के द्वारा आंतरिक सहजता प्राप्त की जा सकती है। किसान-मजदूर प्रायरू अंदर से सहज ही होते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवी या प्रफेशनल कई बार ऊपर से तो सहज दिखते हैं, लेकिन अंदर से उतने ही असहज होते हैं। मानसिक अशांति के शिकार, तनाव व दबाव से पीड़ित, हमेशा दुश्चिंताओं व द्वंद्व में घिरे हुए।

Sunday, 12 October 2014

जीवन में बढ़ेगा प्रेम और खुशहाली


आज सुहागिन महिलाओं का महापर्व करवा चैथ है। इस दिन पत्नियां अपने पति की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन के लिए व्रत रखती हैं। रात को जब चांद निकलता है तो चंद्र पूजा की जाती है फिर पति की पूजा का विधान है। महिलाओं के लिए ये पर्व बहुत ही खास होता है। ज्योतिष के अनुसार करवा चैथ पर यदि पत्नी विशेष रंग के कपड़े पहनें और पति राशि के अनुसार अपनी पत्नी को उपहार दें तो पति-पत्नी के दांपत्य जीवन में सदैव खुशहाली रहेगी और प्रेम भी बढ़ेगा
करवा चैथ व्रत दीर्घायु पति एवं दांपत्य सुख प्रदाता करवा चैथ व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्थी को किया जाता है। विवाहित स्त्रियों के लिए यह व्रत अखंड सौभाग्य का कारक होता है। विवाहित स्त्रियां इस दिन अपने प्राण बल्लभ की दीर्घायु एवं स्वास्थ्य की कामना करके चंद्रमा को अघ्र्य अर्पित कर व्रत को पूर्ण करती हैं। इस व्रत में रात्रि बेला में शिव, पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश और चंद्रमा के चित्रों एवं सुहाग की वस्तुओं की पूजा का विधान है। इस दिन निर्जल व्रत रखकर चंद्र दर्शन और अघ्र्य अर्पण कर भोजन ग्रहण करना चाहिए। पीली मिट्टी की गौरी भी बनायी जाती है। कुछ स्त्रियां परस्पर चीनी या मिट्टी के करवा का आदान- प्रदान भी करती हैं। लोकाचार में कई स्त्रियां काली चिकनी मिट्टी के कच्चे करवे में चीनी की चासनी बनाकर डाल देती हैं अथवा आटे को घी में सेंककर चीनी मिलाकर लड्डू आदि बनाती हैं। पूड़ी-पुआ और विभिन्न प्रकार के पकवान भी इस दिन बनाए जाते हैं। नव विवाहिताएं विवाह के पहले वर्ष से ही यह व्रत प्रारंभ करती हैं। चैथ का व्रत चैथ से ही प्रारंभ कराया जाता है। इसके बाद ही अन्य महीनों के व्रत करने की परम्परा है। नैवेद्य (भोग) में से कुछ पकवान ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित दान करें तथा अपनी सासू मां को 13 लड्डू, एक लोटा, एक वस्त्र, कुछ पैसे रखकर एक करवा चरण छूकर दे दें। शेखावाटी (राजस्थान) में एक विशेष परम्परा है। वहां स्त्रियां कुम्हारों के यहां से करवा लाकर गेहूं या बाजरा भूनकर सथिया करके आटे की बनी हुई 13 मीठी टिक्कियां, एक गुड़ की डली और चार आने के पैसे या श्रद्धानुसार विवाह के साल टीका चावल लगाकर गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कहानी सुनती हैं। करवा तथा पानी का लोटा रोली पाटे पर रखती हैं और कहानी सुनकर करवा अपनी सास के पैरों में अर्पित करती हैं। सास न हो तो मंदिर में चढ़ाती हैं। उद्यापन करें तो 13 सुहागिन स्त्रियों को जिमावें। 13 करवा करें 13 जगह सीरा पूड़ी रखकर हाथ फेरें। सभी पर रुपया भी रखें। बायना जीमने वाली स्त्रियों को परोस दें। रुपया अपनी सास को दे दें। 13 करवा 13 सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराने के दौरान दे दें। वास्तव में करवा चैथ का व्रत भारतीय संस्कृति के उस पवित्र बंधन या प्यार का प्रतीक है जो पति-पत्नी के बीच होता है। भारतीय संस्कृति में पति को परमेश्वर माना गया है। यह व्रत पति पत्नी दोनों के लिए नव प्रणय निवेदन और एक-दूसरे के प्रति हर्ष, प्रसन्नता, अपार प्रेम, त्याग एवं उत्सर्ग की चेतना लेकर आता है। इस दिन स्त्रियां नव वधू की भांति पूर्ण शृंगार कर सुहागिन के स्वरूप में रमण करती हुई चंद्रमा से अपने अखंड सुहाग की प्रार्थना करती हैं। स्त्रियां शृंगार करके ईश्वर के समक्ष व्रत के बाद यह प्रण भी करती हैं कि वे मन, वचन एवं कर्म से पति के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखेंगी तथा धर्म के मार्ग का अनुसरण करती हुई धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करेंगी। कुंआरी कन्याएं इस दिन गौरा देवी का पूजन करती हैं। शिव पार्वती के पूजन का विधान इसलिए भी है कि जिस प्रकार शैलपुत्री पार्वती ने घोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्राप्त कर अखंड सौभाग्य प्राप्त किया वैसा ही सौभाग्य उन्हें भी प्राप्त हो। इस संदर्भ में एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार पांडवों के बनवास के समय जब अर्जुन तप करने इंद्रनील पर्वत की ओर चले गए तो बहुत दिनों तक उनके वापस न लौटने पर द्रौपदी को चिंता हुई। श्रीकृष्ण ने आकर द्रौपदी की चिंता दूर करते हुए करवा चैथ का व्रत बताया तथा इस संबंध में जो कथा शिवजी ने पार्वती को सुनाई थी, वह भी सुनाई। कथा इस प्रकार है। इंद्रप्रस्थ नगरी में वेद शर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण के सात पुत्र तथा एक पुत्री थी जिसका नाम वीरावती था। उसका विवाह सुदर्शन नामक एक ब्राह्मण के साथ हुआ। ब्राह्मण के सभी पुत्र विवाहित थे। एक बार करवा चैथ के व्रत के समय वीरावती की भाभियों ने तो पूर्ण विधि से व्रत किया, किंतु वीरावती सारा दिन निर्जल रहकर भूख न सह सकी तथा निढाल होकर बैठ गई। बहन को जल्दी खाना खिलाने के लिए उसके भाइयों ने बाहर खेतों में जाकर आग जलाई तथा ऊपर कपड़ा तानकर चंद्रमा जैसा दृश्य बना दिया और जाकर बहन से कहा कि चांद निकल आया है, अघ्र्य दे दो। यह सुनकर वीरावती ने अघ्र्य देकर खाना खा लिया। नकली चंद्रमा को अघ्र्य देने से उसका व्रत खंडित हो गया तथा उसका पति अचानक बीमार पड़ गया। वह ठीक न हो सका। एक बार इंद्र की पत्नी इंद्राणी करवा चैथ का व्रत करने पृथ्वी पर आईं। इसका पता लगने पर वीरावती ने जाकर इंद्राणी से प्रार्थना की कि उसके पति के ठीक होने का उपाय बताएं। इंद्राणी ने कहा कि तेरे पति की यह दशा तेरी ओर से रखे गए करवा चैथ व्रत के खंडित हो जाने के कारण हुई है। यदि तू करवा चैथ का व्रत पूर्ण विधि-विधान से फिर से करेगी तो तेरा पति ठीक हो जाएगा। वीरावती ने करवा चैथ का व्रत पूर्ण विधि से संपन्न किया जिसके फलस्वरूप उसका पति बिलकुल ठीक हो गया। करवा चैथ का व्रत उसी समय से प्रचलित है। अतः सौभाग्य, पुत्र-पौत्रादि और धन-धान्य के इच्छुक स्त्रियों को यह व्रत विधिपूर्वक करना चाहिए और इस दिन विभिन्न प्रकार के बधावे गाने चाहिए।

Wednesday, 8 October 2014

समाज को समर्पित जीवन गुरु रामदास का



गुरु रामदास सिक्खों के चौथे गुरु थे। इन्होंने सिक्ख धर्म के सबसे प्रमुख पद गुरु को 1574 ई. में प्राप्त किया था। इस पद पर ये 1581 ई. तक बने रहे थे। ये सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास के दामाद थे। इन्होंने 1577 ई. में 'अमृत सरोवर' नामक एक नये नगर की स्थापना की थी, जो आगे चलकर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु रामदास ने 'सतोषसर' नामक पवित्र सरोवर की खुदाई भी आरंभ कराई थी। गुरु रामदास के समय में लोगों से 'गुरु' के लिए चंदा या दान लेना शुरू हुआ। वे बड़े साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। इस कारण सम्राट अकबर भी उनका सम्मान करता था। गुरु रामदास के कहने पर अकबर ने एक वर्ष पंजाब से लगान नहीं लिया। इस कारण गुरु की गद्दी को लोगों से पर्याप्त धन प्राप्त हो गया था। गुरु रामदास के बाद गुरु की गद्दी वंश-परंपरा में चलने लगी। उन्होंने अपने पुत्र गुरु अर्जुन देव को अपने बाद गुरु नियुक्त किया।
राम दास या गुरू राम दास  सिखों के गुरु थे और उन्हें गुरु की उपाधि 30 अगस्त 1574 को दी गयी थी। उन दिनों जब विदेशी आक्रमणकारी एक शहर के बाद दूसरा शहर तबाह कर रहे थे, तब 'पंचम् नानक' गुरू राम दास जी महाराज ने एक पवित्र शहर रामसर, जो कि अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण किया।

गुरू राम दास (जेठा जी) का जन्म चूना मण्डी, लाहौर (अब पाकिस्तान में) में कार्तिक वदी २, (२५वां आसू) सम्वत १५९१ (२४ सितम्बर १५३४) को हुआ था। माता दया कौर जी (अनूप कौर जी) एवं बाबा हरी दास जी सोढी खत्री का यह पुत्र बहुत ही सुंदर एवं आकर्षक था। राम दास जी का परिवार बहुत गरीब था। उन्हें उबले हुए चने बेच कर अपनी रोजी रोटी कमानी पड़ती थी। जब वे मात्र ७ वर्ष के थे, उनके माता पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी नानी उन्हें अपने साथ बसर्के गाँव ले आयी। उन्होंने बसर्के में ५ वर्षों तक उबले हुए चने बेच कर अपना जीवन यापन किया। एक बार गुरू अमर दास साहिब जी, रामदास साहिब जी की नानी के साथ उनके दादा की मृत्यु पर बसर्के आये और उन्हें राम दास साहिब से एक गहरा लगाव सा हो गया। रामदास जी अपनी नानी के साथ गोइन्दवाल आ गये एवं वहीं बस गये। यहाँ भी वे अपनी रोजी रोटी के लिए उबले चने बेचने लगे एवं साथ ही साथ गुरू अमरदास साहिब जी द्वारा धार्मिक संगतों में भी भाग लेने लगे। उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के निर्माण की सेवा की।

रामदास साहिब जी का विवाह गुरू अमरदास साहिब जी की पुत्री बीबी भानी जी के साथ हो गया। उनके यहाँ तीन पुत्रों -१. पृथी चन्द जी, २. महादेव जी एवं ३. अरजन साहिब जी ने जन्म लिया। शादी के पश्चात रामदास जी गुरु अमरदास जी के पास रहते हुए गुरु घर की सेवा करने लगे। वे गुरू अमरदास साहिब जी के अति प्रिय व विश्वासपात्र सिक्ख थे। वे भारत के विभिन्न भागों में लम्बे धार्मिक प्रवासों के दौरान गुरु अमरदास जी के साथ ही रहते।

गुरू रामदास जी एक बहुत ही उच्च वरीयता वाले व्यक्ति थे। वो अपनी भक्ति एवं सेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध हो गये थे। गुरू अमरदास साहिब जी ने उन्हें हर पहलू में गुरू बनने के योग्य पाया एवं 1 सितम्बर १५७४ को उन्हें ÷चतुर्थ नानक' के रूप में स्थापित किया। गुरू रामदास जी ने ही ÷चक रामदास' या ÷रामदासपुर' की नींव रखी जो कि बाद में अमृतसर कहलाया। इस उद्देश्य के लिए गुरू साहिब ने तुंग, गिलवाली एवं गुमताला गांवों के जमींदारों से संतोखसर सरोवर खुदवाने के लिए जमीनें खरीदी। बाद में उन्होने संतोखसर का काम बन्द कर अपना पूरा ध्यान अमृतसर सरोवर खुदवाने में लगा दिया। इस कार्य की देख रेख करने के लिए भाई सहलो जी एवं बाबा बूढा जी को नियुक्त किया गया।

जल्द ही नया शहर (चक रामदासपुर) अन्तराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने की वजह से चमकने लगा। यह शहर व्यापारिक दृष्टि से लाहौर की ही तरह महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। गुरू रामदास साहिब जी ने स्वयं विभिन्न व्यापारों से सम्बन्धित व्यापारियों को इस शहर में आमंत्रित किया। यह कदम सामरिक दृष्टि से बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ। यहाँ सिक्खों के लिए भजन-बन्दगी का स्थान बनाया गया। इस प्रकार एक विलक्षण सिक्ख पंथ के लिए नवीन मार्ग तैयार हुआ। गुरू रामदास साहिब जी ने ÷मंजी पद्धति' का संवर्द्धन करते हुए ÷मसंद पद्धति' का शुभारम्भ किया। यह कदम सिक्ख धर्म की प्रगति में एक मील का पत्थर साबित हुआ।

गुरू रामदास साहिब जी ने सिख धर्म को ÷आनन्द कारज' के लिए ÷चार लावों' (फेरों) की रचना की और सरल विवाह की गुरमत मर्यादा को समाज के सामने रखा। इस प्रकार उन्होने सिक्ख पंथ के लिए एक विलक्षण वैवाहिक पद्धति दी। इस प्रकार इस भिन्न वैवाहिक पद्धति ने समाज को रूढिवादी परम्पराओं से दूर किया। बाबा श्रीचंद जी के उदासी संतों व अन्य मतावलम्बियों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। गुरू साहिब जी ने अपने गुरूओं द्वारा प्रदत्त गुरू का लंगर प्रथा को आगे बढाया। अन्धविश्वास, वर्ण व्यवस्था आदि कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया गया।
उन्होंने ३० रागों में ६३८ शबद् लिखे जिनमें २४६ पौउड़ी, १३८ श्लोक, ३१ अष्टपदी और ८ वारां हैं और इन सब को गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित किया गया है। उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र अरजन साहिब को ÷पंचम्‌ नानक' के रूप में स्थापित किया। इसके पश्चात वे अमृतसर छोड़कर गोइन्दवाल चले गये। भादौं सुदी ३ (२ आसू) सम्वत १६३८ (१ सितम्बर १५८१) को ज्योति जोत समा गए।

रु रामदास जी भिक्षा मांग कर अपना निर्वाह किया करते !एक गाँव में एक गली ऐसी थीजिसमे एक वृद्धा गुरु समर्थ रामदास जी को देखते ही गालिया देने लग जाया करती !समर्थ गुरु रामदास जी चुपचाप नीचे मुख कर बिना कुछ कहे आगे निकल जाया करते !सोचते अवश्य ही इस बूढी माँ के साथ पिछले जन्म का लेना देना शेष है अन्यथा इस जन्म में तो मैंने इनका कुछ बिगाड़ा नहीं है !
एक दिन वह बुढिया इतनी ज्यादा बिगड़ी हुई थी कि जो पोंचा वो लगा रही थी समर्थ गुरु रामदास के आते ही श्री गुरु मुख पर दे मारा !समर्थ रामदास ने चुपचाप वह पोंचा उठाया ;आज भिक्षा भी नहीं मांगी ,घर वापिस आ गए है !ठाकुर के समक्ष रोना शुरू कर दिया है -हे मेरे राम इस बूढी माँ का क्रोध रूपी राक्षस मार दो -२!साथ -२ पोंचे को भी साफ़ करते रहे ;पोंचे की बतिया बना कर के तो उन्हें जलाना शुरू कर दिया है;प्रार्थना भी करते रहे ! सच मानियेगा साधकजनों ज्यो -२ बतिया जल रही है उस बुढिया का क्रोध रूपी राक्षस भी जलना शुरू हो गया है !कई दिनों से इंतजार कर रही है कि कब समर्थ रामदास जी आयेगे और मैं अपना अपराध क्षमा करवाउंगी !आज आये है तो आंसुओ से चरण-कमलो को धो दिया है ;बड़ा मान सम्मान दे कर के तो भोजन कराया है !

भारतीय संस्कृति के शिल्पकार भगवान वाल्मीकि


‘सुंदरकांड’  महत्वपूर्ण अभिव्यंजना का भंडार है। जो लोग इसकी गहराई में जाना चाहते हैं, उनके लिए रामायण गहन अध्ययन का अक्षय भंडार है। आश्विन मास की शरद पूर्णिमा को आदिकवि भगवान वाल्मीकि जी का प्रकट दिवस मनाया जाता है। उन्होंने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की जो संसार का पहला आदिकाव्य है।भगवान वाल्मीकि की वाणी को सुनकर कौन ऐसा प्राणी है जो मोक्ष रूपी परम गति को प्राप्त न हो? उन आदिकवि वैदिक दृष्टि और काव्य सृष्टि की क्षमता से सम्पन्न भगवान वाल्मीकि जी ने ‘रामायण’ के माध्यम से वेद का सार और वैदिक सूक्तियों का वैभव मानव जाति तक पहुंचाया है।
महर्षि वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था। महर्षि बनने के पहले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे। वे परिवार के पालन-पोषण हेतु दस्युकर्म करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले। जब रत्नाकर ने उन्हें लूटना चाहा, तो उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि यह कार्य किसलिए करते हो, रत्नाकर ने जवाब दिया परिवार को पालने के लिये। नारद ने प्रश्न किया कि क्या इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे। रत्नाकर ने जवाब दिया पता नहीं, नारदमुनि ने कहा कि जाओ उनसे पूछ आओ। तब रत्नाकर ने नारद ऋषि को पेड़ से बाँध दिया तथा घर जाकर पत्नी तथा अन्य परिवार वालों से पूछा कि क्या दस्युकर्म के फलस्वरुप होने वाले पाप के दण्ड में तुम मेरा साथ दोगे तो सबने मना कर दिया। तब रत्नाकर नारदमुनि के पास लौटे तथा उन्हें यह बात बतायी। इस पर नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे घरवाले इसके पाप में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो। यह सुनकर रत्नाकर को दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई तथा उन्होंने नारदमुनि से उद्धार का उपाय पूछा। नारदमुनि ने उन्हें राम-राम जपने का निर्देश दिया।
रत्नाकर वन में एकान्त स्थान पर बैठकर राम-राम जपने लगे लेकिन अज्ञानतावश राम-राम की जगह मरा-मरा जपने लगे। कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी की कृपा से इन्हें समय से पूर्व ही रामायण की सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया तथा उन्होंने रामायण की रचना की। कालान्तर में वे महान ऋषि बने।
मनुस्मृति के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। उनके बारे में एक और किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही उनको एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया था और बड़े ही प्रेम से उनका लालन-पालन किया। उक्त भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म का था। जिसे वाल्मीकि ने अपने भरण-पोषण के दौरान अपना लिया था। जब वाल्मीकि एक तरूण युवा हो गए तब उनका विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। विवाह बाद वे कई संतानों के पिता बने और उन्हीं के भरण-पोषण के लिए उन्होंने पाप कर्म को ही अपना जीवन मानकर और भी अधिक घोर पाप करने लगे।
एक बार उन्होंने वन से गुजर रहे साधुओं की मंडली को ही हत्या की धमकी दे दी। साधु के पूछने पर उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे यह सब अपने पत्नी और बच्चों के लिए कर रहे है। तब साधु ने उन्हें समझाइश दी और कहा कि जो भी पाप कर्म तुम कर रहे हो, उसका दंड केवल तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।
तब साधु ने उन्हें कहा कि तुम जाकर अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि क्या वे तुम्हारे इस पाप के भागीदार बनेंगे। इस बात पर जब उनकी पत्नी और बच्चों ने अपनी असहमती प्रदान की और कहा कि हम आपके इस पाप कर्म में भागीदार नहीं बनेंगे। तब वाल्मीकि को अपने द्वार किए गए पाप कर्म पर बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने साधु मंडली को मुक्त कर दिया।
साधु मंडली से क्षमा मांग कर जब वाल्मीकि लौटने लगे तब साधु ने उन्हें तमसा नदी के तट पर 'राम-राम' नाम जप ही अपने पाप कर्म से मुक्ति का यही मार्ग बताया। लेकिन भूलवश वाल्मीकि राम-राम की जगह 'मरा-मरा' का जप करते हुए तपस्या में लीन हो गए। इसी तपस्या के फलस्वरूप ही वह वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए और रामायण की महान रचना की। इसलिए उन्हें आदिकवि के नाम से पुकारा गया और यही नाम आगे चलकर 'वाल्मीकि रामायण' के नाम से अमर हो गए। अपने डाकू के जीवन के दौरान एक बार उन्होंने देखा कि एक बहेलिए ने सारस पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी जोर-जोर से ‍विलाप कर रही है। उसका मादक विलाप सुन कर वाल्मीकि के मन में करुणा जाग उठी और वे अत्यंत दुखी हो उठे। उस दुखभरे समय के दौरान उनके मुंह से अचानक ही एक श्र्लोक निकल गया-
'मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।'
 अर्थात्- अरे बहेलिए, तूने काम मोहित होकर मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है, अब तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी।
इस श्र्लोक के साथ ही वाल्मीकि को एक अलग ही ज्ञान प्राप्ति का अनुभव हुआ तथा उन्होंने 'रामायण' जैसे प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना कर दी। जिसे आम भाषा में 'वाल्मीकि रामायण' भी कहा जाता है। इसीलिए वाल्मीकि को प्राचीन भारतीय महर्षि माना जाता हैं। ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जो हमें प्रभु श्रीराम के जीवन काल का परिचय करवाता है। जो उनके सत्यनिष्ठ, पिता प्रेम और उनका कर्तव्य पालन और अपने माता तथा भाई-बंधुओं के प्रति प्रेम-वात्सल्य से रूबरू करवा कर सत्य और न्याय धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

Sunday, 5 October 2014

कुर्बानी का मतलब है दूसरों की रक्षा करना

कुर्बानी का त्योहार ईद-उल-जुहा को लेकर राजधानी में जबरदस्त उत्साह है। बकरीद  को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद। बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है। पहली ईद यानी मीठी ईद समाज और राष्ट्र में प्रेम की मिठास घोलने का संदेश देती है। दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है। बकरे की कुर्बानी तो प्रतीक मात्र है, यह बताता है कि जब भी राष्ट्र, समाज और गरीबों के हित की बात आए तो खुद को भी कुर्बान करने से नहीं हिचकना चाहिए।
कोई व्यक्ति जिस परिवार में रहता है, वह जिस समाज का हिस्सा है, जिस शहर में रहता है और जिस देश का वह निवासी है। उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह अपने देश, समाज और परिवार की रक्षा करे। इसके लिए यदि उसे अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देना पड़े तब भी वह पीछे ना हटे।
ईद-उल-जुहा अर्थात बकरीद मुसलमानों का प्रमुख त्योहार है। इस दिन मुस्लिम बहुल क्षेत्र के बाजारों की रौनक बढ़ जाती है। बकरीद पर खरीददार बकरे, नए कपड़े, खजूर और सेवईयाँ खरीदते हैं। बकरीद पर कुर्बानी देना शबाब का काम माना जाता है। इसलिए हर कोई इस दिन कुर्बानी देता है।
इस्लामी साल में दो ईदों में से एक है बकरीद। ईद-उल-जुहा और ई-उल-फितर। ईद-उल-फिरत को मीठी ईद भी कहा जाता है। इसे रमजान को समाप्त करते हुए मनाया जाता है। एक और प्रमुख त्योहार है ईद-उल-मीनाद-उन-नबी, लेकिन बकरीद का महत्व अलग है। इसे बड़ी ईद भी कहा जाता है। हज की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है।
इस्लाम के पाँच फर्ज माने गए हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों में।
कुर्बानी की कथा : यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है। आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करो, तो हजरत इब्राहीम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा।
कुर्बानी का फर्ज : कुर्बानी का अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का आदेश है कि कोई व्यक्ति जिस भी परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे।
ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के सामान यानी कि कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बाँटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत बाँट दिया जाता है। नियम कहता है कि पहले अपना कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएँ। तब बकरीद मनाएँ। इसका मतलब यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने पर जोर देता है।
तीन हिस्से किए जाते हैं कुर्बानी के
इस्लाम में गरीबों और मजलूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इसी वजह से ईद-उल-जुहा पर भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।

Friday, 3 October 2014

दुखद और मार्मिक घटना



पटना गांधी मैदान में, रावणवध कार्यक्रम के बाद लौटती भीड़ में हुई भगदड़ में अनेक लोगों की हुई मौत से मुझे गहरा आघात लगा। यह अत्यंत दुखद और मार्मिक घटना है। प्रभावित परिवारों के प्रति मेरी गहरी संवेदना है। प्रभावित परिवारों को तत्काल राहत-मुआवजा मिले ही, साथ ही घायलों की समुचित चिकित्सा व्यवस्था की जाए। गौरतलब है पटना स्थित बड़े गांधी मैदान में करीब 5 लाख से अधिक लोग लंका दहन देखने पहुंचे थे। मरने वाले में अधिकतर महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। मौके ए वारदात में अफरा-तफरी और भगदड़ को देखते हुए कहा जा सकता है कि मरने वालों की संख्या में इजाफा भी हो सकते है, क्योंकि इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किए गए कई लोग गंभीर हालत में हो सकते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक बिहार सरकार ने भगदड़ में मारे गए लोगों को 3-3 लाख रुपए बतौर मुआवजा देने की घोषणा की है। मीडिया रिपोर्ट है कि हादसे में 100 से अधिक लोग घायल हुए हैं। बिहार सरकार ने एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया है, जिसे डायल करके लोग जानने वालों का कुशल-क्षेम पूछ सकते है। 0612-2219810 पर फोन करे अथवा जरूरंतमंदों को शेयर करें
इस बार विजयादशमी का त्योहार बिहार की राजधानी के बुरी खबर लेकर आया। पटना के गांधी मैदान पर रावण दहन के लिए जुटी लाखों की भीड़ को पता भी नहीं रहा होगा कि आने वाला पल उनके लिए जिंदगी भर का दर्द लेकर आएगा। रावण दहन के बाद लौट रही भीड़ एक अफवाह के बाद भगदड़ का शिकार हो गई। भगदड़ मचने से हुए हादसे में 34 लोगों की जान चली गई। जबकि बड़ी संख्या में लोग घायल हो गए।
घायलों को पटना के पीएमसीएच अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल के बाहर घायलों के परिजन अपनों की तलाश में भारी संख्या में जुट गए। चारों तरफ अफरातफरी का माहौल था। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि किससे पूछे, कहां जाएं, परिजनों को अस्पताल के भीरत जाने भी नहीं दिया जा रहा था। जिसे लेकर उनकी कई बार पुलिस से झड़प भी हो गई।
प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि बिजली का तार मैदान में गिरने की अफवाह फैलने के बाद भगदड़ मची। हालांकि भगदड़ के कारण को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी नहीं मिली है। हादसे के बाद घटनास्थल का दृश्य बेहद भयावह था। घटनास्थल पर वहां से भागने का प्रयास कर रहे लोगों के जूते चप्पल करीब एक किलोमीटर तक के रास्ते में बिखरे पड़े थे। सुरक्षा बलों ने पीएमसीएच की घेराबंदी कर दी थी। सैंकड़ों लोग पीएमसीएच के चारों ओर बदहवास घूम रहे थे। इनमें से कुछ दहाड़ें मार-मारकर रो रहे थे, तो कुछ अपने लापता परिजनों को तलाशने में जुटे थे। भगदड़ के शिकार लोगों को लेकर कई एम्बुलेंस पीएमसीएच की ओर आ जा रही थीं।
वहीं रावण दहन के वक्त समारोह में मौजूद रहे बिहार के सीएम जितनराम मांझी हादसे के बाद गायब दिखे। यही नहीं बिहार सरकार का कोई मंत्री तक घटना के बाद नहीं दिखा। हालांकि देर रात सीएम मांझी घायलों का हाल जानने अस्पताल पहुंचे। पीएम नरेंद्र मोदी ने हादसे पर दुख व्यक्त किया और फोन पर सीएम जीतन मांझी से बात की। केंद्र सरकार की तरफ से हादसे में मारे गए लोगों के लिए 2 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया। जबकि बिहार सरकार ने हादसे में मारे गए लोगों को तीन लाख रुपए के मुआवजे का ऐलान किया है।

Thursday, 2 October 2014

अपने अंदर के रावण को मारें


विजय दशमी का अर्थ बुराई पर अच्छाई की विजय। इसी दिन भगवान राम ने बुराई रूपी रावण को मारकर अच्छाई और सत्य को विजय दिलाई। तब ही से प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक रूप से रावण का दहन किया जाता है। सदियां बीत चुकी हैं, लेकिन रावण पर राम की विजय का यह पर्व हम आज भी उसी उल्लास और उमंग के साथ मनाते हैं। अक्सर रावण दहन कर हम सत्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं। विजयदशमी का एक ही कारण है और वह है राम की विजय। इसीलिए इसे विजय पर्व के नाम से जाना जाता है। यथार्थ में श्रीराम मात्र रावण विजेता नहीं थे, वह कर्म विजेता थे। उन्होंने शत्रु यानी दुराचार, अधर्म और असत्य को परास्त कर धर्म, सदाचरण और सत्य की प्रतिष्ठा की। लंका काण्ड के अंत में वर्णित दोहे-समर विजय रघुवीर के चरित जे सुनहिं सुजान। विजय विवेक विभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान के अनुसार, विजय, विवेक और विभूति, तीनों का मानव जीवन में बड़ा महत्व है। ये चीजें उन्हीं को प्राप्त होती हैं, जो सुजान होते हैं। यहां सुजान का तात्पर्य है सद्कर्म करने वाला, सदाचरण का पालन करने वाला। विजय पर्व का उत्सव तो एक-दो दिन का होता है, पर यथार्थ में मानव के संपूर्ण जीवन में इन तीनों की परीक्षा पल-पल होती है। वस्तुत: अंदर के रावण पर विजय ही जीवन का मूल है।
विजयदशमी एक ऐसा पर्व है, जो समाज के विभिन्न स्वरूपों, प्रवृत्तियों और उसकी दिशा को समझने-बूझने की एक जबरदस्त कसौटी है। यह हमें राजनीति के अर्थ, राजनीति और कूटनीति के भेद-विभेद, परस्पर संबंधों के निर्धारण के सिद्धांत, रण-कौशल, शासन-व्यवस्था के लिए आवश्यक चातुर्य आदि का विस्तृत ज्ञान देता है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि इसके कुछ पात्र ऐसे हैं, जो शुरू से ही समाज में अपनी पैठ बनाए हुए हैं, यदि उनके बारे में सही समझ पैदा करने में कामयाबी पाने में समर्थ हो सकें तथा उसको मर्यादित करने के तौर-तरीकों के बारे में जानकारी प्राप्त कर, उन पर अमल कर लिया जाए, तो रामराज्य की कल्पना को साकार कर पाना असंभव नहीं होगा। लेकिन विडंबना यह है कि अधर्म रूपी पुतले का दहन करने के बाद भी सर्वत्र बुराई का बोलबाला है। रावण समाज में बुराई का प्रतीक है। हम हर साल रावण के पुतले जलाकर खुशियां मनाते हैं, पर क्या हम अपने अंदर बैठे रावण को मार पाए हैं? आइए इस विजयदशमी पर हम उन दशानन रूपी बुराइयों को जड़ से मिटाने का संकल्प लें, जिससे समाज में रामराज की स्थापना हो सके।
बाल विवाह
देश में बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए कई सख्त कानून हैं, लेकिन आज भी हजारों लड़कियों की शादी बचपन में कर दी जाती है। हमें यह समझना होगा कि केवल कानून बना देने से ऎसी सामाजिक कुरीतियों पर रोक नहीं लग सकती है। हमें इस दिशा में खुद पहल करनी होगी।
अतिक्रमण
हमारे यहां अतिक्रमण का यह हाल है कि राहगीरों के लिए बनी सड़कें अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करती दिखती हैं। यह हमारा गैर जिम्मेदाराना रवैया ही है कि सड़कें आज गलियों में तब्दील हो चुकी हैं।
बलात्कार
समाज में किसी भी स्त्री का बलात्कार होना, केवल उस स्त्री के साथ अन्याय नहीं, बल्कि उस समाज के सभ्य होने पर भी सवालिया निशान खड़ा करता है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि बलात्कार की अधिकांश घटनाओं में आरोपित पीडित का परिचित ही होता है। दिनोंदिन बढ़ती इस सामाजिक बुराई पर जल्द से जल्द काबू पाना होगा। एक बेहतर समाज तभी स्थापित हो सकता है जब हम खुद जागरूक हों और इसके लिए आगे आएं। केवल कानून बना देने से बलात्कार की घटनाओं पर काबू नहीं पाया जा सकता है।
कुपोषण
कुपोषण के मामले मे भारत अपने पड़ोसी देश नेपाल और बांग्लादेश से भी आगे है। हर व्यक्ति तक भोजन पहंुचाने के सरकारी प्रयास जब तक कागज से जमीन पर नहीं उतरेंगे, स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस दिशा में लोगों को भी सरकार का सहयोग करने की जरूरत है। हम सभी को सजग रहने की जरूरत है। देश में खाद्यान्न उत्पादन को सड़ने से बचाना होगा, जिससे कोई भी देश में भूखा न रहे। तभी हम कुपोष्ाण मुक्त भारत बनाने में सफल होंगे।
गंदगी
सफाई ही किसी भी स्वस्थ समाज का आइना होता है। आइए, हम एक सभ्य नागरिक का परिचय देते हुए समाज को स्वस्थ बनाने का संकल्प लें।
भ्रष्टाचार
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, भारत में सिंहासन और व्यापार के बीच सम्बंध जितना दूçष्ात है, उतना किसी भी देश में नहीं है। भ्रष्टाचार ने देश की अर्थव्यवस्था और आम आदमी पर बहुत ही विपरीत प्रभाव डाला है।
दहेज
इतिहास गवाह है, जिस समाज ने नारी का सम्मान नहीं किया, उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। आज दहेज के नाम पर नारी का प्रतिदिन अपमान किया जा रहा है। यह एक ऎसा कलंक है, जिसने समाज को घुन खाई लकड़ी की तरह अशक्त कर दिया है। इस सामाजिक अभिशाप को खत्म करने के लिए हमें मिल-जुलकर प्रयास करने होंगे।
लूट
बढ़ती आपराधिक घटनाएं पुलिस के लिए चुनौती बन चुकी हैं। लूट की वारदात दिनोंदिन कमजोर हो रही सामाजिक ताने-बाने पर चोट जैसी है। लोग अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गलत राह चुनने से नहीं कतरा रहे हैं। कहीं न कहीं ऎसी घटनाएं हमारे संस्कारों में चूक को ही प्रदर्शित करती हैं।
छेड़खानी
आज महिलाएं खुद को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं। छेड़खानी की घटनाएं हमारी गिरती नैतिकता को दिखाती हैं। महिलाएं आज भले ही हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं, लेकिन समाज की पुरूष मानसिकता आज भी नहीं बदली है। महिलाएं तभी खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी, जब हम खुद अपने आचरण में बदलाव लाएंगे।
भ्रण हत्या
यह विडम्बना ही है, जिस नारी का हम "शक्ति" के रूप में पूजा करते हैं, उसी नारी को हम गर्भ में ही मारने से नहीं चूकते हैं। कन्या भ्रूण हत्या आज हमारे समाज का एक स्याह पहलू बन चुका है। आइए, इस विजयदशमी पर महिला सशक्तीकरण की शुरूआत हम अपने घर से ही करते हैं।
मनुष्य को अपने भीतर के रावण को मारकर दिल में राम को लाने की जरूरत है। रावण रूपी बुराइयां हमारे अंदर घुसी हुई हैं, जिसे हम पाप के दलदल से निकल नहीं पाते और पुण्य कर्मों से दूर रहते हैं। मन में श्रीराम के विचारों के आने से दूषित विचार बाहर हो जाएंगे। जब हर घर का मनुष्य राम बन जाएगा, तो रावण अपने आप ही खत्म हो जाएगा। 

Wednesday, 1 October 2014

एक नारे से बदल दिया हिन्दुस्तान



आज ही के दिन 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में पैदा हुए लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिवस और गांधी जी काजन्मदिवस ही एक समान नहीं था। बल्कि व्यक्तित्व और विचारधारा भी एक जैसे थे। शास्त्री जी गांधी के विचारों से बेहद प्रेरित थे। शास्त्री जी ने आजादी के आंदोलन में गांधीवादी विचारधारा का अनुसरण करते हए देश की सेवा की और आजादी के बाद भी अपनी निष्ठा और सच्चाई में कमी नहीं आने दी।
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में 'मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव' के यहां हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। ऐसे में सब उन्हें 'मुंशी जी' ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की मां का नाम 'रामदुलारी' था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार से 'नन्हे' कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हे अठारह महीने के हुए तब दुर्भाग्य से उनके पिता का निधन हो गया। उसकी मां रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर चली गईं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हे की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी मां का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अनपे नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जून 1964 को प्रधान मंत्री का पद भार ग्रहण किया। शास्त्री जी का प्रधानमंत्री पद के लिए कार्यकाल राजनैतिक सरगर्मियों से भरा और तेज गतिविधियों का काल था। पाकिस्तान और चीन भारतीय सीमाओं पर नजरें गडाए खड़े थे तो वहीं देश के सामने कई आर्थिक समस्याएं भी थीं। लेकिन शास्त्री जी ने हर समस्या को बेहद सरल तरीके से हल किया। किसानों को अन्नदाता मानने वाले और देश के सीमा प्रहरियों के प्रति उनके अपार प्रेम ने हर समस्या का हल निकाल दिया। “जय जवान, जय किसान” के साथ उन्होंने देश को आगे बढ़ाया।
लाल बहादुर शास्त्री जी ने स्वतंत्रता संग्राम में अहम रोल अदा किया, केन्द्र सरकार में रेलमंत्री रहे और 1964 में देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने। 1965-66 में हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध में उनके निर्णयों की वजह से भारत ने पाकिस्तान को मार भगाया। जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्री जी ने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। उनका कार्यकाल राजनीतिक सरगर्मियों से भरा और तेज गतिविधियों का काल था। पाकिस्तान और चीन भारतीय सीमाओं पर नजरें गड़ाए खड़े थे तो वहीं देश के सामने कई आर्थिक समस्याएं भी थीं। लेकिन शास्त्री जी ने हर समस्या को बेहद सरल तरीके से हल किया। किसानों को अन्नदाता मानने वाले और देश की सीमा प्रहरियों के प्रति उनके अपार प्रेम ने हर समस्या का हल निकाल दिया "जय जवान, जय कि सान" के उद्घोष के साथ उन्होंने देश को आगे बढ़ाया।
जिस समय वह प्रधानमंत्री बने उस साल 1965 में पाकिस्तानी हुकूमत ने कश्मीर घाटी को भारत से छीनने की योजना बनाई थी। लेकिन शास्त्री जी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए प ंजाब के रास्ते लाहौर में सेंध लगा पाकिस्तान को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस हरकत से पाकिस्तान की विश्व स्तर पर बहुत निंदा हुई। पाक हुक्मरान ने अपनी इज्जत बचाने के लिए तत्कालीन सोवियस संघ से संपर्क साधा जिसके आमंत्रण पर शास्त्री जी 1966 में पाकिस्तान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद गए। इस समझौते के तहत भारत, पाकिस्तान के वे सभी हिस्से लौटाने पर सहमत हो गया जहां भारतीय फौज ने विजय के रूप में तिरंगा झंडा गाड़ दिया था। इस समझौते के बाद दिल का दौरा पड़ने से 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में शास्त्री जी का निधन हो गया। हालांकि उनकी मृत्यु को लेकर आज तक कोई आधिकारिक रिपोर्ट सामने नहीं लाई गई है। उनके परिजन समय समय पर उनकी मौत का सवाल उठाते रहे हैं। वर्ष 1966 में ही उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न का पुरस्कार भी मिला था।

सत्य में गांधी के " परमेश्वर "


सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।गान्धी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रक्खे। अहिंसा के पुजारी कहे व माने जाने वाले मोहन दास कर्मचंद गांधी, जिन्हें सम्मान से बापू कह कर पुकारा गया, का दुनिया भर में आज भी नाम है। ‘दे दी हमें आजादी बिना खडग़, बिना ढाल, साबरमती के संत, तूने कर दिया कमाल’ पंक्तियां चरितार्थ कर दिखाने वाले बापू के प्रति दुनिया भर के लोगों की क्या राय रही,
क्लीमैंट एटली के शब्दों में महात्मा गांधी विश्व के महान व्यक्ति थे। वह घोर तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करते थे। उनके करोड़ों देशवासी उन्हें दैवी प्रेरणा प्राप्त संत मानते थे। लक्ष्य साधन में उनकी सच्चाई और निष्ठा पर उंगली नहीं उठाई जा सकती जबकि माऊंटबेटन का कहना था कि महात्मा गांधी के जीवित रहने से सारा संसार सम्पन्न था और उनके निधन से लगता है कि संसार ही दरिद्र हो गया है।
माऊंटबेटन की टिप्पणी थी कि गांधी के परामर्श उनके लिए सदा सहायक सिद्ध हुए। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि महात्मा गांधी एक ऐसे विजयी योद्धा थे, जिन्होंने बल प्रयोग का सदा उपहास किया। वह बुद्धिमान, नम्र, दृढ़ संकल्पी और निश्चय के धनी व्यक्ति थे। इसी तरह रेजिनाइल्ड सोरेन्सन ने लेनिन व महात्मा गांधी को विश्व में बीसवीं सदी का महानतम् व्यक्तित्व बताया था। उनका यह भी कहना था कि ये दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी दुनिया भर में चर्चित रहे। फिलिप नोएल बेकर का गांधी जी को लेकर कथन था कि आधुनिक इतिहास में किसी भी एक व्यक्ति ने अपने चरित्र की वैयक्तिक शक्ति, ध्येय की पावनता और अंगीकृत उद्देश्य के प्रति नि:स्वार्थ निष्ठा से लोगों के दिमागों पर इतना असर नहीं डाला, जितना महात्मा गांधी का असर दुनिया पर हुआ।
इसी तरह पर्ल बक ने कहा था कि हमारे लिए गांधी इने-गिने महात्माओं में से एक थे, जो अपने विश्वास पर हिमालय की तरह अटल और दृढ़ रहते थे। संसार का प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि गांधी जी एक उत्तम व्यक्ति थे तो लोगों ने उन्हें क्यों मार डाला, यह सवाल अनेक लोगों ने मुझसे पूछा और मुझे जवाब न सूझा। रिचर्ड बी. ग्रेड ने कहा था कि गांधी जी की यह भी विशेषता थी कि वह चाहे कहीं भी रहें और चाहे जिस तरह के काम में व्यस्त हों लेकिन हर रोज सुबह सबसे पहले प्रार्थना जरूर करते थे। अपने देश के लोगों में भी महात्मा गांधी शीर्ष स्तर पर छाए रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू उन्हें एक उच्च सिद्धांतवादी और सत्य का अनुयायी संत मानते थे। उनकी नजर में गांधी जी जनता की नब्ज को खूब पहचानते थे। वह कहा करते थे कि वास्तव में यदि कोई सार रूप में भारत का प्रतिनिधित्व करने में योग्य था तो वह सिर्फ महात्मा गांधी थे। बाल गंगाधर तिलक के शब्दों में बहुत सी बातों में लोगों का गांधी जी से मतभेद हो सकता है और बहुत से लोग उनसे अधिक विद्वान हो सकते हैं परन्तु उनमें चरित्र की जो महत्ता है, उसके कारण वह सब लोगों के आदर्श हो गए।
गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा , गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम  बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्‍वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।
लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।
गांधी जी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिए अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया। गांधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं , भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। .गांधी जी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्य‍क्त किया जब उन्होंने कहा भगवान ही सत्य है बाद में उन्होने अपने इस कथन को सत्य ही भगवान है में बदल दिया। इस प्रकार , सत्य में गांधी के दर्शन है " परमेश्वर " .