Thursday, 30 October 2014

माटी के लाल थे रॉबिन शॉ पुष्प

वरिष्ठ साहित्यकार रॉबिन शॉ पुष्प नहीं रहे। अस्सी वर्षीय रॉबिन शॉ पुष्प ने आज दोपहर तकरीबन दो बजे पटना स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। वह पिछले कुछ दिनो से बीमार चल रहे थे। आजीवन स्वतंत्र लेखक रहे रॉबिन शॉ पुष्प की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें उपन्यास, कहानियां, कविताएं, लेख, नाटक और बाल साहित्य आदि शामिल है। अन्याय को क्षमा, दुल्हन बाजार जैसे उपन्यास, अग्निकुंड, घर कहां भाग गया कहानी संग्रह और फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखी संस्मरण पुस्तक सोने की कलम वाला हिरामन उनकी चर्चित कृतियां हैं।
शॉ का मुंगेर से पुराना वास्ता रहा है। यहां उन्होंने पढ़ाई की, खेला कूदा और साहित्य के आसमान में उड़ान भरना भी शुरु किया। सन 1955-58 में आरडी एंड डीजे कॉलेज के छात्र रहे। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के दौरान ही वे गोपाल प्रसाद नेपाली जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार के सानिध्य में रहने लगे। शॉ के गुरु रहे प्रोफेसर शिवचंद प्रताप ने शॉ के निधन पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि वे काफी खुशमिजाज किस्म के छात्र थे। वे इधर-उधर से ज्यादा समय किताबों को देते थे। वे बताते हैं कि शॉ के समकालीन प्रसिद्ध साहित्यकार गोपाल सिंह नेपाली मुंगेर आने पर प्राय: उन्हीं के घर ठहरते थे और कवि सम्मेलन में भाग लेते थे।




याद तुम्हारी
जैसे पलकों में झपकी
या दरवाज़े पर थपकी
याद तुम्हारी आई
कुछ वैसे, तब की अब की!

सुधियों से धुँआया
मन ऐसे
विधवा का जलता
तन जैसे

हूँ चौखट पर, बुझी-बुझी
मैं राख प्रतीक्षा-तप की!

पर साल रहे
पेटी कंगना
पीड़ा के चरण
उगे अंगना
ठहर-ठहर, ज्यों रुकी-रुकी
गुज़र गई, मीरा अब की!

फ़रक नहीं छूए
घूँघट में
या फिर मुहरे लगें
टिकट में
दोनों बोझिल, पड़े-पड़े
गड़ते, आँखों में सबकी!

धोबिन विधि के
हाथों टूटे
टाँके गए
खुशी के बूटे

आओ भी, लाज रखो अब
प्रीत हुई, नंगी कब की!

रॉबिन शॉ पुष्प, २८ अप्रैल २००८

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