चाल, चेहरा और चरित्र की बात करते थकने नहीं वाली भारतीय जनता पार्टी में सबकुछ बदल रहा है। पहले चेहरा बदला और अब चरित्र बदल रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह ने तो सरेआम ऐलान कर दिया कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही नेतृत्व में चार राज्यों की विधानसभा चुनाव लड़ेगी। मुख्यमंत्री का निर्णय चुनाव परिणाम आने के बाद किए जाएंगे।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा बदल गई ? जो कांग्रेस पर आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम चुनाव के दौरान घोषित नहीं किया, उस भाजपा को अब क्या हो गया है ? विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। ये बयान किसी स्थानीय नेता का नहीं बल्कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने और जीतने के बाद अब देखना होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के नेतृत्व में किस तरह से विधानसभा चुनाव लड़ा जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। कई पुराने प्रसंग भी हैं। भाजपा के नेतृत्व में भी बदलाव आ रहा है। इनमें से कुछ बदलाव धीमे हैं, तो कुछ तेज। मगर तय है कि आने वाले वर्षों में राजनीति और समाज पर इनका गहरा असर पड़ेगा। विचारधारा के नजरिये से देखें, तो धर्मनिरपेक्षता के मामले में नेहरू के मॉडल में बदलाव दिख रहा है और उस नजरिये में, जिससे अब तक देश में सांप्रदायिकता की समस्या को परिभाषित किया जाता रहा है। नेहरू के समय में भारतीय राष्ट्रवाद एक क्षेत्र आधारित अवधारणा समझ्णी जाती थी, वर्तमान राजनीतिक व्यवस्?था में इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे बड़े नेताओं का मानना है कि भारत की संस्कृति ही उसे राष्ट्र बनाती है, जो मुख्यतरू हिंदू संस्कृति ही है। उनका यह भी मानना है कि हिंदू संस्कृति केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है, सभी तरह की आस्?थाएं इसमें समाहित हैं। सुनने में यह भले अटपटा लगे, मगर संघ परिवार के अनेक नेता कहते आए हैं कि हिंदू संस्कृति और हिंदुत्व देश और उसके लोगों को पारिभाषित करता है। कुछ इसी सोच का उल्लेख नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में करते आए हैं। मगर भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की कुछ सीमाएं भी हैं। यहां किसी खास संस्कृति के प्रभुत्व को धार्मिक अल्पसंख्यक अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर देखते हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अल्पसंख्यक समूहों को साफ संदेश दिया है कि चुनावी प्रक्रिया में उनके वोटों का अब उतना महत्व नहीं रह गया है, और उनके समर्थन के बगैर भी भाजपा पूर्ण बहुमत पा सकती है। इससे मुसलमानों और हिंदुओं में यह संकेत गया कि तमाम राजनीतिक दल द्वारा पहले की गई समुदाय आधारित गणनाओं की जरूरत नहीं थी।आज जरूरत इसकी है कि सरकार अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाए कि इस देश पर उनका भी बराबर हक है। बीते तीन महीनों में ऐसे कई मौके आए, जब प्रधानमंत्र्णी और उनके सहयोगी यह कर सकते थे। पुणे में मुस्लिम सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या और महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसद का रोजादार वेटर के मुंह में रोटी ठूंसने जैसी घटना का उपयोग भाजपा नेतृत्व मुसलमानों में पैठ बनाने में कर सकता था।
यह समझना होगा कि आबादी के एक बड़े तबके को दरकिनार करने की कोशिश देश के लिए अच्छी नहीं। इसके अलावा एक बड़ा बदलाव गवर्नेंस की कैबिनेट पद्धति में हो रहा है, जो अध्यक्ष्णीय प्रणाली में तब्दील होती दिख रही है। गुजरात के मुख्यमंत्र्णी रहते हुए नरेंद्र मोदी की यही शैली रही है। इसके अलावा प्रधानमंत्र्णी कार्यालय का बढ़ता प्रभुत्व, कैबिनेट सचिवालय का कम होता महत्व, नतीजतन नौकरशाही का बढ़ता प्रभाव व मंत्रियों के राजनीतिक प्रभाव में कटौती, ये कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो पहले भी इंदिरा गांधी के समय में देखी जा चुकी हैं। मगर जिस तरह कैबिनेट की बैठकें स्वतंत्र विचार के बजाय महज निर्देश ग्रहण करने का मंच बन गई हैं, उससे कैबिनेट की भूमिका का, और अंततरू पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का क्षय होता दिख रहा है। नरेंद्र मोदी मानते हैं कि सहमति आधारित दृष्टिकोण से सरकार के कामकाज में कुशलता को बढ़ावा नहीं मिल सकता। उनके मुताबिक, निरंकुश व्यवस्था के जरिये ही सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार को दूर रखा जा सकता है।
भाजपा पहले ही एक पीढ़ीगत बदलाव कर चुकी है। हालांकि इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, पर इससे इन्कार नहीं कि उदारता मोदी की पहचान नहीं है। पर भाजपा की पुरानी पीढ़ी को भी, चाहे वह लालकृष्ण आडवाण्णी हों या मुरली मनोहर जोश्णी, समझना चाहिए कि उनका समय खत्म हो चुका है। अलबत्ता पचहत्तर से अधिक उम्र के लोगों को सक्रिय राजनीति से बाहर करने पर जोर एक नजीर की तरह लगता है। कया भारत भी चीन की तरह हर पांच-दस साल में पीढ़ीगत राजनीतिक बदलाव की राह पर चल पड़ा है?
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा बदल गई ? जो कांग्रेस पर आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम चुनाव के दौरान घोषित नहीं किया, उस भाजपा को अब क्या हो गया है ? विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। ये बयान किसी स्थानीय नेता का नहीं बल्कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने और जीतने के बाद अब देखना होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के नेतृत्व में किस तरह से विधानसभा चुनाव लड़ा जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। कई पुराने प्रसंग भी हैं। भाजपा के नेतृत्व में भी बदलाव आ रहा है। इनमें से कुछ बदलाव धीमे हैं, तो कुछ तेज। मगर तय है कि आने वाले वर्षों में राजनीति और समाज पर इनका गहरा असर पड़ेगा। विचारधारा के नजरिये से देखें, तो धर्मनिरपेक्षता के मामले में नेहरू के मॉडल में बदलाव दिख रहा है और उस नजरिये में, जिससे अब तक देश में सांप्रदायिकता की समस्या को परिभाषित किया जाता रहा है। नेहरू के समय में भारतीय राष्ट्रवाद एक क्षेत्र आधारित अवधारणा समझ्णी जाती थी, वर्तमान राजनीतिक व्यवस्?था में इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे बड़े नेताओं का मानना है कि भारत की संस्कृति ही उसे राष्ट्र बनाती है, जो मुख्यतरू हिंदू संस्कृति ही है। उनका यह भी मानना है कि हिंदू संस्कृति केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है, सभी तरह की आस्?थाएं इसमें समाहित हैं। सुनने में यह भले अटपटा लगे, मगर संघ परिवार के अनेक नेता कहते आए हैं कि हिंदू संस्कृति और हिंदुत्व देश और उसके लोगों को पारिभाषित करता है। कुछ इसी सोच का उल्लेख नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में करते आए हैं। मगर भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की कुछ सीमाएं भी हैं। यहां किसी खास संस्कृति के प्रभुत्व को धार्मिक अल्पसंख्यक अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर देखते हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अल्पसंख्यक समूहों को साफ संदेश दिया है कि चुनावी प्रक्रिया में उनके वोटों का अब उतना महत्व नहीं रह गया है, और उनके समर्थन के बगैर भी भाजपा पूर्ण बहुमत पा सकती है। इससे मुसलमानों और हिंदुओं में यह संकेत गया कि तमाम राजनीतिक दल द्वारा पहले की गई समुदाय आधारित गणनाओं की जरूरत नहीं थी।आज जरूरत इसकी है कि सरकार अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाए कि इस देश पर उनका भी बराबर हक है। बीते तीन महीनों में ऐसे कई मौके आए, जब प्रधानमंत्र्णी और उनके सहयोगी यह कर सकते थे। पुणे में मुस्लिम सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या और महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसद का रोजादार वेटर के मुंह में रोटी ठूंसने जैसी घटना का उपयोग भाजपा नेतृत्व मुसलमानों में पैठ बनाने में कर सकता था।
यह समझना होगा कि आबादी के एक बड़े तबके को दरकिनार करने की कोशिश देश के लिए अच्छी नहीं। इसके अलावा एक बड़ा बदलाव गवर्नेंस की कैबिनेट पद्धति में हो रहा है, जो अध्यक्ष्णीय प्रणाली में तब्दील होती दिख रही है। गुजरात के मुख्यमंत्र्णी रहते हुए नरेंद्र मोदी की यही शैली रही है। इसके अलावा प्रधानमंत्र्णी कार्यालय का बढ़ता प्रभुत्व, कैबिनेट सचिवालय का कम होता महत्व, नतीजतन नौकरशाही का बढ़ता प्रभाव व मंत्रियों के राजनीतिक प्रभाव में कटौती, ये कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो पहले भी इंदिरा गांधी के समय में देखी जा चुकी हैं। मगर जिस तरह कैबिनेट की बैठकें स्वतंत्र विचार के बजाय महज निर्देश ग्रहण करने का मंच बन गई हैं, उससे कैबिनेट की भूमिका का, और अंततरू पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का क्षय होता दिख रहा है। नरेंद्र मोदी मानते हैं कि सहमति आधारित दृष्टिकोण से सरकार के कामकाज में कुशलता को बढ़ावा नहीं मिल सकता। उनके मुताबिक, निरंकुश व्यवस्था के जरिये ही सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार को दूर रखा जा सकता है।
भाजपा पहले ही एक पीढ़ीगत बदलाव कर चुकी है। हालांकि इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, पर इससे इन्कार नहीं कि उदारता मोदी की पहचान नहीं है। पर भाजपा की पुरानी पीढ़ी को भी, चाहे वह लालकृष्ण आडवाण्णी हों या मुरली मनोहर जोश्णी, समझना चाहिए कि उनका समय खत्म हो चुका है। अलबत्ता पचहत्तर से अधिक उम्र के लोगों को सक्रिय राजनीति से बाहर करने पर जोर एक नजीर की तरह लगता है। कया भारत भी चीन की तरह हर पांच-दस साल में पीढ़ीगत राजनीतिक बदलाव की राह पर चल पड़ा है?
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