Sunday, 28 September 2014

सुनें दिल की आवाज



हर साल विश्व हृदय दिवस के बहाने पूरे विश्व के लोगों में इसके बारे में जागरूकता फैलाई जाती है। अपने देश में तो अब कम उम्र के लोग भी इस बीमारी के शिकार हो रहे हैं। इस बीमारी की सबसे बड़ी वजहों में से एक है तनाव। तनाव दिल का सबसे बड़ा दुश्मन है है। आज की भागदौड़ वाली जीवनशैली में लोगों में तनाव कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। इसलिए इस बीमारी से पूरी तरह बचना तो मुश्किल है लेकिन जहां तक संभव हो इससे दूरी बनाए रखें। ऐसे में इस बात की जरूरत है कि हम अपने दिल की आवाज सुनें,दिल को दुरुस्त रखने के लिए तनाव दूर भगाएं। तनाव के कारण मस्तिष्क से जो रसायन स्रावित होते हैं वे हृदय की पूरी प्रणाली खराब कर देते हैं। तनाव से उबरने के लिए योग का भी सहारा लिया जा सकता है। हृदय हमारे शरीर का ऐसा अंग है जो लगातार पंप करता है और पूरे शरीर में रक्त प्रवाह को संचालित करता है। हृदय संचार प्रणाली के मध्य में होता है और धमनियों और नसों जैसी रक्त वाहिनियां अशुद्ध रक्त को शरीर के हर भाग से हृदय तक ले जाती हैं और शुद्ध रक्त को हृदय से शरीर के हर भाग तक पहुंचाती हैं।
हृदय रोगियों का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ता जा रहा है। अनियमित दिनचर्या और दौड़ती जिंदगी में बेतहाशा तनाव से बुढ़ापे में मिलने वाला दिल का रोग अब जवानी में मिल रहा है। अगले कुछ महीनों में तापमान गिरने के साथ हार्ट अटैक के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी होगी। जीएमसी में ही रोजाना सामान्य में 5-10 हार्ट अटैक के मामले पहुंच रहे हैं। उस पर दूरवर्ती और पहाड़ी क्षेत्रों में कार्डियो विशेषज्ञों के न होने से हार्ट अटैक के मामले में जान बचाना राम भरोसे ही रहता है। हृदय रोगियों के लिए अब आगामी सर्दी का मौसम खतरनाक रहेगा। संभाग के पहाड़ी, दूरवर्ती और शहरी इलाकों के लोग भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। ठंड के दौरान शारीरिक गतिविधियां कम होने से खून में कंपोनेंट आपस में जुड़कर सीधे दिल पर हमला करते हैं। इससे खून की सप्लाई प्रभावित होने से हार्ट अटैक की आशंका बढ़ जाती है। मोटापा, तनाव, ब्लड प्रेशर भी हार्ट अटैक के लिए जिम्मेदार है।
दुनियाभर में हर साल होने वाली 29 प्रतिशत मौतों की एक प्रमुख वजह दिल की बीमारियां और दिल के दौरे हैं। दिल की बीमारियों और दिल के दौरे से हर साल 1.71 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है। आम लोगों को इन बीमारियों व दिल के स्वास्थ्य का खास ख्याल रखने के प्रति जागरुक करने के मकसद से साल 2000 में विश्व हृदय दिवस मनाने की शुरुआत की गई। अब तक सितम्बर के अंतिम रविवार को विश्व हृदय दिवस मनाया जाता रहा है लेकिन इस साल से इसे 29 सितम्बर के दिन मनाया जाएगा। इस साल विश्व हृदय दिवस को मनाते हुए 11 साल पूरे हो जाएंगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की भागीदारी से स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) वर्ल्ड हार्ट फेडरेशन हर साल विश्व हृदय दिवस मनाता है। इस साल यह दिवस ‘वन वर्ल्ड, वन होम, वन हार्ट’ विषय के अंतर्गत मनाया जा रहा है।

एक जीवित किवदंती लता मंगेशकर



सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर रविवार को 85 वर्ष की हो गईं। ईश्वर के वरदान के रूप में उन्हें जो आवाज मिली है, उसका सर्वोत्तम उपयोग मानव-कल्याण के लिए लताजी ने किया है। जब तक धरती पर सूरज-चाँद और सितारे रहेंगे, लता की आवाज हमारे आसपास गूँजती रहेगी। लता मंगेशकर एक जादुई आवाज का नाम है, जो सात दशकों से हिंदी गीतों की दुनिया में छाई हुई है. टेपरिकॉर्डर को ट्यून करने वाली पीढ़ी से लेकर आधी रात को आईपॉड सुनने वालों तक, यह आवाज एक सुरमयी अमर तान की तरह पसरी हुई हैं.
भारतरत्‍न लता मंगेशकर भारत की सबसे अनमोल गायिका हैं। उनकी आवाज की दीवानी पूरी दुनिया है। उनकी आवाज को लेकर अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी कह दिया कि इतनी सुरीली आवाज न कभी थी और न कभी होगी। पिछले 6 दशकों से भारतीय सिनेमा को अपनी आवाज दे रहीं लता मंगेशकर बेहद ही शांत स्‍वभाव और प्रतिभा की धनी हैं। भारत के क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर उन्‍हें अपनी मां मानते हैं। आज पूरी संगीत की दुनिया उनके आगे नतमस्‍तक है।
लता मंगेशकर का जन्‍म 28 सितंबर 1929 को इंदौर के मराठी परिवार में पंडित दीनदयाल मंगेशकर के घर हुआ। इनके पिता रंगमंच के कलाकार और गायक भी थे इसलिए संगीत इन्‍हें विरासत में मिली। लता मंगेशकर का पहला नाम 'हेमा' था, मगर जन्‍म के 5 साल बाद माता-पिता ने इनका नाम 'लता' रख दिया था। लता अपने सभी भाई-बहनों में बड़ी हैं। मीना, आशा, उषा तथा हृदयनाथ उनसे छोटे हैं। इनके जन्‍म के कुछ दिनों बाद ही परिवार महाराष्‍ट्र चला गया।
लता ने क्लासिकल रोमांटिक गानों से लेकर गजल और भजन तक रिकॉर्ड किए हैं. खबर है कि आज जन्मदिन के मौके पर मुंबई में उनके सम्मान में एक समारोह आयोजित किया जाएगा, जिसमें क्रिकेट स्टार सचिन तेंदुलकर भी मौजूद होंगे. लता सचिन को बेटे की तरह मानती हैं. 1942 में जब लता 13 साल की थीं, उनके पिता का दिल की बीमारी से देहांत हो गया. लता की परवरिश मंगेशकर परिवार के खास मित्र मास्टर विनायक ने की. उन्होंने अपना पहला हिंदी गाना 1943 में आई मराठी फिल्म 'गजाभाऊ' के लिए गाया. गाने के बोल थे, 'माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू.' लता मंगेशकर की उम्र बढ़ती रही, लेकिन उनकी आवाज हमेशा ताजी हवा के झोंके सी लगती रही. सन 2006 में जब उन्होंने 'रंग दे बसंती' फिल्म के लिए यह गाना गाया, उनकी उम्र 77 साल थी. 1974 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में लता मंगेशकर का नाम सबसे ज्यादा गाने रिकॉर्ड करने के लिए दर्ज हुआ. गिनीज ने लिखा, 'बताया जाता है कि 1948 से 1974 के बीच उन्होंने जो सोलो, डुएट और कोरस गाने रिकॉर्ड किए उनकी संख्या 25 हजार से कम नहीं थी.' खुद लता कहती थीं कि वह अपने रिकॉर्डेड गानों का हिसाब नहीं रखती हैं. लेकिन उनके गानों की संख्या को लेकर अलग-अलग दावे किए जाते रहे. 2011 में औपचारिक तौर पर लता की छोटी बहन आशा भोसले का नाम गिनीज बुक में सबसे ज्यादा गाने रिकॉर्ड करने के लिए दर्ज किया.
लता मंगेशकर देश के उन चुनिंदा कलाकारों में हैं जिनमें हर आयु वर्ग के लोगों ने अपना 'हीरो' और अपनी आवाज खोजी. लता मंगेशकर ने अब सार्वजनिक तौर पर नहीं गाती हैं. लेकिन उन्होंने जब तक गाया, उनकी आवाज ने 16 बरस की बाली उमर की पतवार थामी रही. हालांकि अब भी चाहने वालों को ट्विटर पर उनकी तस्वीरें और संदेश मिलते रहते हैं.





Thursday, 25 September 2014

अमिट छाप है डाॅ. मनमोहन सिंह जी की



भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशस्त्री डॉ. मनमोहन सिंह कोहली आज अपना 82वां जन्मदिन मना रहे हैं। देश के 14वें प्रधानमंत्री रहे सिंह ने 22 मई 2004 से 26 मई 2014 तक प्रधानमंत्री पद संभाला। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद सिंह ही एकमात्र ऎसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने पांच-साल का कार्यकाल पूर कर फिर से प्रधानमंत्री पद संभाला। पाकिस्तान के पंजाब में स्थित गाह में जन्मे सिंह का परिवार विभाजन के वक्त भारत आ गया। सिंह ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में डॉक्ट्रेट डिग्री हासिल की और फिर वर्ष 1966-69 तक यूनाइटेड नेशंस के लिए काम किया।
भारतीय राजनीति में उनकी एंट्री तब हुई जब ललित नारायण मिश्रा ने उन्हें मिनिस्ट्री ऑफ फॉरेन ट्रेड में बतौर एडवाइजर हायर किया। इसके बाद सिंह चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर (1972-76), रिजर्व बैंक के गर्वनर (1982-85) और प्लानिंग कमिशन के हैड (1985-87) रहे।
1985 में राजीव गांधी के शासन काल में मनमोहन सिंह को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने निरन्तर पाँच वर्षों तक कार्य किया, जबकि १९९० में यह प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बनाए गए। जब पी वी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने मनमोहन सिंह को १९९१ में अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित करते हुए वित्त मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंप दिया। इस समय डॉ॰ मनमोहन सिंह न तो लोकसभा और न ही राज्यसभा के सदस्य थे। लेकिन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार सरकार के मंत्री को संसद का सदस्य होना आवश्यक होता है। इसलिए उन्हें १९९१ में असम से राज्यसभा के लिए चुना गया।
मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में प्रस्तुत किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ दिया। डॉ॰ मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया। लाइसेंस एवं परमिट गुज़रे ज़माने की चीज़ हो गई। निजी पूंजी को उत्साहित करके रुग्ण एवं घाटे में चलने वाले सार्वजनिक उपक्रमों हेतु अलग से नीतियाँ विकसित कीं। नई अर्थव्यवस्था जब घुटनों पर चल रही थी, तब पी. वी. नरसिम्हा राव को कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा। विपक्ष उन्हें नए आर्थिक प्रयोग से सावधान कर रहा था। लेकिन श्री राव ने मनमोहन सिंह पर पूरा यक़ीन रखा।मात्र दो वर्ष बाद ही आलोचकों के मुँह बंद हो गए और उनकी आँखें फैल गईं। उदारीकरण के बेहतरीन परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में नज़र आने लगे थे और इस प्रकार एक ग़ैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति जो अर्थशास्त्र का प्रोफ़ेसर था, का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ ताकि देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके।
वर्ष 1991 में भारत में भयंकर इकोनॉमिक क्राइसिस आई। उस समय प्रधानमंत्री बने पी वी नरसिम्हां राव ने सबको चौंकाते हुए सिंह को अपने कैबिनेट में बतौर वित्त मंत्री शामिल किया। अगले कुछ सालों में विपक्ष के विरोध के बावजूद सिंह ने कुछ स्ट्रक्चरल रिफॉर्म्स किए जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था उदार बनी। इससे देश की अर्थव्यवस्था संभली और देश में सिंह का कद कई गुना बढ़ गया। वर्ष 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तो पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह को आगे कर दिया। दसके बाद वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी यूपीए की ही जीत हुई और मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री बने रहे।  लोकसभा चुनाव २००९ में मिली जीत के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमन्त्री बन गये हैं, जिनको पाँच वर्षों का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला ।

जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव
१९५७ से १९६५ - चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापक
१९६९-१९७१ - दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रोफ़ेसर
१९७६ - दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मानद प्रोफ़ेसर
१९८२ से १९८५ - भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर
१९८५ से १९८७ - योजना आयोग के उपाध्यक्ष
१९९० से १९९१ - भारतीय प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार
१९९१ - नरसिंहराव के नेतृत्व वाली काँग्रेस सरकार में वित्त मन्त्री
१९९१ - असम से राज्यसभा के सदस्य
१९९५ - दूसरी बार राज्यसभा सदस्य
१९९६ - दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफ़ेसर
१९९९ - दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन हार गये।
२००१ - तीसरी बार राज्य सभा सदस्य और सदन में विपक्ष के नेता
२००४ - भारत के प्रधानमन्त्री
इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक के लिये भी काफी महत्वपूर्ण काम किया है।

पहले ही प्रयास में सफल मंगल







अब जब भारत अपने महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष मिशन मंगलयान के जरिये अपने सौरमंडल के लाल ग्रह कहे जाने वाले मंगल तक पहुंचने ही जा रहा है, सारी दुनिया मुंहबाए देख रही है, क्यों भारतीय मिशन जो रकम खर्च कर पूरा किया जा रहा है, वह शेष विश्व के लिए अकल्पनीय रूप से कम है... इसरो के मंगलयान की सफलता से भारत विश्व का चैथा और एशिया का पहला देश बन गया है जिसने मंगल मिशन में सफलता हासिल की है। मंगलयान मंगल ग्रह की गतिविधियों पर नजर रखकर वहां के रहस्य का पता लगायेगा। कई शोधों से यह बात सामने आई है कि मंगल ग्रह का धरती पर जीवन के क्रमिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। इसलिए यह अभियान भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। अमेरिका का मंगल मिशन छह बार फेल हो चुका था वहीं चीन से इसमें अभी तक सफलता हासिल नहीं की है।
इस यान में कई उपकरण लगाये गये हैं जैसे मंगल के वायुमंडल में जीवन की निशानी और मीथेन गैस का पता लगाने वाले सेंसर, एक रंगीन कैमरा और ग्रह की सतह और खनिज संपदा का पता लगाने वाला थर्मल इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर जैसे उपकरण। पृथ्वी की कक्षा को छोड़ने के बाद यान मंगल ग्रह के दीर्घवृताकार पथ में प्रवेश कर गया है। भारत के मंगलयान का मुख्य उद्देश्य मार्स आर्बिटर मिशन (एमओएम) लाल ग्रह पर मिथेन है या नहीं पता लगाना है। इस रसायन को जीवन से जुड़ा महत्वपूर्ण रसायन माना जाता है। भारत के मंगल अभियान में अंतरिक्ष यान में पांच पेलोड जुड़े हैं जिसमें से एक मिथेन सेंसर भी है। यह मंगल में मिथेन का पता लगायेगा। यान के साथ 15 किलो का पेलोड भेजा गया है इनमें कैमरे और सेंसर जैसे उपकरण लगे हैं। यह मंगल के वायुमंडल और उसकी दूसरी विशिष्टताओं का अध्ययन करगा। यान मंगल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां इसरो को भेजेगा। मंगलयान का मुख्य फोकस संभावित जीवन, ग्रह की उत्पत्ति, भौगोलिक संरचनाओं और जलवायु आदि पर रहेगा। मंगलयान पता लगाने की कोशिश करेगा कि क्या मंगल पर सचमुच जीवन पनप सकता है या नहीं। यह यान ग्रह की जलवायु ,आन्तरिक बनावट, वहां जीवन की उपस्थिति, ग्रह की उत्पति, विकास आदि के विषय में बहुत सी जानकारी जुटा कर इसरो को भेजेगा। वैज्ञानिक जानकारी को जुटाने हेतु मंगलयान पर कैमरा, मिथेन संवेदक, उष्मा संवेदी अवरक्त वर्ण विश्लेषक, परमाणुविक हाइड्रोजन संवेदक, वायु विश्लेषक आदि पांच प्रकार के उपकरण लगाए गये हैं। इन उपकरणों का वजन लगभग 15 किलोग्राम के लगभग होगा। इससे पहले अमेरिका, यूरोप और रूस की अंतरिक्ष एजेंसियां कई कोशिश के बाद मंगल ग्रह की कक्षा में अपने उपग्रह भेज चुकी हैं। भारत का यह पहली कोशिश थी जिसे इसरो के वैज्ञानिकों ने सफल बना दिया हालांकि मंगल अभियान की सफलता को लेकर इसरो के वैज्ञानिक पहले से आश्वस्त थे।
यह उपग्रह, जिसका आकार लगभग एक नैनो कार जितना है, तथा संपूर्ण मार्स ऑरबिटर मिशन की लागत कुल 450 करोड़ रुपये या छह करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर रही है, जो एक रिकॉर्ड है... यह मिशन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन या इसरो) ने 15 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार किया, और यह 300 दिन में 67 करोड़ किलोमीटर की यात्रा कर अपनी मंज़िल मंगल ग्रह तक पहुंच जाएगा... यह निश्चित रूप से दुनियाभर में अब तक हुए किसी भी अंतर-ग्रही मिशन से कहीं सस्ता है... आंध्र प्रदेश में समुद्रतट पर स्थापित और भारत के रॉकेट पोर्ट कहे जाने वाले श्रीहरिकोटा में इसी वर्ष जून के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी टिप्पणी की थी, ष्हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फिल्म ग्रेविटी का बजट हमारे मंगल अभियान से ज्यादा है... यह बहुत बड़ी उपलब्धि है... मंगल ग्रह की सतह पर पहले से मौजूद सबसे ज्यादा चर्चित अमेरिकी रोवर यान श्क्यूरियॉसिटीश् की लागत दो अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा रही थी, जबकि भारत की तकनीकी क्षमताओं तथा सस्ती कीमतों ने मंगलयान की लागत कम रखने में काफी मदद की... भारतीय मंगलयान दुनिया का सबसे सस्ता अंतर-ग्रही मिशन है, और इसकी औसत लागत प्रति भारतीय चार रुपये से भी कम रही है, यानि सिर्फ 450 करोड़ रुपये, सो, अब भारत नया उदाहरण पेश करते हुए तेज, सस्ते और सफल अंतर-ग्रही मिशनों की नींव डाल रहा है...

Sunday, 21 September 2014

उबारना होगा जन्नत को दर्द से



ऐ जिन्दगी! तू ही बता
एक और स्वर्ग कहां बसाऊँ...
फिर वही कश्मीर कहां से लाऊँ...
कुदरत का ही दिया था सब
कुदरत ने ही लिया है सब
सच बता ऐ कुदरत!
चाहती तू क्या है?
कहते थे कभी सब...
धरती का स्वर्ग हेा तुम
तस्वीर कुछ ऐसी हुई कि नरक से भी बद्तर हुआ है।

‘हमारे बच्चे चार दिन से फंसे हैं... प्लीज़ सर हमारे बच्चों को बचा लीजिए... आँखों से बहती आँसुओं की धार और सूखे होंठों से निकलते ये बोल राहत कार्यों में जुटीं बचाव टीमों से अपने बच्चों की जान की भीख माँगते सुनाई दे रहे हैं। कुदरत के इस कहर ने अब तक सैकड़ों घरों के चिरागों का अपनी चपेट में ले लिया है और दर्जनों परिवार तबाह हो चुके हैं। दुआ करते हैं कि कुदरत का यह कहर उत्तराखण्ड की त्रासदी न बन जाए, जिसने लाखें घरों को पल भर में ही खत्म कर दिया और कइयों का तो कुछ पता ही नहीं चला, जहाँ आज भी लाश मिलने पर परिजन इस आस से पहुँच जाने हैं कि शायद यह लाश उनके ही परिवारीजन की हो...।
भारत ने तो पिछले वर्ष ही तो उत्तराखंड की भयानक त्रासदी झेली है और अब जम्मू-कष्मीर में हुए जन-धन के नुकसान की भरपाई के लिए हमारी सेना, एनडीआरएफ की टीम और जम्मू-कष्मीर सरकार के साथ भारत सरकार भी पूरी जिम्मेदारी के साथ मौके पर है। वहीं पाकिस्तान भी इस मुष्किल हालात से निपटने के लिए दिन-रात एक कर रहा है। पाकिस्तान तो अभी आर्थिक तौर पर इतना सक्षम भी नहीं है कि वह बाढ़ पीडि़तों की पूरी तरह मदद कर सके। भारत ने मानवता के आधार पर पाक अधिकृत कष्मीर में फंसे लोगों की मदद के लिए पहल की थी जिसे भी पाकिस्तान ने नकार कर अपने इरादे स्पष्ट कर दिये और घाटी में अमन-चैन के पक्ष में नहीं है। पाकिस्तान यह समझने का प्रयास नहीं कर रहा है कि जम्मू-कष्मीर से निकलने वाली नदियां सिंधु, रावी, चिनाव, झेलम और तवी दोनों देषों के मध्य बहती है। लेकिन इन नदियों का अधिकांष भाग पाकिस्तान से गुजरकर अरब सागर में मिल जाता है। तो मतलब साफ है कि भारत शुरूआती दंष झेल रहा है तो पाकिस्तान को अभी सिंध, पंजाब में बाढ़ के कहर से निपटना बाकी है।
बाढ़ का जो कहर इन दोनों देषों पर बरपा है उसके लिए हमें पहले भारत-पाकिस्तान में बह रही इन नदियों की भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी होगा। सिंधु, रावी, चिनाव, झेलम, तवी, नीलम और सतलुज ये वे नदियां है जो भारत से होकर पाकिस्तान जाती है। हिमालय से निकलने वाली नदियों को लेकर भारत-पाक में एक समझौता भी हो चुका है। भारत-पाकिस्तान में नदियों के पानी के बंटवारे के लिए 1960 में ‘सिंधु जल-संधि’ पर भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी के सद्र अयूब खान ने हस्ताक्षर किये थे। पानी के बंटवारे को लेकर विष्व बैंक की मध्यस्थता के बीच संधि में स्पष्ट लिखा है कि सिंधु, झेलम और चिनाव नदियों को भारत अविरल बहनें देगा। इस पर किसी प्रकार के बांध का निर्माण भारत की ओर से नहीं किया जायेगा। इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई कि इस भयंकर बाढ़ में सबसे ज्यादा झेलम नदी उफान पर थी और पाकिस्तान के अखबारों एवं मीडिया-चैनलों ने खबरें दी कि भारत ने अपने लोगों को बचानें के लिए पाकिस्तान की ओर कई लाख क्यूबेक पानी छोड़ दिया। संधि के मुताबिक गौर करें तो पाकिस्तान को जबाव मिल गया होगा कि भारत ने न झेलम पर बांध बनाया है और न ही पानी छोड़ा है। यह प्राकृतिक आपदा है, जिसकी भयानक त्रासदी का दंष दोनों देष और जनता वर्तमान में भोग रही है।
बाढ़ से घिरे दोनों देष अभी इतने सक्षम नहीं है कि बाढ़ का पूर्वानुमान लगा सके। भारत ने उत्तराखंड त्रासदी से कोई सबक नहीं लिया। जम्मू-कष्मीर में तेज बारिष की चेतावनी तो मौसम विभाग ने दी थी लेकिन जम्मू सरकार ने ऐहतियात के तौर पर कोई कदम नहीं उठाये। भारत की एक और संस्था ब्ॅब् यब्मदजमतंस ॅंजमत ब्वउउपेेपवदद्ध की 6 सितंबर की रिपोर्ट में नदियों के बढ़ते जलस्तर को लेकर जो आंकड़े प्रस्तुत किये गये, उसमें जम्मू-कष्मीर की एक भी नदी का आंकड़ा नहीं था। यही हाल पाकिस्तान का है कि पाकिस्तान के मौसम विभाग ने तो तेज बारिष की जानकारी तो दी थी लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने वाली एजेंसी एनडीएमए ने इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया। दोनों देषों की सरकारें हमेषा से प्राकृतिक आपदा होने के बाद सक्रिय होती आई है। इसके कई उदाहरण पूर्व में हमारे सामने आ चुके है। ताजा हालातों में जो फुर्ती दिखाई गई, वह है बाढ़ के बाद पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में आपातकाल घोषित कर दिया गया है तो चिनाव दी में बांध पर संभावित दरार के चलते रेड-अलर्ट जारी किया जा चुका है। वहीं भारत में प्रधानमंत्री मोदी ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित कर देषवासियों से मदद के लिए आगे आने का आग्रह किया है।
भारत पाकिस्तान दोनों देष की सरकार, समाज और सेनाओं को समझना होगा कि वे अभी इतने सक्षम नहीं हुए है कि बार-बार आ रही भीषण त्रासदियों से निपट सके। सीमा सुरक्षा पर जितना अधिक पैसा दोनों देष खर्च करते है उसमें कमी लाकर अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए अन्य तंत्रों को मजबूत करनें के प्रयासों में तेजी लाए तो बेहतर होगा। लेख लिखने तक तो जम्मू-कष्मीर में मौसम खुल चुका है। पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर पाक अधिकृत कष्मीर में बाढ़ पीडि़तों की मदद की पहल का स्वागत किया है। उम्मीद की जा सकती है कि खुले आसमान के नीचे कराहते लोगों की मदद के लिए दोनों देष की सरकारें मिलकर बचाव काम में तेजी लायेगी और घाटी में अमन-चैन बनायें रखनें के लिए संयुक्त प्रयास शुरू करेंगी।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सरहद पर बसे लोग आए दिन इन हालातों का सामना करते रहते हैं। पहले से ही समस्याओं से दो चार राज्य की जनता पर बाढ़ आफत बनकर टूटी है। राज्य में आयी बाढ़ ने धरती के स्वर्ग को नर्क में बदलकर रख दिया है। इस बारे में पुंछ की सुरनकोट तहसील के स्थानीय निवासी और उड़ान अखबार के रिपोर्टर सैय्यद एजाज-उल-हक बुखारी कहते हैं कि सरहद पर बसे होेने की वजह से दर्द हमारी किस्मत बन चुका है। सरहद पर होने की वजह से हम हर वक्त परेषान हाल रहते हैं। उस पर अब यह आपदा हम पर कहर बनकर टूटी है जिसने चंद ही दिनों धरती के स्वर्ग में इतनी तबाही मचाई है कि आज इसके हालात बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे किसी खुबसूरत फूल की हालत मुरझाने के बाद हो जाती है। जिधर देखो तबाही का मंजर है, मदद के लिए एक दूसरे को बेसब्री से पुकारती हुई लोगों की चीखें हैं और आंखों में आसूंओं की वह बाढ़ है जो इस बाढ़ के गुजर जाने के बाद न जाने कितने महीनों, सालों तक हमें हमारे गम की याद दिलाती रहेगी। आंकड़ों के मुताबिक बाढ़ की वजह से अब तक 5 सौ गांव डूब चुके हैं और तकरीबन 40 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। एक गांव के लोगों का दूसरे गांव के लोगों से संपर्क नहीं हो पा रहा है। सड़क, पुल और संचार सेवाएं सब कुछ बाढ़ की भेंट चढ़ गए हैं। स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि बच्चे अपनों से सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर सब कुछ पहले जैसा हो पाएगा या नहीं? 

Tuesday, 16 September 2014

मैजिक नहीं, धोखा था



लोकतंत्र में आप किसी को कुछ पल के लिए धोखा दे सकता है, आज न कल सच सामने आ ही जाता है। कुछ ऐसा ही रहा बीते दिनों हमारे यहां। भाजपा की ओर से मोदी लहर के नाम पर जनता को कुछ पल के लिए बरगलाने की कोशिश की गई। लंबे-चैड़े कोरे वादे किए गए, जो पूरे नहीं किए। सौ दिन के कार्यकाल की जमकर प्रोपगंडा की गई, लेकिन सच आखिर सच होता है। जनता को बार-बार कोई भी राजनीतिक दल भ्रमित नहीं कर सकता है। उपचुनावों के परिणामों में एक बार फिर से मोदी मैजिक की कलई खोल दी है। गुजरात में भाजपा की हार। राजस्थान में भाजपा की हार। उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार। इससे पहले बिहार में हार। उत्तराखंड में हार। अव्वल तो यह भी कि जिस अमित शाह को मैन आॅफ द मैच से नवाजाने की पुरजोर कोशिश की, वह तो अपने पहले ही मैच में हार गए। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के नतीजों ने बता दिया लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से जितने भी वादे किए गए, केंद्र की मोदी सरकार उस पर खरा नहीं उतर सकी। जनता करने वाली सरकार को पसंद करती है न कि कहने वाले। भला कोरे आश्वासनों पर कौन भरोसा करेगा ?
सम की तीन सीटों में एक सीट पर बीजेपी, एक पर कांग्रेस जबकि एक सीट पर ।प्न्क्थ् को जीत हासिल हुई है। नौ राज्यों में तीन लोकसभा सीट और 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे आ गए हैं। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिली ऐतिहासिक जीत में बड़ी भूमिका यूपी से पार्टी को मिलीं 73 सीटों की थी। तत्कालीन यूपी प्रभारी अमित शाह को इस करिश्माई प्रदर्शन का इनाम पार्टी का अध्यक्ष बनाकर दिया गया। मोदी के खास सिपहसालार अमित शाह अपने पहले ही इम्तेहान में ही फेल हो गए। जिन राज्यों में गैर बीजेपी सरकारें थीं वहां तो बीजेपी फिसली ही, अपने राज्यों में भी उसकी भद पिट गई। जानने की कोशिश करते हैं कि किन 5 बड़ी वजहों से बीजेपी को करारी हार मिली।
 पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को चुनाव का प्रभारी बनाकर प्रदेश की जनता के बीच एक खास संदेश देने की कोशिश की। बीएसपी के चुनाव मैदान से हटने के बाद मुकाबला सीधे-सीधे सपा और भाजपा के बीच था लेकिन आज आए नतीजे ने जैसे पार्टी के दिग्गजों की बोलती बंद कर दी है। 13 सितंबर को राज्य की जिन 11 सीटों पर उपचुनाव हुए थे, उनमें से भाजपा को महज 4 सीटें मिलीं जबकि सपा के खाते में बाकी की सातों सीटें चली गईं। पार्टी के लिए ये इसलिए भी बहुत बड़ा झटका है क्योंकि चुनाव से पहले ये सभी सीटें बीजेपी की ही थीं।
उपचुनाव में बीजेपी के लिए बड़ा झटका है। यूपी में एसपी को 7 सीटों पर जीत मिली है, जबकि बीजेपी को 3 सीट मिली है। एक सीट के नतीजे आने बाकी हैं। गौरतलब है कि ये सभी 11 सीटें बीजेपी के पास थीं ऐसे में उपचुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए बड़ा झटका माने जा रहे हैं। राजस्थान में भी बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा है। राजस्थान की चार में से तीन सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली है। वहीं बीजेपी को सिर्फ एक सीट मिली है। पहले ये चारों सीटें बीजेपी के पास थी। राजस्थान के सूरजगढ़, नसीराबाद और वैर सीट पर कांग्रेस का कब्जा हो गया है। बीजेपी के खाते में सिर्फ कोटा दक्षिण की सीट आई है। वहीं गुजरात में बीजेपी ने 6 सीटों पर जीत दर्ज की। 3 पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया है। वडोदरा लोकसभा सीट बीजेपी ने जीत ली है। बीजेपी उम्मीदवार रंजन बेन भट्ट ने यहां से जीत हासिल की है। पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने अपना खाता खोला है। बशीरहाट सीट पर बीजेपी उम्मीदवार ने जीत हासिल की है। वहीं एक सीट पर टीएमसी की जीत हुई है। सम की तीन सीटों में एक सीट पर बीजेपी, एक पर कांग्रेस जबकि एक सीट पर ।प्न्क्थ् को जीत हासिल हुई है।
27 मई को नरेंद्र मोदी ने जोर-शोर के साथ देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली लेकिन उनकी पार्टी को महज दो महीने बाद ही 26 जुलाई को उत्तराखंड ने तगड़ा झटका लगा। जिस उत्तराखंड में वोटरों ने मोदी लहर पर सवार होकर पांचों लोकसभा सीट भाजपा को सौंप दी थीं, वहीं की धारचूला, डोईवाला और सोमश्वर सीट से कमल की बजाय पंजे को जीत मिली। उत्तराखंड के झटके के ठीक एक महीने बाद यानी 25 अगस्त को बीजेपी को बिहार में तगड़ा झटका लगा। यहां मोदी लहर की आंधी में नेस्तनाबूद हो चुके लालू यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस ने राज्य में अपना अस्तित्व बचाने के लिए हाथ मिला लिए। बीजेपी इस एकजुटता के सामना नहीं कर पाई और औंधे मुंह गिरी। उसे 10 में से महज 4 सीटें मिलीं। लालू-नीतीश गठबंधन को 6 सीटों पर जीत मिली जिसमें आरजेडी 3, जेडीयू 2 और कांग्रेस 1 सीट पर विजयी रही। खास बात ये है कि पिछले चुनाव में बीजेपी के पास इन 10 में से छह सीटें थीं।

Tuesday, 9 September 2014

चेहरा ही नहीं, चरित्र भी बदल रहा

चाल, चेहरा और चरित्र की बात करते थकने नहीं वाली भारतीय जनता पार्टी में सबकुछ बदल रहा है। पहले चेहरा बदला और अब चरित्र बदल रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह ने तो सरेआम ऐलान कर दिया कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही नेतृत्व में चार राज्यों की विधानसभा चुनाव लड़ेगी। मुख्यमंत्री का निर्णय चुनाव परिणाम आने के बाद किए जाएंगे।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा बदल गई ? जो कांग्रेस पर आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम चुनाव के दौरान घोषित नहीं किया, उस भाजपा को अब क्या हो गया है ? विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। ये बयान किसी स्थानीय नेता का नहीं बल्कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ने और जीतने के बाद अब देखना होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के नेतृत्व में किस तरह से विधानसभा चुनाव लड़ा जाता है।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। कई पुराने प्रसंग भी हैं। भाजपा के नेतृत्व में भी बदलाव आ रहा है। इनमें से कुछ बदलाव धीमे हैं, तो कुछ तेज। मगर तय है कि आने वाले वर्षों में राजनीति और समाज पर इनका गहरा असर पड़ेगा। विचारधारा के नजरिये से देखें, तो धर्मनिरपेक्षता के मामले में नेहरू के मॉडल में बदलाव दिख रहा है और उस नजरिये में, जिससे अब तक देश में सांप्रदायिकता की समस्या को परिभाषित किया जाता रहा है। नेहरू के समय में भारतीय राष्ट्रवाद एक क्षेत्र आधारित अवधारणा समझ्णी जाती थी, वर्तमान राजनीतिक व्यवस्?था में इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे बड़े नेताओं का मानना है कि भारत की संस्कृति ही उसे राष्ट्र बनाती है, जो मुख्यतरू हिंदू संस्कृति ही है। उनका यह भी मानना है कि हिंदू संस्कृति केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है, सभी तरह की आस्?थाएं इसमें समाहित हैं। सुनने में यह भले अटपटा लगे, मगर संघ परिवार के अनेक नेता कहते आए हैं कि हिंदू संस्कृति और हिंदुत्व देश और उसके लोगों को पारिभाषित करता है। कुछ इसी सोच का उल्लेख नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में करते आए हैं। मगर भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तौर पर देखने की कुछ सीमाएं भी हैं। यहां किसी खास संस्कृति के प्रभुत्व को धार्मिक अल्पसंख्यक अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर देखते हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अल्पसंख्यक समूहों को साफ संदेश दिया है कि चुनावी प्रक्रिया में उनके वोटों का अब उतना महत्व नहीं रह गया है, और उनके समर्थन के बगैर भी भाजपा पूर्ण बहुमत पा सकती है। इससे मुसलमानों और हिंदुओं में यह संकेत गया कि तमाम राजनीतिक दल द्वारा पहले की गई समुदाय आधारित गणनाओं की जरूरत नहीं थी।आज जरूरत इसकी है कि सरकार अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाए कि इस देश पर उनका भी बराबर हक है। बीते तीन महीनों में ऐसे कई मौके आए, जब प्रधानमंत्र्णी और उनके सहयोगी यह कर सकते थे। पुणे में मुस्लिम सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या और महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसद का रोजादार वेटर के मुंह में रोटी ठूंसने जैसी घटना का उपयोग भाजपा नेतृत्व मुसलमानों में पैठ बनाने में कर सकता था।
यह समझना होगा कि आबादी के एक बड़े तबके को दरकिनार करने की कोशिश देश के लिए अच्छी नहीं। इसके अलावा एक बड़ा बदलाव गवर्नेंस की कैबिनेट पद्धति में हो रहा है, जो अध्यक्ष्णीय प्रणाली में तब्दील होती दिख रही है। गुजरात के मुख्यमंत्र्णी रहते हुए नरेंद्र मोदी की यही शैली रही है। इसके अलावा प्रधानमंत्र्णी कार्यालय का बढ़ता प्रभुत्व, कैबिनेट सचिवालय का कम होता महत्व, नतीजतन नौकरशाही का बढ़ता प्रभाव व मंत्रियों के राजनीतिक प्रभाव में कटौती, ये कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो पहले भी इंदिरा गांधी के समय में देखी जा चुकी हैं। मगर जिस तरह कैबिनेट की बैठकें स्वतंत्र विचार के बजाय महज निर्देश ग्रहण करने का मंच बन गई हैं, उससे कैबिनेट की भूमिका का, और अंततरू पूरी राजनीतिक प्रक्रिया का क्षय होता दिख रहा है। नरेंद्र मोदी मानते हैं कि सहमति आधारित दृष्टिकोण से सरकार के कामकाज में कुशलता को बढ़ावा नहीं मिल सकता। उनके मुताबिक, निरंकुश व्यवस्था के जरिये ही सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार को दूर रखा जा सकता है।
भाजपा पहले ही एक पीढ़ीगत बदलाव कर चुकी है। हालांकि इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, पर इससे इन्कार नहीं कि उदारता मोदी की पहचान नहीं है। पर भाजपा की पुरानी पीढ़ी को भी, चाहे वह लालकृष्ण आडवाण्णी हों या मुरली मनोहर जोश्णी, समझना चाहिए कि उनका समय खत्म हो चुका है। अलबत्ता पचहत्तर से अधिक उम्र के लोगों को सक्रिय राजनीति से बाहर करने पर जोर एक नजीर की तरह लगता है। कया भारत भी चीन की तरह हर पांच-दस साल में पीढ़ीगत राजनीतिक बदलाव की राह पर चल पड़ा है?

कहीं हो न जाए मर्यादाओं की अनदेखी


दिल्ली में जो आजकल हो रहा है, वह नहीं होना चाहिए। जब हम या आप क्षमता नहीं होते हुए किसी चीज को पाने की कोषिष करते हैं, तो जाहिर है कि अनैतिक आचरण करते हैं। दिल्ली में सरकार के गठन को लेकर जिस प्रकार की कवायद हो रही है, उसने कई सवाल खड़े किए हैं। उस पर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल का स्टिंग। जाहिर है जनता के मन में कई प्रकार के सवालों का उठना लाजिमी है।
असल में, सरकार का गठन कौन करे, लोकतंत्र में यह फैसला जनता मतदान के जरिये करती है। परंतु, सरकार गठन के तरीके पर जनता का अख्तियार नहीं होता। हां, उसे यह भरोसा होता है कि लोकतंत्र में सरकार गठन के लिए भी नियम-कायदे हैं, सो उनका पालन किया जायेगा। मुश्किल तब खड़ी होती है जब किसी एक दल के पक्ष में स्पष्ट जनादेश न हो। भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र में ऐसा होना हरचंद संभव है। इसलिए अहम सवाल यह है कि क्या ऐसी स्थिति में सरकार बनाने में जुटे दल स्थापित मर्यादाओं की अनदेखी करेंगे? और, अगर ऐसी अनदेखी हो, तब इन मर्यादाओं की बहाली का दायित्व कौन संभालेगा?
दिल्ली में सरकार गठन को लेकर खींचतान से झांकती विद्रुपताओं की असल वजह किसी व्यक्ति या पार्टी में नहीं, बल्कि सरकार गठन से जुड़ी मर्यादाओं की बहाली और उसकी निगरानी से जुड़े तंत्र की विफलताओं में ही तलाशी जानी चाहिए। जिस पार्टी (भाजपा) ने दिल्ली विधानसभा में सर्वाधिक सीटें जीतीं, उसने जनादेश के बाद पूर्ण बहुमत नहीं होने का हवाला देते हुए स्वयं को सरकार गठन या जोड़-तोड़ की राजनीति से दूर रखा। लेकिन अब एक स्टिंग में उसी पार्टी के एक नेता को सरकार गठन के लिए विधायकों की बोली लगाते देखना-सुनना दुखद है। उधर, जिस पार्टी (आप) ने काफी हिचक के बाद सरकार बनायी और फिर जिम्मेवारियों से कन्नी काटते हुए बेहिचक इस्तीफा दे दिया, वह अब खुद को सरकार गठन की मर्यादाओं की प्रवक्ता के तौर पर पेश कर रही है।
दिल्ली के उप-राज्यपाल के पास किसी पार्टी ने बहुमत की दावेदारी या सरकार गठन के आमंत्रण के लिए कोई अनुरोध नहीं किया है और पहले गठित सरकार का हश्र उनके सामने है, फिर भी वे सरकार गठन के मोरचे पर सक्रिय हो गये हैं। राष्ट्रपति के फैसले का अभी इंतजार है। उधर, सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल कोई व्यवस्था देने से इनकार कर दिया है। दिल्ली में सरकार बनाने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चार हफ्ते का समय दिया है। केंद्र सरकार ने मंगलवार को कोर्ट को बताया कि ये मामला फिलहाल राष्ट्रपति के पास है। सरकार उनके आदेश का इंतजार कर रही है। कोर्ट ने सरकार को ये मोहलत देते हुए विधायकों की खरीद-फरोख्त की खबरों पर चिंता जताई। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में विधायकों की खरीद-फरोख्त पर चिंता जताई लेकिन चूंकि मामला राष्ट्रपति के पास है इसलिए चार हफ्तों का समय देना उचित समझा। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता आम आदमी पार्टी ने एक स्टिंग ऑपरेशन का हवाला देते हुए विधायकों की खरीद-फरोख्त का मामला उठाया और दिल्ली में जल्द चुनाव कराने की मांग की। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभी राष्ट्रपति की राय का इंतजार करना चाहिए और इन आरोपों पर अगली सुनवाई में विचार किया जाएगा। उधर सुप्रीम कोर्ट के बाहर भी सरकार बनाने को लेकर बीजेपी और आम आदमी पार्टी में जंग जारी है।
यह चैतरफा बेचारगी की सूरत है, जिसका संकेत साफ है कि ऐसी स्थिति में सरकार गठन की मर्यादाओं की रक्षा को लेकर सर्वसम्मति से कोई रास्ता तलाशा जाये। सिर्फ दलबदल कानून या राज्यपाल के विवेक के भरोसे रह कर यह मान लेना कि सरकार गठन से जुड़ी मर्यादाओं का पालन हो जायेगा। एक ख्याली पुलाव ही बना रहेगा।

Friday, 5 September 2014

नहीं है अच्छी परंपरा

कहने और करने में किस प्रकार का अंतर होता है, यह कोई फिलहाल दिल्ली में आकर देखे। दिल्ली की राजनीति में जिस प्रकार से भाजपा की ओर से तमाम राजनीतिक षुचिता को धत्ता बताया जा रहा है, वह किसी भी रूप से अच्छा नहीं कहा जा सकता है। जो पार्टी एक बार पर्याप्त आंकड़ा नहीं होने के कारण सरकार बनाने से मनाही कर चुकी है, उसमें तीन सीट और कम होने के बाद किस प्रकार वह सरकार बनाएगी, इसका जवाब तलाषने में अपने आप कई और सवाल उठ खड़े होते हैं। 
असल में, जिस प्रकार से खबरें आ रही हैं उसके आधार पर दिल्ली में एक बार फिर से सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गयी है। सरकार गठन को लेकर दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को चिट्ठी लिखी है। एक अंग्रेजी अखबार के अनुसार नजीब जंग ने राष्ट्रपति को पत्र लिख कर दिल्ली में सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित करने के लिए इजाजत मांगी है। इधर खबर यह भी है कि इस मामले को लेकर राष्ट्रपति ने गृह मंत्रालय को चिट्ठी लिखी है। गृह मंत्रालय ने भी पुष्टि कर दी है कि राष्ट्रपति का पत्र उसे मिला है। केंद्र सरकार ने राजनीतिक चर्चा के बाद इस मामले पर विचार करने की बात कही है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास सबसे ज्यादा 29 विधायक है। आम आदमी पार्टी के पास 27 विधायक हैं। कांग्रेस के 8 विधायक और अन्य 3 हैं। दिल्ली में सरकार गठन के लिए कम से कम 34 विधायकों की आवश्यकता है।
दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को दिल्ली में सरकार बनाने के लिए रिपोर्ट भेजी थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने नई सरकार बानाने के लिए कुछ विकल्पों को रखा था। दिल्ली के एलजी (लेफ्टिनेंट गवर्नर) द्वारा सुझाए गए विकल्पों में से एक विकल्प बीजेपी को भी रास आ रहा है। शुक्रवार को बीजेपी ने कहा कि गोपनीय बैलट के माध्यम से दिल्ली के विधायक नए मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे। बीजेपी ने कहा कि गोपनीय बैलट के माध्यम से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नई सरकार बनाने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। बीजेपी को लगा रहा है कि गोपनीय बैलट दिल्ली में सरकार बनाने का सबसे सुरक्षित जरिया हो सकता है। प्रोविजन ऑफ नैशनल कैपिटल टेरिटरी ऐक्ट के तहत गोपनीय बैलट का विकल्प एलजी ने राष्ट्रपति को भेजा था। इसमें दलबदल विरोधी कानून और पार्टी विप काम नहीं करता है।गोपनीय बैलट में किसी भी पार्टी के विधायक को अपने मन के हिसाब से वोट करने का रास्ता खुल जाएगा। ल्ली में ज्यादतर विधायक फिलहाल चुनाव में नहीं जाना चाहते हैं। चुनाव से बचने का एक ही उपाय है कि दिल्ली में नई सरकार बने। इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब भाजपा के पास संख्याबल नहीं है तो उपराज्यपाल ऐसी पहल क्यों कर रहे हैं?
केंद्र में सरकार के गठन के बाद से ही सूबे में सरकार के गठन की चर्चा लगातार हो रही है। महत्वपूर्ण यह है कि सबसे पहले कांग्रेस विधायकों के सहयोग से ही भाजपा द्वारा सरकार बनाने की चर्चा थी लेकिन करीब डेढ़-दो महीने बीतने के बावजूद जब सरकार नहीं बनी तो कांग्रेस के सभी विधायक एक साथ सामने आए और उन्होंने भाजपा से सहयोग करने संबंधी तमाम कयासों को खारिज कर दिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली आदि नेता बार-बार यह कहते रहे हैं कि कांग्रेस का कोई भी विधायक किसी भी कीमत पर भाजपा अथवा आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन नहीं देगा। पार्टी द्वारा आयोजित किए जा रहे कार्यक्रमों में कुछ विधायक पहुंच भी रहे हैं। 
सनद रहे कि दिल्ली विधानसभा के भविष्य के सवाल पर आगामी नौ सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है। केंद्र सरकार को अदालत को बताना है कि दिल्ली में सरकार बनाने की क्या संभावनाएं हैं। इस दिशा में क्या कोशिशें हुई हैं। आम आदमी पार्टी की याचिका पर अदालत में सुनवाई इसी मुद्दे पर हो रही है कि आखिर लंबे समय तक विधानसभा को निलंबित रखने का भला क्या औचित्य है। अब जबकि अदालत में सुनवाई के महज चार दिन बाकी हैं, उपराज्यपाल जंग ने राष्ट्रपति को दिल्ली की सियासी स्थिति पर रिपोर्ट भेजी है और लिखा है कि दिल्ली में सरकार बनने की संभावनाएं अभी मौजूद हैं, लिहाजा विधानसभा में सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित किया जा सकता है। राष्ट्रपति ने संबंधित रिपोर्ट पर गृह मंत्रालय की टिप्पणी मांगी है।