Saturday, 27 December 2014

सबके लिए है कांग्रेस


कांग्रेस दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतांत्रिक दलों में से एक है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य राजनीति की समानता है , जिसमें संसदीय लोकतंत्र पर आधारित एक समाजवादी राज्य की स्थापना शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से की जा सकती है जो आर्थिक और सामाजिक अधिकारों और विश्व शांति और फेलोशिप के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति सच्ची श्रद्धा और भारत के संविधान के प्रति निष्ठा और संप्रभुता रखती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत की एकता और अखंण्डता को कायम रखेगी। अपने जन्म से लेकर अब तक, कांग्रेस में सभी वर्गों और धर्मों का समान प्रतिनिधित्व रहा है। कांग्रेस के पहले अध्यक्ष श्री डब्ल्यू सी. बनर्जी ईसाई थे, दूसरे अध्यक्ष श्री दादाभाई नौराजी पारसी थे और तीसरे अध्यक्ष जनाब बदरूदीन तैयबजी मुसलमान थे। अपनी धर्मनिरपेक्ष नीतियों की वजह से ही कांग्रेस की स्वीकार्यता आज भी समाज के हर तबके में समान रूप से है। गुलामी के बंधन में जकड़े भारत की तस्वीर बदलने के लिए करीब 130 साल पहले कांग्रेस पार्टी ने जन्म लिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन 1885 में ए ओ ह्यूम ने दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और मदनमोहन मालवीय के सहयोग से की। डब्ल्यू सी बनर्जी कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बनाए गए। शुरूआत में कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य भारत की जनता की आवाज ब्रिटिश शासकों तक पहुंचाना था, लेकिन धीरे-धीरे ये संवाद आजादी की मांग में बदलता चला गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद महात्मा गांधी के साथ कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का नारा बुलंद कर दिया और 1947 में भारत आजाद हो गया।
1947 में जब देश आजाद हुआ, तो देश ने बेहिचक शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में सौंप दी। पंडित जवाहर लाल नेहरु देश की पसंद बन कर उभरे और देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने शपथ ली। पंडित नेहरु के नेतृत्व में देश ने विकास की नई ऊंचाइयों को छुआ और आर्थिक आजादी के सपने सच होने लगे। पंडित नेहरु के साथ कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। अपनी स्थापना, और विशेषकर आजादी के बाद से, कांग्रेस की लोकप्रियता अपने शिखर पर रही है। भारत की जनता ने आजादी के बाद से अब तक सबसे ज्यादा कांग्रेस पर ही भरोसा दिखाया है। आजादी के बाद से अभी तक हुए कुल 15 आम चुनावों में 6 बार कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई है और 4 बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है। यानी कि पिछले 67 सालों में से करीब 50 साल, कांग्रेस देश की जनता की पसंद बनकर रही है। ये कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय राजनीति के पटल पर चाहे जितने दल उभरे हैं, देश की जनता के दिल में कांग्रेस ही राज करती है।
लोकतांत्रिक परंपराओं और धर्मनिरपेक्षता में यकीन करने वाली कांग्रेस देश के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए निरंतर प्रयासरत रही है। 1931 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों के विषय में महात्मा गांधी ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि देश की जनता का शोषण न हो इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक आजादी के साथ-साथ करोड़ों गरीबों को असली मायनों में आर्थिक आजादी मिले। 1947 में प्रधानमंत्री बनने के बाद पंडित नेहरु ने इस वायदे को पूरा किया। वो देश को आर्थिक और सामाजिक स्वावलंबन की दिशा में आगे ले गए। कांग्रेस ने संपत्ति और उत्पादन के साधनों को कुछ चुनिंदा लोगों के कब्जे से निकाल कर आम आदमी तक पहुंचाया और उन्हें सही मायनों में भूख, गरीबी और असमानता से छुटकारा दिलाकर आजादी के पथ पर अग्रसर करने में प्रभावकारी भूमिका निभाई। श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेस ने समाजवाद के नारे को और जोरदार तरीके से बुलंद किया और इसे राष्ट्रवाद से जोड़ते हुए देश को एक सूत्र में बांध दिया। देश में गरीबों की आवाज सुनने वाली, उनका दर्द समझने वाली कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा बुलंद किया जो कांग्रेस के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। 1984 में श्री राजीव गांधी के साथ कांग्रेस ने देश को संचार क्रांति के पथ पर अग्रसर किया। 21वीं सदी के भारत की मौजूदा तस्वीर को बनाने का श्रेय कांग्रेस और श्री राजीव गांधी को ही जाता है। 90 के दशक में जब अर्थव्यवस्था डूब रही थी, तब कांग्रेस के श्री नरसिंह राव ने देश को एक नया जीवन दिया। कांग्रेस के नेतृत्व में श्री नरसिंहराव और श्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण के जरिए आम आदमी की उम्मीदों को साकार किया।
हमारे देश के समकालीन इतिहास पर कांग्रेस की एक के बाद एक बनी सरकारों की उपलब्धियों की अमिट छाप है। आर.एस.एस.-भाजपा गठबंधन ने कांग्रेस द्वारा किए गए हर काम का मखौल उड़ाने उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करने और अर्थ का अनर्थ करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी और जीती। हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम कर रहे भारतीय जनता पार्टी के पूर्वजों ने तो भारत छोड़ो आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी द्वारा किए गए ष्करेंगे या मरेंगेश्श् के आह्वान का बहिष्कार किया था। यह कांग्रेस ही है, जिसके गांधी जी, इंदिरा जी और राजीव जी जैसे नेताओं ने देश की सेवा में अपनी जान भी कुर्बान कर दी।
यह कांग्रेस ही है, जिसने संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की और उसकी जड़ों को सींचने का काम किया। यह कांग्रेस ही थी, जिसने आमूल और शांतिपूर्ण सामाजिक-आर्थिक बदलाव के राष्ट्रीय घोषणा पत्र भारतीय संविधान की रचना संभव बनाई। यह कांग्रेस ही थी, जिसने सदियो से शोषण और भेदभाव का शिकार हो रहे लोगों को गरिमामयी जिंदगी मुहैया कराने के लिए सामाजिक सुधारों की मुहिम की अगुवाई की। यह कांग्रेस ही है, जिसने भारत की राजनीतिक एकता और सार्वभौमिकता की हमेशा रक्षा की।
यह कांग्रेस ही है, जिसने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने, देश का औद्योगीकरण करने, तरक्की की राह के दरवाजे करोड़ों भारतवासियों के लिए खोलने और खासकर दलितों और आदिवासियों को रोजगार मुहैया कराने, अनदेखी का शिकार हो रहे पिछड़े इलाकों में विकास करने, देश को तकनीकी विकास के नए शिखर पर ले जाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म किया और भूमि सुधार के कार्यक्रम शुरू किए। कांग्रेस ही देश में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति लाई और इन कदमों ने हमारे किसानों तथा खेत मजदूरों की जिंदगी में नई सपंन्नता पैदा की और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक मुल्क बनाया।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने मुल्क में वैज्ञानिक-भाव पैदा किया और विज्ञान संस्थाओं का एक ऐसा ढांचा तैयार किया कि भारत नाभिकीय, अंतरिक्ष और मिसाइल जगत की एक बड़ी ताकत बना और सूचना क्रांति की दुनिया में हमने मील के पत्थर कायम किए। मई 1998 में भारत परमाणु विस्फोट सिर्फ इसलिए कर पाया कि इसकी नींव कांग्रेस ने पहले ही तैयार कर दी थी। अग्नि जैसी मिसाइलें और इनसेट जैसे उपग्रह कांग्रेस के वसीयतनाते के पन्ने हैं।
कांग्रेस ने ही गरीबी मिटाने और ग्रामीण इलाकों का विकास करने के व्यापक कार्यक्रमों की शुरूआत की। इन कार्यक्रमों पर हुए अमल ने गांवों की गरीबी दूर करने में खासी भूमिका अदा की और समाज के सबसे वंचित तबके की दिक्कतें दूर करने में भारी मदद की। आजादी मिलने के वक्त जिस देश की दो तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रही थी, आज आजादी के पचास बरस के भीतर ही उस देश की दो तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के ऊपर है। भारत का मध्य-वर्ग कांग्रेस ने निर्मित किया और इस पर हम गर्व करते हैं।
कांग्रेस ने ही अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की बेहतरी और कल्याण के लिए उन्हें आरक्षण दिया और उनके लिए समाज कल्याण तथा आर्थिक विकास की कई योजनाएं शुरू कीं।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने महात्मा गांधी के ष्ग्राम स्वराज के जरिए पूर्ण स्वराजश्श् देने के आह्वान का अनुगमन किया और देश भर के गांवों और मुहल्लों में जमीनी लोकतंत्र के जरिए जमीनी विकास को प्रोत्साहन दिया। कांग्रेस ने ही पंचायती राज और नगर निकायों से संबंधित संविधान संशोधन की रूपरेखा तैयार की और पंचायती राज की स्थाना के लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए।
कांग्रेस ने ही संगठित क्षेत्र के कामगारों और अनुबंधित मजदूरों को रोजगार की सुरक्षा तथा उचित पारिश्रमिक दिलाने के लिए व्यापक श्रम कानून बनाए और उन पर अमल कराया। कांग्रेस ने ही देश के कुल कामगारों के उस 93 फीसदी हिस्से को सामाजिक सुरक्षा देने की प्रक्रिया शुरू कराई, जो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। यह कांग्रेस ही है, जिसने उच्च और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाए कि भारतीय मस्तिष्क आज दुनिया में सबसे कीमती मस्तिष्क माना जाता है। कांग्रेस ने ही देश भर में भारतीय तकनीकी संस्थानः आई.आई.टी. रू और भारतीय प्रबंधन संस्थान रू आई.आई.एम. रू खोले और पूरे मुल्क में शोध प्रयोगशालाओं की स्थापना की।
कांग्रेस देश का अकेला अखिल भारतीय राजनीतिक दल है- अकेली ऐसी राजनीतिक ताकत, जो इस विशाल देश के हर इलाके में मौजूद है। सत्ता में रह या सत्ता के बाहर, कांग्रेस देश भर के गांवों, कस्बों और शहरों में वास्तविक और प्रत्यक्ष तौर पर मौजूद है। कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसे हमारे रंगबिरंगे समाज के हर वर्ग से शक्ति मिलती है, जिसे रह वर्ग का समर्थन हासिल है और जा हर वर्ग को पसंद आती है। कांग्रेस अकेला राजनीतिक दल है, जिसने अपने संगठन में अनुसूचति जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर रखी है।  कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके राजकाज का दर्शन लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याया के साथ होने वाली आर्थिक तरक्की और सामाजिक उदारतावाद एवं आर्थिक उदारीकरण के सामंजस्य गुंथा हुआ है। कांग्रेस संवाद में विश्वास करती है, अनबन में नही। कांग्रेस समायोजन में विश्वास करती है, कटुता में नहीं। कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके राजकाज का दर्शन एक मजबूत केंद्र द्वारा मजबूत राज्यों और शक्तिसंपन्न स्वायत्त निकायों के साथ लक्ष्यों को पाने के लिए काम करने पर आधारित है। कांग्रेस का मकसद है ष् राजनीतिक से लोकनीति, ग्रामसभा से लोकसभाश्श्। कांग्रेस हमेशा नौजवानों का राजनीतिक दल रहा है। कांग्रेस बुजुर्गियत और वरिष्ठता का सदा सम्मान करती है, लेकिन युवा ऊर्जा और गतिशीलता हमेशा ही कांग्रेस की पहचान रहे हैं। 1989 में श्री राजीव गांधी ने ही मतदान कर सकने की उम्र घटा कर 18 साल की थी। राजीव जी ने ही स्वामी विवेकांनद के जन्म दिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया था। राजीव जी ने ही नेहरू युवा केंद्र की गतिविधियों का देश के हर जिले में विस्तार किया था।  कांग्रेस की नीतियों का जन्म हमेशा राजनीतिक तौर पर एकजुट, आर्थिक तौर पर संपन्न, सामाजिक तौर पर न्यायसम्मत और सांस्कृति तौर पर समरस भारत के निर्माण का नजरिया सामने रख कर होता रहा है। इन नीतियों को कभी भी बिना सोचे-समझे सिद्धांतों या खोखली हठधर्मिता या मंत्रों में तब्दील नहीं होने दिया गया। कांग्रेस ने हमेशा समय की जरूरतों के मुताबिक इन नीतियों में सकारात्मक बदलाव के लिए जगह रखी। कांग्रेस सदा व्यावहारिक रही। कांग्रेस हमेशा नई चुनौतियों का मुकाबला करने को तैयार रही। नतीजतन, बुनियादी सिद्धांतों के प्रति वफादारी की भावना ने नर्द जरूरतों के मुताबिक खुद को तैयार करने के काम में कभी अड़चन महसूस नहीं होने दी।
1950 के दशक में भूमि सुधारों, सामुदायिक विकास, सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना और कृषि, उद्योग, सिचांई, शिक्षा, विज्ञान, वगैरह के आधारभूत ढांचे को विकसित करने की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों। 19६0 और 1970 में गरीबी हटाने के लिए सीधा हमला बोलने, कृषि और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में एकदम नया रुख अपनाने, तेल के घरेलू भंडार का पता लगाने और उसका उत्खनन करने और किसानों, बुनकरों कुटीर उद्योगों तथा छोटे दूकानदारों को प्राथमिकता देने के साथ बड़े उद्योगों का ध्यान रखने और अन्य सामाजिक जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों। 1980 के दशक में लोगों की दिक्कतों को दूर करने और इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निबटने के लिए उद्योगों का आधुनिकीकरण करने के मकसद से विज्ञान और टकनालाजी पर नए सिरे से जोर देने की जरूरत थी। इस दौर में भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और दूरसंचार के क्षेत्र में भी तेजी से विकसित करने की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों।
1990 के दशक में दुनिया के बदलने आर्थिक परिदृश्य में भारत को जगह दिलाने के लिए आर्थिक तरक्की की रफ्तार को तेज करने आर्थिक सुधारों तथा उदारीकरण के साहसिक कदम उठाने और निजी क्षेत्र की भूमिका को व्यापक बनाने की जरूरत थी। आर्थिक विकास में सरकार की भूमिका की नई परिभाषा रचने और संविधान सम्मत पंचायती राज की संस्थाओं एवं नगर निकायों को स्वायत्तशासी इकाइयों के तौर पर स्थापित करना भी इस दौर की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्ति किया कि ये सभी काम पूरे हों। कांग्रेस देशवासियों को एक सच्चा वचन देना चाहती है कि वह सभी लोगों के बीच शांति फिर कायम करेगी, सामाजिक सद्भाव पर जोर दे कर धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को मजबूत बनाएगी, सास्कृतिक बहुलता और कानून का राज सुनिश्चित करेगी और देश के हर परिवार के लिए एक सुरक्षित आर्थिक भविष्य का निर्माण करेगी। देश भर में सामाजिक सद्भाव और एकता को बनाए रखने के लिए बिना किसी भय और पक्षपता के कानूनों को लागू किया जाएगा। इस मामले में किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा।
कांग्रेस कभी भी पारंपरिक अर्थों वाला राजनीतिक दल नहीं रहा। वह हमेशा एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन की तरह रही है। पिछले 118 साल में कांग्रेस ने विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि रखने वाले लोगों को देश सेवा की लिए साथ लाने के मकसद से असाधारणतौर पर व्यापक मंच की तरह काम किया है। कांग्रेस भारत-विचार की ऐसी अभिव्यक्ति है, जैसा कोई और राजनीतिक दल नहीं। कांग्रेस के लिए भारतीय राष्ट्रवाद सबको सम्मिलित करने वाला और सर्वदेशीय तत्व है। राष्ट्रवाद, जो इस देश की संपन्न विरासत के हर रंग से सृजनात्मकता ग्रहण करता है। राष्ट्रवाद, जो संकीर्ण और धर्मान्ध नहीं है, बल्कि हमारी मिलीजुली संस्कृति में भारत-भूूमि पर मौजूद हर धर्म के योगदान का उत्सव मनाता है। राष्ट्रवाद, जिसमें प्रत्येक भारतीय का और हर उस चीज का जो भारतीय है, समान और गरिमापूर्ण स्थान है। राष्ट्रवाद, जो भारत को भावनात्मक तौर पर जोड़े रखता है। भारतीय जनता पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीयों को भावनात्मक तौर पर तोड़ने का हथियार है। कांग्रेस भारत को सर्वसम्मति के जरिए जोड़े रखने का काम करती है। भाजपा भारत को विवादों के जरिए तोड़ने का काम करती है।
कांग्रेस को इस बात की गहरी चिंता है कि पिछले कुछ वर्षों में धर्मनिरपेक्षता पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे हैं। कांग्रेस के लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब है पूर्ण स्वतंत्रता और सभी धर्मों का पूरा आदर। धर्म निरपेक्षता का मतलब है सभी धर्मों के मानने वालों को समान अधिकार और धर्म के आधार पर किसी के भी साथ कोई भेदभाव नहीं। सबसे बढ़ कर इसका मतलब है हर तरह की सांप्रदायिकता को ठोस विरोध।
हमारे समाज में नफरत और अलगाव फैलाने के लिए किसी भी धर्म का दुरूपयोग करना सांप्रदायिकता है। लोकप्रिय भावनाओं को आपसी दुर्भावना भड़काने के लिए किसी भी धर्म का दुरूपयोग करना सांप्रदायिकता है। ज्यादातर भारतीय दूसरे धर्मो के प्रति आदर का भाव रखते हैं। ज्यादातर भारतीय दूसरे भारतीयों के साथ मिलजुल कर शांति से रहना चाहते हैं, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। लेकिन कुछ भारतीय अपने धर्म के स्वंयभू संरक्षक बन गए हैं। ये ही वे लोग हैं, जो सामाजिक सद्भाव को नष्ट करना चाहते हैं। ये ही वे लोग हैं, जो हमें दो समुदायों में नफरत फैलाने के लिए खुद ही आविष्कृत कर लिए गए और तोड़-मरोड़ कर बताए गए हमारे अतीत का हमें गुलाम बना कर रखना चाहते हैं। धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई का असली मैदान यही है। यह बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मुद्दे से कहीं बड़ा मसला है। दरअसल यह संघर्ष इस मुल्क के सभी धर्मों के सार को बचाए रखने की कोशिश कर रही ताकतों और जानबूझ कर, चुनावी मकसदों की वजह से और मंजूर नहीं किए जा सकने लायक वैचारिक कारणों का हवाला दे कर इस मिलीजुली संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा ताकतों के बीच है।
धर्मनिरपेक्षता प्रत्येक कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए आस्था का विषय है। कांग्रेस के दो महानतम नायकों ने धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिये, भारत की धर्मनिरपेक्ष विरासत संरक्षित और सुरक्षित रहे, इसके लिए उन्होंने अपना जीवन दे दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके समान अन्य नेता भारत के धर्मनिरपेक्ष बने रहने के लिए आजीवन अथक परिश्रम करते रहे, क्योंकि वे जानते थे कि बिना धर्मनिरपेक्षता के भारत संगठित और शक्तियशाली नहीं बना रह सकेगा।

Wednesday, 24 December 2014

दान का त्योहार है क्रिसमस


 क्रिसमस क्रिश्चियन समुदाय का सबसे बड़ा और खुशी का त्योहार है, इस कारण इसे बड़ा दिन भी कहा जाता है।क्रिश्चियन समुदाय के लोग हर साल 25 दिसंबर के दिन क्रिसमस का त्योहार मनाते हैं। क्रिसमस का त्योहार ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस एक अनोखा पर्व है जो ईश्वर के प्रेम, आनंद एवं उद्धार का संदेश देता है। क्रिसमस का त्योहार अब केवल ईसाई धर्म के लोगों तक ही सिमित नही रह गया है, बल्कि देश के सभी समुदाय के लोग इसे पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाते हैं। क्रिसमस मानव जाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के द्वारा की गई पहल को दर्शाने वाला त्योहार भी है।
अब आप सोच रहे होंगे कि आप अपनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी से इतना समय कैसे निकालें कि कुछ दान करने के बारे में या किसी रोते को हंसाने के बारे में सोच सकें। तो इसकी शुरूआत आप अपने घर से ही कर सकते हैं, आप के घर में अगर कुछ पुराने कपड़े हैं जिन्हे आप इस्तेमाल नही कर रहे हैं, आप उसे किसी मंदिर या गुरूद्वारे में दे सकते हैं ताकि वो किसी गरीब के तन ढकने के काम आ सके और कम से कम इन सर्दियों को बिना किसी तकलीफ के गुजार पांए। अगर आप के घर में छोटे बच्चे हैं तो आप उन्हे भी सिखांए कि वो अपने पुराने खिलौनों को आपके घर में काम करने वाले गरीब जरूरतमंद को दे दें। अगर आप क्रिसमस देने के लिए उपहार खरीदने का सोच रहे हैं तो आप किसी अनाथ आश्रम या संस्था में बच्चों के हाथ से बने हुए उपहार खरीदें।
पर क्या आप जानते हैं कि आखिर सांता क्लॉज ढेर सारे उपहार लेकर एक ही रात में दुनिया भर के सभी घरों में कैसे पहुँच सकता है। इसका जवाब है, हम सब के बीच ही एक सांता छुपा होता है लेकिन हम उसे पहचान नही पाते हैं। सांता बिना किसा भी स्वार्थ के सब के जीवन में खुशियाँ ले कर आता है। हमे भी उस से एक सबक लेना चाहिए कि किस तरह हम किसी भी तरह अगर एक इंसान को खुशी दे सकें तो शायद हम भी इस क्रिसमस को सही मायने में मनाने में कामयाब हो सकेंगे।
क्या आपको पता है कि क्रिसमस के मौके पर क्रिसमस ट्री, क्रिसमस कार्ड, क्रिसमस स्टार, क्रिसमस फादर की शुरुआत कैसे हुई। क्रिसमस में कैंडिल का भी काफी महत्व है। एक हजार वर्ष पहले ऑस्ट्रेलिया के एक गांव में छोटा परिवार रहता था। पति और पत्‍‌नी रात के अंधेरे में आने जाने वालों के लिए बाहर दरवाजे पर प्रतिदिन एक कैंडिल जलाकर रख देते थे। दूसरे देश से युद्ध छिड़ा और समाप्त होने के बाद किसी ने गांव में सूचना दी कि युद्ध समाप्त हो गया। पूरे गांव में लोगों ने अपने घरों के बाहर कैंडिल जलाया। उस दिन 24 दिसंबर की रात थी। इसको क्रिसमस से जोड़ दिया गया। क्रिसमस ट्री के विषय में,  सदियों पहले एक प्रचारक दल अफ्रीका के घने जंगल में रहने वाले लोगों को प्रभु यीशु का शुभ संदेश सुनाने पहुंचा। 24 दिसंबर की रात में जंगल का नजारा ही दूसरा था। जंगलियों ने एक पेड़ में बच्चे बांध दिया था। जल्लाद उस बच्चे की बलि चढ़ाने जा रहा था। उस जाति के लोगों को विश्वास था कि बच्चे की बलि से बिजली देवता प्रसन्न होकर वर्षा करेंगे और हम सबको सूखे से निजात मिल जाएगी। प्रचारक दल के मुखिया ने जल्लाद को बलि करने से रोक दिया। कबीले के सरदार को क्रोध आ गया। उसने कहा कि आप लोगों की प्रार्थना से बिजली नहीं चमकी और वर्षा नहीं हुई तो सभी को तलवार से कत्ल कर दिया जाएगा। प्रचारक दल ने प्रार्थना किया, बिजली चमकी और वर्षा भी हुई। तभी से प्रभु यीशु के जन्मोत्सव पर क्रिसमस ट्री अनिवार्य रुप से दर्शाया जाता है।






Monday, 22 December 2014

सवा लाख से एक लड़ाऊं तब गुरु गोविन्द कहाऊं


गुरु गोबिन्द सिंह जी  ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जी  जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोबिन्द सिंह जी  ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।
दसवें गुरु के पूर्व के अनेक गुरुओं ने मुगल शासकों के बहुत अत्याचार झेले परंतु धर्म के मार्ग से विचलित नही हुए। लेकिन गुरु गोविन्द ने अपने समय में इस बात को अच्छी तरह से समझ लिया कि धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाना भी जरुरी है। इसीलिए उन्होने पंज प्यारों की खोज की तथा इसी लिए कड़ा, काछिया, कंधा केस, कर कटार सिक्खों का वेष निर्धारित कर दिया। इसी के साथ उन्होने यह घोषणा भी कर दी कि सिक्खों का अब कोई गुरु नही होगा। ग्रंथ साहिब ही हमेशा के लिए सिक्ख संगति के लोगों के गुरु बने
रहेंगे। सिक्ख संगत के सभी गुरु संत थे। वे हमेशा धम््र्रा के विस्तार और समाज की भलाई के लिए काम करते रहे। गुरु गोविन्द साहब ही ऐसे गुरु हुए जिन्होंने समझ लिया कि देश ,धर्म और राष्ट की रक्षा के लिये अत्याचारियों और अधर्मियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा। इस लिए उन्होने सिक्ख समुदाय को एक नई दिशा और नई राह भी दी।
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. को पटना, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोबिन्द राय' था। गोबिन्द सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।
गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,
"उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"
तेग़बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में 'गुरु गोबिन्द राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोबिन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल
गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।




Monday, 15 December 2014

स्थानीय ही समझते हैं बेहतर



दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारी में हर कोई व्यस्त हो चुका है। हर सीट पर बेहतर सोच के साथ रूपरेखा तैयार की जा रही है। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि उस क्षेत्र का विकास बेहतर होता है, जहां के प्रतिनिधि उस क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में लुटियन्स का इलाका सबसे महत्वपूर्ण है। बीते चुनाव में इसी लुटियन के लोगों ने नई दिल्ली विधाानसभा से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को अपना प्रतिनिधि चुना, लेकिन उन्होंने क्या किया ? कुछ भी तो नहीं। जनता ने उन पर भरोसा किया, लेकिन केजरीवाल ने अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लिया। जिम्मेदारी का पद मुख्यमंत्री का है, लेकिन उसकी महत्ता को भी नहीं समझा।
असल में, लगातार तीन चुनाव में कांगे्रस की शीला दीक्षित यहां से जीत का परचम लहराते हुए 15 वर्षों तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं, वहीं पिछले चुनाव में यहीं से ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल जीत दर्ज कर मुख्यमंत्री बने थे। नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा है कि आमतौर पर यहां से कोई भी  दल स्थानीय नेता को टिकट नहीं देता है। पिछले चुनाव में कांग्रेस की शीला दीक्षित के मुकाबले ‘आप’ से अरविंद केजरीवाल एवं ऽााजपा से बिजेंद्र गुप्ता मैदान में थे। हालांकि, केजरीवाल चुनाव जीत गए, लेकिन न तो उनका, न ही बिजेंद्र गुप्ता का कोई ताल्लुक नई दिल्ली क्षेत्र से रहा है। चूंकि उस समय लोग कांग्रेस से नाराज थे, ऐसे में केजरीवाल की किस्मत चमक गई।’
इस बार शीला दीक्षित चुनाव से खुद को दूर रख रही हैं और भाजपा  प्रत्याशी चयन को लेकर उहापोह में है। ऐसी स्थिति में अगर कांग्रेस यहां से किसी स्थानीय नेता को चुनाव लड़ाती है, तो इसमें संदेह नहीं कि वह ‘आप’ और भाजपा के ‘बाहरी’ उम्मीदवारों को न केवल दमदार चुनौती पेश करेगा, बल्कि यह सीट कांग्रेस की झोली में भी जा सकती है। इस क्षेत्र में जितना विकास हुआ है अब तक वह कांग्रेस की ही देन है। यहां की विधायक रहीं श्रीमती शीला दीक्षित और सांसद अजय माकन ने नई दिल्ली के लोगों की हर सुविधाओं का ख्याल रखा।

Friday, 12 December 2014

वर्तमान व्यवस्था बदलने की चाहत थी ओशो में

इतिहास की पूरी धारा में ओशो की अपनी एक अलग वैचारिक पहचान है. ओशो के रुप में मानवता ने एक बड़ा विचारक और चिंतक पाया है, जिनका प्रभाव और प्रसांगिकता समय के साथ बढ़ और चमक रहा है. एक बार एक महाशय ने ओशो को बोला कि आप तो एक बड़े मिशन में लगे हुए हैं, तो उनका जबाव था – मैं किसी मिशन में नहीं लगा हूं, मैं तो मस्त हूं अपनी मस्ती में, और इसमें अगर कुछ बड़ा हो जाए तो अच्छा. ओशो मानवता की एक नई आवाज हैं, क्रांति की एक नई भाषा हैं. ओशो का शाब्दिक अर्थ है, वह व्यक्ति जिसपर भगवान फूलों की वर्षा कर रहे हैं . ओशो भगवान रजनीश के नाम से भी जाने जाते हैं. अपने भगवान होने की घोषणा उन्होंने स्वयं की थी. ओशो के स्वरूप को निर्धारित करना बहुत कठिन है. कभी उन्हें दार्शनिक समझा जाता है तो कभी एक अनोखा धर्मगुरु. लेकिन ओशो ने खुद को ऐसे किसी घेरे में बांधने से इन्कार कर दिया. विचारों की एक ऊंची श्रृंखला और आध्यात्मिक आंदोलन की आंधी का दूसरा नाम है ओशो.
ओशो ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत एक शिक्षक के रुप में की. जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और अपने व्याख्यानों से चर्चा में आने लगे. ओशो की अदभुत तार्किक क्षमता ने लोगों को आकर्षित किया. उनमें किसी भी मानीवय पक्षों की एक गहरी समझ थी, जिसे बड़े ही सहज शब्दों में वह लोगों को समझाते थे. एक असीम और अलौकिक शक्ति में उनका विश्वास और समर्पण था जिसने इस पूरे जीवन-संसार की रचना की है. ओशो ने एक क्रांतिकारी की तरह बड़े बदलाव की बात की. लेकिन उनका परिवर्तन व्यक्ति से शुरु होता, व्यवस्था से नहीं. उनका मानना था कि हर व्यक्ति में असीम संभावना है जिसे जगाने की जरुरत है.
ओशो का मूल नाम चन्द्र मोहन जैन था। वे अपने पिता की ग्यारह संतानो में सबसे बड़े थे। उनका जन्म मध्य प्रदेश में रायसेन जिले के अंतर्गत आने वाले कुचवाडा ग्राम में हुआ था। उनके माता पिता श्री बाबूलाल और सरस्वती जैन, जो कि तेरापंथी जैन थे, ने उन्हें अपने ननिहाल में ७ वर्ष की उम्र तक रखा था। ओशो के स्वयं के अनुसार उनके विकास में इसका प्रमुख योगदान रहा क्योंकि उनकी नानी ने उन्हें संपूर्ण स्वतंत्रता, उन्मुक्तता तथा रुढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखा। जब वे ७ वर्ष के थे तब उनके नाना का निधन हो गया और वे "गाडरवाडा" अपने माता पिता के साथ रहने चले गए. ओशो रजनीश (११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०) का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में हुआ था ओशो शब्द लैटिन भाषा के शब्द ओशोनिक से लिया गया है, जिसका अर्थ है सागर में विलीन हो जाना। १९६० के दशक में वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से या 'ओशो भगवान श्री रजनीश' नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे, तथा भारत व विदेशों में जाकर उन्होने प्रवचन दिये।
ओशो कहते हैं कि -"धार्मिक व्यक्ति की पुरानी धारणा यह रही है कि वह जीवन विरोधी है। वह इस जीवन की निंदा करता है, इस साधारण जीवन की - वह इसे क्षुद्र, तुच्छ, माया कहता है। वह इसका तिरस्कार करता है। मैं यहाँ हूँ, जीवन के प्रति तुम्हारी संवेदना व प्रेम को जगाने के लिये।"
वे दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे। उनके द्वारा समाजवाद, महात्मा गाँधी की विचारधारा तथा संस्थागत धर्मं पर की गई अलोचनाओं ने उन्हें विवादास्पद बना दिया। वे काम के प्रति स्वतंत्र दृष्टिकोण के भी हिमायती थे जिसकी वजह से उन्हें कई भारतीय और फिर विदेशी पत्रिकाओ में "सेक्स गुरु" के नाम से भी संबोधित किया गया। १९७० में ओशो कुछ समय के लिए मुंबई में रुके और उन्होने अपने शिष्यों को "नव संन्यास" में दीक्षित किया और अध्यात्मिक मार्गदर्शक की तरह कार्य प्रारंभ किया। अपनी देशनाओं में उन्होने सम्पूूूर्ण विश्व के रहस्यवादियों, दार्शनिकों और धार्मिक विचारधारों को नवीन अर्थ दिया। १९७४ में "पूना " आने के बाद उन्होनें अपने "आश्रम" की स्थापना की जिसके बाद विदेशियों की संख्या बढ़ने लगी। १९८० में ओशो "अमेरिका" चले गए और वहां सन्यासियों ने "रजनीशपुरम" की स्थापना की।
ओशो अपने सेक्स के विचारों के कारण विवादों में घिर गए. लोगों को संभोग से समाधि का रास्ता दिखाया. सेक्स को दबाने की प्रवृति को मानवीय जीवन की विकृत मानसिकता का मूल कारण बताया. उन्होंने घोषणा की कि संभोग के क्षण में ईश्वर की झलक है. ओशो ने स्पष्ट कहा कि शादी जैसी कृत्रिम संस्था में मेरा विश्वास नहीं है और बिना शर्त प्रेम की हिमायत की. वह दुनिया को एक इंटरनेशनल कम्युन बनाना चाहते थे.
ओशो में एक दार्शनिक उंचाई थी और उन्होंने खुल कर धार्मिक पाखंडवाद पर प्रहार किया. इस मामले में वे कबीर को एक आग और क्रांति मानते थे. ओशो कहते थे बुद्ध बनो, बौद्ध नहीं. जीसस, बुद्ध, पैगम्बर मुहम्मद नानक, कबीर, कृष्ण, सुक्रात ये ओशो के विचारों में तैरते थे.
अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए उन्होंने पूना में ओशो इंटरनेशनल नाम से एक ध्यान-क्रेंद स्थापित किया और बाद में अमेरिका चले गए जहां अमेरिकी सरकार के निशाने पर आने लगे. वहां इनकी प्रसिद्धी से डरी हुई अमेरिकी सरकार ने इन पर बहुत सारे केस चला दिए और इनको गिरफ्तार कर के विभिन्न जेलों में घुमाती रही. बाद में मोरारजी देसाई सरकार की पहल पर इन्हें भारत लाया गया. अधिकांश यूरोपीय सरकारों ने ओशो पर अपने देशों में आने पर प्रतिबंध लगा दिया. ओशो मावन-जीवन को मुक्त करना चाहते थे. अतीत और भविष्य के घेरों को तोड़ना चाहते थे. उनमें जीवन की वर्तमान व्यवस्था बदलने की चाहत थी, लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी हिंसा और शस्त्र का सहारा नहीं लिया. कभी कोई भड़काउ बाते नहीं कही. चंगेज खा, हिटलर और माओ के बदलाव के हिंसक प्रयासों की अलोचना की और सनकी व्यक्तियों व विचारों से दुनिया को सावधान किया.
ओशो ने जीवन से मुक्ति के तीन मार्ग बताए- प्रेम, ज्ञान और समाधि. ओशो का मानना था कि मौत है ही नहीं, वह तो जिंदगी का ही रुपांतरण है. यह जीवन और जगत उस इश्वर की कृति है, इसलिए जितना ईश्वर सच है उतना ही यह जगत भी सच है, इस तरह उन्होंने संसार के माया और भ्रम होने की बात को नकार दिया. उन्होंने आध्यात्मिकता और भौतिकता को मिलाने की बात कही और बड़े ही जोड़ देकर कहा कि दोनों में कोई विरोध नहीं है. जीवन से भागना नहीं, जीवन को समझना है. समझ ही मुक्ति है. एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से जुड़ाव प्यार है, वहीं एक व्यक्ति का प्रत्येक व्यक्ति से जुड़ाव समाधि है. इस तरह प्रेम का ही विस्तृत रुप समाधि है.

Tuesday, 18 November 2014

समाज और देश को नई दिशा दी इंदिरा गांधी ने

इंदिरा गांधी को बीसवीं सदी की विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में गिना जाता है. एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश और देशवासियों को गर्व के कई मौके उपलब्ध कराये. उन्होंने भारत-निर्माण में अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत को बहुत अच्छी तरह से आगे बढ़ाने का काम किया. इंदिरा गांधी के समय में ही भारत में ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ. प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के मौजूदा नजरिये से देखें, तो इस हरित क्रांति का बहुत महत्व है और यही वजह है कि हमारी पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश में फिर से हरित क्रांति की अलख जगाने की बात कर चुकी हैं.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का काफी प्रभाव था. लेकिन जवाहरलाल नेहरू को एक बहुत बड़ा एडवांटेज यह था कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के कारण वैश्विक स्तर पर उनका दबदबा था. विश्व के बड़े-बड़े राजेनता और बुद्धिजीवी उनका मान-सम्मान करते थे. जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के कारण इंदिरा गांधी को भी यह कुछ हद तक विरासत में मिला था. नेहरू जी विश्व राजनीति के बहुत बड़े जानकार थे. यहां तक कि वे जनसभाओं में भी विदेश नीति का जिक्र करते थे, कि इंडोनेशिया में ये हो रहा है या वियतनाम में ये हो रहा है. लेकिन, इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्व की स्थिति बखूबी समझा और उसके अनुरूप नीतियों को ढाला. इंदिरा गांधी भले ही अर्थशास्त्र की बड़ी जानकार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने अपने कॉमनसेंस का अच्छा इस्तेमाल किया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक साहसी और बड़ा कदम था. भारत को खाद्य पदार्थो के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा.

इंदिरा गांधी की विदेश नीति को देखें तो उन्होंने भारत-सोवियत मैत्री को आगे बढ़ाया और भारत के पक्ष में उसका इस्तेमाल किया. इस तरह हम कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने भारत की प्रतिनिधि के रूप में न केवल विश्व की स्थिति को बारीकी से समझा, बल्कि भारतीय विदेश नीति को देश और समय की जरूरतों के हिसाब से ढाला भी. लिंडन जॉन्सन का राष्ट्रपतिकाल हो या रिचर्ड निक्सन का, इंदिरा गांधी अमेरिका के दबाव में कभी नहीं आयीं और उसके खिलाफ मजबूती से टिकी रहीं, जबकि भारत एक विकासशील देश था. परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में वोट न देकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक अलग पहचान बनायी. 1971 के बांग्लादेश युद्ध में मिली जीत में उनकी ऐतिहासिक और सराहनीय भूमिका थी. इसके बाद पाकिस्तान ने वैश्विक पटल, पर खासतौर पर इसलामिक देशों में, भारत के खिलाफ जो घेराबंदी की, उसका उन्होंने बखूबी सामना किया. सोवियत संघ के साथ मित्रता संधि उनकी कूटनीतिक होशियारी की मिसाल है.
विश्व राजनीति के मंच पर भारत को मजबूत करने में इंदिरा गांधी की ऐसी और भी कई उपलब्धियां हैं, जिनकी वजह से भारत का एक अलग और स्वतंत्र अस्तित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बना. इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन की चर्चा भी करनी होगी. जवाहर लाल नेहरू गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बहुत बड़े लीडर थे, पर धीरे-धीरे ऐसे हालात बने कि यह आंदोलन कमजोर पड़ता गया. इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को फिर से मजबूत किया. दो ध्रुवों के टकराव के दौर, जिसे ‘कोल्डवार एरा’ कहते हैं, में उन्होंने अफ्रीका और एशिया के बीच में एक स्पेशल ग्रुप बनाया. वह एक हद तक समाजवादी सोवियत संघ की ओर झुकी रहीं, लेकिन साथ ही भारत के अमेरिका के साथ कामकाजी रिश्ते भी बने रहे. इस तरह वे एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री साबित हुईं.विदेश नीति को लेकर भारत में हमेशा से ही राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति रही है कि मिल कर काम करना चाहिए. यही कारण है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में सार्क सम्मेलन का सूत्रपात हुआ. हालांकि, उस वक्त वे सोवियत संघ के करीब थीं, लेकिन अपनी विदेश नीति में उन्होंने उसे हावी नहीं होने दिया. सोवियत संघ के घटनाचक्रों का भारत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ और वे सोवियत संघ के साथ मैत्री बनाये रखने के साथ ही अमेरिका से निडर भी होती चली गयीं. विदेश नीतियों के मामले में इंदिरा अपने पिता पंडित नेहरू की विदेश नीतियों के बेहद करीब तक जाती हैं.
भारत में सबसे पहले परमाणु परीक्षण का श्रेय भी उनके कार्यकाल को ही जाता है. 1974 में पहली बार इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही परमाणु परीक्षण हुआ और आधुनिक भारत के निर्माण के रूप में यह एक ऐसी परिघटना के रूप में दर्ज है, जिसने सामरिक रूप से हिंदुस्तान को एक नया आयाम दिया.उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू उनको राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित कर रहे थे और यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू की बहुत सी नीतियों को आगे बढ़ाया और उन्हें प्राथमिकता दी. गुट निरपेक्ष आंदोलन (नॉन-एलायंस मूवमेंट) उनमें से एक है. अपनी मृत्यु से एक-डेढ़ साल पहले, 1983 में इंदिरा गांधी ने एक बड़े ‘नॉन एलायंस समिट’ का आयोजन कर यह जता दिया था कि पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना है, बल्कि इसे और भी आगे ले जाना है. यह उनकी सशक्त छवि का ही परिचायक माना जा सकता है.

Tuesday, 11 November 2014

विज्ञान में पंडित नेहरु का योगदान

आजादी की कड़ी लड़ाई के बाद स्वतंत्र भारत को संभालना भी एक जंग से कम न था। आजादी के बाद विभाजन की आंधी से लड़ने के लिए काफी मशक्कत की जरुरत थी, और इस दौर में भी भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने हार न मानते हुए सरकार संभालने में अहम भूमिका निभाई। ऐसे ही नेताओं में सर्वश्रेष्ठ थे पंडित जवाहरलाल नेहरु। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और एक अहम स्वतंत्रता सेनानी थे पंडित जवाहरलाल नेहरु। आजादी की लड़ाई के 24 वर्ष में जवाहरलाल नेहरु जी को आठ बार बंदी बनाया गया, जिनमें से अंतिम और सबसे लंबा बंदीकाल, लगभग तीन वर्ष का कारावास जून 1945 में समाप्त हुआ। नेहरू ने कुल मिलाकर नौ वर्ष से ज़्यादा समय जेलों में बिताया। अपने स्वभाव के अनुरूप ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है।

नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 1936, 1937 और 1946 में चुने गए थे। उन्हें 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 1945 में छोड दिया गया। 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्वपूर्ण भागीदारी की।
1947 में आजादी के बाद उन्हें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का पद दिया गया। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
भारतीय विज्ञान का विकास प्राचीन समय में ही हो गया था। अगर यह कहा जाए कि भारतीय विज्ञान की परंपरा दुनिया की प्राचीनतम परंपरा है, तो अतिशयोक्ति न होगी। जिस समय यूरोप में घुमक्कड़ जातियाँ अभी अपनी बस्तियाँ बसाना सीख रही थीं, उस समय भारत में सिंध घाटी के लोग सुनियोजित ढंग से नगर बसा कर रहने लगे थे। उस समय तक भवन-निर्माण, धातु-विज्ञान, वस्त्र-निर्माण, परिवहन-व्यवस्था आदि उन्नत दशा में विकसित हो चुके थे। फिर आर्यों के साथ भारत में विज्ञान की परंपरा और भी विकसित हो गई। इस काल में गणित, ज्योतिष, रसायन, खगोल, चिकित्सा, धातु आदि क्षेत्रों में विज्ञान ने खूब उन्नति की। विज्ञान की यह परंपरा ईसा के जन्म से लगभग 200वर्ष पूर्व से शुरू होकर ईसा के जन्म के बाद लगभग 11वीं सदी तक काफी उन्नत अवस्था में थी। इस बीच आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधयन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, कणाद से लेकर सवाई जयसिंह तक वैज्ञानिकों की एक लंबी परंपरा विकसित हुई।
भारत में आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा का विकास मुख्य रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद से शुरू हुआ। यहाँ एक बात मुख्य रूप से धयान देने की है। वह यह कि आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से बहुत भिन्न नहीं है। बल्कि उसी को आगे बढ़ाने वाली एक कड़ी के रूप में विकसित हुई है। दोनों परंपराओं के विकास में एक मूलभूत अंतर है, वह है यांत्रिकी का विकास। प्राचीन भारतीय परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो काफ़ी तेजी से विकास कर लिया था, किंतु यांत्रिकी यानी मशीनी स्तर पर कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की। आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा यहीं से प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से खुद को अलग कर लेती है। पूरे आधुनिक परिदृश्य को देखें तो आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है, यांत्रिकी का विकास। अब तक जो भी प्राचीन वैज्ञानिक उपलब्धियाँ थीं उन्हीं को आधर बनाते हुए यांत्रिकी का विकास किया गया और यह परंपरा पूरी दुनिया में प्रचलित हो गई। फिर यांत्रिकी के विकास से विज्ञान में नए अनुसंधानों के अनेक रास्ते खुले, जैसे - कंप्यूटर के विकास से रसायन, भौतिक, जीव विज्ञान आदि हर क्षेत्र में नए-नए प्रयोगों में आसानी हो गई। आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा के एक-साथ पूरी दूनिया में प्रसार के पीछे मुख्य कारण था - दुनिया के ज़्यादातर देशों में अंग्रेजों का राज। इसी प्रकार जिस भी यांत्रिक अथवा वैज्ञानिक परंपरा का विकास हुआ वह थोड़े-से अंतर पर अथवा एक-साथ पूरी दुनिया में प्रचलित हो गई। अतः आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा ने देश और काल की सीमाएँ भी तोड़ी।
भारत का वैज्ञानिक विकास देश के प्रथम प्रधनमंत्र पं॰ जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ। उन्होंने देश के वैज्ञानिक विकास के लिए लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यानी साइंटिफिक टेम्पर जगाने का संकल्प लिया। अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही उन्होंने इस कार्य को डॉ॰ शांतिस्वरूप भटनागर को सौंप दिया, जिसे डॉ॰ भटनागर ने सहर्ष स्वीकारा। परिणामस्वरूप उन्हें औद्योगिक अनुसंधान का प्रणेता होने का गौरव प्राप्त हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार इन्हीं के नाम पर वैज्ञानिकों को दिया जाता है। देश के समुचित वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के लिए डॉ॰ भटनागर ने अथक परिश्रम किया और इसके लिए उन्हें पं॰ नेहरू का भरपूर सहयोग मिला जिसके परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की कड़ी स्थापित होती चली गई। इस कड़ी की पहली प्रयोगशाला पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला थी, जिसका उद्घाटन 3 जनवरी 1950 को पं॰ नेहरू ने किया। इसके बाद दिल्ली में राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला तथा जमशेदपुर में राष्ट्रीय धत्विक प्रयोगशाला की स्थापना हुई। 10 जनवरी 1953 को नई दिल्ली में सी. एस. आई. आर. मुख्यालय का उद्घाटन हुआ। 1 जनवरी 1955 को जब डॉ॰ भटनागर की मृत्यु हुई थी तब तक देश में विभिन्न स्थानों पर लगभग 15 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना हो चुकी थी और ये सभी प्रयोगशालाएँ किसी-न-किसी उद्योग से जुड़ी थीं। इन सभी प्रयोगशालाओं का उद्घाटन और शिलान्यास पं॰ नेहरू द्वारा ही संपन्न हुआ। प्रयोगशालाओं की बढ़ती कड़ी को ‘नेहरू-भटनागर प्रभाव’ कहा गया है।
10 अगस्त 1948 को परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए डॉ॰ होमी जहाँगीर भाभा के प्रयासों से परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन हुआ था। तब से लेकर आज तक हुए विकास के फलस्वरूप हम खनिज अनुसंधान के लिए ईंधन निर्माण, व्यर्थ पदार्थों से ऊर्जा उत्पादन, कृषि चिकित्सा उद्योग एवं अनुसंधान में आत्मनिर्भर हो गए हैं। परमाणु ऊर्जा के अंतर्गत नाभिकीय अनुसंधान के क्षेत्र में मुंबई स्थित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की भूमिका सराहनीय है। यहाँ हो रहे नित नए अनुसंधानों के कारण हम पोखरण-2 का सफल परीक्षण कर विश्व की परमाणु शक्ति वाले देशों की पंक्ति में आ खड़े हुए हैं।

Monday, 10 November 2014

बच्चों से विशेष प्रेम था जवाहरलाल नेहरू को


बच्चे हर देश का भविष्य और उसकी तस्वीर होते हैं. यह वही देश है जहां भगवान विष्णु को बाल रूप में पूजा जाता है और जहां के प्रथम प्रधानमंत्री को बच्चे इतने प्यारे थे कि उन्होंने अपना जन्मदिवस ही उनके नाम कर दिया. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू  को बच्चों से विशेष प्रेम था. यह प्रेम ही था जो उन्होंने अपने जन्मदिवस को बाल दिवस  के रूप में मनाने का निर्णय लिया. जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से लगाव था तो वहीं बच्चे भी उन्हें चाचा नेहरू के नाम से जानते थे. जवाहरलाल नेहरू  ने नेताओं की छवि से अलग हटकर एक ऐसी तस्वीर पैदा की जिस पर चलना आज के नेताओं के बस की बात नहीं. आज चाचा नेहरू का जन्मदिन है. तो चलिए जानते हैं जवाहरलाल नेहरू  के उस पक्ष के बारे में जो उन्हें बच्चों के बीच चाचा बनाती थी.
एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुजरते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे. उनका ध्यान पौधों पर था. तभी पौधों के बीच से उन्हें एक बच्चे के रोने की आवाज आई. नेहरूजी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो रो रहा था. जवाहरलाल नेहरू  ने उसकी मां को इधर-उधर ढूंढ़ा पर वह नहीं मिली. चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं माली के साथ काम कर रही होगी. नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज कर दिया. इस पर उन्होंने उस बच्चे की मां की भूमिका निभाने का मन बना लिया. वह बच्चे को गोद में उठाकर खिलाने लगे और वह तब तक उसके साथ रहे जब तक उसकी मां वहां नहीं आ गई. उस बच्चे को देश के प्रधानमंत्री के हाथ में देखकर उसकी मां को यकीन ही नहीं हुआ.
दूसरा वाकया जुड़ा है तमिलनाडु से. एक बार जब पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर गए तब जिस सड़क से वे गुजर रहे थे वहां लोग साइकलों पर खड़े होकर तो कहीं दीवारों पर चढ़कर नेताजी को निहार रहे थे. प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए हर आदमी इतना उत्सुक था कि जिसे जहां समझ आया वहां खड़े होकर नेहरू जी को निहारने लगा.इस भीड़ भरे इलाके में नेहरूजी ने देखा कि दूर खड़ा एक गुब्बारे वाला पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था. ऐसा लग रहा था कि उसके हाथों के तरह-तरह के रंग-बिरंगी गुब्बारे मानो पंडितजी को देखने के लिए डोल रहे हों. जैसे वे कह रहे हों हम तुम्हारा तमिलनाडु में स्वागत करते हैं. नेहरूजी की गाड़ी जब गुब्बारे वाले तक पहुंची तो गाड़ी से उतरकर वे गुब्बारे खरीदने के लिए आगे बढ़े तो गुब्बारे वाला हक्का-बक्का-सा रह गया. जवाहरलाल नेहरू  ने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहकर सारे गुब्बारे खरीदवाए और वहां उपस्थित सारे बच्चों को वे गुब्बारे बंटवा दिए. ऐसे प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों के प्रति बहुत लगाव था. नेहरू जी के मन में बच्चों के प्रति विशेष प्रेम और सहानुभूति देखकर लोग उन्हें चाचा नेहरू के नाम से संबोधित करने लगे और जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों के हाथों तक पहुंचे बच्चों ने चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की तेज आवाज से वहां का वातावरण उल्लासित कर दिया. तभी से वे चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध हो गए.

आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू


आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ भारत के नव निर्माण, लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले बच्चों के चाचा नेहरू और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अद्भुक्त वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, इतिहासकार, स्वप्नद्रष्टा और आधुनिक भारत के निर्माता थे। आर्थिक और विदेश नीति के निर्धारण में मौलिक योगदान के साथ-साथ नेहरू ने जहां हमारे देश में प्रजातंत्र की जडें मजबूत कीं और उससे भी यादा महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू ने भारत को पूरी ताकत लगाकर एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया। चूँकि हमने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया उसके परिणामस्वरूप हमारे देश में प्रजातंत्र की जड़े गहरी होती गईं। जहां नव-आजाद देशों में से अनेक  में प्रजातंत्र समाप्त हो गया है और तानाशाही कायम हो गई है वहीं भारत में प्रजातंत्र का कोई बाल बांका नहीं कर सका। इस तरह कहा जा सकता है कि जहां सरदार पटेल भारत को भौगोलिक दृष्टि से एक राष्ट्र बनाया वहीं नेहरू ने ऐसा राजनीतिक-आर्थिक एवं सामाजिक आधार बनाया जिससे भारत की एकता को कोई डिगा नहीं पाया। इस तरह आधुनिक भारत के निर्माण में पटेल और नेहरू दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है। आर्थिक और विदेश नीति के निर्धारण में मौलिक योगदान के साथ-साथ नेहरू ने जहां हमारे देश में प्रजातंत्र की जडें मजबूत कीं और उससे भी यादा महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू ने भारत को पूरी ताकत लगाकर एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया। चूँकि हमने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया उसके परिणामस्वरूप हमारे देश में प्रजातंत्र की जड़े गहरी होती गईं। जहां नव-आजाद देशों में से अनेक में प्रजातंत्र समाप्त हो गया है और तानाशाही कायम हो गई है वहीं भारत में प्रजातंत्र का कोई बाल बांका नहीं कर सका।

संघ परिवार का हमेशा यह प्रयास रहता है कि आजाद भारत के निर्माण में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका को कम करके पेश किया जाये और यह भी कि आज यदि पूरा कश्मीर हमारे कब्जे में नहीं है, तो उसके लिये सिर्फ और सिर्फ नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाए। संघ परिवार इस बात को भूल जाता है कि आजाद भारत में पंड़ित नेहरू और सरदार पटेल की अपनी.अपनी भूमिकायें थीं। जहां सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से सभी राजे.रजवाड़ों का भारत में विलय करवाया और भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप दिया वहीं नेहरू ने भारत को एक शक्तिशाली आर्थिक नींव देने के लिए आवश्यक योजनायें बनाईं और उनके क्रियान्वयन के लिये उपयुक्त वातावरण भी।  हमारे देश के कुछ संगठन, विशेषकर जो संघ परिवार से जुड़े हैं, जब भी सरदार पटेल की चर्चा करते हैं तो उस समय वे पटेल के बारे में दो बातें अवश्य कहते हैं। पहली यह कि सरदार पटेल आज के भारत के निर्माता हैं और यह कि यदि कश्मीर की समस्या सुलझाने का उत्तरदायित्व सरदार पटेल को दिया जाता तो पूरे कश्मीर पर हमारा कब्जा होता। अभी हाल में सरदार पटेल की जयंती के अवसर पर उनको याद करते हुये पुन: यह बातें दुहराई गयी। संघ परिवार का हमेशा यह प्रयास रहता है कि आजाद भारत के निर्माण में जवाहर लाल नेहरू की भूमिका को कम करके पेश किया जाये और यह भी कि यदि पूरा कश्मीर हमारे कब्जे में नहीं है तो उसके लिये सिर्फ और सिर्फ जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार हैं। चौहान और संघ परिवार इस बात को भूल जाते हैं कि आजाद भारत में पंड़ित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल की अपनी-अपनी भूमिकायें थी। जहां सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से सभी राजे- रजवाड़ों का भारत में विलय करवाया और भारत को एक  राष्ट्र का रूप दिया वहीं जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को एक शक्तिशाली नींव पर खड़े रहने के लिये आवश्यक योजनायें बनाई और उनके यिान्वयन के लिये वातावरण बनाया।
नेहरू जी के योगदान को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहला, ऐसी शक्तिशाली संस्थाओं का निर्माण जिनसे भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम हो और बाद में कायम रहे। इन संस्थाओं में जन प्रतिनिधि संस्थाओं के रूप में संसद एवं विधान सभायें, एक उत्तरदायी एवं पूर्ण स्वतंत्र न्यायपालिका शामिल हैं। दूसरा, प्रजातंत्र को जिंदा रखने के लिये निश्चित अवधि के बाद चुनाव की व्यवस्था और ऐसा संवैधानिक प्रावधान कि भारत के प्रजातंत्र का मुख्य आधार धर्मनिरपेक्षता हो। तीसरा, मिश्रित अर्थव्यवस्था और उच्च शिक्षा संस्थानों की बड़े पैमाने पर स्थापना। वैसे जवाहर लाल नेहरू समाजवादी समाज व्यवस्था के समर्थक नहीं थे। परंतु वे भारत को पँजीवादी देश भी नहीं बनाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने भारत में एक मिश्रित आर्थिक व्यवस्था की नींव रखी। मिश्रित व्यवस्था में उन्होंने जहां उद्योग में निजी पूँजी की भूमिका बनाये रखी वहीं उन्होंने अधोसंरचना उद्योगों के लिये अत्यधिक शक्तिशाली सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया। उन्होंने कुछ ऐसे उद्योग चुने जिन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में ही रखा गया। ये ऐसे उद्योग थे जिनके बिना निजी उद्योग पनप ही नहीं सकता था। बिजली का उत्पादन पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र में रखा गया। इसी तरह इस्पात, बिजली के उपकरणों के कारखाने, रक्षा उद्योग, एल्यूमिनियम एवं अणु ऊर्जा भी सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए। इसके अतिरिक्त देश में तेल की खोज की गई और पेट्रोल और एल.पी.जी. के कारखाने भी सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गये। उद्योगीकरण की सफलता के लिये तकनीकी ज्ञान में माहिर लोगों की आवश्यकता होती है। फिर इन उद्योगों के संचालन के लिये प्रशिक्षित प्रबंधको को भी तैयार करने की आवश्यकता महसूस की गई। उच्च तकनीकी शिक्षा देने के लिये आईआईटी स्थापित किये गये। इसी तरह प्रबंधन के गुर सिखाने के लिए आईआईएम खोले गए। इन उच्चकोटि के संस्थानों के साथ-साथ संपूर्ण देश के पचासों छोटे-बड़े शहरों इंजीनियरिंग कालेज व देशवासियों के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिये मेडिकल कॉलेज स्थापित किये गये।  चूँकि अंग्रेजों के शासन के दौरान देश की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी इसलिये उसे पटरी पर लाने के लिये अनेक बुनियादी कदम उठाये गये। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण देश का योजनाबध्द विकास था। योजनाबध्द विकास संभव हो सके इसलिये योजना आयोग की स्थापना की गई। स्वयं नेहरू जी योजना आयोग के अध्यक्ष बने। योजना आयोग ने देश के चहुमुखी विकास के लिये पंचवर्षीय योजनाएं बनाई गई। उस समय पंचवर्षीय योजना का विचार सोवियत रूस सहित अन्य समाजवादी देशों में लागू था परंतु पंचवर्षीय योजना का ढांचा एक ऐसे देश में लागू करना था जो पूरी तरह से न तो समाजवादी था और न ही पूँजीवादी। इसलिये उसे हमारे देश में लागू करना एक कठिन काम था।


Wednesday, 5 November 2014

नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥


कार्तिक पूर्णिमा और गुरुनानक जयंती पर देशभर के गुरुद्वारों, मंदिरों की भव्य सजावट की शोभा देखती ही बन रही है. कार्तिक पूर्णिमा और देव दीपावली पर गंगा समेत नदियों के घाटों को सजाया गया है. लाखों भक्त सुबह से ही पवित्र नदियों में स्नान करते देखे जा रहे हैं. साथ ही शाम को देव दीपावली के अवसर पर हरिद्वार और वाराणसी में दीपों की दिवाली मनाई जाएगी.इसे देखने देश-विदेश के दर्शक घाटों पर उमड़ेंगे.
गुरू नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे। गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) १५ अप्रैल, १४६९ ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। इस दिन को सिख धर्म के अनुयायी गुरु पर्व]] के रूप में मनाते हैं।
इनका जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में संवत् १५२७ में कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्यानचंद या मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था।
बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। ७-८ साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य ऴ्यक्तित्व मानने लगे। बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। ३२ वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पीछे दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत १५०७ में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़।

गुरु नानकदेव के पद

झूठी देखी प्रीत

जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥

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को काहू को भाई

हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥

धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥

Tuesday, 4 November 2014

डॉ. मनमोहन सिंह ने रचा इतिहास


भारत-जापान संबंधों में अहम योगदान के लिए डॉ मनमोहन सिंह को जापान के टॉप नेशनल अवॉर्ड के लिए चुना गया है। डॉ मनमोहन सिंह को द ग्रैंड कॉर्डन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द पाउलोनिया फ्लावर्स से सम्मानित किया जाएगा। इस अवॉर्ड से नवाजे जाने वाले वे पहले भारतीय होंगे। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का मन जापान को बहुत भाया है। जापान ने पूर्व पीएम मनमोहन सिंह को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान देने के लिए चुना गया है।  जापानी एंबेसी के मुताबिक, डॉ मनमोहन सिंह को भारत-जापान के दोस्ताना रिश्तों को बढ़ावा देने के लिए यह सम्मान दिए जाने का फैसला किया गया है।
सम्मान देने की घोषणा के बाद पूर्व पीएम डॉ मनमोहन सिंह ने कहा, “जापान सरकार ने मुझ पर जो प्यार बरसाया है, उससे मैं बहुत सम्मानित और कृतज्ञ महसूस कर रहा हूं। भारत-जापान रिश्तों में और तरक्की और उन्नति देखना मेरा सपना रहा है। न सिर्फ अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में, बल्कि लोकसेवा के अपने करियर में यही मेरा मकसद भी रहा।”
डा. मनमोहन सिंह एक कुशल राजनेता के साथ-साथ एक अच्छे विद्वान, अर्थशास्त्री और विचारक भी हैं। एक मंजे हुये अर्थशास्त्री के रुप में उनकी ज्यादा पहचान है। अपने कुशल और ईमानदार छवि की वजह से सभी राजनैतिक दलों में उनकी अच्छी साख है। लोकसभा चुनाव 2009 में मिली जीत के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए हैं जिनको पाँच वर्षों का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला है। उन्होंने 21 जून 1999 से 16 मई
1996 तक नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री के रूप में भी कार्य किया है। वित्त मंत्री के रूप में
उन्होंने भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की।मनमोहन सिंह का जन्म पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में २६ सितंबर 1932 को हुआ था। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया। यहां पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक तथा स्वनातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये। जहाँ से उन्होंने पी. एच. डी. की। तत्पश्चात् उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी. फिल. भी किया। उनकी पुस्तक इंडियाज़ एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड प्रोस्पेक्ट्स फॉर सेल्फ सस्टेंड ग्रोथ, (अंग्रेजी: India’s Export Trends and Prospects for Self-Sustained Growth), भारत के अन्तर्मुखी व्यापार नीति की पहली और सटीक आलोचना मानी जाती है। डा. सिंह ने अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर काफी ख्याति अर्जित की। वे पंजाब विश्वविद्यालय और बाद में प्रतिष्ठित डेलही स्कूल आफ इकनामिक्स में प्राध्यापक रहे। इसी बीच वे UNCTAD सचिवालय में सलाहकार भी रहे और 1987 तथा 1990 में जेनेवा में साउथ कमीशन में सचिव भी रहे। 1971 में डा. मनमोहन सिंह  भारत के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किये गये। इसके तुरंत बाद 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया। इसके बाद के वर्षों में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब डा. सिंह 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मंत्री रहे। उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का प्रणेता माना गया है। आम जनमानस में ये साल निश्चित रुप से डा. सिंह के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। 

Sunday, 2 November 2014

अल्लाह का महीना है मुहर्रम



अल्लाह का फरमान है “ किसी ऐसी चीज की पैरवी ना करो {यानि उसके पीछे न चलो , उसकी इत्तेबा ना करो } जिसका तुम्हें इल्म ना हो , यकीनन तुम्हारे कान, आँख, दिमाग {की कुव्वत जो अल्लाह ने तुमको अता की है }इसके बारे में तुमसे पूछताछ की जाएगी”
{सूरह बनी इस्राईल 17, आयत 36}
और नबी सल्ल० ने फ़रमाया “इल्म सीखना हर मुसलमान मर्द-औरत पर फ़र्ज़ है”
{इब्ने माजा हदीस न० 224 }
यानि इतना इल्म जरुर हो कि क्या चीज शरियत में हलाल है क्या हराम और क्या अल्लाह को पसंद है क्या नापसंद , कौन से काम करना है और कौन से काम मना है और कौन से ऐसे काम है जिनको करने पर माफ़ी नहीं मिल सकती द्य
अब लोगों का क्या हाल है एक तरफ तो अपने आपको मुसलमान भी कहते है दूसरी तरफ काम इस्लाम के खिलाफ़ करते है और जब कोई उनको रोके तो उसको कहते है कि ये काम तो हम बाप दादा के ज़माने से कर रहे है , यही वो बात है जिसको अल्लाह ने कुरआन में भी बता दिया सूरह बकरा की आयत 170 में “और जब कहा जाये उनसे की पैरवी करो उसकी जो अल्लाह ने बताया है तो जवाब में कहते है कि हम तो चलेंगे उसी राह जिस पर हमारे बाप दादा चले , अगर उनके बाप दादा बेअक्ल हो और बेराह हो तब भी {यानि दीन की समझ बूझ ना हो तब भी उनके नक्शेकदम पर चलेंगे ? }
हक़ीकत खुराफ़ात में खो गई
जी हाँ मुहर्रम की भी हकीकत खुराफ़ात में खो गई उलमाओं के फतवे और अहले हक़ लोगों के बयान मौजूद है फिर भी मुहर्रम की खुराफ़ात पर लोग यही दलील देते है कि यह काम हम बाप दादों के ज़माने से करते आ रहे है ? बेशक करते होंगे लेकिन कौन से इल्म की रौशनी में ? जाहिर है वो इल्म नहीं बेईल्मी होगी क्योंकि इल्म तो इस काम को मना कर रहा है। इस्लाम धर्म के त्योहारों के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि यह त्योहार चंद्र कैलेंडर एवं हिजरी पर आधारित होते हैं, न कि ग्रेगेरियन कैलेंडर पर। मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला माह होता है। इस महीने को इस्लाम धर्म के चार पवित्र महीनों में शामिल किया जाता है। खुदा के दूत हजरत मुहम्मद ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। इस माह मनाया जाने वाला मोर्हरम का त्योहार माह के पहले दिन से शुरू होकर दसवें दिन तक चलता है।
इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन के शोक में मनाए जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था। दुनिया के विभिन्न धर्मों के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमें सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम महीना है। मुहर्रम एक महीना है, जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।
 कहा जाता है कि पैगंबर-ए-इस्लाम के बाद चार खलीफा (राष्ट्राध्यक्ष) उस दौर की अरबी कबीलाई संस्कृति के अनुसार प्रमुख लोगों द्वारा मनोनीत किए गए। लोग आपस में तय करके किसी योग्य व्यक्ति को प्रशासन, सुरक्षा इत्यादि के लिए प्रमुख चुन लेते थे। उस चुनाव में परिवार, पहुंच और धनबल का इस्तेमाल नहीं होता था। अगर होता तो पैगंबर साहब के बाद उनके दामाद और चचेरे भाई निकटतम व्यक्ति हजरत अली ही पहले खलीफा होते। जिन लोगों ने अपनी भावना से हजरत अली को अपना इमाम (धर्मगुरु) और खलीफा चुना, वो लोग शियाने अली यानी शिया कहलाते हैं। शिया यानी हजरत अली के समर्थक। इसके विपरीत सुन्नी वे लोग हैं, जो चारों खलीफाओं के चुनाव को सही मानते हैं। रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया। मक्का से दूर सीरिया के गवर्नर यजीद ने अपनी खिलाफत का एलान कर दिया। यजीद की कार्यपद्धति बादशाहों जैसी थी। याद रहे इस्लाम में श्बादशाहश् और शहंशाह दिखने लगे, जो इस्लामी मान्यता के बिल्कुल उलट है। इस्लाम में बादशाहत की इंसानी कल्पना नहीं है। जमीन-आसमान का एक ही श्बादशाह अल्लाह यानी ईश्वर होगा। यजीद की खिलाफत के एलान के समय इमाम हुसैन मक्का में थे।
एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। इस्लामी यानी हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम है। हिजरी सन् का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। इत्तिफाक की बात है कि आज मुहर्रम का यह पहलू आमजन की नजरों से ओझल है और इस माह में अल्लाह की इबादत करनी चाहीये जबकि पैगंबरे-इस्लाम (सल्ल.) ने इस माह में खूब रोजे रखे और अपने साथियों का ध्यान भी इस तरफ आकर्षित किया। इस बारे में कई प्रामाणिक हदीसें मौजूद हैं।
मुहर्रम महीने के १०वें दिन को श्आशुराश् कहते है। आशुरा के दिन हजरत रसूल के नवासे हजरत इमाम हुसैन को और उनके बेटे घरवाले और उनके सथियों (परिवार वालो) को करबला के मैदान में शहीद कर दिया गया था। मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस माह की बहुत विशेषता और महत्व है। सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या) के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हजरत इमाम हुसैन अ० की हुई। पर जाहिरी तौर पर यजीद के कमांडर ने हजरत इमाम हुसैन अ० और उनके सभी 72 साथियो (परिवार वालो) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हजरत अली असगर भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी कौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का गम मनाकर उनकी याद करते हैं। आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था।
कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकों से लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की जरुरत है। इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे द्य दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हजरत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। इमाम हुसेन की औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं।
क्या मुहर्रम के महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखना सुन्नत है ? और क्या इस महीने को इसके अलावा अन्य महीनों पर कोई फज़ीलत प्राप्त है ? मुहर्रम का महीना अरबी महीनों का प्रथम महीना है, तथा वह अल्लाह के चार हुर्मत व अदब वाले महीनों में से एक है। अल्लाह तआला का फरमान हैरू
ष्अल्लाह के निकट महीनों की संख्या अल्लाह की किताब में 12 --बारह- है उसी दिन से जब से उसने आकाशों और धरती को पैदा किया है, उन में से चार हुर्मत व अदब -सम्मान- वाले हैं। यही शुद्ध धर्म है, अतः तुम इन महीनों में अपनी जानों पर अत्याचार न करो।ष् (सूरतुत-तौबाः 36)
बुखारी (हदीस संख्यारू 3167) और मुस्लिम (हदीस संख्यारू1679) ने अबू बक्ररह रज़ियल्लाहु अन्हु के माध्यम से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है कि आप ने फरमायारू ज़माना घूमकर फिर उसी स्थिति पर आ गया है जिस तरह  कि वह उस दिन था जिस दिन अल्लाह तआला ने आकाशों और धरती को पैदा किया। साल बारह महीनों का होता है जिनमें चार हुर्मत व अदब वाले हैं, तीन महीने लगातार हैं रू ज़ुल क़ादा, ज़ुलहिज्जा, मुहर्रम, तथा मुज़र क़बीले से संबंधित रजब का महीना जो जुमादा और शाबान के बीच में पड़ता है।ष् तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि रमज़ान के बाद सबसे अफज़ल (सर्वश्रेष्ठ) रोज़ा मुहर्रम के महीने का रोज़ा है। चुनाँचि अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया रू ष्रमज़ान के महीने के बाद सबसे श्रेष्ठ रोज़े अल्लाह के महीना मुहर्रम के हैं, और फर्ज़ नमाज़ के बाद सर्वश्रेष्ठ नमाज़ रात की नमाज़ है।ष् इसे मुस्लिम (हदीस संख्यारू 1163) ने रिवायत किया है।
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान रू ष्अल्लाह का महीनाष् में महीना को अल्लाह से सम्मान के तौर पर संबंधित किया गया है। मुल्ला अली क़ारी कहते हैं रू प्रत्यक्ष यही होता कि है इस से अभिप्राय संपूर्ण मुहर्रम का महीना है। किंतु यह बात प्रमाणित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रमज़ान के अलावा कभी भी किसी महीने का मुकम्मल रोज़ा नहीं रखा। अतः इस हदीस को मुहर्रम के महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखने की रूचि दिलाने पर महमूल किया जायेगा, न कि पूरे महीने का रोज़ा रखने पर।

Thursday, 30 October 2014

‘लौह महिला’ थीं इंदिरा गांधी



भारतीय राजनीति के फलक पर श्रीमती इंदिरा गांधी का उभार ऐसे समय में हुआ था, जब देश नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था। शुरू में ‘गूंगी गुड़िया’ कहलाने वाली इंदिरा ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व से न केवल देश को कुशल नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की धाक जम दी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह के अनुसार, इंदिरा एक कुशल प्रशासक थीं। उनके सक्रिय सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया। जिससे इतिहास और भूगोल दोनों बदल गए। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बचपन से ही इंदिरा में नेतृत्व के गुण मौजूद थे। भारत की आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए इंदिरा ने बचपन में ही ‘वानर सेना’ का गठन किया था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कलीम बहादुर के अनुसार, इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्रित्व काल बहुत अच्छा था। उन्होंने बहुत से ऐसे काम किए, जिससे विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा। उन्होंने भारत की विदेश नीति को नए तेवर दिए, बांग्लादेश का बनना उनमें से एक उदाहरण है। इससे उन्होंने विश्व मानचित्र पर देश का दबदबा कायम किया। जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू के घर इंदिरा का जन्म 19 नवंबर 1917 को हुआ था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन में पढ़ाई करने वाली इंदिरा बचपन में काफी संकोची स्वभाव की थीं। इनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के आनंद भवन में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम है- श्इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधीश्। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरु और दादा का नाम मोतीलाल नेहरु था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम कमला नेहरु था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इंदिराजी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफी संपन्न था। अतरू इन्हें आनंद भवन के रूप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ। इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रूप में उन्हें मां लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरु ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरु और कमला नेहरु स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रूप श्इंदुश् था।
इंदिरा गांधी कभी भी अमेरिका जैसे राष्ट्रों के सामने झुकी नहीं। विकीलिक्स की ओर से किए गए खुलासों में यह बात सामने आई है कि निक्सन जैसे शक्तिशाली राष्ट्रपति भी उनसे काफी नाराज थे। लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। अपनी राजनीतिक पारी के शुरुआती दिनों में ‘गूंगी गुड़िया’ के नाम से जानी जाने वाली इंदिरा बाद के दिनों में बहुत बड़ी ‘जननायक’ बन कर उभरीं। उनके व्यक्तित्व में अजीब सा जादू था, जिससे लोग खुद ब खुद उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। वह एक प्रभावी वक्ता भी थीं, जो अपने भाषणों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं।
रूसी क्रांति के साल 1917 में 19 नवंबर को पैदा हुईं इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत को एक नया गौरवपूर्ण क्षण दिलवाया। दृढ़ निश्चयी और किसी भी परिस्थिति से जूझने और जीतने की क्षमता रखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न केवल इतिहास, बल्कि पाकिस्तान को विभाजित कर दक्षिण एशिया के भूगोल को ही बदल डाला और 1962 के भारत चीन युद्ध की अपमानजनक पराजय की कड़वाहट धूमिल कर भारतीयों में जोश का संचार किया।
यदि यह कहा जाए कि हमारे देश में इंदिरा गांधी आखिरी जन नायक थीं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके बाद कभी उन जैसे राजनेता नहीं हुआ। आपातकाल लगाने के बाद उन्हें चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर से चुनाव में वह विजयी होकर लौटीं और अकेले अपने दम पर सरकार का गठन किया। आज गठबंधन की सरकारें बन रही हंै। आज के किसी भी राजनेता में इंदिरा गांधी की तरह वह जादुई ताकत नहीं है कि अपने अकेले दल के दम पर सरकार बना सके। पंजाब में आतंकवाद का सामना करते हुए अपने प्राणों की आहूति देने वाली इंदिरा गांधी को अपने छोटे बेटे संजय गांधी के आकस्मिक निधन से काफी दुख पहुंचा था। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में लगभग 10 सालों तक शामिल रहे कर्ण सिंह ने कहा कि संजय के निधन से उन्हें काफी दुख पहुंचा था, लेकिन राजीव गांधी से उन्हें काफी संबल मिला।
1957 के आम चुनाव के समय पंडित नेहरू ने जहाँ श्री लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेसी उम्मीदवारों के चयन की जिम्मेदारी दी थी, वहीं इंदिरा गाँधी का साथ शास्त्रीजी को प्राप्त हुआ था। शास्त्रीजी ने इंदिरा गाँधी के परामर्श का ध्यान रखते हुए प्रत्याशी तय किए थे। लोकसभा और विधानसभा के लिए जो उम्मीदवार इंदिरा गाँधी ने चुने थे, उनमें से लगभग सभी विजयी हुए और अच्छे राजनीतिज्ञ भी साबित हुए। इस कारण पार्टी में इंदिरा गाँधी का कद काफी बढ़ गया था। लेकिन इसकी वजह इंदिरा गाँधी के पिता पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री होना ही नहीं था इंदिरा में व्यक्तिगत योग्यताएं भी थीं। इंदिरा गाँधी को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने के आरोप उस समय पंडित नेहरू पर लगे। 1959 में जब इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो कई आलोचकों ने दबी जुबान से पंडित नेहरू को पार्टी में परिवारवाद फैलाने का दोषी ठहराया था। लेकिन वे आलोचना इतने मुखर नहीं थे कि उनकी बातों पर तवज्जो दी जाती। वस्तुतः इंदिरा गाँधी ने समाज, पार्टी और देश के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त थी। विदेशी राजनयिक भी उनकी प्रशंसा करते थे। इस कारण आलोचना दूध में उठे झाग की तरह बैठ गई। कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा गाँधी ने अपने कौशल से कई समस्याओं का निदान किया। उन्होंने नारी शाक्ति को महत्त्व देते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी में महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किए। युवा शक्ति को लेकर भी उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लिए। इंदिरा गाँधी 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बनी थीं।
भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत भूमि को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुकघबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की गलतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया। इंदिरा गाँधी, नेहरू के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर कघयम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नजदीकी सम्बन्ध कघयम किए और पाकिस्तान-भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं। जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शक्ति और धैर्य था।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की साम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे जो एक ऐसी नेता की ओर इशारा करते थे, जो आज्ञा का पालन करवाने और डंडे के जोर पर शासन करने की क्षमता रखती थी। मौजूदा जटिल दौर में देश के कई कोनों से नेतृत्व संकट की आवाज उठ रही है। कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें मजबूती से कुछ चीजों के, कुछ मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना होता है और कुछ की उतनी ही तीव्रता से मुखालफत करनी होती है। आज भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी की छवि कुछ ऐसे ही संकल्पशील नेता की है। इंदिरा गांधी 16 वर्ष देश की प्रधानमंत्री रहीं और उनके शासनकाल में कई उतार-चढ़ाव आए। अंतरिक्ष, परमाणु विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा गांधी के बगैर नहीं की जा सकती थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय उन्हें ही जाता है। आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद उपजे तनाव के बीच उनके निजी अंगरक्षकों ने ही 31 अक्टूबर 1984 को गोली मार कर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी।

माटी के लाल थे रॉबिन शॉ पुष्प

वरिष्ठ साहित्यकार रॉबिन शॉ पुष्प नहीं रहे। अस्सी वर्षीय रॉबिन शॉ पुष्प ने आज दोपहर तकरीबन दो बजे पटना स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली। वह पिछले कुछ दिनो से बीमार चल रहे थे। आजीवन स्वतंत्र लेखक रहे रॉबिन शॉ पुष्प की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनमें उपन्यास, कहानियां, कविताएं, लेख, नाटक और बाल साहित्य आदि शामिल है। अन्याय को क्षमा, दुल्हन बाजार जैसे उपन्यास, अग्निकुंड, घर कहां भाग गया कहानी संग्रह और फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखी संस्मरण पुस्तक सोने की कलम वाला हिरामन उनकी चर्चित कृतियां हैं।
शॉ का मुंगेर से पुराना वास्ता रहा है। यहां उन्होंने पढ़ाई की, खेला कूदा और साहित्य के आसमान में उड़ान भरना भी शुरु किया। सन 1955-58 में आरडी एंड डीजे कॉलेज के छात्र रहे। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के दौरान ही वे गोपाल प्रसाद नेपाली जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार के सानिध्य में रहने लगे। शॉ के गुरु रहे प्रोफेसर शिवचंद प्रताप ने शॉ के निधन पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि वे काफी खुशमिजाज किस्म के छात्र थे। वे इधर-उधर से ज्यादा समय किताबों को देते थे। वे बताते हैं कि शॉ के समकालीन प्रसिद्ध साहित्यकार गोपाल सिंह नेपाली मुंगेर आने पर प्राय: उन्हीं के घर ठहरते थे और कवि सम्मेलन में भाग लेते थे।




याद तुम्हारी
जैसे पलकों में झपकी
या दरवाज़े पर थपकी
याद तुम्हारी आई
कुछ वैसे, तब की अब की!

सुधियों से धुँआया
मन ऐसे
विधवा का जलता
तन जैसे

हूँ चौखट पर, बुझी-बुझी
मैं राख प्रतीक्षा-तप की!

पर साल रहे
पेटी कंगना
पीड़ा के चरण
उगे अंगना
ठहर-ठहर, ज्यों रुकी-रुकी
गुज़र गई, मीरा अब की!

फ़रक नहीं छूए
घूँघट में
या फिर मुहरे लगें
टिकट में
दोनों बोझिल, पड़े-पड़े
गड़ते, आँखों में सबकी!

धोबिन विधि के
हाथों टूटे
टाँके गए
खुशी के बूटे

आओ भी, लाज रखो अब
प्रीत हुई, नंगी कब की!

रॉबिन शॉ पुष्प, २८ अप्रैल २००८

Monday, 27 October 2014

कुप्रभाव से रक्षा करने का महापर्व


आशा, त्याग और विश्वास का महापर्व छठ, सोमवार को नहाए खाए से शुरू हो रहा है। संतान सुख की आशा और छठ मइया पर विश्वास के साथ व्रती 48 घंटे का निर्जला उपवास रखते हैं। इसी आस्था के साथ घाटों पर भीड़ उमड़ती है। इसे लेकर तैयारी शुरू हो गई है। सूर्य उपासना का पर्व डाला छठ सोमवार से शुरू हो गया। महिलाओं ने सायंकाल चने की दाल, लौकी की सब्जी तथा हाथ की चक्की से पीसे आटे की पूड़ी खाया। मंगलवार को खरना है। इस दिन दिन में व्रत रखकर सायंकाल रोटी व गन्ने का रस अथवा गुड़ की बनी खीर खाएंगी। चार दिवसीय इस पर्व को लेकर महिलाओं में उत्साह देखा जा रहा है। प्रथम दिन से ही सूर्य की पूजा शुरू हो गई है। चार दिवसीय इस पर्व की तैयारी भी व्यापक रूप से की जा रही है। पर्व में प्रयुक्त होने वाले सामानों की अस्थाई दुकानें भी लग गई हैं। वहां खरीदने के लिए महिलाओं की भीड़ पहुंच रही है। सूप, दौरी, चलनी के अलावा मिट्टी के पात्रों की भी खूब खरीदारी की जा रही है। यह खरीदारी देर रात तक होती है, इसलिए शहर ही नहीं गांवों के बाजार तथा कस्बों में भी चहल-पहल बढ़ गई है।

इस दिन व्रतधारी दिनभर उपवास करते हैं और शाम में भगवान सूर्य को खीर-पूड़ी, पान-सुपारी और केले का भोग लगाने के बाद खुद खाते हैं. यह व्रत काफी कठिन होता है. पूरी पूजा के दौरान किसी भी तरह की आवाज नहीं होनी चाहिए. खासकर जब व्रती प्रसाद ग्रहण कर रही होती है और कोई आवाज हो जाती हो तो खाना वहीं छोड़ना पड़ता है और उसके बाद छठ के खत्म होने पर ही वह मुंह में कुछ डाल सकती है. इससे पहले एक खर यानी तिनका भी मुंह में नहीं डाल सकती इसलिए इसे खरना कहा जाता है. खरना के दिन खीर के प्रसाद का खास महत्व है और इसे तैयार करने का तरीका भी अलग है. मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर यह खीर तैयार की जाती है. प्रसाद बन जाने के बाद शाम को सूर्य की आराधना कर उन्हें भोग लगाया जाता है और फिर व्रतधारी प्रसाद ग्रहण करती है. इस पूरी प्रक्रिया में नियम का विशेष महत्व होता है. शाम में प्रसाद ग्रहण करने के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कहीं से कोई आवाज नहीं आए. ऐसा होने पर खाना छोड़कर उठना पड़ता है.
छठ, सूर्य की आराधना का पर्व है। वैदिक ग्रन्थ में सूर्य को देवता मानकर विशेष स्थान दिया गया है। प्रात: काल में सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण का नमन किया जाता है। सूर्य की उपासना भारतीय समाज में ऋग्वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य की उपासना के महत्व को विष्णु,भागवत और ब्र±ा पुराण में बताया गया है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार षष्ठी को एक विशेष खौगोलीय घटना होती है। इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती है। इसके संभावित कुप्रभाव से रक्षा करने का सामथ्र्य पूजा पाठ में होता है।
छठ पर्व की शुरूवात को लेकर अनेक कथानक हैं। आध्यात्मिक कथा के अनुसार ब्रह्मा की मानस पुत्री प्रकृति देवी की आराधना कर संतान की रक्षा की कामना की जाती है। कार्तिक मास की षष्ठी व स#मी को वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। उनकी आराधना के लिए शाम को अस्त और सुबह उदय होते सूर्य को अघ्र्य देकर कामना की जाती है। यह भी कहा जाता है कि राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी को कोई संतान नहीं थी। इससे राजा व्यथित होकर खुदकुशी करने जा रहा था। तभी षष्ठी देवी प्रकट हुई। उन्होेंने राजा से संतान सुख के लिए षष्ठी देवी की पूजा करने के लिए कहा। राजा ने देवी की आज्ञा मानकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को षष्ठी देवी की पूजा थी। प्रियव्रत को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तब से छठ व्रत का अनुष्ठान चला आ रहा है। एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम 14 साल का वनवास खत्म होने पर अयोध्या लौट आए।
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा की। तब से जनमानस में ये पर्व मान्य हो गया।

Friday, 24 October 2014

सबका लेखा-जोखा भगवान चित्रगुप्त के पास

भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त और यमराज की मूर्ति स्थापित करके अथवा उनकी तस्वीर रखकर श्रद्धा पूर्वक सभी प्रकार से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं भांति भांति के पकवान, मिष्टान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा करें। और फिर जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए इनसे क्षमा याचना करें। यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है।
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है क्योकि यही विधि का विधान है। विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा। चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है। मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता। लेकिन जैसा कि हमारे वेदों एवं पुराणों में लिखा और ऋषि मुनियों ने कहा है उसके अनुसार इस मृत्युलोक के उपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है।

इस दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी ऊपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है। जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है। जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
जो जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है। मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं। इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है।
यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है। कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले भगवान हैं चित्रगुप्त। यही भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है तो उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं।

भाई बहन के प्यार का दिन

त्योहारों के इस मौसम में हर जगह उत्साह का माहौल है. बाजारों में भीड़ उमड़ी हुई है, वहीं घरों में भी खुशी का माहौल है. दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा के बाद बहनों को अब शनिवार को मनाए जाने वाले भैयादूज का इंतजार है. इसी दिन चित्रगुप्त पूजा का आयोजन भी होता है. कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को भ्रातृद्वितीया या यमद्वितीया के रूप में मनाने की परंपरा है. इसे भाईदूज भी कहा जाता है.इस दिन यमुना में स्नान, दीपदान आदि का महत्व है. इस दिन बहनें, भाइयों के दीर्घजीवन के लिए यम की पूजा करती हैं और व्रत रखती हैं. कहा जाता है कि जो भाई इस दिन अपनी बहन से स्नेह और प्रसन्नता से मिलता है, उसके घर भोजन करता है, उसे यम के भय से मुक्ति मिलती है. भाइयों का बहन के घर भोजन करने का बहुत महात्म्य है.

भाईदूज में हर बहन रोली और अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्‍जवल भविष्य के लिए आशीष देती हैं. भाई अपनी बहन को कुछ उपहार या दक्षिणा देता है. भाईदूज दिवाली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है और बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं.

इस त्योहार के पीछे एक किवदंती यह है कि यम देवता ने अपनी बहन यमी (यमुना) को इसी दिन दर्शन दिए थे. वह बहुत समय से उससे मिलने के लिए व्याकुल थी. अपने घर में भाई यम के आगमन पर यमुना ने प्रफुल्लित मन से उसकी आवभगत की. यम ने प्रसन्न होकर वरदान दिया कि इस दिन यदि जो भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी. इसी कारण इस दिन यमुना नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है.

इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी बहन के घर जाए. तभी से भाईदूज मनाने की प्रथा चली आ रही है. जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं और उनसे टीका कराकर उपहार देते हैं. बहनें पीढ़ी पर चावल के घोल से अल्पना बनाती हैं. उस पर भाई को बैठाकर बहनें उसके हाथों की पूजा करती हैं.

Wednesday, 22 October 2014

खुशहाली लाए दिवाली


त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।
दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है। दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चैदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है। तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।
दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चैथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति। भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं।ख्1, माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चैदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे।ख्2, अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ सुथरा का सजाते हैं। बाजारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाजार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नजर आते हैं।
दीपावली पर लक्ष्मीजी का पूजन घरों में ही नहीं, दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में भी किया जाता है। कर्मचारियों को पूजन के बाद मिठाई, बर्तन और रुपये आदि भी दिए जाते हैं। दीपावली पर कहीं-कहीं जुआ भी खेला जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर के भाग्य की परीक्षा करना है।
एक बार सनत्कुमारजी ने सभी महर्षि-मुनियों से कहा- श्महानुभाव! कार्तिक की अमावस्या को प्रातरूकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सन्ध्या समय विधिपूर्वक लक्ष्मीजी का मण्डप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वज और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए। अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी जी का षोडशोपचार पूजन तथा पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए। मुनिश्वरों ने पूछा- लक्ष्मी-पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?
इस सनत्कुमारजी बोले -श्लक्ष्मीजी समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा बलि के यहाँ बंधक थीं। आज ही के दिन भगवान विष्णु ने उन सबको बंधनमुक्त किया था। बंधनमुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मी जी के साथ जाकर क्षीर-सागर में सो गए थे। इसलिए अब हमें अपने-अपने घरों में उनके शयन का ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि वे क्षीरसागर की ओर न जाकर स्वच्छ स्थान और कोमल शैय्या पाकर यहीं विश्राम करें। जो लोग लक्ष्मी जी के स्वागत की उत्साहपूर्वक तैयारियां करते हैं, उनको छोड़कर वे कहीं भी नहीं जातीं। रात्रि के समय लक्ष्मीजी का आह्वान करके उनका विधिपूर्वक पूजन करके नाना प्रकार के मिष्ठान्न का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए। दीपक जलाने चाहिए। दीपकों को सर्वानिष्ट निवृत्ति हेतु अपने मस्तक पर घुमाकर चैराहे या श्मशान में रखना चाहिए।

इस दिन धन के देवता कुबेरजी, विघ्नविनाशक गणेशजी, राज्य सुख के दाता इन्द्रदेव, समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान तथा बुद्धि की दाता सरस्वती जी की भी लक्ष्मी के साथ पूजा करें।
इस प्रथा के साथ भगवान शंकर तथा पार्वती के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे। जहां तक धार्मिक दृष्टि का प्रश्न है, आज पूरे दिन व्रत रखना चाहिए और मध्यरात्रि में लक्ष्मी-पूजन के बाद ही भोजन करना चाहिए। जहां तक व्यवहारिकता का प्रश्न है, तीन देवी-देवों महालक्ष्मी, गणेशजी और सरस्वतीजी के संयुक्त पूजन के बावजूद इस पूजा में त्योहार का उल्लास ही अधिक रहता है। इस दिन प्रदोष काल में पूजन करके जो स्त्री-पुरुष भोजन करते हैं, उनके नेत्र वर्ष भर निर्मल रहते हैं। इसी रात को ऐन्द्रजालिक तथा अन्य तंत्र-मन्त्र वेत्ता श्मशान में मन्त्रों को जगाकर सुदृढ़ करते हैं। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंग पर सुख से सोते हैं और लक्ष्मी जी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं। इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं।
लक्ष्मी जी के पूजन के लिए घर की साफ-सफाई करके दीवार को गेरू से पोतकर लक्ष्मी जी का चित्र बनाया जाता है। लक्ष्मीजी का चित्र भी लगाया जा सकता है।
संध्या के समय भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, केला, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ होनी चाहिए। लक्ष्मी जी के चित्र के सामने एक चैकी रखकर उस पर मौली बांधनी चाहिए।
इस पर गणेश जी की व लक्ष्मी जी की मिट्टी या चांदी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए तथा उन्हें तिलक करना चाहिए। चैकी पर छरू चैमुखे व 26 छोटे दीपक रखने चाहिए और तेल-बत्ती डालकर जलाना चाहिए। फिर जल, मौली, चावल, फल, गुड़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करना चाहिए।
पूजा पहले पुरुष करें, बाद में स्त्रियां। पूजन करने के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें। एक छोटा तथा एक चैमुखा दीपक रखकर लक्ष्मीजी का पूजन करें।
इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेश जी तथा लक्ष्मी जी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें।
अपने व्यापार के स्थान पर बहीखातों की पूजा करें। इसके बाद जितनी श्रद्धा हो घर की बहू-बेटियों को रुपये दें।
लक्ष्मी पूजन रात के समय बारह बजे करना चाहिए।
दुकान की गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए।
रात को बारह बजे दीपावली पूजन के बाद चूने या गेरू में रूई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल-बट्टा तथा सूप पर तिलक करना चाहिए।
रात्रि की ब्रह्मबेला अर्थात प्रातरूकाल चार बजे उठकर स्त्रियां पुराने सूप में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाती हैं तथा सूप पीटकर दरिद्रता भगाती हैं।
सूप पीटने का तात्पर्य है- श्आज से लक्ष्मीजी का वास हो गया। दुख दरिद्रता का सर्वनाश हो।श् फिर घर आकर स्त्रियां कहती हैं- इस घर से दरिद्र चला गया है। हे लक्ष्मी जी! आप निर्भय होकर यहाँ निवास करिए।

पाप और नर्क से मुक्ति का दिन


नरक चतुर्दशी कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को कहा जाता है। इस चतुर्दशी को नरक चैदस, रूप चैदस, रूप चतुर्दशी, नर्क चतुर्दशी या नरका पूजा के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा का विधान है। नरक चतुर्दशी को छोटी दीपावली भी कहते हैं। दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी के दिन संध्या के पश्चात दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं।
इस रात दीये जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष्य में दीयों की बारात सजाई जाती है।
इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक दूसरी कथा यह है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है।
 यह सुनकर यमदूत ने कहा कि हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक बार एक ब्राह्मण भूखा लौट गया था,यह उसी पापकर्म का फल है। इसके बाद राजा ने यमदूत से एक वर्ष समय मांगा। तब यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचे और उन्हें अपनी सारी कहानी सुनाकर उनसे इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय पूछा। तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया।
इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।