इंदिरा गांधी को बीसवीं सदी की विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में गिना जाता है. एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश और देशवासियों को गर्व के कई मौके उपलब्ध कराये. उन्होंने भारत-निर्माण में अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत को बहुत अच्छी तरह से आगे बढ़ाने का काम किया. इंदिरा गांधी के समय में ही भारत में ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ. प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के मौजूदा नजरिये से देखें, तो इस हरित क्रांति का बहुत महत्व है और यही वजह है कि हमारी पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश में फिर से हरित क्रांति की अलख जगाने की बात कर चुकी हैं.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का काफी प्रभाव था. लेकिन जवाहरलाल नेहरू को एक बहुत बड़ा एडवांटेज यह था कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के कारण वैश्विक स्तर पर उनका दबदबा था. विश्व के बड़े-बड़े राजेनता और बुद्धिजीवी उनका मान-सम्मान करते थे. जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के कारण इंदिरा गांधी को भी यह कुछ हद तक विरासत में मिला था. नेहरू जी विश्व राजनीति के बहुत बड़े जानकार थे. यहां तक कि वे जनसभाओं में भी विदेश नीति का जिक्र करते थे, कि इंडोनेशिया में ये हो रहा है या वियतनाम में ये हो रहा है. लेकिन, इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्व की स्थिति बखूबी समझा और उसके अनुरूप नीतियों को ढाला. इंदिरा गांधी भले ही अर्थशास्त्र की बड़ी जानकार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने अपने कॉमनसेंस का अच्छा इस्तेमाल किया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक साहसी और बड़ा कदम था. भारत को खाद्य पदार्थो के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति को देखें तो उन्होंने भारत-सोवियत मैत्री को आगे बढ़ाया और भारत के पक्ष में उसका इस्तेमाल किया. इस तरह हम कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने भारत की प्रतिनिधि के रूप में न केवल विश्व की स्थिति को बारीकी से समझा, बल्कि भारतीय विदेश नीति को देश और समय की जरूरतों के हिसाब से ढाला भी. लिंडन जॉन्सन का राष्ट्रपतिकाल हो या रिचर्ड निक्सन का, इंदिरा गांधी अमेरिका के दबाव में कभी नहीं आयीं और उसके खिलाफ मजबूती से टिकी रहीं, जबकि भारत एक विकासशील देश था. परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में वोट न देकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक अलग पहचान बनायी. 1971 के बांग्लादेश युद्ध में मिली जीत में उनकी ऐतिहासिक और सराहनीय भूमिका थी. इसके बाद पाकिस्तान ने वैश्विक पटल, पर खासतौर पर इसलामिक देशों में, भारत के खिलाफ जो घेराबंदी की, उसका उन्होंने बखूबी सामना किया. सोवियत संघ के साथ मित्रता संधि उनकी कूटनीतिक होशियारी की मिसाल है.
विश्व राजनीति के मंच पर भारत को मजबूत करने में इंदिरा गांधी की ऐसी और भी कई उपलब्धियां हैं, जिनकी वजह से भारत का एक अलग और स्वतंत्र अस्तित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बना. इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन की चर्चा भी करनी होगी. जवाहर लाल नेहरू गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बहुत बड़े लीडर थे, पर धीरे-धीरे ऐसे हालात बने कि यह आंदोलन कमजोर पड़ता गया. इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को फिर से मजबूत किया. दो ध्रुवों के टकराव के दौर, जिसे ‘कोल्डवार एरा’ कहते हैं, में उन्होंने अफ्रीका और एशिया के बीच में एक स्पेशल ग्रुप बनाया. वह एक हद तक समाजवादी सोवियत संघ की ओर झुकी रहीं, लेकिन साथ ही भारत के अमेरिका के साथ कामकाजी रिश्ते भी बने रहे. इस तरह वे एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री साबित हुईं.विदेश नीति को लेकर भारत में हमेशा से ही राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति रही है कि मिल कर काम करना चाहिए. यही कारण है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में सार्क सम्मेलन का सूत्रपात हुआ. हालांकि, उस वक्त वे सोवियत संघ के करीब थीं, लेकिन अपनी विदेश नीति में उन्होंने उसे हावी नहीं होने दिया. सोवियत संघ के घटनाचक्रों का भारत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ और वे सोवियत संघ के साथ मैत्री बनाये रखने के साथ ही अमेरिका से निडर भी होती चली गयीं. विदेश नीतियों के मामले में इंदिरा अपने पिता पंडित नेहरू की विदेश नीतियों के बेहद करीब तक जाती हैं.
भारत में सबसे पहले परमाणु परीक्षण का श्रेय भी उनके कार्यकाल को ही जाता है. 1974 में पहली बार इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही परमाणु परीक्षण हुआ और आधुनिक भारत के निर्माण के रूप में यह एक ऐसी परिघटना के रूप में दर्ज है, जिसने सामरिक रूप से हिंदुस्तान को एक नया आयाम दिया.उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू उनको राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित कर रहे थे और यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू की बहुत सी नीतियों को आगे बढ़ाया और उन्हें प्राथमिकता दी. गुट निरपेक्ष आंदोलन (नॉन-एलायंस मूवमेंट) उनमें से एक है. अपनी मृत्यु से एक-डेढ़ साल पहले, 1983 में इंदिरा गांधी ने एक बड़े ‘नॉन एलायंस समिट’ का आयोजन कर यह जता दिया था कि पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना है, बल्कि इसे और भी आगे ले जाना है. यह उनकी सशक्त छवि का ही परिचायक माना जा सकता है.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का काफी प्रभाव था. लेकिन जवाहरलाल नेहरू को एक बहुत बड़ा एडवांटेज यह था कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के कारण वैश्विक स्तर पर उनका दबदबा था. विश्व के बड़े-बड़े राजेनता और बुद्धिजीवी उनका मान-सम्मान करते थे. जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के कारण इंदिरा गांधी को भी यह कुछ हद तक विरासत में मिला था. नेहरू जी विश्व राजनीति के बहुत बड़े जानकार थे. यहां तक कि वे जनसभाओं में भी विदेश नीति का जिक्र करते थे, कि इंडोनेशिया में ये हो रहा है या वियतनाम में ये हो रहा है. लेकिन, इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्व की स्थिति बखूबी समझा और उसके अनुरूप नीतियों को ढाला. इंदिरा गांधी भले ही अर्थशास्त्र की बड़ी जानकार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने अपने कॉमनसेंस का अच्छा इस्तेमाल किया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक साहसी और बड़ा कदम था. भारत को खाद्य पदार्थो के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति को देखें तो उन्होंने भारत-सोवियत मैत्री को आगे बढ़ाया और भारत के पक्ष में उसका इस्तेमाल किया. इस तरह हम कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने भारत की प्रतिनिधि के रूप में न केवल विश्व की स्थिति को बारीकी से समझा, बल्कि भारतीय विदेश नीति को देश और समय की जरूरतों के हिसाब से ढाला भी. लिंडन जॉन्सन का राष्ट्रपतिकाल हो या रिचर्ड निक्सन का, इंदिरा गांधी अमेरिका के दबाव में कभी नहीं आयीं और उसके खिलाफ मजबूती से टिकी रहीं, जबकि भारत एक विकासशील देश था. परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में वोट न देकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक अलग पहचान बनायी. 1971 के बांग्लादेश युद्ध में मिली जीत में उनकी ऐतिहासिक और सराहनीय भूमिका थी. इसके बाद पाकिस्तान ने वैश्विक पटल, पर खासतौर पर इसलामिक देशों में, भारत के खिलाफ जो घेराबंदी की, उसका उन्होंने बखूबी सामना किया. सोवियत संघ के साथ मित्रता संधि उनकी कूटनीतिक होशियारी की मिसाल है.
विश्व राजनीति के मंच पर भारत को मजबूत करने में इंदिरा गांधी की ऐसी और भी कई उपलब्धियां हैं, जिनकी वजह से भारत का एक अलग और स्वतंत्र अस्तित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बना. इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन की चर्चा भी करनी होगी. जवाहर लाल नेहरू गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बहुत बड़े लीडर थे, पर धीरे-धीरे ऐसे हालात बने कि यह आंदोलन कमजोर पड़ता गया. इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को फिर से मजबूत किया. दो ध्रुवों के टकराव के दौर, जिसे ‘कोल्डवार एरा’ कहते हैं, में उन्होंने अफ्रीका और एशिया के बीच में एक स्पेशल ग्रुप बनाया. वह एक हद तक समाजवादी सोवियत संघ की ओर झुकी रहीं, लेकिन साथ ही भारत के अमेरिका के साथ कामकाजी रिश्ते भी बने रहे. इस तरह वे एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री साबित हुईं.विदेश नीति को लेकर भारत में हमेशा से ही राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति रही है कि मिल कर काम करना चाहिए. यही कारण है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में सार्क सम्मेलन का सूत्रपात हुआ. हालांकि, उस वक्त वे सोवियत संघ के करीब थीं, लेकिन अपनी विदेश नीति में उन्होंने उसे हावी नहीं होने दिया. सोवियत संघ के घटनाचक्रों का भारत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ और वे सोवियत संघ के साथ मैत्री बनाये रखने के साथ ही अमेरिका से निडर भी होती चली गयीं. विदेश नीतियों के मामले में इंदिरा अपने पिता पंडित नेहरू की विदेश नीतियों के बेहद करीब तक जाती हैं.
भारत में सबसे पहले परमाणु परीक्षण का श्रेय भी उनके कार्यकाल को ही जाता है. 1974 में पहली बार इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही परमाणु परीक्षण हुआ और आधुनिक भारत के निर्माण के रूप में यह एक ऐसी परिघटना के रूप में दर्ज है, जिसने सामरिक रूप से हिंदुस्तान को एक नया आयाम दिया.उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू उनको राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित कर रहे थे और यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू की बहुत सी नीतियों को आगे बढ़ाया और उन्हें प्राथमिकता दी. गुट निरपेक्ष आंदोलन (नॉन-एलायंस मूवमेंट) उनमें से एक है. अपनी मृत्यु से एक-डेढ़ साल पहले, 1983 में इंदिरा गांधी ने एक बड़े ‘नॉन एलायंस समिट’ का आयोजन कर यह जता दिया था कि पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना है, बल्कि इसे और भी आगे ले जाना है. यह उनकी सशक्त छवि का ही परिचायक माना जा सकता है.
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