नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो ख़ास परियोजनाओं के लिए क़ानून को आसान बनाते हैं। मोदी सरकार का कहना है कि इससे देश भर में जो अरबों डॉलर की परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं, उन्हें शुरू किया जा सकेगा। आख़िर क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक, ये क्यों बनाया गया और इसका क्यों इतना अधिक विरोध हो रहा है?
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया। इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे। नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था। इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ। इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए। कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का। और इस तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन एक राष्ट्रव्यापी घटना बन गई है।
बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया। यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया। नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी। इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है। ऐतिहासिक नाइंसाफ़ियों के रिकॉर्ड को देखें तो इसका जवाब 'हां' है, ख़ासकर ग्रामीण भारत में हाशिए की आबादी के लिहाज से। लेकिन ज़मीन की क़ीमत को देखते हुए इस विरोध को उचित नहीं ठहराया जा सकता है,। खासकर शहरी क्षेत्र के नज़दीक जो ज़मीनें हैं, वहां क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन इलाक़ों में ज़मीन मालिकों के लिए बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाली हैं। इसके अलावा, इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके।
भारत में भूमि आधी से ज़्यादा आबादी के लिए रोज़ी रोटी का प्रमुख साधन है। एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब और भी घट गई है। केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है। इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है। देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है। इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है। ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है। उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं। पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए। आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली।
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है। इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिली। कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला। ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया। ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था। इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ। ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए। इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया।
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया। कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ। आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था। इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया।
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया। इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे। नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था। इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ। इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए। कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का। और इस तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन एक राष्ट्रव्यापी घटना बन गई है।
बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया। यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया। नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी। इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है। ऐतिहासिक नाइंसाफ़ियों के रिकॉर्ड को देखें तो इसका जवाब 'हां' है, ख़ासकर ग्रामीण भारत में हाशिए की आबादी के लिहाज से। लेकिन ज़मीन की क़ीमत को देखते हुए इस विरोध को उचित नहीं ठहराया जा सकता है,। खासकर शहरी क्षेत्र के नज़दीक जो ज़मीनें हैं, वहां क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन इलाक़ों में ज़मीन मालिकों के लिए बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाली हैं। इसके अलावा, इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके।
भारत में भूमि आधी से ज़्यादा आबादी के लिए रोज़ी रोटी का प्रमुख साधन है। एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब और भी घट गई है। केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है। इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है। देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है। इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है। ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है। उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं। पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए। आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली।
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है। इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिली। कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला। ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया। ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था। इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ। ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए। इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया।
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया। कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ। आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था। इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया।
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