ब्रिटिश फिल्म निर्माता ने वृत्तचित्र में निर्भया कांड के दोषी का पक्ष इस तरह से रखा है कि मानो वह बेकसूर हो। वृत्तचित्र से बलात्कार जैसे घृणित अपराध को बढ़ावा मिलेगा, लिहाजा इसके प्रसारण पर पाबंदी लगाई जाए। यहां तक कि कुछ सांसदों ने इस संवेदनशील मसले पर भी सियासत करने की गुंजाइश निकाल ली और इसे केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार से जोड़ दिया। उनका कहना था कि बलात्कारी से इंटरव्यू लेने की अनुमति सरकारी आदेश से हुई है और इस बात की ‘व्यापक’ जांच होनी चाहिए। जांच के बाद जो भी दोषी निकले, उस पर सरकार कार्रवाई करे। एक तरफ वृत्तचित्र के खिलाफ यह विरोधी आवाजें है, जो इसे देखे बिना फिल्म पर पाबंदी लगाने के हक में हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक ऐसा भी बड़ा तबका है, जो इस पूरी कवायद को बेफिजूल मानता है। इस तबके का मानना है वृत्तचित्र, बलात्कार को जायज नहीं ठहराता बल्कि अपराधी और दीगर लोगों की वास्तविक मानसिकता को उजागर करता है। फिल्म में कुछ भी आपतिजनक नहीं है।
बीबीसी के ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ नाम के वृत्तचित्र पर आज पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। इस पूरे मामले में हमारी सरकार, पुलिस, मीडिया और अदालत एक साथ सक्रिय हो गई हैं। वृत्तचित्र के कुछ चुनिंदा हिस्से सार्वजनिक होने पर संसद में भी हंगामा हुआ। हालांकि इस मामले में संसद भी दो हिस्सों में बंटी रही। सरकार और आधे सांसद ये मानते हैं कि वृत्तचित्र भारत की प्रतिष्ठा पर आघात लगाने की कोशिश है। निर्भया गैंगरेप के दोषियों का इंटरव्यू पर आज भले ही बवाल मच रहा हो, अदालत ने भी चाहे इस पर सवाल उठाए हों, लेकिन आज से तीन दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक दुष्कर्म और हत्या के मिलते-जुलते मामले में, अपराध के दोषियों रंगा-बिल्ला का प्रेस को इंटरव्यू करने की इजाजत दे दी थी। जबकि मौत की सजा पाए इन दोनों दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति तक ठुकरा चुके थे। रंगा-बिल्ला के इंटरव्यू की यह इजाजत, कोर्ट ने प्रेस को इंटरव्यू पर रोक संबंधी कोई स्पष्ट नियम न होने की वजह से दी थी। तत्कालीन मुख्स न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़, एपी सेन और बहारुल इस्लाम की संयुक्त पीठ ने उस वक्त अपने फैसले में कहा था कि जेल मैन्युअल के नियम 549 (4) के तहत कहा गया है कि मौत की सजा पाया दोषी अपने परिजनों, रिश्तेदारों, मित्रों और कानूनी सलाहकार से मिल सकता है। इस नियम में पत्रकारों को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें बिना किसी ठोस कारण के इंटरव्यू से वंचित किया जा सकता है। यदि इसकी मनाही होती है तो अधीक्षक को उसके लिखित कारण देने होंगे। बहरहाल ‘इंडियाज डॉटर’ वृत्तचित्र के लिए बीबीसी ने जब उस शख्स का इंटरव्यू लिया था, तब सामूहिक बलात्कार और हत्या के इस मामले में अदालत का फैसला नहीं आया था। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय इस मामले से जुड़े सभी वयस्क आरोपियों को मौत की सजा सुना चुका है। लिहाजा इस पर कोई भी विवाद बेफिजूल है। इन सब विवादों में पड़ने की बजाय सरकार की कोशिश यह होनी चाहिए कि कैसे बलात्कार जैसे घृणित अपराध को काबू में लाया जाए।
गौरतलब है कि वृत्तचित्र ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ सोलह दिसंबर, 2012 की रात को दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा से चलती बस में हुए बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना पर केन्द्रित है। फिल्म में पीडि़ता के परिवार के सदस्यों, बलात्कारियों और बचाव पक्ष के वकीलों की विस्तृत फुटेज, और साक्षात्कारों को शामिल किया गया है। वृत्तचित्र का मकसद बलात्कार जैसे घृणित अपराध और अपराधियों की मानसिकता को लोगों के सामने लाना है। डाॅक्युमेंट्री की फिल्मकार लेस्ली उडविन अपने इस मकसद में कामयाब भी हुई हैं। डाॅक्युमेंट्री में निर्भया कांड के एक गुनहगार ने बड़े ही बेशर्मी से बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराया है। साक्षात्कार के दौरान उसने कहा, वे रात में क्यों निकलती हैं ? ऐसे-वैसे कपड़े क्यों पहनती हैं ? यानी इस वीभत्स घटना को हुए इतने दिन बीत गए, लेकिन अपराधी को अपने किए का जरा सा भी अफसोस नहीं। उलटे वह लड़कियों को ही बलात्कार के लिए दोषी ठहरा रहा है। यहां तक कि अपराधियों के वकील ने भी महिलाओं के खिलाफ ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणियां की हैं।
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