श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी। सरोजिनी नायडू सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत 'पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया। डॉ. एम. गोविंद राजलु नायडू से सरोजिनी नायडू का विवाह हुआ। सरोजिनी नायडू ने राजनीति और गृह प्रबंधन में संतुलन रखा।
देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।
सरोजिनी नायडू की राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही 'महिला स्वशक्तिकरण आन्दोलन' शुरू हो गया था। इस समय सरोजिनी नायडू हाथ में स्वतंत्रता संग्राम का झंड़ा उठाकर देश के लिए मर मिटने निकल पड़ी थीं और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी की प्रमुख बन महिला सशक्तिकरण को बल दिया।
सरोजिनी नायडू और महात्मा गांधी
1902 में कोलकाता (कलकत्ता) में उन्होंने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया जिससे गोपालकृष्ण गोखले बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी जी का राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन किया। इस घटना के बाद सरोजिनी जी को महात्मा गांधी का सानिध्य मिला। गांधी जी से उनकी मुलाकात कई वर्षों के बाद सन् 1914 में लंदन में हुई। गांधी जी के साथ रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गयी। वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थीं। उनकी सक्रियता के कारण देश की असंख्य महिलाओं में आत्मविश्वास लौट आया और उन्होंने भी स्वाधीनता आंदोलन के साथ साथ समाज के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रियता से भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। गांधी जी से पहली बार मिलने के बाद सरोजिनी नायडू का ज़्यादातर वक़्त राजनीतिक कार्यों में ही बीतने लगा। समय बीतने के साथ, वह कांग्रेस की प्रवक्ता बन गई। आंधी की तरह वह देश भर में घूमतीं और स्वाधीनता का संदेश फैलातीं। जहाँ भी और जिस वक़्त भी उनकी ज़रूरत पड़ी, वह फौरन ही हाज़िर हो जातीं। राष्ट्रीय कांग्रेस की बहुत सी समितियों में उन्होंने काम किया और देश की राजनीतिक आज़ादी के बारे में बोलने का एक भी अवसर उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया। ऐसे ही जोश के साथ उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी ज़ोर दिया। शिक्षा के प्रचार को भी महत्त्व दिया। अपने श्रोताओं से उन्होंने अज्ञानता और अन्धविश्वास को दीवारों से निकल आने का अनुरोध किया। देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे खींचने वाली परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकने की उन्होंने ज़ोरदार अपील की।
कुछ ही समय में सरोजिनी नायडू एक राष्ट्रीय नेता बन गईं। वह 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक मानी जाने लगीं। सन् 1925 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गईं। तब तक वह गांधी जी के साथ दस वर्ष तक काम कर चुकी थीं और गहरा राजनीतिक अनुभव पा चुकी थीं। आज़ादी के पूर्व, भारत में कांग्रेस का अध्यक्ष होना बहुत बड़ा राष्ट्रीय सम्मान था और वह जब एक महिला को दिया गया तो उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, 'पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।'
सरोजिनी ने स्वयं अपने बारे में कहा-
'अपने विशिष्ट सेवकों में मुझे मुख्य स्थान के लिए चुनकर आप लोगों ने कोई नई मिसाल नहीं रखी है। आप तो केवल पुरानी परम्परा की ओर ही लौटे हैं और भारतीय नारी को फिर से उसके उस पुरातन स्थान में ला खड़ा किया है जहाँ वह कभी थी.....।'
अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, 'स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।' उनका यह भी मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया। भारत के इतिहास में वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख नायिका के रूप में जानीं गयीं। भय को वह देशद्रोह के समान ही मानती थीं।
सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। पंजाब में सन् 1919 में जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर जनरल डायर के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी रॉलेट एक्ट के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। अहमदाबाद में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं। गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।
वास्तव में सन् 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयं सेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखतें हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् 1935 के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, कांग्रेस, देश की प्रांतीय विधानसभाओं में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।
स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, 'मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।' लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल न सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम व स्नेह था। इसलिए वह लखनऊ में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।
Very nice
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