Saturday, 28 March 2015

'भारत रत्न' हुए अटल बिहारी वाजपेयी


 भारत रत्न का सम्मान राष्ट्रपति भवन में दिए जाने की परंपरा है, लेकिन बीमारी के चलते राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने प्रोटोकॉल से हटकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को  कृष्ण मेनन मार्ग स्थित उनके घर पर भारत रत्न से सम्मानित किया। करिश्माई नेता, ओजस्वी वक्ता और प्रखर कवि के रुप में प्रख्यात वाजपेयी को साहसिक पहल के लिए भी जाना जाता है, जिसमें प्रधानमंत्री के रुप में उनकी 1999 की ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा शामिल है, जब पाकिस्तान जाकर उन्होंने वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ लाहौर घोषणा पर हस्ताक्षर किए। 1998 से 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी बीमारी के चलते काफी समय से सार्वजनिक जीवन से दूर हैं। इस ऐतिहासिक मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी व अन्य नेता भी मौजूद थे। इस मौके पर वाजपेयी का एक फोटो भी जारी किया गया। कई साल बाद वाजपेयी का कोई फोटो नजर आया है।
ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को जन्मे वाजपेयी पहले जनसंघ फिर बीजेपी के संस्थापक अध्यक्ष रहे। 955 में उन्होंने जनसंघ के टिकिट पर पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए। 1957 में जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। इनमें से बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से चुनाव जीतकर वह पहली बार लोकसभा पहुंचे। 1977 में केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। वाजपेयी उस सरकार में विदेश मंत्री बनाए गए। इस दौरान उन्होंने संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया। ऐसा करने वाले वह देश के पहले नेता थे।वाजपेयी अपना कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं। 1998 में वे देश के दसवें प्रधानमंत्री बने।वाजपेयी ने 2005 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था। वाजपेयी की सेहत काफी समय खराब चल रही है।
वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ कवि भी हैं। 'मेरी इक्यावन कविताएं' अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। जगजीत सिंह के साथ उन्होंने दो एलबम 'नई दिशा' (1999) और 'संवेदना' (2002) भी रिलीस कीं। वाजपेयी लंबे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर-अर्जुन आदि पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे।
तीन बार प्रधानमंत्री रहे वाजपेयी देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री बने, जिनका कांग्रेस से कभी नाता नहीं रहा। साथ ही वह कांग्रेस के अलावा के किसी अन्य दल के ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरे से जुडे होने के बावजूद वाजपेयी की एक धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी छवि है। उनकी लोकप्रियता भी दलगत सीमाओं से परे है। पहले 13 दिन तक, फिर 13 महीने और फिर पूरे पांच साल तक। वाजपेयी इकलौते नेता थे, जो जब बोलना शुरू करते थे तो सदन का हर सदस्य बिना शोर शराबे की उनकी बात सुनता था। उनकी भाषण कला के मुरीद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी रहे। वाजपेयी मंझे हुए राजनेता रहे तो कोमल हृदय कवि भी। तमाम मुद्दों पर उनकी कलम से निकली कविताएं सीधे लोगों के दिल तक पहुंची।
वाजपेयी और प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं स्वतंत्रता सेनानी महामना मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देने की घोषणा 24 दिसम्बर को की गई थी। इत्तेफाक की बात यह है कि वाजपेयी और मालवीय दोनों का जन्मदिन 25 दिसंबर है। वाजपेयी का जन्म इस तारीख को 1924 में और मालवीय का जन्म 1861 को हुआ था। महामना को मरणोपरांत इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। उनके परिजनों को 30 मार्च को राष्ट्रपति भवन में यह पुरस्कार दिया जाएगा। वाजपेयी और महामना इस पुरस्कार से नवाजे जाने वाली 44वीं व 45वीं हस्ती हैं।

Friday, 27 March 2015

अपनी मर्यादा को जानने का दिन

रामनवमी राजा दशरथ के पुत्र भगवान राम की स्‍मृति को समर्पित है। उसे "मर्यादा पुरूषोतम" कहा जाता है तथा वह सदाचार का प्रतीक है। यह त्‍यौहार शुक्‍ल पक्ष की 9वीं तिथि को राम के जन्‍म दिन की स्‍मृति में मनाया जाता है। त्रेतायुग में असुर रावण का नाश करने और धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए भगवान विष्णु ने मृत्यु लोक में श्री राम के रूप में राजा दशरथ के घर में श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। उसी दिन को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। मां दुर्गा के एक स्वरूप 'कात्यायनी' का जन्म भी महिसासुर के सर्वनाश के लिए हुआ था। रामनवमी के दिन मां दुर्गा नवरात्रों का समापन होता है। रामनवमी के दिन दुर्गा माता के सिद्धिदात्रि स्वरूप की पूजा-अर्चना की जाती है और दूसरी तरफ राम-जन्म की खुशियां मनाई जाती हैं।

भगवान राम को उनके सुख-समृद्धि पूर्ण व सदाचार युक्‍त शासन के लिए याद किया जाता है। उन्‍हें भगवान विष्‍णु का अवतार माना जाता है, जो पृथ्‍वी पर अजेय रावण (मनुष्‍य रूप में असुर राजा) से युद्ध लड़ने के लिए आए। राम राज्‍य (राम का शासन) शांति व समृद्धि की अवधि का पर्यायवाची बन गया है।
रामनवमी के दिन, श्रद्धालु बड़ी संख्‍या में मन्दिरों में जाते हैं और राम की प्रशंसा में भक्तिपूर्ण भजन गाते हैं तथा उसके जन्‍मोत्‍सव को मनाने के लिए उसकी मूर्तियों को पालने में झुलाते हैं। इस महान राजा की कहानी का वर्णन करने के लिए काव्‍य तुलसी रामायण से पाठ किया जाता है। भगवान राम का जन्‍म स्‍थान अयोध्‍या, रामनवमी त्‍यौहार के महान अनुष्‍ठान का केंद्र बिन्‍दु है। राम, उनकी पत्‍नी सीता, भाई लक्ष्‍मण व भक्‍त हनुमान की रथ यात्राएं बहुत से मंदिरों से निकाली जाती हैं।
हिंदू घरों में रामनवमी पूजा करके मनाई जाती है। पूजा के लिए आवश्‍यक वस्‍तुएं, रोली, ऐपन, चावल, जल, फूल, एक घंटी और एक शंख होते हैं। इसके बाद परिवार की सबसे छोटी महिला सदस्‍य परिवार के सभी सदस्‍यों को टीका लगाती है। पूजा में भाग लेने वाला प्रत्‍येक व्‍यक्ति के सभी सदस्‍यों को टीका लगाया जाता है। पूजा में भाग लेने वाला प्रत्‍येक व्‍यक्ति पहले देवताओं पर जल, रोली और ऐपन छिड़कता है, तथा इसके बाद मूर्तियों पर मुट्ठी भरके चावल छिड़कता है। तब प्रत्‍येक खड़ा होकर आ‍रती करता है तथा इसके अंत में गंगाजल अथवा सादा जल एकत्रित हुए सभी जनों पर छिड़का जाता है। पूरी पूजा के दौरान भजन गान चलता रहता है। अंत में पूजा के लिए एकत्रित सभी जनों को प्रसाद वितरित किया जाता है।

Tuesday, 24 March 2015

कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गई




जो कलम सरीखे टूट गये पर झुके नहीं, उनके आगे यह दुनिया शीश झुकाती है
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गई, वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है”


राष्ट्रवादी विचारधारा से लबरेज ये पंक्तियां सुकवि रामकृष्ण श्रीवास्तव ने उस दौर में लिखी थी जब हमारे देश के युवा ब्रिटिश साम्रायवाद के विरुध्द संघर्ष का शंखनाद कर रहे थे। ये पंक्तियां स्वराज के लिए अपना तन, मन, धन और जीवन समर्पित कर देने वाले अमर शहीद और कलम के धनी जनयोध्दा गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे जुझारू व्यक्तित्व की शान में ही लिखी गई थी। विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के जरिये स्वराज को जनांदोलन बना डाला और अपने जीवन में 5 बार जेलयात्रा करके भी ब्रिटिश सरकार के विरुध्द उनका जोश दिन ब दिन बढ़ता गया। हम दावे से ये कह सकते है कि गुलामी के जीवन से देशवासियों को मुक्ति दिलाकर जिन राष्ट्रनायकों ने स्वराज की कल्पना को साकार कर दिखाया उसके शिल्पी गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे ही अनेक वीर थे जिनके नाम की मिसाल भारत की आजादी के इतिहास में सदा सदा के लिए सुनहरे पृष्ठ पर अंकित हो गई है। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिक के घोर विरोधी थे और उन्होंने जीवनभर एकजुटता, कौमी एकता पर जोर दिया। भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद देश भर में जो साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए विद्यार्थी जी ने उन्हें रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी लेकिन दंगों को रोकने का प्रयास करते हुए वे कानपुर में राष्ट्रविरोधी ताकतों के शिकार बन गये। 25 मार्च 1931 को इस देशप्रेमी का देहान्त हो गया, लेकिन विद्यार्थी जी की जीवनगाथा आज भी देशप्रेमियों की राह रोशन करती दिखाई देती है। उनकी शहादत को हम सादर नमन करते है।
गणेशशंकर 'विद्यार्थी' का जन्म आश्विन शुक्ल 14, रविवार सं. 1947 (1890 ई.) को अपनी ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में श्रीवास्तव (दूसरे) कायस्थ परिवार में हुआ। इनके पिता मुंशी जयनारायण हथगाँव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। माता का नाम गोमती देवी था। पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। वहीं विद्यार्थी जी का बाल्यकाल बीता तथा शिक्षा-दीक्षा हुई। विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अँगरेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेज़ी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। लगभग एक वर्ष कालेज में पढ़ने के बाद 1908 ई. में कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. मासिक की नौकरी की। परंतु अंग्रेज अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण उसे छोड़कर पृथ्वीनाथ हाई स्कूल, कानपुर में 1910 ई. तक अध्यापकी की। इसी अवधि में सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में समय समय पर लेख लिख्ने लगे।
1911 में विद्यार्थी जी सरस्वती में पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद "सरस्वती" छोड़कर "अभ्युदय" में सहायक संपादक हुए। यहाँ सितंबर, 1913 तक रहे। दो ही महीने बाद 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। इसी समय से 'विद्यार्थी' जी का राजनीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ। पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद आप उनके अनन्य भक्त हो गए। श्रीमती एनीं बेसेंट के 'होमरूल' आंदोलन में विद्यार्थी जी ने बहुत लगन से काम किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के एक छात्र नेता हो गए। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर "प्रताप" में लेख लिखने के संबंध में ये 5 बार जेल गए और "प्रताप" से कई बार जमानत माँगी गई। कुछ ही वर्षों में वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्तप्रात) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गए। 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधान मंत्री हुए तथा 1930 ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुए। इसी नाते सन् 1930 ई. के सत्याग्रह आंदोलन के अपने प्रदेश के सर्वप्रथम "डिक्टेटर" नियुक्त हुए।

साप्ताहिक "प्रताप" के प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और "प्रभा" नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली। "प्रताप" किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा। उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष सतर्क रहते थे। "चिट्ठी पत्री" स्तंभ "प्रताप" की निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। ये "प्रताप" में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का इन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी ये प्रताप तथा अन्य पत्रों में लेख लिखा करते थे।
अपने जेल जीवन में इन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, "ला मिजरेबिल्स" तथा "नाइंटी थ्री" का अनुवाद किया। हिंदी साहित्य सम्मलेन के 19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए। विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी किंतु साथ ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त थे। वक्ता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे। यह स्वभाव के अत्यंत सरल, किंतु क्रोधी और हठी भी थे। कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में 25 मार्च 1931 ई. को इनकी हत्या हुई।

Sunday, 22 March 2015

है शहीदी दिवस, पर कायम है सवाल


शहीदे–आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव के बलिदान दिवस पर उन्हें याद करते हुए हमारे मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जिस सपने को लेकर हमारे क्रान्तिकारी पुरखों ने हँसते–हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया था, उसका क्या हुआ ? जो लोग इन शहीदों की याद में जलसे करने और उत्सव मनाने पर बेहिसाब पैसा फँूकते हैं, क्या उन लोगों को पता भी है कि हमारे शहीदों के विचार क्या थे, वे किस तरह का समाज बनाना चाहते थे और देश को किस दिशा में ले जाना चाहते थे ? उनके सपनों और विचारोंे को दरकिनार करके, उनके बलिदान दिवस का उत्सवधर्मी, खोखला और पाखण्डी आयोजन करना उन शहीदों का कैसा सम्मान है ?
सच तो यह है कि अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों के शरीर को ही फाँसी चढ़ायी थी, उनके विचारों को वे खत्म नहीं कर सकते थे और कर भी नहीं पाये । भगत सिंह ने कहा था कि––
हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली,
ये मुश्ते–खाक है फानी रहे, रहे न रहे ।
आजादी के बाद देशी शासक भी भगत सिंह के विचारों से उतना ही भयभीत थे जिम्मा अंग्रेज । उन्होंने इन विचारों को जनता से दूर रखने की भरपूर कोशिश की । लेकिन देश की जनता अपने गौरवशाली पुरखों को भला कैसे भूल सकती है । आज भी जन–जन के मन–मस्तिष्क में उन बलिदानियों की यादें जिन्दा हैं ।
आज 23 मार्च है. हमारे नौजवान और बच्चों से अगर ये पूछा जाये कि 23 मार्च का क्या महत्व है, तो अधिकाँश इस पर अपनी अनभिज्ञता जाहिर करेंगे. हो सकता है कि कुछ 23 मार्च को वर्ल्ड कप के नॉक आउट मुकाबलों का दौर शुरू होने के दिन के तौर पर याद करें. लेकिन आज का दिन समर्पित है उन महान स्वतन्त्रता सेनानियों को, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया. मैं बात कर रहा हूँ भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की जिनका आज शहीदी दिवस है.
बात आगे बढ़ाने से पहले सरदार भगत सिंह के जीवन को याद कर लें.
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में चक नंबर 105 (अब पाकिस्तान में) नामक जगह पर हुआ था। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए थे। भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरू के साथ मिलकर17 दिसम्बर 1928 लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को मारा था। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने नई दिल्ली की सेंट्रल एसेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को ‘अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए’ बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी। बाद में भगत सिंह कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बने । बाद मे वो अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियो के प्रतिनिधि बने। उनके दल मे प्रमुख क्रन्तिकारियो मे सुखदेव, राजगुरु थे। इन तीनों ने मिलकर अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया. घबराई सरकार ने इनको जेल में बंद कर दिया.
23 मार्च 1931 को भगत सिह तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई ।
फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे। जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया ।
तो ये थी हमारे इन महान स्वतन्त्रता सेनानियों के गौरवमयी जीवन गाथा। यह सत्य है कि आज के हालातों में यदि भगत सिंह जैसे कर्मठ और माटी के सपूत जीवित होते तो देश का इतना बुरा हाल नहीं होता। धन्य है भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव। भगत सिंह और उनके साथियों का हमारे लिए सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि वे महान क्रान्तिकारी और महान विचारक थे । हमारे देश, समाज और मेहनती गरीब जनता के लिए उन क्रान्तिकारियों के विचार आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासांगिक हैं । लेकिन अफसोस की बात यह है कि उनके विचारों के बारे में आज भी देश के अधिकांश लोगों को कुछ खास पता नहीं है । भगत सिंह को याद करने का सबसे सही तरीका यही हो सकता है कि उनके विचारों को जन–जन तक पहुँचाया जाय । साथ ही उनके विचारों को व्यवहार में उतारने के लिए एकजुट होना भी आज समय की माँग है । शहीदों के सपने को देश की बहुसंख्य जनता का सपना बनाना और उसे साकार करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है ।

Friday, 20 March 2015

महंगाई की मार, राहत के नहीं आसार

मौजूदा समय में दिल्ली के फुटकर बाजार में सब्जियां 2 गुनी तक महंगी बिक रही हैं। फलों के दाम में भी 60-70 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। चूंकि बारिश की आशंका अब भी बनी हुई है इसलिए सब्जियों के महंगे जायके के फिलहाल सस्ता होने के आसार नहीं हैं। पानी की कीमतें बढ़ाने का फैसला ठीक ऐसे समय किया गया है जब गर्मी शुरू होने वाली है। पानी की किल्लत सबसे ज्यादा इसी मौसम में महसूस की जाती है। शहर की सैकड़ों अनधिकृत कॉलोनियों में आज भी जल बोर्ड का पानी चार-पांच दिन के अंतराल पर टैंकरों से पहुंचता है। सत्ता में आने के बाद दिल्ली सरकार ने पेयजल के नेटवर्क को दुरुस्त करने की कोई ऐसी बड़ी कवायद भी नहीं की है जिसके दम पर उसके द्वारा कीमतों में बढ़ोतरी के निर्णय के औचित्य को सही करार दिया जा सके। यह उम्मीद करना भी बेमानी है कि इन गर्मियों में शहर के हर घर को पर्याप्त मात्रा में पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा। राजधानी में पेयजल की किल्लत के मद्देनजर इसकी बचत की दलीलें भी लगातार दी जाती रही हैं। इतना ही नहीं, यह बात पहले भी कही जाती रही कि ज्यादा पानी की खपत करने वालों से ज्यादा शुल्क वसूला जाए और कम खर्च करने वालों से कम शुल्क लिया जाए। लेकिन अब दिल्ली की हालत यह है कि एक ओर वे उपभोक्ता हैं जिन्हें पेयजल के बदले कोई कीमत नहीं चुकानी होगी और दूसरी ओर लाखों ऐसे उपभोक्ता हैं जिन्हें पानी के लिए अब पहले से भी ज्यादा रकम चुकानी होगी। यह स्थिति चिंतित करने वाली है।
दरअसल, मार्च के महीने में लगातार हो रही बारिश से सब्जियां खेतों में बर्बाद पड़ी हैं। बची-खुची सब्जियों को मार्केट तक पहुंचाने में भी खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। दिल्ली की बड़ी सब्जी मंडियों में सब्जियों की आवक में 65 फीसदी तक की कमी आई है। आम दिनों में ओखला मंडी में हर दिन 150 ट्रक तक आते थे, लेकिन बीच में ये आंकड़ा 15-20 ट्रक तक गिर गया। अब भी 35-40 ट्रक ही मंडी में आ रहे हैं। जो मांग और आपूर्ति में बड़े अंतर को दर्शाने के लिए काफी हैं। कुछ ऐसे ही हालात दिल्ली में सब्जियों की सबसे बड़ी मंडी आजादपुर सब्जी मंडी की है।
ओखला मंडी में सब्जियों के बड़े कारोबारी नवनीत सैनी बताते हैं कि बारिश से काफी फर्क पड़ा है। दिल्ली के आसपास के 200-300 किमी के दायरे से जो सब्जियां यहां आती थीं, वो लगभग 60-70% नष्ट हो चुकी हैं। बाहर से आने वाली सब्जियों के भाव बढ़ चले हैं। जौहरी लाल पवन कुमार नाम से फर्म चलाने वाले नवनीत सैनी ने कहा कि बारिश की वजह से हरी सब्जियां लगभग 1 माह तक लेट हो चुकी हैं। आलू-प्याज जैसी सब्जियों के दाम स्थिर हैं, लेकिन पालक, भिंडी, मटर जैसी हरी सब्जियां लगभग दो गुनी महंगी हो चली हैं।
दिल्ली में पानी की कीमतों में दस फीसद की वृद्धि किए जाने के फैसले से इस महानगर के लाखों लोगों पर महंगाई की मार पड़ेगी। यह सही है कि प्रतिमाह 20 हजार लीटर तक पानी खर्च करने वाले उपभोक्ता कीमतों में वृद्धि के दायरे से बाहर रहेंगे, इसके बावजूद बारह लाख से अधिक उपभोक्ताओं के पानी के बिल में बढ़ोतरी तय है। दिल्ली जल बोर्ड ने पानी की कीमतें कोई पहली बार नहीं बढ़ाई हैं। इससे पहले भी कीमतों में इजाफा हुआ है, लेकिन सूबे में आम आदमी पार्टी की हुकूमत कायम होने के बाद बोर्ड का फैसला चौंकाने वाला है। सस्ती बिजली और मुफ्त पानी देने का वादा कर दिल्ली के मतदाताओं के समक्ष गई आम आदमी पार्टी से तमाम लोगों ने यह आस लगाई थी कि उन्हें पानी नि:शुल्क मिलेगा। ठीक है कि सरकार ने 20 हजार लीटर तक खर्च करने वालों पर ही मेहरबानी दिखाई। उनको ही मुफ्त पानी देने का फैसला किया गया, लेकिन उससे अधिक पानी की खपत करने वालों ने भी कम से कम यह उम्मीद तो नहीं ही की होगी कि उन्हें मुफ्त की जगह पहले से भी ज्यादा महंगा पानी दिया जाएगा। 

Wednesday, 18 March 2015

किसके हित के लिए किया भूमि अधिग्रहण में बदलाव

नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो ख़ास परियोजनाओं के लिए क़ानून को आसान बनाते हैं। मोदी सरकार का कहना है कि इससे देश भर में जो अरबों डॉलर की परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं, उन्हें शुरू किया जा सकेगा। आख़िर क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक, ये क्यों बनाया गया और इसका क्यों इतना अधिक विरोध हो रहा है?
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया। इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे। नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था। इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ। इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए। कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का। और इस तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन एक राष्ट्रव्यापी घटना बन गई है।
बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया। यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया। नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी। इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है। ऐतिहासिक नाइंसाफ़ियों के रिकॉर्ड को देखें तो इसका जवाब 'हां' है, ख़ासकर ग्रामीण भारत में हाशिए की आबादी के लिहाज से। लेकिन ज़मीन की क़ीमत को देखते हुए इस विरोध को उचित नहीं ठहराया जा सकता है,। खासकर शहरी क्षेत्र के नज़दीक जो ज़मीनें हैं, वहां क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन इलाक़ों में ज़मीन मालिकों के लिए बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाली हैं। इसके अलावा, इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके।
भारत में भूमि आधी से ज़्यादा आबादी के लिए रोज़ी रोटी का प्रमुख साधन है। एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब और भी घट गई है। केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है। इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है। देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है। इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है। ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है। उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं। पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए। आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली।
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है। इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिली। कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला। ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया। ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था। इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ। ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए। इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया।
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया। कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ। आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था। इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया।

Monday, 16 March 2015

क्या पाबंदी लगने से समस्या का होगा हल



ब्रिटिश फिल्म निर्माता ने  वृत्तचित्र में निर्भया कांड के दोषी का पक्ष इस तरह से रखा है कि मानो वह बेकसूर हो। वृत्तचित्र से बलात्कार जैसे घृणित अपराध को बढ़ावा मिलेगा, लिहाजा इसके प्रसारण पर पाबंदी लगाई जाए। यहां तक कि कुछ सांसदों ने इस संवेदनशील मसले पर भी सियासत करने की गुंजाइश निकाल ली और इसे केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार से जोड़ दिया। उनका कहना था कि बलात्कारी से इंटरव्यू लेने की अनुमति सरकारी आदेश से हुई है और इस बात की ‘व्यापक’ जांच होनी चाहिए। जांच के बाद जो भी दोषी निकले, उस पर सरकार कार्रवाई करे। एक तरफ वृत्तचित्र के खिलाफ यह विरोधी आवाजें है, जो इसे देखे बिना फिल्म पर पाबंदी लगाने के हक में हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक ऐसा भी बड़ा तबका है, जो इस पूरी कवायद को बेफिजूल मानता है। इस तबके का मानना है वृत्तचित्र, बलात्कार को जायज नहीं ठहराता बल्कि अपराधी और दीगर लोगों की वास्तविक मानसिकता को उजागर करता है। फिल्म में कुछ भी आपतिजनक नहीं है।
बीबीसी के ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ नाम के वृत्तचित्र पर आज पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। इस पूरे मामले में हमारी सरकार, पुलिस, मीडिया और अदालत एक साथ सक्रिय हो गई हैं। वृत्तचित्र के कुछ चुनिंदा हिस्से सार्वजनिक होने पर संसद में भी हंगामा हुआ। हालांकि इस मामले में संसद भी दो हिस्सों में बंटी रही। सरकार और आधे सांसद ये मानते हैं कि वृत्तचित्र भारत की प्रतिष्ठा पर आघात लगाने की कोशिश है। निर्भया गैंगरेप के दोषियों का इंटरव्यू पर आज भले ही बवाल मच रहा हो, अदालत ने भी चाहे इस पर सवाल उठाए हों, लेकिन आज से तीन दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक दुष्कर्म और हत्या के मिलते-जुलते मामले में, अपराध के दोषियों रंगा-बिल्ला का प्रेस को इंटरव्यू करने की इजाजत दे दी थी। जबकि मौत की सजा पाए इन दोनों दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति तक ठुकरा चुके थे। रंगा-बिल्ला के इंटरव्यू की यह इजाजत,   कोर्ट ने प्रेस को इंटरव्यू पर रोक संबंधी कोई स्पष्ट नियम न होने की वजह से दी थी। तत्कालीन मुख्स न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़, एपी सेन और बहारुल इस्लाम की संयुक्त पीठ ने उस वक्त अपने फैसले में कहा था कि जेल मैन्युअल के नियम 549 (4) के तहत कहा गया है कि मौत की सजा पाया दोषी अपने परिजनों, रिश्तेदारों, मित्रों और कानूनी सलाहकार से मिल सकता है। इस नियम में पत्रकारों को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें बिना किसी ठोस कारण के इंटरव्यू से वंचित किया जा सकता है। यदि इसकी मनाही होती है तो अधीक्षक को उसके लिखित कारण देने होंगे। बहरहाल ‘इंडियाज डॉटर’ वृत्तचित्र के लिए बीबीसी ने जब उस शख्स का इंटरव्यू लिया था, तब सामूहिक बलात्कार और हत्या के इस मामले में अदालत का फैसला नहीं आया था। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय इस मामले से जुड़े सभी वयस्क आरोपियों को मौत की सजा सुना चुका है। लिहाजा इस पर कोई भी विवाद बेफिजूल है। इन सब विवादों में पड़ने की बजाय सरकार की कोशिश यह होनी चाहिए कि कैसे बलात्कार जैसे घृणित अपराध को काबू में लाया जाए।
गौरतलब है कि वृत्तचित्र ‘स्टोरीविले: इंडियाज डॉटर’ सोलह दिसंबर, 2012 की रात को दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा से चलती बस में हुए बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना पर केन्द्रित है। फिल्म में पीडि़ता के परिवार के सदस्यों, बलात्कारियों और बचाव पक्ष के वकीलों की विस्तृत फुटेज, और साक्षात्कारों को शामिल किया गया है। वृत्तचित्र का मकसद बलात्कार जैसे घृणित अपराध और अपराधियों की मानसिकता को लोगों के सामने लाना है। डाॅक्युमेंट्री की फिल्मकार लेस्ली उडविन अपने इस मकसद में कामयाब भी हुई हैं। डाॅक्युमेंट्री में निर्भया कांड के एक गुनहगार ने बड़े ही बेशर्मी से बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराया है। साक्षात्कार के दौरान उसने कहा, वे रात में क्यों निकलती हैं ? ऐसे-वैसे कपड़े क्यों पहनती हैं ? यानी इस वीभत्स घटना को हुए इतने दिन बीत गए, लेकिन अपराधी को अपने किए का जरा सा भी अफसोस नहीं। उलटे वह लड़कियों को ही बलात्कार के लिए दोषी ठहरा रहा है। यहां तक कि अपराधियों के वकील ने भी महिलाओं के खिलाफ ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणियां की हैं।

Tuesday, 10 March 2015

अदालतों के लिए चुनौती


सुप्रीम कोर्ट के जजों के सामने ऐसा एक जोडा बलात्कारी और बलात्कार पीड़िता के रूप में खडा था जो पिछले ३ सालों से लव इन रिलेशन में रह रहा था। इसमें युवती एक एयरलाइन्स में एयर होस्टेस रही थी और युवक बैंक में ऊंचे ओहदे में था। युवक शादीशुदा था। लडकी ने उसके खिलाफ शादी का वादा कर शारीरिक संबंध बनाने और फिर बाद में मुकर जाने का आरोप लगाते हुए बलात्कार का मामला दर्ज करवाया था। लडकी ने अदालत को बताया कि वे लव-इन-रिलेशन में रहते थे उस दौरान युवक ने उससे शारीरिक संबंध बनाने का प्रयास किया लेकिन वह हमेशा इंकार कर देती। तब उसने उससे शादी का वादा किया और दोनों के बीच संबंध बन गए। उसका कहना था कि बिना शादी के वादे के मैं कभी भी यौन संबंध नहीं बनाती। वहीं दूसरी ओर युवक का तर्क था वह यह बात अच्छी तरह से जानती थी कि मैं शादीशुदा हूं और उससे शादी नहीं कर सकता। उसने पूरी सहमति और खुशी से उससे शारीरिक संबंध बनाये थे। दोनों ने एक-दूसरे की अश्लील तस्वींरें खीचकर अदालत को दिखार्इं। दोनों के बीच ३ साल तक रोांस चलता रहा था। अदालत में न्यायाधीश विक्रमजीत सेन और एसके qसह ने कहा कि- इट इज नाट क्यूपिट बट स्टुपिड यानी यह प्रे नहीं बेवकूफी है। अश्लील तस्वीरें न्यायालय को दिखाने के लिए दोनों को फटकार भी लगाई गई। इस तरह के हजारों मामले देश भर की अदालतों में हैं जिसमें न्यायाधीशों को फैसला तय करने में काफी असमंजस का सामना करना पड रहा है। सवाल यह खडा हो जाता है कि शादी के वादे के बाद सहमति से बनाया गया शारीरिक संबंध को क्या बलात्कार माना जा सकता है। पिछले साल २७ अगस्त को कर्नाटक के मुख्यमंत्री सदानंद गौडा के बेटे कार्तिक गौडा पर कन्नड फिल्म अभिनेत्री मिथ्रिया ने जब कार्तिक की दूसरी लडकी से सगाई के बाद उस पर बलात्कार का आरोप लगाया तो देश भर में बवाल मच गया। मिथ्रिया का आरोप है कि कार्तिक ने उसके गले में मंगलसूत्र पहनाया था और यह वादा किया था कि सार्वजनिक रूप से वह उसी से शादी करेगा। उसके बाद दोनों के बीच शारीरिक संबंध बन गए। कार्तिक की ऐन सगाई के बाद मिथ्रिया ने अपने संबंधों का खुलासा कर राजनीतिक गलियारों में भी हलचल मचा दी। उसका आरोप है कि कार्तिक ने उसे शादी का झांसा ही नहीं दिया बल्कि उससे संबंध बनाने के लिए उसके गले में मंगलसूत्र डालकर यह जताने की कोशिश की कि वह उसका जीवन भर साथ निभायेगा और अपनी पत्नी बना बनायेगा। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही उसने उससे शारीरिक संबंध बनाये थे। इस मामले में कार्तिक पर धारा ३७६ के तहत बलात्कार और ४२० के तहत धोखाधडी का मामला दर्ज किया है। यह हाईप्रोफाइल मामला भी सशर्त प्यार का नजर आता है यानी शादी की शर्त पर शारीरिक संबंध बने। फैमिली कोर्ट ने कार्तिक और मिथ्रिया की एकांत में मंगलसूत्र पहनाकर की गई शादी को मान्यता नहीं देकर गौडा परिवार को राहत पहुंचाई लेकिन हाईकोर्ट ने मिथ्रिया के आरोपों को गंभीरता से लिया और कार्तिक की आरोपों को रद्द करने की याचिका ठुकरा दी। उसके खिलाफ जांच बंद करने से भी इंकार कर दिया। इस मामले के बाद देश भर में इस तरह के ढेरों मामले सामने आ सकते हैं। दिल्ली की वकील रेबेका जान का कहना है कि बलात्कारियों पर शिकंजा कसने के लिए २०१३ में आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किये थे। नये संशोधन से बलात्कार की व्याख्या और अधिक व्यापक हो गई है। रजामंदी नहीं होने का मतलब बलात्कार है। अब आरोपी को यह साबित करना होता है कि यौन संबंध रजामंदी से बनाए गए थे। कानून के मुताबिक यदि किसी महिला ने शादी के वादे के बाद शारीरिक संबंध बनाए हैं और बाद में पुरुष ने शादी से इंकार कर दिया तो यह सहमति से बनाए यौन संबंधों के दायरे में नहीं आएगा। कानून आयोग के पूर्व सदस्य आचार्य का कहना है कि ऐसे मामले जटिल होते हैं और कोई नहीं जानता कि इन्हे कैसे सुलझाया जाए। सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि ऐसा कोई फार्मूला नहीं है जो इस तरह के सभी मामलों में एक जैसा लागू हो सके। इसलिए हर मामले को मौजूद साक्ष्यों के आधार पर ही सुलझाया जाना चाहिए। ऐसे में अलग-अलग कोर्ट के एक ही तरह के मामले में अलग-अलग फैसले भी आते हैं। २००३ में शीर्ष अदालत ने एक शख्स को इसलिए बरी कर दिया था क्योंकि अदालत का मानना था कि जब दो लोग प्रे और रोांस में डूबे हों तो शादी का वादा बहुत मायने नहीं रखता। लेकिन २००६ में एक व्यक्ति को इसलिए सजा मिली क्योंकि शुरू से ही उसका इरादा लडकी से शादी करने का नहीं था। २०१३ में सुप्रीम कोर्ट ने शादी करने का वादा तोडने और झूठा वादा करने के बीच अंतर स्पष्ट किया। एक अन्य विधि विशेषज्ञ सतीश कहते हैं कि काफी मामले पुलिस के केस दायर करने की वजह से ही अदालत तक आते हैं। हालांकि की देश की पुलिस बलात्कार के मामलों में एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी करने के लिए कुख्यात है लेकिन नये बलात्कार कानून में पुलिस की जवाबदही तय कर दी गई है। किसी महिला की एफआईआर दर्ज नहीं करने वाले पुलिसकर्मी पर ड्यूटी में लापरवाही बरतने का आरोप लगता है और उसे कम से कम ६ माह सजा का प्रावधान है। इसी का परिणाम है कि जैसे ही अब कोई महिला सहमति से संबंधों के मामले में एफआईआर दर्ज करवाने आती है तो पुलिस इसे बलात्कार की शिकायत के रूप में दर्ज करती है। उनका रवैया ऐसा होता कि हम क्यों जोखिम उठाएं जो फैसला करना है वह अदालत करेगी। एक लीगल वेबसाइट पर एक लडकी ने वकीलों से अपनी परेशानी बताते हुए सलाह मांगी थी। उसने लिखा था कि मैं एक लडके के साथ लव-इन- रिलेशन में थी। मैं लडके से शारीरिक संबंध नहीं बनाना चाहती थी तब लडके ने कहा कि मैं तुसे शादी करूंगा। उसके बाद ६ सालों तक दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते रहे और फिर संबंध टूट गया। अब लडकी को लगता है कि वह उसके साथ बलात्कार करता रहा। उसे सलाह देने वाले ७ वकीलों में से ४ ने सुझाव दिया कि लडके के खिलाफ बलात्कार का केस दर्ज करो। २ ने लिखा केस करो और एक ने पूछा क्या शादी का वादा करने का लिखित सबूत है। बहरहाल, यह जरूर qचतन का विषय है कि जहां एक ओर महानगरों और अब छोटे शहरों में लव-इन-रिलेशन में रहने वाले जोडों की संख्या बढती जा रही है तो क्या रिलेशन के दौरान सहमति से बनने वाले संबंधों को विवाद की किसी स्थिति में बलात्कार माना जाएगा।

Saturday, 7 March 2015

नारी तू नारायणी है...


नारी तू नारायणी क्यूँ इस जहाँ से डर रही
तू ही जीवनदायिनी क्यूँ मरने से पहले मर रही
तुझ से जीत जाने का यम ने भी न साहस किया
शिव भी चरण के नीचे थे जब तूने अट्टाहस किया
उठती थी तुझ पर निगाहेँ आज वो झुकने लगे


किसी मशहूर कवि की ये चंद लाइनें नारी की असीम शक्ति को रूपायित करती है। आज दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। इसे महिलाओं के संघर्ष और समाज को उनके योगदान के रूप में याद किया जाता है। पहला महिला दिवस साल 1911 में 19 मार्च को मनाया गया था पर 1914 से इसे आठ मार्च को मनाया जाने लगा। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है।
असल में, अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन, यह दिवस सबसे पहले सबसे पहले यह 28 फरवरी 1909 में मनाया गया। इसके बाद यह फरवरी के आखरी इतवार के दिन मनाया जाने लगा। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि, उस समय अधिकर देशों में महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था। 1917 में रुस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी। जार ने सत्ता छोड़ी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये। उस समय रुस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर। इन दोनो की तारीखों में कुछ अन्तर है। जुलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखरी इतवार 23 फरवरी को था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी। इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है। इसी लिये 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
रोजमर्रा की भागती-दौड़ती जिंदगी में और वह भी खासकर जब सिर्फ गृहिणी न होकर उसके साथ-साथ और भी कई जिम्मेदारियाँ हो और रोजमर्रा के जीवन में आने वाली हर छोटी-बड़ी समस्या। जिसे बिना निपटाएँ वह आगे नहीं बढ़ सकती। ऐसे समय उस नारी की सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी होती है। पहले घर, फिर ऑफिस, बाजार और फिर सामाजिक इन सब जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते जब वह थक भी जाती है। तब भी वह ऊफ... तक नहीं करती। हर नारी करीब-करीब इसी तरह की समस्याओं में घिरी होती है। फिर भी उसके मन में कुछ करने की लगन, और कुछ नया-नया करने की चाह बनी रहती है। और होना भी यही चाहिए। क्योंकि हमें अपने आपको ऊर्जावान बनाए रखने के लिए यह सब बहुत जरूरी है। लेकिन इतना सब करने के बाद भी परिवार वाले, समाज वाले नारी का महत्व कहाँ समझ पाए हैं। भले ही हम इस दिवस को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में घोषित करें। नारी जाति कितने ही मैडल कमा लें लेकिन समाज और परिवार में आज भी नारी के खिलाफ होने वाले अत्याचार, साजिश सबकुछ जारी है। आज भी महिलाओं पर अत्याचारों की श्रृंखलाएँ लदी हुई है। नारी भले ही कितनी ही पढ़ लिख जाए। थोड़े समय के लिए समाज का नजरिया उसके प्रति बदल भी जाएँ तब भी आज भी वह अत्याचारों के कैदखाने में बंद ही है। ऐसे कई उदाहरण आज रोजाना हमारी आँखों के सामने घूमते दिखाई देते हैं। जो दिखाई तो स्पष्ट रूप से देते है लेकिन फिर भी हम कुछ नहीं कर पातें।
ऐसी दुनिया की सारी नारियों के प्रति मेरी प्रति मेरा मन शत् शत् नमन करने को करता है। फिर भी मैं उम्मीद करती हूँ कि एक न दिन नारी के प्रति बह रही इस धारा को थाह मिलेगी और हमारा महिला दिवस मनाना सही साबित होगा।

Sunday, 1 March 2015

साहस की प्रतीक सरोजिनी नायडू






श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी। सरोजिनी नायडू सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत 'पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया। डॉ. एम. गोविंद राजलु नायडू से सरोजिनी नायडू का विवाह हुआ। सरोजिनी नायडू ने राजनीति और गृह प्रबंधन में संतुलन रखा।
देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।
सरोजिनी नायडू की राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही 'महिला स्वशक्तिकरण आन्दोलन' शुरू हो गया था। इस समय सरोजिनी नायडू हाथ में स्वतंत्रता संग्राम का झंड़ा उठाकर देश के लिए मर मिटने निकल पड़ी थीं और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी की प्रमुख बन महिला सशक्तिकरण को बल दिया।
सरोजिनी नायडू और महात्मा गांधी

1902 में कोलकाता (कलकत्ता) में उन्होंने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया जिससे गोपालकृष्ण गोखले बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी जी का राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन किया। इस घटना के बाद सरोजिनी जी को महात्मा गांधी का सानिध्य मिला। गांधी जी से उनकी मुलाकात कई वर्षों के बाद सन् 1914 में लंदन में हुई। गांधी जी के साथ रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गयी। वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थीं। उनकी सक्रियता के कारण देश की असंख्य महिलाओं में आत्मविश्वास लौट आया और उन्होंने भी स्वाधीनता आंदोलन के साथ साथ समाज के अन्य क्षेत्रों में भी सक्रियता से भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। गांधी जी से पहली बार मिलने के बाद सरोजिनी नायडू का ज़्यादातर वक़्त राजनीतिक कार्यों में ही बीतने लगा। समय बीतने के साथ, वह कांग्रेस की प्रवक्ता बन गई। आंधी की तरह वह देश भर में घूमतीं और स्वाधीनता का संदेश फैलातीं। जहाँ भी और जिस वक़्त भी उनकी ज़रूरत पड़ी, वह फौरन ही हाज़िर हो जातीं। राष्ट्रीय कांग्रेस की बहुत सी समितियों में उन्होंने काम किया और देश की राजनीतिक आज़ादी के बारे में बोलने का एक भी अवसर उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया। ऐसे ही जोश के साथ उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी ज़ोर दिया। शिक्षा के प्रचार को भी महत्त्व दिया। अपने श्रोताओं से उन्होंने अज्ञानता और अन्धविश्वास को दीवारों से निकल आने का अनुरोध किया। देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे खींचने वाली परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकने की उन्होंने ज़ोरदार अपील की।
कुछ ही समय में सरोजिनी नायडू एक राष्ट्रीय नेता बन गईं। वह 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक मानी जाने लगीं। सन् 1925 में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गईं। तब तक वह गांधी जी के साथ दस वर्ष तक काम कर चुकी थीं और गहरा राजनीतिक अनुभव पा चुकी थीं। आज़ादी के पूर्व, भारत में कांग्रेस का अध्यक्ष होना बहुत बड़ा राष्ट्रीय सम्मान था और वह जब एक महिला को दिया गया तो उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, 'पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।'
सरोजिनी ने स्वयं अपने बारे में कहा-

    'अपने विशिष्ट सेवकों में मुझे मुख्य स्थान के लिए चुनकर आप लोगों ने कोई नई मिसाल नहीं रखी है। आप तो केवल पुरानी परम्परा की ओर ही लौटे हैं और भारतीय नारी को फिर से उसके उस पुरातन स्थान में ला खड़ा किया है जहाँ वह कभी थी.....।'

अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, 'स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।' उनका यह भी मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया। भारत के इतिहास में वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख नायिका के रूप में जानीं गयीं। भय को वह देशद्रोह के समान ही मानती थीं।
सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। पंजाब में सन् 1919 में जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर जनरल डायर के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी रॉलेट एक्ट के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। अहमदाबाद में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं। गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।
वास्तव में सन् 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयं सेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखतें हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् 1935 के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, कांग्रेस, देश की प्रांतीय विधानसभाओं में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।
स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, 'मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।' लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल न सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम व स्नेह था। इसलिए वह लखनऊ में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।