Saturday, 25 January 2014

26 जनवरी तारीख का मतलब



26 जनवरी आखिर है क्या? गणतंत्र, प्रजातंत्र, डेमोक्रेसी, जम्हूरियत, सिस्टम और संविधान। आखिर इन शब्दों के मायने क्या हैं? आखिर क्या है 26 जनवरी की तारीख का मतलब? 26 जनवरी, जनतंत्र का सबसे बड़ा जश्न है। इंडिया गेट से लालकिले तक लोकतंत्र का लोकपर्व है। जम्हूरियत के जज्बात को जताने का त्योहार है। संविधान के सूरज का इस्तकबाल का दिन है। स्वराज की सुबह के संस्मरण का समय है। इसी की वजह से तो सारी दुनिया में हमारी डेमोक्रेसी का डंका है। जनता जीते तंत्र कायम रहे और खत्म हर भय हो। जनतंत्र की जय हो।
प्रजातंत्र के प्रहरियों के सम्मान का प्रहर है। गणतंत्र के गणमान्य के गुणगान का दिन है। स्वतंत्रता के शहीदों के सम्मान का दिन है। आजादी के योद्धाओं के अभिवादन का अरमान है। 26 जनवरी का जन्म कैलेंडर पर छपी कोई तारीख नहीं है.। ये तो समय के सीने पर भारत का हस्ताक्षर है। इतिहास के पन्नों की सबसे बड़ी इबारत है। वर्तमान बना रहे और भविष्य तय हो। जनतंत्र की जय हो।
आज सेनाओं के शौर्य के स्मरण का दिन है। आज शूरवीर सैनिकों के संस्मरण का दिन है। आज वीरों के बहादुरी के बखान का वक्त है। आज दुनिया के दुश्मनों को दहलाने का दिन है। आज ताकत, हिम्मत, हौसला और साहस के सम्मान का दिन है। आज शांति के संकटों को चेतावती का संदेश है। आज गांधी के स्वराज की सालगिरह है। अहिंसा ऐसे ही निर्भय हो। जनतंत्र की जय हो।
हम विविध, विभिन्न बोली, भाषा, रंगरूप, रहन-सहन, खाना-पान, जलवायु में होने के बावजूद एकी संस्कृति की माला पिरोये हुए हैं। हमारे लोकतंत्र के प्रहरी अपने इस अवसर सपने को परिपक्वता के साथ मजबूत दीवार एवरेस्ट की चोटी से ऊंचा बना लिया है। कई उतार-चढ़ाव आए, आपातकाल भी देखा लेकिन भारत की सार्वभौमिकता बरकरार है।
खुशियों की तमाम बातों के बावजूद आज अहम सवाल हो गया है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज को चुस्त, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, अनुशासित कानून बनाया जाए और प्रत्येक नागरिक चाहे जो कोई हो बेरोजगार या अमीर, सेवादार या किसान सब अपनी प्रत्यक्ष संपत्ति जायदाद का खुलासा करें कि जो भी चल-अचल धन है वही है और अप्रत्यक्ष कहीं भी देश या विदेश में मिलने पर जब्त होगा तो सजा मिलेगी। जनतंत्र-गणतंत्र की प्रौढ़ता को हम पार कर रहे हैं लेकिन आम जनता को उसके अधिकार, कर्तव्य, ईमानदारी समझाने में पिछड़े, कमजोर, गैर जिम्मेदार साबित हो रहे हैं।
कई मुश्किलों को पार करता हुआ भारत आज दुनिया के ताकतवर देशों की कतार में शामिल होने की कोशिश कर रहा है और यही कोशिश देश के हर आम आदमी की है। पिछले 6 दशकों में देश के आम आदमी को ताकत देने की कई कोशिशें हुई हैं, मुश्किलें अभी भी हैं लेकिन ना उम्मीदी का अंधेरा अब छट चुका है। गणतंत्र दिवस यानी भारत के हर नागरिक को आत्म सम्मान से जिंदगी जीने का अधिकार देने का दिन। पिछले 6 दशकों में देश ने कई उतार चढ़ाव देखे। आम आदमी की कई उम्मीदें को आकार मिलना अभी बाकी है लेकिन उनकी जिंदगी पिछले कई दशकों में काफी बदली है। कई ऐसे अधिकार आम आदमी को मिले हैं जिनसे कमोबेश उनकी जिंदगी में उमीदों की किरण दिख रही है।
भोजन का अधिकार
देश की आधी से ज्यादा आबादी के लिए दो वक्त के भोजन का जुगाड़ आसान कभी भी इतना आसान नहीं रहा लेकिन हाल ही में आम आदमी के इस वंचित वर्गो को मिला है भोजन का अधिकार। इस अधिकार के तहत यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि देश का कोई इंसान भूखा ना सोए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक इसे भी मौलिक अधिकारों की श्रेणी में माना गया है। इस अधिकार के तहत बने कानून के जरिये देश के तकरीबन 70 फीसदी लोगों को बहुत कम मूल्य में खाद्यान्न और दूसरी वस्तुएं उपलब्ध कराने का प्रावधान है।
शिक्षा का अधिकार
देश के हर बच्चे को स्कूली शिक्षा मिले ये सपना हमारे संविधान निर्माताओं ने देखा था हालांकि कई दशक लग गए देश के नौनिहालों तक शिक्षा के अधिकार को पहुंचाने में लेकिन अब देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिल गया है। छह से 14 साल तक के बच्चे को मुफ्त एवं अनिवार्य रूप से स्कूल भेजना अब जरूरी है आखिर पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया।
रोजगार की गारंटी
भोजन और शिक्षा के अधिकार के बाद जिस अधिकार ने सबसे ज्यादा आम आदमी की जिंदगी पर सकारात्मक असर डाला है वो है रोजगार गारंटी योजना। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के जरिये लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधान तैयार किए गए है। इस कानून के तहत हर इंसान को 100 दिनों का रोजगार दिये जाने की गारंटी है। रोजगार उपलब्ध कराने में विफल रहने पर बेरोजगारी भत्ता के तहत मजदूरी उपलब्ध कराना जरूरी है। गरीबी से जूझते ग्रामीण क्षेत्र के लिए ये अधिकार किसी संजीवनी से कम नहीं।
सूचना का अधिकार
अब बात उस अधिकार की जिसने आम आदमी को उठ खड़ा होने की शक्ति दी है। हम बात कर रहे हैं सूचना के अधिकार की नए वक्त मे सूचना जीवन रेखा बन चुकी है। अपने देश समाज और आम आदमी से जुड़े पहलू को जानना अब हर भारतीय का अधिकार है।
आरटीआई कानून ने आम आदमी को सशक्त बना कर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की ताकत दी है। माना जाता है कि भ्रष्टाचार देश में कई बड़ी समस्याओं की जननी है लेकिन अब कोई भी आम आदमी अपने या सामूहिक हित के मुद्दों पर सवाल पूछ सकता है। दुनिया के फलक पर उभरते भारत की तस्वीर आम आदमी को ताकत दिए बगैर नहीं बन सकती और देश का हर तबका अब इसकी अहमियत को समझता है। आखिर तभी तो देश दुनिया के सामने कह सकेगा जय हो...

जीवन में अनुशासन आवश्यक


प्रगति व सम्मान के लिए मनुष्य के जीवन में अनुशासन आवश्यक है। यह आगे बढ़ाता है। अनुशासन के बिना व्यक्ति, परिवार, देश व प्रदेश प्रगति नहीं कर सकता। अनुशासित व्यक्ति तब बन सकता है, जब उसका अपने मन और तन पर नियंत्रण हो। जीवन में अनुशासन से ही प्रगति संभव है। सोए हुए सिंह के मुंह में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करता। उसे भी शिकार के लिए परिश्रम करना पड़ता है। अनुशासन का पाठ वास्तव मे प्रेम का पाठ होता है ,कठोरता का नहीं। अत: इसे प्रेम के साथ सीखना चाहिए । बालक को अनुशासन का पाठ पढ़ाते समय कु्छ कठोर कदम उठाने आवश्यक हैं, परन्तु इससे रहित रखकर हम बालक को अवश्य ही अवनति की ओर ढकेल देंगे। गाँधीजी ने भी कहा था कि अनुशासन ही आजादी की कुंजी है।
अनुशासन शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है - अनु, शास्, अन, । विशेष रूप से अपने ऊपर शासन करना तथा शासन के अनुसार अपने जीवन को चलाना ही अनुशासन है । अनुशासन राष्ट्रीय जीवन का प्राण है । यदि प्रशासन, स्कूल समाज, परिवार सभी जगह सब लोग अनुशासन में रहेंगे और अपने कर्त्तव्य का पालन करेंगे, अपनी जिÞम्मेदारी समझेंगे तो कहीं किसी प्रकार की गड़बड़ी या अशांति नहीं होगी । नियम तोड़ने से ही अनुशासनहीनता बढती है तथा समाज में अव्यवस्था पैदा होती है। बड़े होकर अनुशासन सीखना कठिन है । अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है । बचपन के समय मे अनुशासन सिखाने की जिम्?मेदारी माता-पिता तथा गुरूओं की होती है । अनुशासन ही मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति व एक आदर्श नागरिक बनाता है । विद्यालय जाकर अनुशासन की भावना का विकास होता है । अच्छी शिक्षा विद्यार्थी को अनुशासन का पालन करना सिखाती है । वास्तव में अनुशासन-शिक्षा के लिये विद्यालय ही सर्वोच्च स्थान है । विद्यार्थियों को यहाँ पर अनुशासन की शिक्षा अवश्य मिलनी चाहिये । ताकि उनका सामाजिक दृष्?टी से सम्?पूर्ण विकास हो सके । उन्हें सदा गुरुओं की आज्ञा का पालन करना चाहिये । अनुशासनप्रिय होने पर ही हर विद्यार्थी की शिक्षा पूर्ण समझी जानी चाहिये । सच्चा अनुशासन ही मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर वास्तव में मानव बनता है । दर से अनुशान का पालन करना सच्चा अनुशासन नहीं है और ना ही अनुशासन पराधीनता है । यह तो सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकता है। पाश्चात्य देशों में भी शिक्षा का उद्देश्य जीवन को अनुशासित बनाना है । अनुशासित विद्यार्थी अनुशासित नागरिक बनते हैं, अनुशासित नागरिक एक अनुशासित समाज का निर्माण करते हैं और एक अनुशासित समाज पीढ़ियों तक चलने वाली संस्कृति की ओर पहला कदम है । अनुशासन का पाठ वास्तव मे प्रेम का पाठ होता है, ना कि कठोरता का । अत: इसे प्रेम के साथ सीखना चाहिये । बालक को अनुशासन का पाठ पढ़ाते समय कु्छ कठोर कदम उठाने आवश्यक हैं लेकिन आज कल माता-पिता अपने बच्?चों को बाल्?या अवस्?था में, अति प्रेम में आकर उन्?हे कुछ छुट दे देते है जिसेस उनमे अनुशासन की कमी आ जाती है ओर इस बात का पता उन्?हे समय निकल जाने के बाद होता है । आज हमारे जीवन मे अनुशासन की सख्?त आवश्?यकता है अनुशासन जीवन के विकास का अनिवार्य तत्व है, जो अनुशासित नहीं होता, वह दूसरों का हित तो कर नहीं पता, स्वयं का अहित भी टाल नहीं सकता ।
जैन-शासन के संदर्भ में अनुशासन के लिए ‘आज्ञा’ शब्द का प्रयोग भी हुआ है। आज्ञा को सर्वोपरि मूल्य दिया गया है। जिस प्रकार मौलि और शिरोमणि रत्न को शिर पर धारण किया जाता है, उसी प्रकार आज्ञा को शिरोधार्य किया जाता है। फिर उसी आज्ञा के अनुसार अपना प्रत्येक कार्य करना होता है। कहा भी गया है -

शिरोरत्नमिवार्याज्ञां धारयंत: स्वमस्तके.
निर्मान्तु निखिलं कार्यं आचार्याज्ञानुवर्तिन:..

आचार्य के अनुशासन में रहने वाले आचार्य की आज्ञा को शिरोरत्न की तरह मस्तक पर धारण करते हुए अपने सब काम सम्पादित करें। आज्ञा को महत्व देने वाला व्यक्ति स्वयं महत्वपूर्ण बन जाता है। जो व्यक्ति आज्ञा को तुच्छ समझता है, उसकी अवहेलना करता है, वह स्वयं तुच्छ और अवहेलित हो जाता है। गुरु ने शिष्य को सदा दो बातों से दूर रहने का निर्देश देते हुए कहा-'अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवट्ठाणा'- कुछ व्यक्ति उन कार्यों में अपने पुरुषार्थ का नियोजन करते हैं जिनके लिए भगवान की आज्ञा नहीं होती है। वे उन कामों के प्रति उदासीन रहते हैं, जिन्हें करने की आज्ञा होती है. ये दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। इनसे बचने वाला साधक लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ता है। जो आज्ञा की उपेक्षा कर अनाज्ञा में प्रवृत्त होता है, वह विकास के बदले ह्मास के पथ पर अग्रसर होता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्व है । अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है । समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है । इससे कार्य क्षमता का विकास होता है तथा व्यक्ति में नेतृत्व की शक्ति जाग्रत होने लगती है । इसलिए हमे हमेशा अनुशासनपूर्वक आगे बढने का प्रयत्न करना चाहिए । आज भारत देश में इस आयु के लोग सबसे बड़ी संख्या में मौजूद है। यह एक ऐसा वर्ग है जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से सबसे ज्यादा ताकतवर है। जो देश और अपने परिवार के विकास के लिए हर संभव प्रयत्न करते हैं। आज भारत देश में 75% युवा पढ़ना लिखना जानता है। आज भारत ने अन्य देशों की तुलना में अच्छी खासी प्रगति की है। इसमें सबसे बड़ा योगदान शिक्षा का है। आज भारत का हर युवा अच्छी से अच्छी शिक्षा पा रहा है। हम सब जानते हैं कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है। आज भारत में दूसरे देशों से सबसे ज्यादा युवा बसते हैं। युवा वर्ग वह वर्ग होता है जिसमें 14 वर्ष से लेकर 40 वर्ष तक के लोग शामिल होते हैं। भारत की राजनीति में आज वृद्ध लोगों का ही बोलबाला है और चंद गिने-चुने युवा ही राजनीति में है। इसका एक कारण यह है कि भारत में राजनीति का माहौल दिन-ब-दिन बिगड़ रहा है और सच्चे राजनीतिक लोगों की जगह सत्तालोलुप और धन के लालची लोगो ने ले ली है।
यह सच है कि राजनीति में देश प्रेम की भावना की जगह परिवारवाद, जातिवाद और संप्रदाय ने ले ली है। आए दिन जिस तरह से नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्से बाहर आ रहे है देश के युवा वर्ग में राजनीति के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है। ईमानदारी और संजीदगी के लाख पाठ पढ़ाए जाएं, लेकिन यह एक क्रूर सत्य है कि उदारीकरण के दौर में संजीदगी और ईमानदारी में प्रगति की गुंजाइश लगातार कम हुई है। चूंकि राजनीति का आज सीधा संबंध पैसे और ताकत से जुड़ गया है, इसलिए इस क्षेत्र में नई प्रतिभाओं के पनपने और शिखर तक पहुंचने की गुंजाइश लगातार कम होती गई है। मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव जीतना ही राजनीति का अहम और विशिष्ट दोनों तरह का पर्याय बन गया है, शायद यही वजह है कि कार्यकर्ता दरी और जाजिम बिछाते रह जाते हैं और नेता और नेता के बाद उसके परिवार के लोगों को ही सियासी राह पर आगे बढ़ने के मौके मिलते चले जाते हैं। अब भारत की राजनीति में सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, लोकमान्य तिलक जैसे युवा नेता आज नहीं है। जो अपने होश और जोश से युवा वर्ग के मन में एक नई क्रांति का संचार कर सके। लेकिन अफसोस आजादी के बाद नसीब में है यह बूढ़े नेता जो खुद की हिफाजत ठीक से नहीं कर सकते तो युवा को क्या देशभक्ति या क्रांति की बातें सिखाएंगे? यही वजह है कि भारत के युवा अब इस देश को अपना न समझकर दूसरे देशो में अपना आशियाना खोज रहे हैं। वे यहां की राजनीतिक सत्ता और फैले हुए भ्रष्टाचार से दूर होना चाहते हैं। इसलिए वे कोई भी ठोस कदम उठाने से पहले कई-कई बार सोचते हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि युवा वर्ग संयमित रहे। अनुशासित रहे। बिना अनुशासित हुए वह अपने अभीष्ट की प्राप्ति नहीं कर सकता है।
हालांकि, आज के युवाओं को सिर्फ और सिर्फ टारगेट ओरियेंटेड बना दिया गया है। मतलब यह है कि आजकल के माता-पिता स्वंय नहीं चाहते कि उनका पुत्र या पुत्री अपने कार्यो के अलावा देश के सामाजिक कार्यो में भी अपना योगदान दें क्योंकि आजकल का माहौल ही कुछ इस तरह का हो गया है कि सब केवल अपना भविष्य बनाने में लगे हुए हैं। यहां तक कि आजकल के युवाओं को उनके परिवार के प्रति जिम्मेदारी का एहसास तक नहीं होता, इसलिए हमें इसके लिए कई ठोस कदम उठाने होंगे। आज भारत का हर नागरिक भली-भांति अपना अच्छा बुरा समझता है। युवाओं को संप्रदायवाद तथा राजनीति से परे अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। युवाओं को इस मामले में एकदम सोच समझकर आगे बढ़ना होगा। और ऐसी किसी भी भावना में न बहकर सोच समझकर निर्णय लेना होगा। भारत का युवा वर्ग वाकई में समझदार है जो सच में इस मामले में एक है और ज्यादातर युवावर्ग राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मान रहा है। यह वाकई में एक अच्छी और सकारात्मक बात है जो भारत जैसे देश के लिए बड़ी बात है।

Wednesday, 22 January 2014

प्रवक्ताओं की संख्या में विस्तार

कांग्रेस पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों को ध्यान में रखते हुए को अपने प्रवक्ताओं की संख्या में विस्तार किया। कांग्रेस ने केंद्रीय मंत्रियों पी. चिदंबरम और सलमान खुर्शीद को वरिष्ठ प्रवक्ता, जबकि केंद्रीय राज्यमंत्री शशि थरूर को प्रवक्ता नियुक्त किया। एक अधिकृत घोषणा में बताया गया है कि पार्टी ने पांच वरिष्ठ प्रवक्ता और 13 प्रवक्ताओं की नियुक्ति की है। अधिकृत वक्तव्य में कहा गया है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नियुक्तियों को अपनी मंजूरी दे दी है।
लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की मीडिया रणनीति को और धारदार बनाने की राहुल गांधी की योजना के तहत वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री पी चिदम्बरम, सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, शशि थरुर और ज्यरोतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस प्रवक्ता बनाया गया।चार मंत्रियों चिदम्बरम, आजाद, शर्मा और खुर्शीद तथा एआईसीसी महासचिव मुकुल वासनिक को कांग्रेस पार्टी का वरिष्ठ प्रवक्ता बनाया गया जबकि थरुर और सिंधिया को प्रवक्ताओं की 13 सदस्यीय नई टीम में शामिल किया गया है। पार्टी ने अपने प्रवक्ताओं और टेलिविजन पैनलिस्टों की अलग अलग टीमें बनाई है जिसमें अनेक ऐसे चेहरों को शामिल किया गया है जो राहुल गांधी के करीबी सहयोगी माने जाते हैं और युवक कांग्रेस या एनएसयूआई पृष्ठभूमि के हैं।
राज्यसभा सदस्य अभिषेक मनु सिंघवी को फिर से प्रवक्ताओं की जमात में शामिल किया गया है। उड़ीसा के प्रमुख नेता भक्त चरण दास को प्रवक्ताओं की नई सूची में जगह नहीं दी गयी है। उसी तरह मीम अफजल को भी बाहर कर दिया गया है लेकिन उन्हें टेलिविजन पर पार्टी की तरफ से बात रखने वाले नेताओं के 24 सदस्यीय दल में शामिल किया गया है। एआईसीसी के महासचिव संचार विभाग के प्रमुख अजय माकन ने कहा कि पार्टी की नियमित प्रेस ब्रीफिंग तीन दिन के बजाय अब सप्ताह में पांच दिन होगी और उसका समय भी अब शाम सवा चार बजे के बजाय दो बजे होगा।
कांग्रेस ने अपनी मीडिया टीम में फेरबदल करते हुए केंद्रीय मंत्री पी चिदम्बरम, सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा और एआईसीसी महासिचव मुकुल वासनिक को पार्टी का वरिष्ठ प्रवक्ता बनाया। पार्टी ने अपने प्रवक्ताओं और टेलिविजन पैनलिस्टों की अलग अलग टीमें बनाई। कांग्रेस द्वारा बनाये गये प्रवक्ताओं के 13 सदस्यीय दल में शशि थरुर, अभिषेक मनु सिंघवी और ज्योतिरादित्य सिंधिया शामिल गया है। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा, उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व प्रमुख रीता बहुगुणा जोशी, हरियाणा के मत्री रणदीप सिंह सुरजेवाला, गुजरात के कांग्रेस विधायक दल के पूर्व नेता शक्ति सिंह गोहिल, सांसद सतयव्रत चतुर्वेदी और संजय झा को नया प्रवक्ता बनाया गया है जबकि पी सी चाको, राज बब्बर और संदीप दीक्षित को प्रवक्ता बनाये रखा गया है। केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी और राजीव शुक्ला को टेलिविजन पर पार्टी की तरफ से बात रखने वाले नेताओं के 24 सदस्यीय टीम में शामिल किया गया है। इस टीम में अशोक तंवर और मीनाक्षी नटराजन को भी जगह दी गई है। पार्टी ने इसके अलावा राज्यों के मुद्दे पर टेलिविजन में बात रखने के लिए 30 सदस्यों की एक टीम बनायी है।
 पार्टी ने मंगलवार को इसके अलावा 24 मीडिया प्रभारियों की नियुक्ति भी की। इसके अलावा 30 अन्य प्रभारियों को राष्ट्रीय मीडिया में राज्यों से संबंधित मुद्दों पर पार्टी का पक्ष रखने के लिए नियुक्त किया गया। वरिष्ठ प्रवक्ताओं में केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम, सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक शामिल हैं। प्रवक्ताओं में थरूर और सिंघवी के अलावा ज्योतिरादित्य सिंधिया, पी.सी. चाको, राज बब्बर, रणदीप सुरजेवाला, रीता बहुगुणा जोशी, संदीप दीक्षित, संजय झा, सत्यव्रत चतुर्वेदी, शकील अहमद, शक्ति सिंह गोहिल और शोभा ओझा शामिल हैं। पार्टी में इससे पहले पांच प्रवक्ता होते थे। मीडिया प्रभारियों में सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी सहित केंद्रीय गृह राज्यमंत्री आर.पी.एन. सिंह और संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला भी शामिल हैं। अन्य मीडिया प्रभारियों में अखिलेश प्रताप सिंह, अनंत गाडगिल, अशोक तंवर, बालचंद्र मुंगेकर, बृजेश कालप्पा, चंदन यादव, सी.आर. केशवन, दीपक अमीन, दीपेंदर हुडा, कृष्णा बायरे गौड़ा, मीम अफजल, मिनाक्षी नटराजन, मुकेश नायक, नदीम जावेद, पी.एल. पुनिया, प्रेम चंद्र मिश्रा, प्रीयंका चतुर्वेदी, रागिनी नायक, राजीव गौड़ा और सलमान सोज तथा संजय निरूपम शामिल हैं। पार्टी सूत्रों ने बताया कि कांग्रेस विभिन्न मीडिया के जरिए लोगों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाने की इच्छुक है।

Wednesday, 15 January 2014

राजनीती और सोशल मीडिया


आगामी चुनावों में सोशल मीडिया का प्रयोग कैसे और किस रूप में किया जाए, इसको लेकर राजनीतिज्ञों के बीच एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है। सोशल मीडिया व इंटरनेट से जुड़ी दो रिपोट्र्स ने इस बहस को और तेज कर दिया है। पहली, आइरिश नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया अगले लोकसभा चुनाव में 543 सीटों में से 160 सीटों पर अपना प्रभावी असर दिखाएगा। इससे जुड़ी दूसरी रिपोर्ट अमरीका आधारित नॉन पार्टिजन फैक्ट टैंक और प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा "ग्लोबल एटिटयूड" नाम से है, जिसमें 21 देशों का सर्वे शामिल है। इसमें यह साफ कहा गया है कि भारत में मात्र छह फीसद लोग ही सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं। लिहाजा, भारत में इसका प्रभाव चुनाव पर उतना नहीं पड़ेगा, जितना विकसित देशों में पड़ता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में अमरीका के 92 फीसद के मुकाबले मात्र 10-12 फीसद लोग ही इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। सोशल मीडिया का आगामी चुनाव में कितना प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर इतना जरूर है कि इन दोनों ही रिपोट्र्स में राजनीति में सोशल मीडिया के प्रयोग के सच को गहराई से स्वीकार किया गया है। यही वजह है कि आज भारत के कई राजनीतिक दलों ने फेसबुक व टि्वटर पर अपने अकाउंट्स खोल दिए हैं।


आज सोशल मीडिया सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक व राजनीतिक जगत का एक बहुत बड़ा शक्ति केन्द्र बनता जा रहा है। गौरतलब है कि सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर नरेन्द्र मोदी ने ममता बनर्जी और एम. करूणानिधि जैसे बहुचर्चित नामों को पछाड़ दिया और पहले स्थान पर पहुंच गए हैं। आज दुनिया में एक अरब से भी अधिक लोग सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं। जहां तक भारत का सवाल है, तो यहां 2010 में इन्टरनेट यूजर्स की जो संख्या सात-आठ करोड़ के करीब थी, वह 2013 में 10-12 करोड़ के करीब पहुंच गई है। यहां सोशल मीडिया से जुड़े यूजर्स की संख्या भी आठ करोड़ को पार कर गई है। नेल्सन कम्पनी द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि भारत में सात-आठ करोड़ से अधिक उपभोक्ता सोशल नेटवर्किग साइट्स से जुड़े हैं। सोशल मीडिया से जुड़े इन यूजर्स का मकसद उस पर केवल निजी बातचीत या मनोरंजन करना ही नहीं है, बल्कि 45 फीसद से भी अधिक यूजर्स सघन राजनीतिक विमर्श भी खुलकर करते हैं। सोशल मीडिया से जुड़ी ये रिपोट्र्स इस बात का संकेत हैैं कि आज के दौर में सोशल मीडिया की अपनी एक हैसियत है, जिससे राजनीति भी अब अछूती नहीं है।
सवाल है, ऎसा क्या हुआ कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। लोकसभा की 160 सीटों के नतीजों को प्रभावित करने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं जहां कुल मतदाताओं की दस प्रतिशत आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या इन निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले चुनाव में विजयी उम्मीदवार की जीत के अन्तर से अधिक है। ये आंकड़े करीब साल भर पुराने हैं। यानी फेसबुक और टि्वटर यूजर्स की संख्या में इस दौरान जो बढ़ोतरी हुई, वह अलग है।
इंटरनेट के मामले में तो भारत तेजी से अन्य देशों से आगे निकलता जा रहा है। खास बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़त ज्यादा तेज गति से हो रही है। भारत में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की विकास दर 58 प्रतिशत सालाना की दर से हो रही है। ग्रामीण भारत में इस वक्त 6.8 करोड़ उपभोक्ता है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इनमें सोशल मीडिया से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। आज यह संख्या 9 से 10 करोड़ के बीच आंकी जा रही है। इतनी बड़ी आबादी की अनदेखी करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया से जुड़े इस विशाल समुदाय का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या निजी बातचीत तक सीमित नहीं है। सोशल नेटवर्क पर 45 प्रतिशत से अधिक लोग राजनीतिक विमर्श भी खुलकर कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का राजनीतिक समूह है, जो सभी दलों को समझ में आ रहा है।

Saturday, 11 January 2014

राष्ट्रीय निर्माण में हो योगदान

बदली परिस्थितियों में युवाओं की पूर्ण क्षमता का विकास करने और उसे देश निर्माण में लगाने के लिए यूपीए सरकार ने 2003 की राष्ट्रीय युवा नीति को ‘राष्ट्रीय युवा नीति-2014’ से बदले जाने को मंजूरी दे दी। प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में कैबिनेट ने देशहित में इसे स्वीकृति प्रदान कर दी। युवाओं को उनकी पूर्ण क्षमता को पाने का अवसर देने और ऐसा करते हुए विश्व में भारत को उसका उचित स्थान दिलाने के मकसद से इस नई राष्ट्रीय युवा नीति को मंजूरी दी गई है। इस उद्देश्य को पाने के लिए नई नीति में प्राथमिकता के 11 क्षेत्र सुझाए गए हैं। इनमें शिक्षा, दक्षता, रोजगार, उद्यमशीलता, स्वास्थ्य व स्वस्थ जीवन शैली, खेल, सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देना, राजनीति व शासन में उनकी भागीदारी और सामाजिक न्याय शामिल हैं। राष्ट्रीय युवा नीति-2014 से सभी हितधारकों को जोड़ा जाएगा, ताकि ऐसी शिक्षित व स्वस्थ युवा आबादी सुनिश्चित की जा सके जो न सिर्फ आर्थिक रूप से उत्पादक हो बल्कि सामाजिक रूप से भी जिम्मेदार नागरिक के रूप में राष्ट्रीय निर्माण में योगदान कर सके।

इस नीति के तहत 15 से 29 साल के देश के सभी नागरिक आएंगे जो 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल आबादी का 27।5 फीसद यानी 33 करोड़ हैं। भारत दुनिया में सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है और भविष्य में देश के विकास और उत्थान में इसका उसे भारी लाभ मिलेगा। इसी मकसद से नई परिस्थितियों को देखते हुए राष्ट्रीय युवा नीति-2014 लाई गई है। सच तो यह है कि भारत में आज से 25 साल पहले, 1988 में पहली राष्ट्रीय युवा नीति बनी। दूसरी बार 15 साल बाद, 2003 में युवा नीति बनाई गई, लेकिन यह महसूस किया गया कि इसके बाद भी कई ऐसे विषय हैं, जिन पर काम करना जरूरी है। इसलिए 2012 में नयी राष्ट्रीय युवा नीति का मसौदा तैयार किया गया। सबसे अहम बात यह है कि अब तक देश में युवा विकास सूचकांक प्रणाली विकसित नहीं है। इसलिए ऐसे युवाओं की पहचान की कोई व्यवस्था नहीं है, जो विकास की रफ्तार में पीछे छूट गए हैं या छूट रहे हैं। दूसरी बात कि एक सार सूचकांक नहीं होने के कारण भौगोलिक क्षेत्रों और वर्गों के बीच युवा विकास की तुलना संभव नहीं है। देश में मानव विकास सूचकांक है। इससे मानव विकास की क्षेत्र, लिंग, वर्ग और सामाजिक -आर्थिक स्थिति के आधार पर तुलना संभव है। इसका लाभ यह है कि जो क्षेत्र या वर्ग विकास की रफ्तार में पीछे छूट रहा है, उस पर विशेष ध्यान देने के लिए योजना बनाने में सुविधा हो रही है। उसे लेकर स्पष्ट दृष्टि बन रही है, लेकिन युवाओं के मामले में ऐसी सुविधा नहीं है। तीसरी बात कि जब तक तुलनात्मक विेषण वाले आंकड़े नहीं होंगे, तब तक सामान्य और विशिष्ट श्रेणी के युवाओं के लिए विकास संबंधी गतिविधि तय नहीं की जा सकती। यह युवा विकास सूचकांक के आंकड़ों से ही संभव है।
गौर करने योग्य यह भी है कि इससे पूर्व केन्द्रीय युवा मामले और खेल राज्यमंत्री अजय माकन ने वर्ष 2012 में राष्ट्रीय युवा नीति 2012 का मसौदा जारी किया था। अजय माकन ने घोषणा की थी कि राष्ट्रीय युवा नीति का मसौदा अपनी तरह का पहला है। यह इस बात का सबूत है कि सभी युवाओं को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता क्योंकि हरेक का रहन-सहन, माहौल, उनके परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अलग-अलग है। मसौदा नीति में लक्षित आयु वर्ग को वर्तमान 13-15 वर्ष से परिवर्तित कर 16-30 वर्ष करने का प्रस्ताव है। मसौदा नीति का विवरण देते हुए माकन ने कहा कि नीति न केवल उद्देश्यों की जानकारी देती है बल्कि उद्देश्यों को हासिल करने के लिए उत्तरदायी साझ्झीदारों की पहचान करती है। पहली बार युवा विकास सूचकांक (वाईडीआई) मूल्य निर्धारकों और नीति निर्माताओं के लिए आसान संगणन और आधार रेखा के रूप में काम करेगा। इसे नीति के हिस्से के तौर पर शामिल किया गया है। वैश्वीकरण, तकनीक के तेजी से विकास और भारत के वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने के कारण वर्तमान युवा नीति 2003 की समीक्षा करना जरूरी हो गया था। एक महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाते हुए पहली बार युवा नीति के मसौदे को प्रधानमंत्री के कौशल विकास मिशन के अनुरूप युवाओं को रोजगार आधारित कौशल प्रदान करने के सिद्धांत पर तैयार किया गया है। साथ ही उस समय यह प्रस्ताव रखा गया कि युवा संगठनों, छात्रों और चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों की युवा शाखाओं सहित विभिन्न साझ्झीदारों के साथ राष्ट्रीय युवा नीति 2012 के मसौदे पर विचार-विमर्श किया जाए। इस पर संसदीय युवा फोरम और युवा मामले और खेल मंत्रालय से सम्बद्ध संसदीय सलाहकार समिति की बैठक में भी विचार-विमर्श किया जाएगा।
बहरहाल, राष्ट्रीय युवा नीति 2003 के मुताबिक 13-35 वर्ष के आयु वर्ग की जनसंख्या युवाओं की है। इस आयु वर्ग की पूरी जनसंख्या युवा है और राष्ट्रीय युवा नीति के तहत आती है। इसमें किशोर वर्ग भी शामिल होता है। इसलिए उसके हित में विशिष्ट सोच के लिए युवाओं को दो वर्गो में बांटा गया। पहला 13 से 19 साल और दूसरा 20 से 35 साल। इन दोनों आयु वर्गो को अलग-अलग श्रेणी में रखा गया। 1991 की जनसंख्या के मुताबिक देश में 34 करोड़ थी। 1997 में यह संख्या बढ़ कर 38 करोड़ हो गयी, जो उस समय की देश की कुल आबादी का लगभग 37 प्रतिशत थी। यह अनुमान किया गया कि 2016 में युवाओं की जनसंख्या बढ़ कर 51 करोड़ हो जायेगी, जो उस समय की कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत होगी, लेकिन 2001 की जनगणना के आधार पर जब देश के युवाओं यानी 13 से 35 आयु वर्ग की जनसंख्या का आंकड़ा तैयार किया गया, तो युवाओं की कुल जनसंख्या 42.23 करोड़ हो गयी, जो कुल आबादी का 41 प्रतिशत से ज्यादा है। इसमें 21.9 करोड़ पुरुष युवा और 20.3 करोड़ महिला युवा हैं।
जाहिर कि देश के सामाजिक-आर्थिक बदलाव और तकनीकी विकास में युवाओं की सबसे बड़ी भूमिका है। यह देश का वह मानव संसाधन है, जिसे लेकर ठोस रणनीति और कार्यक्रम, सभी स्तर पर, बनाने की जरूरत है। गांव-पंचायत के युवाओं को लेकर विशिष्ट कार्यक्रमकी जरूरत है, जो उन्हें शिक्षा, तकनीकी और व्यावहारिक ज्ञान, रोजगार तथा स्वास्थ्य ज्ञान के क्षेत्र में आगे ले जा सके। चूंकि यह उत्पादक आयु वर्ग है। इसलिए इसकी सामाजिक-राजनीतिक सोच की सबसे अधिक अहमियत है। दिल्ली में आम आदमी पाटी के उदय के बाद गांव-पंचायत के युवाओं में राजनीतिक सोच तेजी से बदली है। दरअसल हमारी ग्रामीण जीवन शैली और उससे जुड़ी चुनौतियों का बड़ा हिस्सा रोटी, कपड़ा, मकान और स्वास्थ्य है। इसे हासिल करने में गांव-पंचायत के युवक ज्यादा परेशान हैं। इसलिए राजनीतिक बदलाव में अपनी सीधी भागीदारी को लेकर ज्यादा सोचने का उनके पास समय नहीं है। दूसरा कि एक राजनीतिक साजिश के तहत उन्हें आरक्षण, धर्म, जाति और वर्ग के आधार पर इतने हिस्सों में बांट कर रखा गया कि वे उसी सोच में कैद होते रहे हैं। आजादी के बाद अविभाजित बिहार में अगर परिवर्तन को लेकर आंदोलन हुआ, तो वह 1974 का जेपी आंदोलन था। उस आंदोलन की चिनगारी अब भी समय की रख के नीचे बची हुई है। आम आदमी प्रकरण ने इसे हवा देने का काम किया है। गांव-पंचायत के युवाओं की सोच को बदलने का काम किया है।

Tuesday, 7 January 2014

प्रियंका , नाम ही काफी


प्रियंका गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निःसन्देह एक संभावनाशील महिला हैं। लोग अपने नेता के किसी गुण से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, तो वह उसके द्वारा करिश्मा पैदा करने की क्षमता से होते हैं। 1999 के संसदीय चुनाव में किस तरह से प्रियंका गांधी के मात्र एक चुनावी संबोधन से रायबरेली लोकसभा में कांग्रेस ने भाजपा के प्रत्याशी अरुण नेहरू को हरा दिया था। प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में यदि कोई गुण सर्वाधिक प्रभावित करता है, तो वह उनके द्वारा लोगों से सहज संवाद स्थापित करने की क्षमता है, बोली-वाणी, पहनावे एवं रहन-सहन से लोगों को सीधे प्रभावित करती हैं।


प्रियंका गांधी राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने की ओर बढ़ सकती हैं। कहा जा रहा है कि उनका अपनी मां तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली का प्रभार संभालना तय-सा है। इस बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन कांग्रेस महासचिवों सहित अन्य पदाधिकारियों ने जोर देते हुए कहा कि प्रियंका राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश की इस सीट के लोगों से हमेशा मिलती रही हैं और उनके इस कदम में कुछ भी नया नहीं है। कांग्रेस में राहुल को चुनावी कमान सौंपने से पहले ही पार्टी की ओर से प्रियंका गांधी को सक्रिय कर दिया गया। यूं तो पार्टी के लिए वे उतना तैयार नहीं होती, लेकिन अपनी मां सोनिया गांधी और अपने भाई राहुल गांधी के चुनावी क्षेत्रों का हमेशा ही वह ख्याल रखती आई हैं। लिहाजा, कांग्रेस ने आगामी लोकसभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी में संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी प्रियंका को सौंप दी। पिछले लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में तकरीबन दो लाख और राहुल गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी में करीब पौने दो लाख वोटों से जीत दर्ज की थी, लेकिन मौजूदा हालात में देश और प्रदेश के दूसरे हिस्सों की तरह रायबरेली और अमेठी के लोगों में भी कांग्रेस को लेकर आक्रोश व्याप्त है। पार्टी कार्यकर्ता अलग से संगठन में गुटबाजी और बड़े नेताओं की उपेक्षा को लेकर रोष में हैं।
रायबरेली और अमेठी में संगठन को दुरुस्त करने का जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने वाली प्रियंका अब लोकसभा चुनाव तक लगभग हर महीने यहां का दौरा करेंगी। इसी योजना के तहत वह रायबरेली और अमेठी के ब्लॉक स्तर के कार्यकर्ताओं से कई बार अलग-अलग बैठक कर चुकी हैं।
प्रियंका अब तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के नाम पर सक्रिय राजनीति से दूर रही हैं। सच तो यह भी है कि  पार्टी का एक तबका प्रियंका में उनकी दादी इंदिरा गांधी की झलक देखता है और वह चाहता है कि प्रियंका सक्रिय भूमिका निभाएं। इस तबके का मानना है कि उत्तर प्रदेश और अन्यत्र पार्टी के बेहतर भविष्य के लिए ऐसा किया जाना अनिवार्य है। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने राहुल की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन किया था और उसे 22 सीटें मिली थीं, लेकिन विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदर्शन अपेक्षित नहीं रहा और पार्टी के गढ़ माने जाने वाले अमेठी एवं रायबरेली जैसे स्थानों पर भी पार्टी ने खराब प्रदर्शन किया। चुनावों में प्रदर्शन खराब रहने के कारणों को लेकर राहुल ने खुद ही पार्टी विधायकों, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों से बातचीत की थी। गौर करने योग्य यह भी है कि पहले राजनीति में आने के सवाल पर प्रियंका कहती थीं कि राजनीति में बिना आए भी समाज की सेवा की जा सकती है, लेकिन अब माहौल बदल गया लगता है। प्रियंका ने राजनीति में आने के संकेत कई महीने पहले ही देने शुरू कर दिए थे। 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब मीडिया ने प्रियंका गांधी से पूछा था कि वे राजनीति में कब आएंगी, तो इसके जवाब में उन्होंने कहा था, जब राहुल भैया चाहेंगे तब राजनीति में आएंगी। हालांकि कांगे्रस के प्रवक्ता अब भी इसकी पुष्टि नहीं कर रहे कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएंगी और यह कह कर सवालों को टाल देते हैं कि आखिरी निर्णय तो प्रियंका को ही करना है। इससे साफ जाहिर है कि कांग्रेस उन्हें आगे लाने को आतुर है। कुछ दिग्गज तो साफ कह भी चुके हैं कि प्रियंका को आगे आना चाहिए। सच तो यह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता व कार्यकर्ताओं में यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि चूंकि राहुल गांधी खारिज होते नजर आ रहे हैं, ऐसे में प्रियंका को ही आखिरी दाव के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वे ही राजनीति के खेल में कांग्रेस का आखिरी ‘तुरूप का पत्ता’ साबित हो सकती हैं। मगर संभवतरू सोनिया गांधी इस राय से इत्तफाक नहीं रखतीं। जाहिर सी बात है कि वंश परंपरा को कायम रखने के लिए सोनिया की रुचि बेटे राहुल गांधी में है। प्रियंका दूसरा विकल्प हैं।
दरअसल, कांग्रेस में गांधी परिवार का बड़ा ही योगदान रहा है। जब-जब कांग्रेस कमजोर हुई है या कमजोर की गई है, गांधी परिवार का कोई न कोई व्यक्तित्व इसको उबारने में महती भूमिका निभाया है। जिसमें उनके बलिदान तक की बातें निहित हैं। 20वीं सदी के अंत में जब कांग्रेस कई टुकड़ों में विभाजित हो गई थी ओर देश में भाजपा की सरकार चल रही थी। उस समय कांग्रेस की अपील पर गांधी परिवार की मुखिया श्रीमती सोनिया गांधीजी अपने पुत्र राहुल गांधी के साथ राजनीति में सक्रिय होकर भारतीय कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। इसमें संदेह नहीं की गांधी परिवार ने अपने नेतृत्व क्षमता और साफ सुथरी छवि के आधार पर 2004 के आम चुनाव में आम जनमानस के सहयोग से विखंडित कांग्रेस को संगठित एवं जोड़कर भारत की सत्ता में पुनः वापसी की। प्रियंका गांधी का राजनीतिक योगदान इस चुनाव में काफी बढ़ गया, वे कांग्रेसियों को जोड़ने में सफल रही। उनके सक्रिय राजनीति में आने का प्रश्न अब महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि उन्हे तो अब इसका विस्तारीकरण करना है। अमेठी और रायबरेली में वह लगाार समय देती आ रही हैं। उनके आने से निश्चित रूप से कांग्रेस को फायदा होगा, क्योंकि वह इंदिरा गांधी की प्रतिरूप मानी जाती हैं। साथ ही उनकी छवि संवेदनशील एवं ईमानदार राजनीतिज्ञ की है। रही बात वंशवाद की तो अगर किसी के पूर्वज राजनीति में थे, तो उसमें उसका क्या दोष?
प्रियंका गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निःसन्देह एक संभावनाशील महिला हैं। लोग अपने नेता के किसी गुण से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, तो वह उसके द्वारा करिश्मा पैदा करने की क्षमता से होते हैं। 1999 के संसदीय चुनाव में किस तरह से प्रियंका गांधी के मात्र एक चुनावी संबोधन से रायबरेली लोकसभा में कांग्रेस ने भाजपा के प्रत्याशी अरुण नेहरू को हरा दिया था। प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में यदि कोई गुण सर्वाधिक प्रभावित करता है, तो वह उनके द्वारा लोगों से सहज संवाद स्थापित करने की क्षमता है, बोली-वाणी, पहनावे एवं रहन-सहन से लोगों को सीधे प्रभावित करती हैं। भीड़ में विषेशतया महिलाओं में अपने घुलने मिलने की क्षमता के कारण वह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेती है। जो लोग कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाते हैं, वह अन्य राजनीतिक दलों के वंशवाद की तरफ से आंखे फेरे हुए हैं। अन्य दलों से विपरीत कांग्रेस का परंपरा से प्राप्त नेतृत्व सदैव जनता द्वारा बड़े इम्तिहान पास कर आता है। वह चाहे इंदिरा जी की ‘इन्डीकेट बनाम सिण्डीकेट’ की लड़ाई हो, संजय गांधी द्वारा 1977 के आम चुनाव से पस्त मृतप्राय कांग्रेस में जान फूंकने का काम हो, राजीव गांधी द्वारा इंदिरा जी की हत्या से उपजे शून्य को भरना रहा हो, या श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा 2004 में साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता से अप्रत्याशित तौर पर बाहर करना हो। इस तरह नेहरू - गांधी परिवार का नेतृत्व जनता द्वारा कठिनतम परीक्षा पास करता आ रहा है। प्रियंका गांधी निरूसन्देह कांग्रेस का भविष्य हैं उनके आने से कांग्रेस को मजबूती मिलेगी एवं समाज को भी एक सक्षम नेतृत्व मिलेगा।

Thursday, 2 January 2014

मोदी को लताड़ा प्रधानमंत्री ने



आज का दिन, यानी 3 जनवरी, 2014,  नेशनल मीडिया सेंटर में हुई प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह ने पत्रकारों के सवालों के बखूबी जवाब दिए। खासकर भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के सवाल पर उनका जवाब बेहद सख्त था। उन्होंने मोदी को गुजरात में हुए नरसंहार की याद दिला दी। देश के अगले पीएम और नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच मुकाबले की बात पर उन्होंने कहा कि मुझे पूरा विश्वास है कि अगला पीएम यूपीए से ही होगा। नरेंद्र मोदी का पीएम बनना देश के लिए बहुत घातक होगा। नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि अहमदाबाद की सड़कों पर लोगों का कत्लेआम ताकत का प्रतीक नहीं है। उन्होंने कहा कि कहा कि मजबूत नेता का यह मतलब नहीं होता है कि अहमदाबाद में लोगों का कत्लेआम हो। यह पहला मौका है, जब प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह ने मोदी पर इतनी सख्त भाषा का इस्तेमाल किया है। मनमोहन ने इससे पहले कभी भी मोदी के लिए ‘कत्लेआम’ और ‘घातक’ जैसा शब्द इस्तेमाल नहीं किया। इससे पहले उन्होंने ने गुजरात में एक कार्यक्रम के दौरान सरदार पटेल के मुद्दे पर मोदी को उनके सामने ही जवाब दिया था, लेकिन इस तरह का सख्त रुख पहली बार नजर आया।


दरअसल, प्रधानमंत्री आज अकेले नहीं थे। इससे पहले भी नहीं थे। उनके पीछे पूरी कांग्रेस है। कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमति सोनिया गांधी हैं। उनका साथ है। अपने संबोधन में भी स्वयं प्रधानमंत्री ने इस सच को बखूबी स्वीकारा कि कांग्रेस अध्यक्षा का निर्णय देशहित में होता और सरकार उनकी सलाहों पर गौर फरमाती हैं। सही मायने में व्यक्तियों के नहीं, बल्कि विचारों के सहारे कांग्रेस राजनीति में महानदी के रूप में प्रवाहित हुई। उसने सभी दृष्टियों की छोटी-बड़ी विकृतियों को आत्मसात कर लिया। करोड़ों लोगों की प्रतिनिधि कांग्रेस बुनियादी तौर पर सोच की पार्टी रही ह।उसके निमार्ताओं का विचारों, बहस मुबाहिसों और किताबों से गहरा सरोकार रहा ह।कांग्रेस बनिए का बहीखाता या जैन डायरी नहीं रही है जिसमें सफेद और काले धन का हिसाब लिखा जाता रहा हो। पार्टी के शुरूआती दौर के सबसे बड़े नेता लोकमान्य तिलक सबसे बड़े विचारक थे। जो व्यक्ति ह्णस्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार हैह्ण का नारा अंग्रेज की छाती पर उगाता ह।काले पानी के दिनों में बैठकर ह्णगीता रहस्यह्ण जैसी अद्भुत कृति की रचना भी वही करता ह।प्रागैतिहासिक काल की उपपत्ति ह्णदी आर्कटिक होम इन दी वेदाजह्ण तिलक ने स्थापित की थी। ऐसा श्रेष्ठ बुद्धिजीवी जननेता भी हो सकता था-यह कांग्रेस ने सम्भव कर दिखाया। तिलक के बाद गांधी ने साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में जितना अधिक लिखा, वह विश्व इतिहास में बेमिसाल ह।महात्मा गांधी अंग्रेजी और गुजराती के अप्रतिम रचनाकार थे और कालजयी रचना ह्यहिन्द स्वराजह्य के लेखक। राजनीति से हटकर भी वे महानता की ऊँचाई तक पहुँच सकते थे। गांधी के बाद नेहरू ने विश्व लेखकों के बीच अपनी सम्मानजनक जगह सुरक्षित कर ली ह।बहुत कम लोगों को यह पता रहा है कि नेहरू परिवार के खर्च का मुख्य स्त्रोत जवाहरलाल नेहरू की किताबों से मिली रॉयल्टी ही रहा ह।मौलाना आजाद उर्दू, फारसी और अरबी के युग प्रवर्तक विद्वानों में से एक रहे हैं। डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का अंग्रेजी भाषा पर इतना एकाधिकार था कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के वाद विवाद का निचोड़ प्रस्ताव की शक्ल में जब भी वे लिखते थे, उसमें एक शब्द का हेरफेर भी देखने और करने की जरूरत नहीं पड़ती थी।


आज से ज्यादा मुश्किल हालात में इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए घेरी गईं थीं। देश के सामने भारी आर्थिक संकट था। पर्याप्त खाद्यान्न नहीं था। दवाओं की कमी थी। खजाना खाली हो रहा था। पी।एल। 480 जैसा बदनाम सौदा अमेरिका से हो चुका था। आज भारतीय कारपोरेट जगत मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी खेमों में बंटकर जनभावनाओं का मजाक उसी तर्ज पर उड़ा रहा ह।तब कांग्रेस में ह्यसिंडिकेटह्य के नाम से उभरे स्वार्थी वर्ग ने इन्दिरा गांधी को ह्यमोम की गुड़ियाह्य कहा था। नेहरू की बेटी ने पलटवार कर वामपंथी पार्टियों से सहयोग लेकर सिंडिकेट के पूंजीपरस्तों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। कोयला, बैंकिंग, बीमा, अल्यूमीनियम वगैरह कई उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। एटमी ताकत बढ़ाने के प्रयत्न किए गए।
 सच तो यही है कि इतिहास मंथन की प्रक्रिया से करोड़ों निस्तेज भारतीयों को आजादी के अणु से सम्पृक्त करने के लिए एक ऐतिहासिक जरूरत के रूप में वक़्त के बियाबान में कांग्रेस पैदा हुई। कांग्रेस उन्नीसवीं सदी की अंधेरी रात में जन्मी। बीसवीं सदी की भोर में उसने घुटनों से उठकर अपने पुख्ता पैरों पर चलना सीखा। प्रतिनिधिक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में इक्कीसवीं सदी की ओर वह मुखातिब हुई। कांग्रेस देश की राजनीति में घूमती हुई नहीं आई। कांग्रेस-संस्कृति इतिहास की दुर्घटना नहीं है।उसकी किशोरावस्था का परिष्कार भारतीय राजनीति के धूमकेतु लोकमान्य तिलक ने उसकी शिराओं में गर्म खून लबालब भरकर किया। उसकी जवानी गांधी के जिम्मे थी जिसने उसकी छाती को अंग्रेज की तोप के आगे अड़ाने का जलजला दिखाया। उसकी प्रौढ़ावस्था की जिम्मेदारियों के समीकरण जवाहरलाल ने लिखे। शतायु की ओर बढ़ती उसकी बूढ़ी हड्डियों को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने आराम लेने नहीं दिया। कांग्रेस अपने जन्म से ही कर्मप्रधान पार्टी रही है। उसका जन्म वैसे तो एक अंगरेज द्वारा अंगरेजी सरकार को भारतीयों के लिए ज्ञापन वगैरह देने के नाम पर हुआ था। धीरे धीरे कांग्रेस गंगा की तरह भारतीय राजनीति की केन्द्रीय वाहिका बनी। उसने देश को आजाद कराया और उस पर हुकूमत की। यह अलग बात है कि गंगा में हरिद्वार अर्थात आजादी आते ही प्रदूषण आना शुरू हो गया। कानपुर, इलाहाबाद, बनारस और पटना जैसे शहरों के रासायनिक और चमड़े के कारखानों की मितली गंगा में प्रवाहित की जाती रही। वाराणसी में तो शव ही बहा दिए जाते हैं। कुछ लोगों को गलतफहमी है कि तृतीय श्रेणी में परीक्षा पास करना गांधी क्लास पाना ह।बीसवीं सदी ने सिद्ध किया है कि हिंदुस्तान की आत्मा, जे़हन और भविष्य को लेकर गांधी से बड़ा विचारक कोई नहीं हुआ। यदि वे बुद्धिजीवी नहीं होते तो अंग्रेज की काट नहीं होती। गांधी केवल कूटनीति के सहारे अंग्रेज प्रधानमंत्रियों और वाइसराय से बहस मुबाहिसा नहीं करते थे। वे अधिकृत चर्च के सबसे बड़े पादरी को यह चमत्कृत करने में समर्थ हुए थे कि बाइबिल की षिक्षाओं को किसी भी ईसाई के मुकाबले बेहतर आत्मसात कर चुके थे। कांग्रेस के बड़े दफ्तर से लेकर ब्लाक मुख्यालयों तक जिस भाषा में राजनीतिक चिंतन होता है, अब उस कागज के फूल में गांधी गंध नहीं होती। गांधी ने भारत के संविधान के लिए अपना ड्राफ्ट और विचार दिए थे।

Wednesday, 1 January 2014

झूठ की घुट्टी पिला रहे हैं मोदी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी अपनी भाषण की कला की बदौलत आम जनता को झूठ की घुट्टी पिला रहे हैं. प्रधानमन्त्री पद के एक उम्मीदवार ने बिहार में कहा कि तक्षशिला बिहार में है और सिकन्दर बिहार में आकर हार गया! यह बात जो कह रहा है वह या तो निरा बेवकूफ है या फिर जनता को बेवकूफ समझता है। ख़ैर, नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या सोचना है, यह आप ही तय कर लीजिये क्योंकि हम तो वाकई तय नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि फासीवादियों का इतिहास-बोध ऐसा ही होता है, और दूसरी तरफ़ ‘एक झूठ को सौ बार दुहराकर सच बना देने’ का नारा भी फासीवादियों का ही है। इसलिए दोनों ही सम्भावनाएँ मौजूद हैं! हिटलर के प्रचार तन्त्र के ही समान नरेन्द्र मोदी का व्यापक प्रचार तंत्र वैसे तो झूठ और ग़लत बातें तो हमेशा से ही करता आया है। मोदी ने चीन से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत ख़र्च करवाया (असल में सिर्फ़ 4 प्रतिशत), तो कभी अपने प्रदेश में सबसे अधिक निवेश का दम्भ भरा जबकि इस मामले में भी दिल्ली और महाराष्ट्र उनसे आगे हैं। तो कभी अपनी पार्टी भाजपा के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारत को आज़ादी मिलने से पहले ही मार दिया गया और उनकी अस्थियों को भी विदेश पहुँचा दिया!  अपनी पार्टी के ही संस्थापक के बारे में यह भी बोला कि उनका विवेकानन्द से सम्पर्क था, जबकि श्यामाप्रसाद मुखर्जी विवेकानन्द की मृत्यु के समय दूध पीता बच्चा था!
बिलकुल इसी तरह मोदी ने अपने राज्य के बारे में जमकर झूठ बोला। चाहे बात गुजरात के कुपोषण की हो, भूखमरी की हो, किसानों की आत्महत्या की हो, मज़दूरों के बर्बर दमन की हो, मोदी ने एक के बाद एक झूठ की मिसाल कायम की। शोषण और दमन की सारी बातें ग़ायब हो गयीं (हालाँकि, आप लोगों को हाल ही में हीरा कारीगरों, सूरत के मज़दूरों आदि के आन्दोलन याद होंगे!) और गुजरात की एक चमत्कारिक तस्वीर नरेंद्र मोदी ने पेश करनी शुरू की। इसके लिए जमकर झूठ बोले गए। परन्तु असलियत आज भी अलग अपना मुंह बाए खड़ी है। जिस शख्स ने 2002 में फासीवादी हत्यारों की बर्बर सेना को कई दिनों तक बेरोक-टोक गुजरात में बेगुनाह अल्पसंख्यकों का नरसंहार करने, बच्चों और महिलाओं तक को बर्बरता से क़त्ल करने की इजाज़त दी थी, वह अचानक देश की समस्याओं के ‘अन्तिम समाधान’ के तौर पर उभर आया। बरबस बिना तितली कट मूछों वाले हिटलर का चेहरा उभर आता है। हिटलर के मंत्री गोयबल्स ने ही कहा था कि “एक झूठ को सौ बार दुहराओ तो वह सच बन जाता है”। मोदी भी झूठ की मशीनगन लेकर जमकर झूठ बरसा रहा है। अज्ञानता के भैंसे पर सवार मोदी जमकर टीवी चैनलों से, बड़े-बड़े मंचों से, पर्चों से अपने झूठ फैला रहा है।
अपनी छवि का निर्माण करने के लिए जगह होर्डिंग पर “भारत माँ का शेर” जैसे जुमले लिखवाये जा रहे हैं तो कभी सरदार वल्लभ भाई पटेल की लौह प्रतिमा निर्माण के लिए लोहे की माँग कर अपने चरित्र पर लोहे कि परत चढ़वायी जा रही थी। ख़ैर, “सुशासन” और लोहे की परत चढे़ इस मुख्यमंत्री ने गुजरात में क्या किया है यह एक बार देख लेना ज़रूरी है।
हाल ही में ‘कैग’ की रिपोर्ट ने एक बार फिर से मोदी के चमकते गुजरात की असली तस्वीर को उजागर कर दिया है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार हैं। सरकारी आँकड़े के मुताबिक 14 ज़िलों में कम से कम 6.73 लाख बच्चे कुपोषित हैं और 1.87 करोड़ लोगों को आई.सी.डी.एस. के लाभ से वंचित रखा गया है। अन्य शहरों के मुकाबले गुजरात के सबसे बड़े वाणिज्यिक शहर अहमदाबाद में सबसे ज़्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। गुजरात में पिछले सालों सबसे अधिक मज़दूर विद्रोह हुए हैं।
साम्प्रदायिक फासीवाद का एजेण्डा तो भाजपा की पुरानी लाइन है, पर देश स्तर पर सत्ता हासिल करने के लिए विकास का एजेण्डा लाना भी ज़रूरी हो गया है। इसलिए गुजरात के विकास की तस्वीर पेश जा रही है और मोदी की झूठ की राजनीति काफी कारगर तरीके से काम कर रही है। इस सबसे मोदी के पक्ष में मध्यवर्ग लामबन्द हो रहा है क्योंकि मोदी-ब्राण्ड विकास इस खाते-पीते मध्यवर्ग को खूब भा रहा है। यह मध्यवर्ग अपनी वर्ग प्रवृति से ही मोदी के “विकास”, “सुशासन”, आदि में यक़ीन करता है; जब तक इस मध्यवर्ग को आठ लेन की सड़कें, शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, अम्यूज़मेण्ट पार्क, आदि का “विकास” और “सुशासन” मिलता रहे, तब तक यह उन भूख और कुपोषण से मरते बच्चों, बेरोज़गार होते मज़दूरों की व्यथा से आँख मूँदने को तैयार है, जिसकी मेहनत के बूते पर यह सारी चमक-दमक हासिल होती है। इन मज़दूरों के ज़रा भी आवाज़ उठाने पर बर्बर दमन करना भी यह मध्यवर्ग “सुशासन”, “कठोर नेतृत्व”, “कानून व व्यवस्था” का एक हिस्सा मानता है! पूँजीपतियों का दलाल मीडिया मोदी का महिमामण्डन कर उसे विकास का नया चेहरा बतला रहा है। इसलिये यह ज़रूरी है कि मोदी के गुजरात मॉडल के विकास की असलियत को जाना जाय। जिस विकास का राग मोदी और जन सम्पर्क मीडिया अलाप रही है वह यह है की गुजरात में 31 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है, तेज़ी से बढ़ती प्रति व्यक्ति आय के बावजूद गुजरात में भूखे लोगों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और ग़रीब और अधिक ग़रीब। गुजरात में 70 प्रतिशत दलित लड़कियाँ माध्यमिक शिक्षा तक नहीं पहुँच पातीं। शहरी क्षेत्र में महिलाओं के साथ यौन हिंसा, छेड़छाड़, बलात्कार तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 69.7 प्रतिशत 5 साल की कम उम्र से बच्चे रक्त की कमी के शिकार हैं। करीब 44.6 बच्चे कुपोषित हैं। 2009 में ‘वाईब्रेंट गुजरात समिट’ में सरकार के 8380 ‘मेमोरैण्डम ऑफ अण्डरस्टैण्डिंग’ में से सिर्फ़ 120 ही ज़मीन पर उतरे हैं बाकि सब हवाई था! वैसे भी इन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर होता ही इसलिए है कि जनता की साझा सम्पत्ति, यानी देश की ज़मीन, बिजली, पानी, आदि सबको औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों की लूट के लिए बेच खाना! इस मामले में तो नरेन्द्र मोदी ने वाकई अपने सभी करीबी प्रतिस्पर्द्धियों को पीछे छोड़ दिया है, जैसे कि बादल, हूड्डा, आदि!
गुजरात के आर्थिक मॉडल पर दृष्टिपात करने के बाद हम एक नज़र वहाँ के सामाजिक भूदृश्य पर नज़र डालें तो गुजरात की तस्वीर और साफ़ हो जायेगी। गुजरात की रिहायशें विभाजित हैं। मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच सामाजिक ध्रुवीकरण चरम पर है। ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी ‘घेटो’ जैसे क्षेत्रों में सीमित हो गयी है। कईं मुस्लिम दरगाहों तक का “हिन्दुकरण” हुआ है। शिवराम विज तथा कई पत्रकारों ने अपने लेखों में इस ध्रुवीकरण का चित्रण किया है। और यही ध्रुवीकरण, हिन्दू और मुस्लिम के रूप में लोगों की पहचान, मोदी की राजनीति को गुजरात में जीता रही है। इसके लिए ही संघ गिरोह ने मोदी के निर्देशन में गुजरात के 2002 दंगे करवाये। यह राज्य द्वारा प्रायोजित नरसंहार था। पूरी सरकारी मशीनरी के इसमें मिले होने के सबूत तहलका से लेकर संजीव भट्ट और खुद बाबू बजरंजी सरीखे आदमखोर भी बयान कर चुके हैं। लेकिन सवाल उठता है कि पर्याप्त सबूतों के बावजूद भारतीय पूँजीवादी सत्ता न तो संघ परिवार को प्रतिबन्धित करती है, और न ही इस नरसंहार को आयोजित करवाने वालों को गिरफ़्तार करती है! इससे कहीं कम सबूतों पर, बल्कि कोई सबूत न होने पर भी, देश के तमाम हिस्सों से बार-बार मुसलमान नौजवानों को आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है और कई बार तो कई वर्ष उन्हें जेलों में यातनाएँ देने के बाद सरकार ने स्वयं माना कि वे बेगुनाह थे और फिर उन्हें रिहा कर दिया! लेकिन गुजरात से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों तक में संघ परिवार के संलग्न होने के स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद इसे व्यक्तियों की ग़लती बना कर पेश किया गया और संघ परिवार को बरी कर दिया गया। इसका कारण यह है कि सरकार किसी की भी हो, मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता की शक्तियों को आतंकित करके रखने के लिए ऐसे गुण्डा गिरोहों की ज़रूरत हर पूँजीवादी सरकार को होती है। इसीलिए फासीवादी सत्ता में रहें न रहें, वे इस व्यवस्था के ज़ंजीर से बँधे कुत्ते के समान होते हैं।
संघ गुजरात में भुज में आये भूकम्प के समय से ही पूरी ताक़त लगा कर काम कर रहा था। बस्तियों में संघ की शाखाएँ थीं, मेडिकल कैम्प व कल्याण कार्यक्रमों की आड़ में हिन्दुत्व का प्रचार किया। ‘त्रिशूल दीक्षा’ के तहत राज्य भर में लाखों त्रिशूल बाँटे गए। 2002 के जनसंहार व लूटपाट में लगी उन्मादी भीड़ का नेतृत्व संघ के कार्यकर्ता कर रहे थे। हज़ारों जानें गयीं और हजारों बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार हुए। इन दंगों का ज़िक्र ‘आह्वान’ के पन्नों पर हम एक बार फिर इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज बिल्कुल इसी तरह के प्रयोग देश के ग्रामीण क्षेत्रों में संघियों द्वारा किये जा रहे हैं। इन दंगों के ज़रिये फिर से पूरे देश को गुजरात में तब्दील करने की तैयारी की जा रही है। सामाजिक ध्रुवीकरण कर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद सत्ता में आने की तैयारी कर रहा है। इसका बुनियादी और बड़ा प्रयोग गुजरात है। गुजरात में व्यापारी वर्ग और नौकरीपेशा लोगों, मध्य वर्ग का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा शामिल हुआ था। और फेसबुक पर बैठकर देशभक्ति के नाम पर सीना पीटने वाले तमाम मोदीभक्त आई.टी. प्रोफेशनल, इंजीनियर भी इसी जमात में आते हैं। इन वर्गों में प्रतिक्रियावाद होने की अधिक सम्भावना  है और मोदी इसी सम्भावना को भुनाता रहा है। गुजरात में वाणिज्यिक पूँजी और व्यापरियों का बोलबाला है। भारत की ज़मीन पर सांस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण प्रतिक्रियावाद वैसे भी जमकर खाद पाता है। इन साम्प्रदायिक दंगों में बेरोज़गार व अर्द्धबेरोज़गार टुटपुँजिया वर्ग और पिछड़े आदिवासी कबीलों से आने वाले नौजवानों और लम्पट सर्वहाराओं की संख्या देखने को ज़्यादा मिलती है। इसका कारण द्रुत गति से हुए उद्योगीकरण और “विकास” के कारण निम्न पूँजीपति वर्ग का बर्बाद होना और उनके बीच बढ़ती बेरोज़गारी है। इन वर्गों के सामने कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने के कारण फ़ासीवादी नारों की और आकृष्ट होते हैं, जैसे “18 करोड़ मुसलमान मतलब 18 करोड़ हिन्दू बेरोज़गार” या मोदी का “आमे पाँच, अमारे पच्चीस” जैसे नारे। परन्तु सत्तासीन होने के बाद फ़ासीवाद अपने मालिक वर्ग के समर्थन में खड़ा होता है। इस टुटपुँजिया “पीले चेहरे वाले नौजवानों” की आबादी की ताक़त का इस्तेमाल तो फासीवादी ताक़तें केवल एक प्रतिसन्तुलनकारी ताक़त के रूप में करती हैं, ताकि मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी ताक़तों को रोक सकें, कुचल सकें। फ़ासीवाद बड़ी पूँजी का सबसे निर्मम और बर्बर चाकर होता है। जर्मनी और इटली में हमें यह उदाहरण बखूबी देखने को मिलता है। सत्ता में आकर पूँजीवादी लूट की छूट मिली और मज़दूर आन्दोलन को जमकर कुचला गया। गुजरात में मोदी ने जो किया संघ अब यही देश स्तर पर लागू करने की जुगत में भिड़ा हुआ है। आर्थिक असामनता सामाजिक ध्रुवीकरण पर झूठे विकास की चिप्पियाँ लगाकर ही मोदी सरकार बनाने कि जुगत में बैठा है। यहाँ बात सिर्फ मोदी की नहीं है क्योंकि फ़ासीवाद संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत और उपज है। यह अकारण नहीं है कि समूचा कारपोरेट जगत और उसका टुकड़खोर मीडिया मोदी का चारण-भाट बना बैठा है!

मिला-जुला रहा 2013, 2014 से है उम्मीद



भारत विविधताओं भरा देश है। हमलोग एक दूसरे से जुड़े हुए है। हमलोगों का जो इतिहास है, वह बहुत ही रोमांटिक है। इसमें शाहजहां, सिकंदर, अकबर, बुद्ध, महावीर, अशोकसब हमारे हैं। चाहे वे किसी भी देश या प्रांत से भारत आये हों. यही नयी राष्ट्रीयता भारत की है। हम ताजमहल को देख कर चकित होते हैं, उसी तरह से अजंता या एलोरा को देख कर भी। सभी को हम अपना मानते हैं। अपने-अपने राज्य में पार्टियां कुछ बोलती हैं, लेकिन जब दिल्ली आती हैं, तो यहां वे समझौता कर लेती हैं। इसलिए भारत के संघीय स्वरूप पर किसी तरह का कोई खतरा नहीं है। सौदा जरूर हो रहा है, लेकिन यह मुद्दों पर होना चाहिए, पॉलिसी पर होना चाहिए न कि मुद्रा पर। आज भारत जिस दौर से गुजर रहा है, उस दौर से तकरीबन सभी देश गुजरे हैं। लेकिन संतुलन के साथ हमें आगे निकलना है, तभी हम 2014 में एक सुखद, स्वस्थ और निर्भीक भारत का निर्माण कर पायेंगे।
2014 का पहला सूरज अपने साथ नयी आस लेकर आया है। 2013 हमें यह सीख दे गया है कि अगर जनता जागरूक हो, तो बड़ा से बड़ा बदलाव भी मुमकिन है। राजनीति समेत विभिन्न क्षेत्रों के जानकार ले रहे हैं जायजा 2014 की चुनौतियों और उम्मीदों का। संसद से दागी सजायाफ्ता सदस्यों के निष्कासन और उच्चतर न्यायपालिका की सक्रियता ने आकांक्षाओं के जिस ज्वार को जन्म दिया है वह एकाएक थमनेवाला नहीं। अब तक ‘माई-बाप’ सरकार के आगे हाथ फैलाने वाले हम-आप अब राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी का स्वाद चख चुके हैं।
2013 में जो अशुभ संकेत सामने आये हैं, उनकी अनदेखी करना 2014 के स्वागत की उतावली में हमारे लिए आत्मघातकजोखिम ही पैदा कर सकता है। भलाई इसमें है कि हम इन चुनौतियों का सामना एकजुट हो करने के संकल्प के साथ नये साल की पारंपरिक शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करें और आशा भरी नयी सुबह की अगवानी की तैयारी करें। सबसे बडी और जटिल चुनौती देश की एकता और अखंडता की रक्षा की है। सरकार की स्थिरता के बारे में चिंतातुर राजनीतिक दलों को यह सोचने की फुर्सत नहींरही है कि जिस कीमत पर चुनावी जीत हासिल की जाती रही है उसने जनादेश को खंडित ही नहीं किया है, जनमत को भी बहुत बुरी तरह विभाजित कर दिया है। भाजपा का यूपीए पर जोरदार हमला दैत्याकार भ्रष्टाचार, दिशाहीन लकवाग्रस्त प्रशासन के साथ-साथ कुनबापरस्ती एवं व्यक्तिपूजा पर रहा है।
बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण लोगों के बीच गहरा असंतोष पैदा हो गया है । इसने देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौती खड़ी की है। आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से नये वर्ष के संदर्भ में यही कहा जा सकता है सुशासन और नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल से ही हम इस दौड़ में जीत सकते हैं। सुशासन से ही लोगों के गुस्से को शांत किया जा सकता है और शांति कायम की जा सकती है। गवर्नेस और आंतरिक सुरक्षा आपस में गहराई से जुड़े हुए मसले हैं। गुड गवर्नेस यानी सुशासन का आशय पूर्ण जवाबदेही, ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ भागीदारी, उत्तरदायी, भेदभाव रहित और जिम्मेवार प्रशासन से है। इसके माध्यम से ही समग्र विकास (शिक्षा, आर्थिक और ढांचागत विकास, रोजगार के अवसर, प्राकृतिक संसाधनों आदि) का सपना साकार किया जा सकता है। इतना ही नहीं, सुशासन के तहत शिक्षा के प्रचार-प्रसार से लोगों के नैतिक चरित्र में सुधार भी लाया जा सकता है ताकि उनमें सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, पारस्परिकता और असहमति के स्तर पर सुधार हो सके। संक्षेप में कहें तो सुशासन की पहचान वैधता, भागीदारी और वितरण से होती है। सुशासन के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक, आर्थिक, कार्यकारी और न्यायिक प्राधिकारी लोग इस तरह अपने दायित्वों का निर्वहन करें कि आम लोग अपने अधिकारों और विवादों को कानून के दायरे में रह कर हल कर सकें।
नयी उभरती चुनौतियों के मद्देनजर भारत को सुरक्षा-सुशासन की ओर ध्यान देना होगा. सरकार को बदलती परिस्थितियों के अनुसार न सिर्फ रणनीति में बदलाव लाना होगा, बल्कि नये संसाधनों का भी इस्तेमाल करना होगा। अगर बात सीमा सुरक्षा की करें तो कारगिल युद्ध के बाद इस दिशा में सुधार के कई नये मानदंड तय किये गये। लेकिन गुजरे वर्ष में जिस तरहे से पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ की कोशिशें सामने आयीं, वह तय मानदंड को पूरा न करने का उदाहरण है। बोधगया, पटना जैसे शहरों तक आंतकी वारदातों ने आंतरिक सुरक्षा को और भी कठिन बना दिया है। आतंकवाद का खतरा बढ़ता जा रहा है। आतंकवादियों के पास केमिकल, बॉयोलॉजिकल, रेडियोलॉजिकल और परमाणविक बमों का खतरा बढ़ता दिख रहा है।
ओड़िशा में आये तूफान का सामना तो हमने बेहतर तरीके से किया, लेकिन किसी बड़े आतंकी घटनाओं से निबटने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण न ही राष्ट्रीय स्तर पर, न ही राज्य, जिला या दूर-दराज के इलाकों में पूरी तरह तैयार दिखता है। नक्सलवादियों से लेकर आतंकियों तक विस्फोट के लिए आइइडी का इस्तेमाल कर रहे हैं। आइडी में उर्वरकों में इस्तेमाल होने वाले रसायन अमोनियम नाइट्रेट एक मुख्य घटक है। सरकार को इसके सप्लाई चेन पर विशेष निगरानी करने की जरूरत है।
आकाश, जमीन और समुद्र से आनेवाले खतरों के बाद एक बहुत बड़ी चुनौती साइबर हमले से बचाव की भी है। मौजूदा समय में यह आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण मसला है। पिछले वर्ष कई सरकारी व गैर सरकारी सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण वेबसाइटों को हैक करने की कोशिशें हुईं। इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम ने विश्लेषण के आधार पर सुरक्षात्मक उपाय बताये हैं, जिन्हें समय रहते अमल में लाना चाहिए।
गृह मंत्रलय की खुफिया डाटाबेस तैयार करने के लिए महत्वाकांक्षी नेटग्रिड योजना को जल्द से जल्द यथार्थ रूप देने की पहल होनी चाहिए। जहां कहीं भी केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा सुरक्षा मुहैया कराने की बात हो, उसमें निजी क्षेत्र की साङोदारी बेहद कम या नाममात्र की है। आंतरिक सुरक्षा को अभेद्य बनाने के वास्ते तकनीक निर्माण के क्षेत्र में सहयोग के लिए निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की जरूरत है। कुल मिलाकर, आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से नये वर्ष के संदर्भ में यही कहा जा सकता है सुशासन और नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल से ही हम इस दौड़ में जीत सकते हैं। सुशासन से ही लोगों के गुस्से को शांत किया जा सकता है और शांति कायम की जा सकती है। हालांकि सुशासन मात्र से ही आतंरिक सुरक्षा के हरेक मोरचे पर पूरी कामयाबी हासिल नहीं हो सकती, लेकिन इसके बगैर खतरा तेजी से बढ़ेगा।
भारत में वर्ष 2014 में सबसे बड़ी चुनौती चालू बचत घाटे को काबू में करने की है। दूसरी चुनौती मनी सप्लाई यानी मुद्रा छापने की आदत में बदलाव लाने की है, क्योंकि जब कभी पैसा कम हो जाता है, हम नोट छाप लेते हैं। इससे दाम बढ़ जाता है। नोट ज्यादा हो जाते हैं, जबकि समान उतना ही रहता है। महंगाई में जो बढ़ोतरी होती है, उसके दो कारण होते हैं। पहला कारण उत्पादन में गिरावट है, जबकि दूसरा कारण उत्पादन वही रहा, लेकिन उसके मुकाबले ज्यादा पैसा आ गया। ऐसी स्थिति में भी महंगाई बढ़ती है। भारत के 25 करोड़ परिवारों में से तीन करोड़ परिवार सरकारी मुलाजिम हैं। इनके पास ‘पे कमीशन’ से पैसा बढ़ता है। बड़ी कंपनियों में भी अनेकानेक सुविधाएं और महंगाई भत्ता मिलता है। इसलिए ऐसे परिवारों को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। इनके पास जब ज्यादा पैसा आता है, तो उनके आसपास रहनेवाले लोग भी दाम बढ़ा देते हैं। लेकिन दूसरी ओर नये सेक्टर यानी संगठित क्षेत्र, जो रेफ्रिजेरेटर या मोटर बनाते हैं, उनका दाम वही होता है। चाहे वह भारत में खरीदें या चीन में, दाम लगभग बराबर होता है। लेकिन यदि आप टमाटर या सब्जी खरीदें, तो उसका दाम अमेरिका में अलग, चीन में अलग और भारत के अलग-अलग शहरों में अलग होता है। किसान को देसी दाम पर अपने सामान को बेचने को कहा जाता है, जबकि किसान से खरीदे गये सामान को विदेशी दाम पर बेचा जाता है। यह न्यायोचित नहीं है। इसीलिए अभी इंडिया और भारत के बीच एक तनाव चल रहा है और यह तनाव दाम को लेकर है।
वर्ष 2014 में एक और चुनौती यह है कि इस साल लगभग एक करोड़ लोग वर्क फोर्स में आ रहे हैं, जिन्हें नौकरी चाहिए। उनके लिए नौकरियों की जरूरत होगी। आजकल उद्योग धंधे नहीं लग रहे हैं। जो हैं वे बंद हो रहे हैं या फिर बंदी के कगार पर पहुंच रहे हैं। खेत में कितने लोग काम करेंगे। अगर फैक्ट्री के लिए जमीन नहीं मिलती है, तो वह उसे कहां लगायेंगे। जमीन मिलती भी है, तो कारखाने लगाने में अन्य समस्याएं आ जाती हैं। इसीलिए इसकी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए कुछ नये कानून लाया जाना चाहिए। कारखाने लगाने में जोर देना चाहिए। भारत को उद्योग निर्भर देश बनाना चाहिए। यह बड़ा चुनौती है। जैसे ही फैकटरी लगायी जाती है, दूसरे दिन यूनियन के लोग पहुंच जाते हैं। उन्हें बंद कराने की कोशिश करने लगते हैं। वेतन बढ़ाने की मांग करने लगते हैं। पिछले साल छोटे, मंझोले और बड़े लाखों कारखाने बंद हुए हैं। जो देश की सेहत के लिए नुकसानदायक है। ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चल सकता है। उपरोक्त चुनौतियों से निपटना बहुत जरूरी है।