Friday, 27 December 2013

सामाजिक सरोकार से सरोबार रही कांग्रेस


कांग्रेस के स्थापना दिवस 28 दिवस पर विशेष 



वर्ष 2010 की बात है। 19 दिसंबर को कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी ने लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हम लोगों की ऐसी पार्टी है जिसका गरिमापूर्ण भूतकाल है। हमारी पार्टी भविष्य की पार्टी है, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह हरेक भारतीय के बीच उम्मीद जगाए रखे। यह हमारी पुकार है और हमारा दायित्व भी है। इस महाधिवेशन से यह संदेश लोगों के बीच जाना चाहिए कि कांग्रेस को अपनी शक्ति, अपनी जिम्मेवारी का बोध है। हम सब मिलकर ही अपनी शक्ति बढ़ा सकेंगे। हम सब एकजुट होकर ही अपना दायित्व निभा सकेंगे। हम सब मिलकर ही आम लोगों द्वारा अपने प्रति कायम आस्था एवं विश्वास के अनुरूप अपने को साबित कर सकते हैं।’
मौका था कांग्रेस अधिवेशन का। इसी अधिवेशन में कांग्रेस के उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने कहा, ‘ भारत में ‘आम आदमी’ वह है, जो देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है। चाहे वह गरीब हो अथवा धनी, हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई हो, शिक्षित हो अथवा अशिक्षित, यदि वह देश की प्रणाली से जुड़ा हुआ नहीं है तो वह एक आम आदमी है। हम उन्हें आम आदमी कह सकते हैं, परन्तु वास्तव में वह अनोखा है। उनमें पर्याप्त क्षमता, बुद्धि एवं शक्ति है। वह अपने जीवन के हर दिन इस देश के निर्माण में लगा रहता है, परन्तु हमारी प्रणाली हर कदम पर उन्हें कुचलती रहती है....हम लोग तब तक किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते जब तक कि हम एक ऐसी प्रणाली का निर्माण नहीं कर लेते, जिसमें किसी व्यक्ति की प्रगति इस बात पर निर्भर नहीं करेगी कि वह किस-किस को जानता है, बल्कि वह क्या जानता है। यह हमारी पीढ़ी के सामने एक चुनौती है।’
दरअसल, कांग्रस के दो वरिष्ठ नेताओं का वक्तव्य यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस ने हमेशा ही आम आदमी और जन सरोकार से जुड़े मुद्दों को ही उठाया है। राजनीति पार्टी के लिए सेवा का सबसे सशक्त माध्यम रही है। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना, 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसम्बर 1885 को बॉम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी। इसके प्रथम महासचिव (जनरल सेक्रेटरी) ए ओ ह्यूम थे एवं कोलकता के वोमेश चंद्र बैनर्जी प्रथम पार्टी अध्यक्ष थे। अपने शुरूवाती दिनों में कॉंग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्गीय संस्था का था। इसके शुरूवाती सदस्य मुख्य रूप से बॉम्बे और मद्रास प्रैजिÞडेंसी से थे। स्वराज का लक्ष्य सबसे पहले बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया था। 1907 में काँग्रेस में दो दल बन चुके थे, गरम दल एवं नरम दल। गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल(जिन्हें लाल-बाल-पाल भी कहा जाता है) कर रहे थे। नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी कर रहे थे। गरम दल पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा था परन्तु नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था। प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने के बाद सन 1916 की लखनऊ बैठक में दोनों दल फिर एक हो गए और होम रूल आंदोलन की शुरूआत हुई जिसके तहत ब्रिटिश राज में भारत के लिए अधिराज्य अवस्था(डॉमिनियन स्टेटस) की माँग की जा रही थी। परन्तु 1916 में गांधी जी के भारत आगमन के साथ काँग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया। चम्पारन एवं खेड़ा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन समर्थन से अपनी पहली सफलता मिली। 1919 में जालियाँवाला बाग हत्याकांड के पश्चात गांधी जी कॉंग्रेस के महासचिव बने। गांधीजी के मार्गदर्शन में कॉंग्रेस कुलीन वर्गीय संस्था से बदलकर एक जनसमुदाय संस्था बन गयी। तद्पश्चात राष्ट्रीय नेताओं की एक नयी पीढ़ी आई जिसमें सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरु, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, महादेव देसाई एवं सुभाष चंद्र बोस शामिल थे। गांधीजी के नेतृत्व में प्रदेश काँग्रेस कमेटियों का निर्माण हुआ, काँग्रेस में सभी पदों के लिए चुनाव की शुरूआत हुई, सभी भेद-भाव हटाए गए एवं कार्यवाहियों के लिए भारतीय भाषाओं का प्रयोग शुरू हुआ। काँग्रेस ने कई प्रान्तों में सामाजिक समस्याओं को हटाने के प्रयत्न किये जिसमें छुआछूत, पर्दाप्रथा एवं मद्यपान शामिल थे। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत के मुख्य राजनैतिक दलों में से एक रही है। इस दल के कई प्रमुख नेता भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी इसी दल से थे। कांग्रेस भारत की वर्तमान गठबंधन सरकार का मुख्य दल है, एवं वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी इसी दल से हैं।
कांग्रेस का जन्म सिर्फ आर्थिक शोषण और राजनीतिक दासता के कारण ही नहीं हुआ। इसमें संदेह नहीं की कि कांग्रेस के राजनीतिक लक्ष्य भी थे, लेकिन वह राष्ट्रीय पुनर्जागरण आंदोलन का अंग और अभिव्यक्ति मंच भी बन गयी थी। कांग्रेस के जन्म से पचास साल से भी पहले से राष्ट्रीय पुनर्जागरण की शक्तियां काम कर रही थीं। वास्तव में राजा राम मोहन राय के समय से ही राजनीतिक जीवन में सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। एक तरह से राममोहन राय को भारतीय राष्ट्रवाद का मसीहा और आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। उनका दृष्टिकोण बहुत व्यापक था और वे सच्चे अर्थों में युगद्रष्टा थे। यह सही है कि अपनी सुधारवादी गतिविधियों में उन्होंने सबसे अधिक ध्यान अपने समय की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर दिया। लेकिन उन्हें अपने समय में देश पर हो रही भयंकर राजनीतिक ज्यादतियों का पूरा एहसास था और उन्होंने इन ज्यादतियों से जल्दी से जल्दी मुक्ति पाने के लिए अथक संषर्घ किया। १७७६ में जन्मे राममोहन राय का निधन  1833 में ब्रिस्टल में हुआ। उनका नाम भारत के दो प्रमुख सामाजिक सुधारों से जुड़ा हुआ है। यह है सतीप्रथा का अन्त, और देश में पश्चिमी शिक्षा की शुरूआत। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे इंग्लैंड गये। आजादी के लिए उनकी तड़प इनती अधिक थी कि उत्तमाशा अन्तरीप पहुंचाने पर उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें फ्रांस के उस जहाज पर ले जाया जाए जिस पर उन्होंने आजादी का ध्वज फहराता देखा था ताकि वे उस ध्वज के प्रति सम्मान व्यक्त कर सकें। ध्वज को देखते ही वे चिल्ला पड़े, ''ध्वज ही जय हो'', ''जय हो'' यद्यपि वे इंग्लैंड मूल रूप से मुगल सम्राट के दूत के रूप में लंदन में उसके हितों की वकालत करने गये थे लेकिन हाउस आफ कामन्स की समिति के समक्ष भारतीयों की कुछ ज्वलंत समस्याओं का उल्लेख करने से नहीं चुके। उन्होंने भारत की राजस्व व्यवस्था, भारत की न्यायिक व्यवस्था और भारतीय माल की स्थिति के बारे में तीन पत्र समिति में पेश किए। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके सम्मान में सार्वजनिक रूप से रात्रिभोज का आयोजन किया। 1832 में जब ब्रिटिश संसद में चार्टर कानून पर विचार हो रहा था तो उन्होंने कसम खाई कि यदि यह विधेयक पास न हुआ तो वे ब्रिटिश उपनिवेश छोड़कर अमरीका में रहने लगेंगे। 1858 में भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी तथा 1861 और 1863 के बीच उच्च न्यायालय और विधान परिषदें कायम की गयीं। सैनिक क्रांति से कुछ ही दिन पहले 'विधवा पुनर्विवाह कानून' और ईसाई धर्म स्वीकार करने से सम्बद्ध कानून पास किए गए। 1860 के दशक में पश्चिमी शिक्षा और साहित्य में निकट सम्पर्क कायम हुआ। पश्चिमी कानूनी और संसदीय प्रक्रियाएं अपनाये जाने से कानून और विधान के क्षेत्र में नए युग का सूत्रापात हुआ। पूर्व पर पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव ने भारतीय जनता के विश्वासों और भावनाओं पर गहरा असर डाला।
केवल बंगाल, बम्बई और मद्रास प्रांतों में ही आधुनिक पद्धति पर थोड़ी बहुत शिक्षा उपलब्ध हुई। इस प्रांतों में भी शिक्षित लोगों की संख्या बहुत कम थी। सैनिक क्रांति के बाद की परिस्थितियों में इन शिक्षित लोगों को अपनी महत्वकाक्षाएं पूरी करने का काफी अवसर मिला। इन लोगों ने अपने अँग्रेज आकाओं की तरह सोचना शुरू कर दिया और पश्चिमी से आने वाली हर चीज का समर्थन और अनुसरण किया। अँग्रेजों के अंधानुकरण का यह दौर बंगाल में विशेष रूप से मुखर था। लेकिन जल्दी ही इस प्रक्रिया का विरोध होने लगा और यह विरोध कई रूपों में सामने आया। कभी पश्चिमी और पूर्व के समन्वय के रूप में और कभी अतीत को वापस लौटते पुनर्जागरण के रूप में। राममोहन राय के जीवन काल में बोए गए धार्मिक सुधारकों के बीज फलित होने लगे। राममोहन राय के उत्तराधिकारी केशव चन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज का दूर-दूर तक प्रचार किया और उसके सिद्धांतों को नई समाजोपयोगी दिशा दी। उन्होंने आत्म संयम आंदोलन पर ध्यान केंद्रित किया और इंग्लैंड के सुधारकों का समर्थन किया। 1872 में कानूनी विवाह अधिनियम-३ पास कराने में उनका काफी बड़ा हाथ था। बंगाल में ब्रह्?म समाज के प्रसार का पूरे देश पर असर पड़ा। पूना में इस आंदोलन में एम.जी. रानाडे के नेतृत्व में प्रार्थना समाज बना। एम.जी. रानाडे को समाज सुधार आंदोलन के प्रणेता के रूप में याद किया जाता रहेगा। यह आंदोलन लम्बे समय तक कांग्रेस से जुड़ा रहा। इस सुधारवादी आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि यह अतीत की परंपराओं और देश में सदियों से चले आ रहे विश्वासों और मान्यताओं का विरोधी था। विरोध की यह भावना पश्चिमी संस्थाओं की अनावश्यक चकाचौंध से जन्मी थी और इससे जुड़ी हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने इसे और प्रखर बना दिया। राष्ट्र की पारम्परिक मान्यताओं की विरोध की इस प्रवृत्ति का सुधारवादी आंदोलनों द्वारा विरोध होना स्वाभाविक ही था।
उत्तर पश्चिम में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज और दक्षिण में थियोसोफिकल आंदोलन ने पश्चिमी शिक्षा और आचार के साथ आयी पाखंड और धर्मान्धता की भावना को पनपने से रोकने के लिए दीवार का काम किया। यह दोनों ही आंदोलन घोर राष्ट्रवादी थे। केवल दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से जन्में आर्य समाज का राष्ट्रवाद कुछ अधिक प्रखर था। आर्य समाज ने वेदों और वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता और आमोघता का प्रचार तो किया लेकिन साथ ही वह व्यापक सामाजिक सुधारकों का हिमायती नहीं था। इस प्रकार उसने राष्ट्र में एक प्रबल पौरुष की भावना पैदा की जो उसकी विरासत और वातावरण के सर्वोत्तम समन्वय का प्रतीक थी। उसने हिन्दू धर्म के धार्मिक अंधविश्वासों और उस समय की सामाजिक बुराइयों के खिलाफ उसी तरह से संघर्ष किया जैसे ब्रह्?म समाज ने बहुदेववाद, मूर्तिपूजा और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया था। थियोसोफिकल आंदोलन ने अपने अध्ययन और सहानुभूति का क्षेत्र तो विश्व व्यापी रखा लेकिन पूर्व की संस्कृति की शानदार और महान परम्पराओं की पुनर्स्थापना पर विशेष जोर दिया। इसी भावना से प्रेरित होकर श्रीमती एनीबेसेंट ने भारत के तीर्थ स्थल बनारस में एक कालेज की स्थापना की। थियोसोफिकल आंदोलन की गतिविधियों ने अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे की भावना को बलवती करने के साथ-साथ पश्चिम की तार्किक श्रेष्ठता पर अंकुश लगाने में भी मदद की और भारत में एक नया सांस्कृतिक केंद्र विकसित किया जिसने पश्चिम के विद्वानों और पंडितों को एक बार फिर इस प्राचीन देश की ओर आकृष्ट किया।
भारत में कांग्रेस के जन्म से पहले राष्ट्रीय पुनर्जागरण का ताजा चरण महान्? संत रामकृष्ण परमहंस के नेतृत्व में बंगाल में शुरू हुआ। स्वामी रामकृष्ण ने बाद में स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से पूर्व और पश्चिम तक अपना संदेश पहुंचाया। रामकृष्ण मिशन केवल एक ओर तंत्र मंत्र और दूसरी ओर यथार्थवाद से जुड़ा संगठन नहीं है, बल्कि यह गहन अतर्ज्ञानवाद से जुड़ा था जो लोक संघर्ष या समाजसेवा के सर्वोच्च कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हुआ। अमरीका में 'तूफानी हिन्दू' के नाम से मशहूर स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका, यूरोप, मिस्र, चीन और जापान में केवल भारत का संदेश ही नहीं पहुंचाया बल्कि वे स्वयं भी पश्चिम की संस्कृति से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने भारत में हिमालय से कन्याकुमारी तक पुनरुद्धार का नया संदेश दिया। उन्होंने मुक्ति और समानता के साथ-साथ जन-जागरण का विशेष जोर दिया। वे पश्चिमी की प्रगति और भारत के आध्यात्म का समन्वय चाहते थे। उनके भाषणों और लेखों का एक ही मूल मंत्र था ''निडर और मजबूत बनो क्योंकि कमजोरी पाप है। मृत्यु का द्वार है।'' विवेकानन्द के समकालीन लेकिन उनसे बहुत बाद की पीढ़ी के प्रतिनिधि थे रवीन्द्र नाथ टैगोर। टैगोर परिवार ने 19वीं वीं सदी में बंगाल में अनेक सुधारवादी आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई। इस परिवार ने देश को अनेक आध्यात्मिक नेता और कलाकार दिए। भारत के मानस पर टैगोर का प्रभाव और उसके साहित्य, कविता, नाटक, संगीत, सामाजिक और शैक्षिक पुनर्निर्माण तथा राजनीतिक विचारधारा पर टैगोर की छाप का सौंदर्य और गहनता अभूतपूर्व है। यह छाप मानव के व्यक्तित्व और मस्तिष्क का ऐसा अद्भुत उदाहरण है जो भावी पीढ़ियों को प्रभावित करता रहेगा और नए रंग देगा। वास्तव में टैगोर का योगदान पूर्व और पश्चिम, आधुनिक और प्राचीन तथा देश में उभरते राष्ट्रवाद तथा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच का अद्भुत समन्वय है। ये धाराएं और आंदोलन वास्तव में नई राष्ट्रीय चेतना और उमंग के प्राण थे और यही धीरे-धीरे कदम-दर-कदम आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में साकार हुए।


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