Monday, 16 December 2013

नहीं करें कन्फ्यूजन की राजनीति




क्या दिल्ली में दुबारा चुनाव होंगे? क्या दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगेगा या फिर अभी भी यहां सरकार बनने की कोई संभावना जीवित है? ऐसे कई सवाल हैं जिसने दिल्ली की सियासत को कन्फ्यूज कर रखा है। कैपिटल दिल्ली कन्फ्यूज है। कन्फ्यूजन में जनादेश का भी कबाड़ा हो गया। आम आदमी पार्टी के कमाल का ख्याल 28 के अंकों में उलझ गया। सत्ता के लिए ह्यआपह्ण का दरवाजा खोलने या बंद रखने पर खूब माथापच्ची हुई। आंकड़ों के अंकगणित की ये उलझन नेताओं को रात में भी कन्फ्यूज कर रही है। कोई कन्फ्यूज हो न हो कम से कम कांग्रेस कतई कन्फ्यूज नहीं। कन्फ्यूजन की इस किचकिच में कमल भी कन्फ्यूज है। विजय गोयल और नितीन गडकरी के बयानों के विरोधाभास ने तो कन्फ्यूजन और भी गहरा कर दिया। विजय गोयल ने ‘आप’ के समर्थन पर सोचने का इशारा किया तो नितिन गडकरी ने फौरन उनकी दुकान ही बंद करा दी।
राजनीति से परे रह कर आंदोलन तो हो सकता है, लेकिन उससे व्यवस्था नहीं बदल सकती। यही अब आम आदमी पार्टी के लिए भविष्य की चुनौती भी है। केजरीवाल की पार्टी दिल्ली विधानसभा की 28 सीटें जीतने में सफल रही है, लेकिन इस पार्टी का कोई राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक कार्यक्रम अब तक नहीं बन पाया है। आम जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है, केजरीवाल ने उनमें एक उम्मीद जगाई है। लेकिन यदि वे सत्ता में आ भी गए, तो उन्हें संवैधानिक दायरे में रह कर ही काम करना पड़ेगा। उन्हें संविधान के अनुरूप कार्यनीति और योजनाएं तैयार करनी होगी। भारतीय राजनीति, समाज, अर्थशास्त्र और विकास की पेचीदगियों को भली प्रकार से समझना पड़ेगा और पार्टी की एक वैचारिक दिशा तय करनी होगी। यह भी देखना होगा कि आम आदमी को सहूलियतें देनेवाली सरकार चलाने के लिए साधन कहां से आये, इसका बोझ किन पर पड़े। इस संबंध में आम आदमी पार्टी की वैचारिक दिशा, नीति और कार्यक्रम अभी स्पष्ट नहीं है। आर्थिक असमानता और बेरोजगारी की समाप्ति के साथ-साथ भ्रष्टाचार से लड़ने और सूचना के अधिकार को बेहतर रूप प्रदान करने के लिए उन्हें नीतियां बनानी ही पड़ेंगी। यही उनके नेताओं और पार्टी का चरित्र भी निर्धारित करेगा और इसी से लोग जान पायेंगे कि केजरीवाल के वादों और दावों में कितना दम है। दिल्ली पहले केंद्रशासित प्रदेश था। वहां विधानसभा बन गयी,  मुख्यमंत्री का पद भी सृजित हो गया, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था अब भी राज्य सरकार के पास नहीं है, जबकि संविधान में अधिकारों का जो विभाजन किया गया है, उसमें कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। इस संबंध में ‘आप’ का दृष्टिकोण क्या होगा, इसकी घोषणा अभी नहीं हुई है। आंध्र प्रदेश में तेलुगूदेशम पार्टी के संस्थापक अभिनेता नंदमूरि तारक रामाराव गैर-कांग्रेसवाद के नायक रहे हैं। उन्होंने तेलुगू अस्मिता की आवाज बुलंद की। लेकिन राज्य की जनता ने उनकी पार्टी को तीन बार इसलिए मौका दिया, क्योंकि उन्होंने राज्य के सामाजिक-आर्थिक विकास की नीतियां बनायीं और उन पर अमल भी किया। वे देश की वृहत्तर राजनीति से अलग नहीं थे। इसलिए उन्होंने चुनाव की राजनीति में दोस्त और दुश्मन की पहचान भी की। गंठबंधन की राजनीति के दौर में यह तय करना जरूरी माना जाता है।
गांधीजी को लोग संत मानते हैं, लेकिन वे भी राजनीतिक संत थे। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में क्या करना है और क्या नहीं करना है, यह तय कर रखा था। उनका अपना राजनीतिक और आर्थिक दर्शन था। उन्हें राजनीति से परहेज नहीं था। उन्होंने देश-विदेश में जो आंदोलन किये, वह भी राजनीति थी। जाहिर है, आंदोलन कोई भी हो, उसे जीवन और समाज के सभी पहलुओं को समेटना पड़ेगा, उससे भाग कर कोई हल नहीं हो सकता। आंदोलन के जरिये केवल भीड़ बटोर कर ही निर्णय होंगे, तो उससे व्यवस्था नहीं, बल्कि भीड़तंत्र ही पनपेगा और यह भीड़तंत्र व्यवस्था का संचालक नहीं हो सकता। इसलिए यदि केजरीवाल भी अन्ना के दलविहीन राजनीति की कल्पना पर आधारित विचार और कार्यक्रमविहीन दल की ओर बढ़ेंगे, तो उनकी कठिनाइयां ही बढ़ेंगी।



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