Wednesday, 30 October 2013

राजनीति में दुर्गा थीं इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में अजीब-सा जादू था। लोग खुद ब खुद उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। वह एक प्रभावी वक्ता भी थीं, जो अपने भाषणों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की साम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे।


भारतीय राजनीति के फलक पर श्रीमती इंदिरा गांधी का उभार ऐसे समय में हुआ था, जब देश नेतृत्व के संकट से जूझ रहा था। शुरू में ‘गूंगी गुड़िया’ कहलाने वाली इंदिरा ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व से न केवल देश को कुशल नेतृत्व प्रदान किया, बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की धाक जम दी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह के अनुसार, इंदिरा एक कुशल प्रशासक थीं। उनके सक्रिय सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया। जिससे इतिहास और भूगोल दोनों बदल गए। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बचपन से ही इंदिरा में नेतृत्व के गुण मौजूद थे। भारत की आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए इंदिरा ने बचपन में ही ‘वानर सेना’ का गठन किया था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कलीम बहादुर के अनुसार, इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्रित्व काल बहुत अच्छा था। उन्होंने बहुत से ऐसे काम किए, जिससे विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा। उन्होंने भारत की विदेश नीति को नए तेवर दिए, बांग्लादेश का बनना उनमें से एक उदाहरण है। इससे उन्होंने विश्व मानचित्र पर देश का दबदबा कायम किया। जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू के घर इंदिरा का जन्म 19 नवंबर 1917 को हुआ था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ओर से स्थापित शांति निकेतन में पढ़ाई करने वाली इंदिरा बचपन में काफी संकोची स्वभाव की थीं। इनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के आनंद भवन में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम है- श्इंदिरा प्रियदर्शनी गाँधीश्। इनके पिता का नाम जवाहरलाल नेहरु और दादा का नाम मोतीलाल नेहरु था। पिता एवं दादा दोनों वकालत के पेशे से संबंधित थे और देश की स्वाधीनता में इनका प्रबल योगदान था। इनकी माता का नाम कमला नेहरु था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इंदिराजी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो आर्थिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टि से काफी संपन्न था। अतरू इन्हें आनंद भवन के रूप में महलनुमा आवास प्राप्त हुआ। इंदिरा जी का नाम इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरु ने रखा था। यह संस्कृतनिष्ठ शब्द है जिसका आशय है कांति, लक्ष्मी, एवं शोभा। इनके दादाजी को लगता था कि पौत्री के रूप में उन्हें मां लक्ष्मी और दुर्गा की प्राप्ति हुई है। पंडित नेहरु ने अत्यंत प्रिय देखने के कारण अपनी पुत्री को प्रियदर्शिनी के नाम से संबोधित किया जाता था। चूंकि जवाहरलाल नेहरु और कमला नेहरु स्वयं बेहद सुंदर तथा आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, इस कारण सुंदरता के मामले में यह गुणसूत्र उन्हें अपने माता-पिता से प्राप्त हुए थे। इन्हें एक घरेलू नाम भी मिला जो इंदिरा का संक्षिप्त रूप श्इंदुश् था।
इंदिरा गांधी कभी भी अमेरिका जैसे राष्ट्रों के सामने झुकी नहीं। विकीलिक्स की ओर से किए गए खुलासों में यह बात सामने आई है कि निक्सन जैसे शक्तिशाली राष्ट्रपति भी उनसे काफी नाराज थे। लेकिन उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। अपनी राजनीतिक पारी के शुरुआती दिनों में ‘गूंगी गुड़िया’ के नाम से जानी जाने वाली इंदिरा बाद के दिनों में बहुत बड़ी ‘जननायक’ बन कर उभरीं। उनके व्यक्तित्व में अजीब सा जादू था, जिससे लोग खुद ब खुद उनकी तरफ खिंचे चले आते थे। वह एक प्रभावी वक्ता भी थीं, जो अपने भाषणों से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं।
रूसी क्रांति के साल 1917 में 19 नवंबर को पैदा हुईं इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में विश्व शक्तियों के सामने न झुकने के नीतिगत और समयानुकूल निर्णय क्षमता से पाकिस्तान को परास्त किया और बांग्लादेश को मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत को एक नया गौरवपूर्ण क्षण दिलवाया। दृढ़ निश्चयी और किसी भी परिस्थिति से जूझने और जीतने की क्षमता रखने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने न केवल इतिहास, बल्कि पाकिस्तान को विभाजित कर दक्षिण एशिया के भूगोल को ही बदल डाला और 1962 के भारत चीन युद्ध की अपमानजनक पराजय की कड़वाहट धूमिल कर भारतीयों में जोश का संचार किया।
यदि यह कहा जाए कि हमारे देश में इंदिरा गांधी आखिरी जन नायक थीं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उनके बाद कभी उन जैसे राजनेता नहीं हुआ। आपातकाल लगाने के बाद उन्हें चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, लेकिन फिर से चुनाव में वह विजयी होकर लौटीं और अकेले अपने दम पर सरकार का गठन किया। आज गठबंधन की सरकारें बन रही हंै। आज के किसी भी राजनेता में इंदिरा गांधी की तरह वह जादुई ताकत नहीं है कि अपने अकेले दल के दम पर सरकार बना सके। पंजाब में आतंकवाद का सामना करते हुए अपने प्राणों की आहूति देने वाली इंदिरा गांधी को अपने छोटे बेटे संजय गांधी के आकस्मिक निधन से काफी दुख पहुंचा था। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में लगभग 10 सालों तक शामिल रहे कर्ण सिंह ने कहा कि संजय के निधन से उन्हें काफी दुख पहुंचा था, लेकिन राजीव गांधी से उन्हें काफी संबल मिला।
1957 के आम चुनाव के समय पंडित नेहरू ने जहाँ श्री लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेसी उम्मीदवारों के चयन की जिम्मेदारी दी थी, वहीं इंदिरा गाँधी का साथ शास्त्रीजी को प्राप्त हुआ था। शास्त्रीजी ने इंदिरा गाँधी के परामर्श का ध्यान रखते हुए प्रत्याशी तय किए थे। लोकसभा और विधानसभा के लिए जो उम्मीदवार इंदिरा गाँधी ने चुने थे, उनमें से लगभग सभी विजयी हुए और अच्छे राजनीतिज्ञ भी साबित हुए। इस कारण पार्टी में इंदिरा गाँधी का कद काफी बढ़ गया था। लेकिन इसकी वजह इंदिरा गाँधी के पिता पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री होना ही नहीं था इंदिरा में व्यक्तिगत योग्यताएं भी थीं। इंदिरा गाँधी को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने के आरोप उस समय पंडित नेहरू पर लगे। 1959 में जब इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो कई आलोचकों ने दबी जुबान से पंडित नेहरू को पार्टी में परिवारवाद फैलाने का दोषी ठहराया था। लेकिन वे आलोचना इतने मुखर नहीं थे कि उनकी बातों पर तवज्जो दी जाती। वस्तुतः इंदिरा गाँधी ने समाज, पार्टी और देश के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त थी। विदेशी राजनयिक भी उनकी प्रशंसा करते थे। इस कारण आलोचना दूध में उठे झाग की तरह बैठ गई। कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा गाँधी ने अपने कौशल से कई समस्याओं का निदान किया। उन्होंने नारी शाक्ति को महत्त्व देते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी में महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किए। युवा शक्ति को लेकर भी उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लिए। इंदिरा गाँधी 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बनी थीं।
भारत के जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन सभी की अनेक विशेषताएँ हो सकती हैं, लेकिन इंदिरा गाँधी के रूप में जो प्रधानमंत्री भारत भूमि को प्राप्त हुआ, वैसा प्रधानमंत्री अभी तक दूसरा नहीं हुआ है क्योंकि एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने विभिन्न चुनौतियों का मुकघबला करने में सफलता प्राप्त की। युद्ध हो, विपक्ष की गलतियाँ हों, कूटनीति का अंतर्राष्ट्रीय मैदान हो अथवा देश की कोई समस्या हो- इंदिरा गाँधी ने अक्सर स्वयं को सफल साबित किया। इंदिरा गाँधी, नेहरू के द्वारा शुरू की गई औद्योगिक विकास की अर्द्ध समाजवादी नीतियों पर कघयम रहीं। उन्होंने सोवियत संघ के साथ नजदीकी सम्बन्ध कघयम किए और पाकिस्तान-भारत विवाद के दौरान समर्थन के लिए उसी पर आश्रित रहीं। जिन्होंने इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल को देखा है, वे लोग यह मानते हैं कि इंदिरा गाँधी में अपार साहस, निर्णय शक्ति और धैर्य था।


पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’, ‘लौह महिला’, ‘भारत की साम्राज्ञी’ और भी न जाने कि कितने विशेषण दिए गए थे जो एक ऐसी नेता की ओर इशारा करते थे, जो आज्ञा का पालन करवाने और डंडे के जोर पर शासन करने की क्षमता रखती थी। मौजूदा जटिल दौर में देश के कई कोनों से नेतृत्व संकट की आवाज उठ रही है। कठिन चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें मजबूती से कुछ चीजों के, कुछ मूल्यों के पक्ष में खड़ा होना होता है और कुछ की उतनी ही तीव्रता से मुखालफत करनी होती है। आज भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी की छवि कुछ ऐसे ही संकल्पशील नेता की है। इंदिरा गांधी 16 वर्ष देश की प्रधानमंत्री रहीं और उनके शासनकाल में कई उतार-चढ़ाव आए। अंतरिक्ष, परमाणु विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान में भारत की आज जैसी स्थिति की कल्पना इंदिरा गांधी के बगैर नहीं की जा सकती थी। हर राजनेता की तरह इंदिरा गांधी की भी कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में भारत को यूटोपिया से निकालकर यथार्थ के धरातल पर उतारने का श्रेय उन्हें ही जाता है। आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद उपजे तनाव के बीच उनके निजी अंगरक्षकों ने ही 31 अक्टूबर 1984 को गोली मार कर इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी।




Tuesday, 29 October 2013

राहुल के कार्यक्रमों से विपक्ष में हड़कंप


कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली में पिछले 15 साल में हुए विकास कार्यों और यूपीए सरकार के महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा विधेयक के तौर पर कांग्रेस की उपलब्धियां गिनाते हुए प्रवासी मतदाताओं तक पहुंच बनाने का प्रयास किया, जो दिल्ली की जनसंख्या के करीब एक-तिहाई हैं। प्रदेश में विकास कार्यों के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की तारीफ करते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने विकास के मुद्दों की अनदेखी के लिए विपक्ष की निंदा की। रैली में राहुल गांधी ने कहा कि पिछले 15 सालों में शीला दीक्षित ने दिल्ली को बदल दिया है। दिल्ली को शीला जी ने हाईटेक बनाया। दिल्ली में 130 फ्लाईओर और ओवरब्रिज बनाए गए। दिल्ली के मुद्दों पर केंद्रित रहे राहुल ने कहा कि दिल्ली के मेट्रो के मॉडल को इंडोनेशिया जैसे दूसरे देशों में भी अपनाया जा रहा है। यूपीए सरकार ने दिल्लीवासियों को एक चमकता हुआ विश्वस्तरीय हवाई अड्डा दिया है। काम और रोजगार की तलाश में खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से दिल्ली आकर बस गए लोगों को दिए संदेश में राहुल ने कहा, जो लोग बाहर से आते हैं, हम उनके हाथों में हाथ डालकर उनके साथ आगे बढ़ते हैं।
दरअसल,  कांग्रेस पार्टी ने विभिन्न विषय-विशेषज्ञों के परामर्श, सहयोग और मार्गदर्शन से सामाजिक उत्थान के लिए कई कार्यक्रम बनाए तथा नीतियों और योजनाओं को जमीनी स्वरूप देने के प्रयास शुरू किए। केंद्र भी अपने-अपने क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से उनके कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का व्यापक स्वरूप से निर्धारण किया गया। प्रजातांत्रिक प्रणाली लागू होते ही प्रारंभिक दौर में समाज में व्याप्त पिछड़ापन, असमानता, अज्ञानता, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसे अभिशापों से मुक्ति दिलाने का मुद्दा प्राथमिकता में था। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच खाइयों को पाटने के उद्देश्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कुशल और सक्षम नेतृत्व में आर्थिक, सामाजिक, औद्योगिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्यों की शुरुआत हुई। उस दौर में जन-जन के आत्म सम्मान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से गरीबों, असहायों और कमजोर तबके के समस्त लोगों के प्रति हमदर्दी का रुख अख्तियार कर तत्कालीन कांग्रेस सत्ता में उदारतापूर्वक अभियान शुरू हुए। इसके तहत गरीबों के बीच जाकर नेताओं ने उनके दु:ख दर्द जानकार उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीवनयापन के अवसर उपलब्ध कराने की योजनाओं पर मैदानी काम शुरू कर दिए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री जैसे महान नेताओं ने समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता, जातिगत वैमनस्यता, साम्प्रदायिक कटुता और धार्मिक कट्टरता जैसी बुराइयों से भारत को मुक्त रखने में जनसामान्य का विश्वास और समर्थन प्राप्त करने में किसी भी प्रकार की कसर नहीं छोड़ी थी। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो गरीब से गरीब परिवार के जीवन में खुशहाली लाने के उद्देश्य से गरीबी हटाओ जैसे अभियान को जन्म दिया। उनके समय में 20 सूत्रीय कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के जरिए भी देश के चहुंमुखी विकास के साथ ही समाज के निरीह, असहाय और अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के लोगों को समाज में इात और सम्मान के साथ जीने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए भी एक नया वातावरण तैयार किया। पंडित नेहरू और इंदिराजी जब-जब भी दूरस्थ अंचलों, विशेषकर आदिवासियों और अनुसूचित जातियों के लोगों की बसाहट के बीच जाते थे, तब-तब वे गरीब परिवारों की कुटिया में पहुंचकर उनमें व्याप्त हीनभावनाओं को दूर कर उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने की प्रेरणा, प्रोत्साहन और सहयोग दिया करते थे। स्व. राजीव गांधी भी दलितों और गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों के बीच पहुंचकर, विशेषकर वनग्रामों की यात्रा के दौरान लोगों की झोपड़ियों में पहुंचकर उनके पारिवारिक स्तर और जीवन की कठिनाइयों से अवगत होने में पीछे नहीं रहते थे। कांग्रेस की सत्ता की नीतियों के अनुरूप गरीबों के उत्थान के प्रति चिंता जताना और उनकी समस्याओं का निदान निकालने की परंपरा का आज भी राहुल गांधी पालन कर रहे हैं। अपने पिता स्व. राजीव गांधी के आकलन के अनुसार राहुल भी मानते हैं कि गरीबों के हित में कार्यक्रम की योजनाएं तो खूब संचालित हैं किंतु उन तक उसका बहुत ही कम प्रतिशत में लाभ पहुंच पाता है। राहुल गांधी ने भी नेहरू, इंदिरा गांधी , राजीव गांधी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी यात्रा में गरीबों के घर पहुंचने का उद्देश्यपूर्ण अभियान बड़े जोरों से शुरू कर दिया है। राहुल गरीबों के घरों में पहुंचने के कार्यक्रमों से विपक्ष के दलों में हड़कंप मच गया है। गरीबों के प्रति हमदर्दी की परंपरा रखने वाली कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को तो गरीब की कुटिया में पहुंचने की नीति विरासत में मिली है, जिससे यह पार्टी जन विश्वसनीयता भी हासिल करती रही है, किंतु अब विपक्षी पार्टियों द्वारा भी गरीबों के कल्याण के प्रति हमदर्दी दिखाने की जो शुरुआत देखी जा रही है, उसका क्या नतीजा निकलेगा और जनता में विश्वसनीयता का कितना ग्राफ ऊंचा उठ सकेगा यह आने वाले निर्वाचनों के समय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ही बता पाएगी। सोनियाजी गरीबों की नेता हैं। गरीबों का ध्यान रखने वाली नेता हैं। गरीबों की चिंता करने वाली नेता हैं। 

Thursday, 24 October 2013

नहीं रहे मन्ना डे


महान पार्श्‍व गायक लंबी बीमारी के बाद दुनिया को अलविदा कह गए हैं। दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त करने वाले मन्ना डे 94 वर्ष के थे। वह काफी समय से बीमार थे। फेफड़े में सक्रमण से जूझ रहे थे। आयु के साथ आने वाली बीमारियों से अधिक कष्ट उन्हें इस बात का हुआ हो सकता है कि उनकी बेटी और दामाद ने उनके रिश्तेदार पर आरोप लगाया है कि इलाज के नाम पर उसने बैंक से पैसा निकालकर अपनी पत्नी के नाम कर दिया है। मन्ना डे कोलकाता में कुछ जमीन भर छोड़ गए हैं और कुछ महीने पहले तक मात्र बारह लाख रुपए उनके बैंक में जमा थे। इस तरह के विवाद प्राय: मृत्यु के बाद होते हैं। दुर्भाग्यवश यह उन्‍हें जीते जी झेलना पड़ा। मन्ना डे समझते रहे कि ‘ऐ भाई जरा देखके चलो, ये सर्कस है शो तीन घंटे का'। मन्ना डे कभी दुनियादार नहीं रहे, इसीलिए इतने गुणवान होकर भी उन्होंने बहुत धन जमा नहीं किया और कर लेते तो शायद और कलह होता। धन का अपना महत्व है, परंतु उसके पीछे पागलों की तरह दौड़कर उसका संचय करना कभी जीवन का ध्येय नहीं हो सकता।
ऐ मेरे प्यारे वतन, लागा चुनरी में दाग और पूछो न कैसे जैसे सदाबहार गीतों के जरिए पांच दशकों से भी अधिक समय तक अपने संगीत का जादू बिखेरने वाले प्रख्यात पार्श्व गायक मन्ना डे का लंबी बीमारी के बाद अस्पताल में निधन हो गया।नारायण हृदयालय अस्पताल प्रवक्ता वासुकी ने बताया कि 94 वर्षीय मन्ना डे का तड़के तीन बजकर 50 मिनट पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. उनका पिछले पांच महीने से सांस और गुर्दे संबंधी समस्याओं के कारण अस्पताल में उपचार चल रहा था। भारतीय शास्त्रीय संगीत में पॉप का जुझारुपन घोलने वाले सुरों के सरताज मन्ना डे हिंदी सिनेमा के उस स्वर्ण युग के प्रतीक थे जहां उन्होंने अपनी अनोखी शैली और अंदाज से पूछो ना कैसे मैंने, ए मेरी जोहराजबीं और लागा चुनरी में दाग जैसे अमर गीत गाकर खुद को अमर कर दिया था।
मोहम्मद रफी , मुकेश और किशोर कुमार की तिकड़ी का चौथा हिस्सा बनकर उभरे मन्ना डे ने 1950 से 1970 के बीच हिंदी संगीत उद्योग पर राज किया। पांच दशकों तक फैले अपने करियर में डे ने हिंदी, बंगाली, गुजराती , मराठी, मलयालम , कन्नड और असमी में 3500 से अधिक गीत गाये और 90 के दशक में संगीत जगत को अलविदा कह दिया। 1991 में आयी फिल्म प्रहार में गाया गीत हमारी ही मुट्ठी में  उनका अंतिम गीत था।
महान गायक आज बेंगलूर में 94 साल की उम्र में दुनिया से रुखसत हो गये।  यह संगीत की दुनिया का वह दौर था , जब रफी, मुकेश और किशोर फिल्मों के नायकों की आवाज हुआ करते थे लेकिन मन्ना डे अपनी अनोखी शैली के लिए एक खास स्थान रखते थे। रवींद्र संगीत में भी माहिर बहुमुखी प्रतिभा मन्नाडे ने पश्चिमी संगीत के साथ भी कई प्रयोग किए और कई यादगार गीतों की धरोहर संगीत जगत को दी।
पिछले कुछ सालों से बेंगलूर को अपना ठिकाना बनाने वाले मन्ना डे ने 1943 में तमन्ना फिल्म के साथ पार्श्व गायन में अपने करियर की शुरुआत की थी। संगीत की धुनें उनके चाचा कृष्ण चंद्र डे ने तैयार की थीं और उन्हें सुरैया के साथ गीत गाना था। और सुर ना सजे, क्या गाऊं मैं रातों रात हिट हो गया जिसकी ताजगी आज भी कायम है।
1950 में मशाल उनकी दूसरी फिल्म थी जिसमें मन्ना डे को एकल गीत ऊपर गगन विशाल गाने का मौका मिला जिसे संगीत से सजाया था सचिन देव बर्मन ने।  1952 में डे ने एक ही नाम और कहानी वाली बंगाली तथा मराठी फिल्म अमर भुपाली  के लिए गीत गाए और खुद को एक उभरते बंगाली पार्श्वगायक के रूप में स्थापित कर लिया। डे साहब की मांग दुरुह राग आधारित गीतों के लिए अधिक होने लगी और एक बार तो उन्हें 1956 में बसंत बहार फिल्म में उनके अपने आदर्श भीमसेन जोशी के मुकाबले में गाना पड़ा। केतकी, गुलाब , जूही  बोल वाले इस गीत को शुरू में उन्होंने गाने से मना कर दिया था।
शास्त्रीय संगीत में उनकी पारंगता के साथ ही उनकी आवाज में एक ऐसी अनोखी कशिश थी कि आज तक उनकी आवाज को कोई कापी करने का साहस नहीं जुटा सका।
यह मन्ना डे की विनम्रता ही थी कि उन्होंने बतौर गायक उनकी प्रतिभा को पहचानने का श्रेय संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी को दिया। डे ने शोमैन राजकपूर की आवारा, श्री 420 और चोरी चोरी फिल्मों के लिए गाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा  मैमोयर्स कम अलाइव में लिखा है ,  मैं शंकरजी का खास तौर से ऋणी हूं। यदि उनकी सरपरस्ती नहीं होती तो जाहिर सी बात है कि मैं उन ऊचाइयों पर कभी नहीं पहुंच पाता जहां आज पहुंचा हूं। वह एक ऐसे शख्स थे जो जानते थे कि मुझसे कैसे अच्छा काम कराना है।
वास्तव में , वह पहले संगीत निदेशक थे जिन्होंने मेरी आवाज के साथ प्रयोग करने का साहस किया और मुझसे रोमांटिक गीत गवाये।  मन्ना डे के कुछ सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में दिल का हाल सुने दिलवाला, प्यार हुआ इकरार हुआ , आजा सनम , ये रात भीगी भीगी , ऐ भाई जरा देख के चलो , कसमे वादे प्यार वफा और यारी है ईमान मेरा शामिल है।
मन्ना डे ने कुछ धार्मिक फिल्मों में गाने क्या गाएं उन पर धार्मिक गीतों के गायक का ठप्पा लगा दिया गया। ‘प्रभु का घर’, ‘श्रवण कुमार’, ‘जय हनुमान’, ‘राम विवाह’ जैसी कई फिल्मों में उन्होंने गीत गाए। इसके अलावा बी-सी ग्रेड फिल्मों में भी वो अपनी आवाज देते रहें। भजन के अलावा कव्वाली और मुश्किल गीतों के लिए मन्ना डे को याद किया जाता था। इसके अलावा मन्ना डे से उन गीतों को गंवाया जाता था, जिन्हें कोई गायक गाने को तैयार नहीं होता था। धार्मिक फिल्मों के गायक की इमेज तोड़ने में मन्ना डे को लगभग सात सात लगे।

Thursday, 17 October 2013

वाल्मीकि जी ने दिखाया सदमार्ग

महर्षि वाल्मीकि प्राचीन वैदिक काल के महान ऋषियों कि श्रेणीमें प्रमुख स्थान प्राप्त करते हैं. इन्होंने संस्कृत मे महान ग्रंथ रामायण महान ग्रंथ की रचना कि थी इनके द्वारा रचित रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाती है. हिंदु धर्म की महान कृति रामायण महाकाव्य श्रीराम के जीवन और उनसे संबंधित घटनाओं पर आधारित है. जो जीवन के विभिन्न कर्तव्यों से परिचित करवाता है. 'रामायण' के रचयिता के रूप में वाल्मीकि जी की प्रसिद्धि है. इनके पिता महर्षि कश्यप के पुत्र वरुण या आदित्य माने गए हैं.  एक बार ध्यान में बैठे हुए इनके शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो इन्हें वाल्मीकि कहा जाने लगा.
महर्षि बनने से पूर्व वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे तथा परिवार के पालन हेतु दस्युकर्म करते थे एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि तुम यह निम्न कार्य किस लिये करते हो, इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया कि अपने परिवार को पालने के लिये. इस पर नारद ने प्रश्न किया कि तुम जो भी अपराध करते हो और जिस परिवार के पालन के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होगें यह जानकर वह स्तब्ध रह जाता है। नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो इस बात को सुनकर उसने नारद के चरण पकड़ लिए और डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या में लीन हो गए और जब नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया तो उन्हें राम-नाम के जप का उपदेश भी दिया था, परंतु वह राम-नाम का उच्चारण नहीं कर पाते तब नारद जी ने विचार करके  उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा और  मरा रटते-रटते यही 'राम' हो गया और निरन्तर जप करते-करते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए.
महर्षि वाल्मीकि संस्कृत भाषा के आदि कवि और हिन्दुओं के आदि काव्य 'रामायण' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध है। महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिये इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है।उपनिषद के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए वरुण-पुत्र के शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे। तमसा नदी के तट पर व्याध द्वारा कोंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डालने पर वाल्मीकि के मुंह से व्याध के लिए शाप के जो उद्गार निकले वे लौकिक छंद में एक श्लोक के रूप में थे। इसी छंद में उन्होंने नारद से सुनी राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना की। कुछ लोगों का अनुमान है कि हो सकता है, महाभारत की भांति रामायण भी समय-समय पर कई व्यक्तियों ने लिखी हो और अतिम रूप किसी एक ने दिया हो और वह वाल्मीकि की शिष्य परंपरा का ही हो।
देश भर में महर्षि बाल्मीकि की जयंती को श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है. इस अवसर पर शोभा यात्राओं का आयोजन भी होता है.महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित पावन ग्रंथ रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना करके हर किसी को सद मार्ग पर चलने की राह दिखाई. इस अवसर पर वाल्मीकि मंदिर में पूजा अर्चना भी की जाती है तथा शोभा यात्रा के दौरान मार्ग में जगह-जगह लोगों इसमें बडे़ उत्साह के साथ भाग लेते हैं. झांकियों के आगे उत्साही युवक झूम-झूम कर महर्षि वाल्मीकि के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं. इस अवसर पर उनके जीवन पर आधारित झाकियां निकाली जाती हैं व राम भजन होता है. महर्षि वाल्मीकि को याद करते हुए महर्षि वाल्मीकि जयंती की पूर्व संध्या पर उनके चित्र पर माल्यार्पण करके उनको श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं.



Tuesday, 15 October 2013

रक्षा के लिए सदा तत्पर

कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं, वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना। यानी अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्योहार ईद-उल-जुहा, जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं। ईद-उल-जुहा मुसलमान कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है।

दरअसल, इस्लामी साल में दो ईदों में से एक है बकरीद। ईद-उल-जुहा और ई-उल-फितर। ईद-उल-फिरत को मीठी ईद भी कहा जाता है। इसे रमजान को समाप्त करते हुए मनाया जाता है। एक और प्रमुख त्योहार है ईद-उल-मीनाद-उन-नबी, लेकिन बकरीद का महत्व अलग है। इसे बड़ी ईद भी कहा जाता है। हज की समाप्ति पर इसे मनाया जाता है। इस्लाम के पांच फर्ज माने गए हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों में। जिस तरह ईद-उल-फितर को गरीबों में पैसा दान के रूप में बांटा जाता है, उसी तरह बकरीद को गरीबों में मांस बांटा जाता है। यह इस्लाम की खासियत है कि वह अपने किसी भी पर्व में समाज के कमजोर और गरीब तबके को भूलते नहीं हैं, बल्कि उनकी मदद करना उनके धर्म का एक अभिन्न अंग है। यह पर्व जहां सबको साथ लेकर चलने की सीख देता है, वहीं बकरीद यह भी सिखाती है कि सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
इस त्योहार को मनाने के पीछे भी एक कहानी है, जो दिल को छू जाती है। हजरत इब्राहिम द्वारा अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए तत्पर हो जाने की याद में इस त्योहार को मनाया जाता है। हजरत इब्राहिम को पैगंबर के रूप में जाना जाता है, जो अल्लाह के सबसे करीब हैं। उन्होंने त्याग और कुर्बानी का जो उदाहरण विश्व के सामने पेश किया वह अद्वितीय है। इस्लाम के विश्वास के मुताबिक, अल्लाह हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने के लिए कहा। हजरत इब्राहिम को लगा कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है, इसलिए उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देना स्वीकार किया। हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। जब अपना काम पूरा करने के बाद पट्टी हटाई, तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने सामने जिंदा खड़ा हुआ देखा। बेदी पर कटा हुआ मेमना पड़ा हुआ था। तभी से इस मौके पर बकरे और मेमनों की बलि देने की प्रथा है। कुछ जगह लोग ऊंटों की भी बलि देते हैं।
यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुबार्नी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है। आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करो, तो हजरत इब्राहीम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा। कुर्बानी का अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का आदेश है कि कोई व्यक्ति जिस भी परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुबार्नी देने को तैयार रहे। ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के सामान यानी कि कुबार्नी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत बांट दिया जाता है। नियम कहता है कि पहले अपना कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएं। तब बकरीद मनाएं। इसका मतलब यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने पर जोर देता है।

Sunday, 13 October 2013

सलाम मौसम विभाग

सलाम मौसम विभाग,चक्रवात और समुद्र विशेषज्ञ वैज्ञानिकों, NDMA, ओडिशा, आंध्र और केंद्र सरकार... साइक्लोन फाइलिन से निपटना इतना भी आसान न था. 10 लाख से ज्यादा लोगों को सुरक्षित निकाल लेना, पल पल की खबर रखना हम सब आपके शुक्रगुजार हैं. बंगाल की खाड़ी से उठा भयानक चक्रवाती तूफान पाइलीन का बड़ा खतरा टल गया है। कल रात नौ बजे ओडिशा के तट पर पायलीन ने दस्तक दी। उसके बाद से तूफान की रफ्तार कम हो रही है। ओडिशा के गोपालपुर में सबसे ज्यादा खतरा बताया जा रहा था। उससे खतरा टल गया है। पाइलिन तूफान का केंद्र रहे गोपालपुर से तूफान 220 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गुजर गया है। और अब तूफान ओडिसा के उत्तर-उत्तर-पश्चिम इलाके की तरफ बढ़ गया है। यानी जिस इलाके पर सबसे ज्यादा बुरा असर या यूं कहें कि तबाही आने वाली थी, उससे खतरा गुजर गया है।
हालांकि अभी नुकसान का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया जा सका है, लेकिन जिस तरह से तूफान की रफ्तार घटकर 100 किमी प्रति घंटा रह गई है, उससे अब नुकसान कम होने की संभावना है। गोपालपुर में पाइलिन तूफान की वजह से कच्चे घरों और पुरानी इमारतों को ही नुकसान पहुंचा है। ओडिशा के 12 जिलों में बत्ती गुल है। अभी तक ज्यादा जान-माल के नुकसान की खबर नहीं है।
गौरतलब है कि बंगाल की खाड़ी से उठा भयानक चक्रवाती तूफान फेलिन शनिवार को देर शाम नौ बजे के लगभग ओडिशा के तटवर्ती गोपालपुर से टकराया। इस दौरान हवा की गति 200 किलोमीटर प्रतिघंटा बनी हुई थी। ओडिशा-आंध्र प्रदेश के तटवर्ती इलाकों में बारिश जारी है। ओडिशा में इस तूफान से 7 लोगों की मौत हो चुकी है। राज्य के अलग-अलग इलाकों में भारी बारिश और तेज हवाओं से ये जानें गईं। पाइलीन ओडिशा के गोपालपुर इलाके के तट से सबसे पहले टकराया और यहां भारी तबाही की आशंका जताई जा रही है।
ओड़िशा में आया चक्रवाती तूफान फैलिन का असर झारखंड में भी दिखने लगा है. झारखण्ड के कई इलाकों में भारी बारिश के साथ तेज हवा भी चल रहा है. रात से ही कई इलाकों में बारिश हो रही है. राजधानी रांची  में दुर्गा पूजा पंडाल के मुख्य द्वार गिर गये हैं. शहर के कई मुख्य सड़के बाधित हो गयी है.  झारखण्ड में कई इलाके है जहा इस तूफान का असर अधिक देखने को मिल रहा है, जैसे: रांची, खूंटी, गुमला, सिमडेगा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला, धनबाद, जामताड़ा, बोकारो, लातेहार, पलामू. कई इलाकों में रात से ही बिजली गुल है.ओडिशा और आंध्रप्रदेश के तटीय इलाके में कल आए शक्तिशाली तूफान ‘फैलिन’ की तीव्रता कम होने का जिक्र करते हुए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार ( एनडीएमए ) के उपाध्यक्ष एम शशिधर रेड्डी ने कहा है कि सटीक पूर्वानुमानों के कारण राहत कार्य में काफी मदद मिली है और तूफान के कारण आगे चलकर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल एवं पूर्वाचल में भारी से बहुत भारी बारिश हो सकती है.
  रेड्डी ने कहा, ‘‘चक्रवात अभी फूलबनी में केंद्रित है. स्थानीय तौर पर ओडिशा के तूफान प्रभावित क्षेत्र में इसकी रफ्तार अभी 90 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा है. हालांकि इसकी तीव्रता पहले से कम हुई है. पहले अनुमान था कि इसके कारण 20 से 25 सेंटीमीटर बारिश होगी लेकिन अब 10 से 15 सेंटीमीटर बारिश का पूर्वानुमान व्यक्त किया गया है.’’     उन्होंने कहा कि इससे नुकसान कम होने का अनुमान है, जो थोड़ी राहत की बात है. उन्होंने कहा, ‘‘आगे चलकर इसके कारण छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पूर्वाचंल के इलाकों और पश्चिम बंगाल में भारी से अत्याधिक बारिश हो सकती है. हम सभी राज्यों के सम्पर्क में है और जरुरत पड़ने पर वहां टीम भेजी जायेगी.’’      एनडीएमए के उपाध्यक्ष ने कहा कि चक्रवात का केंद्र रहे गोपालपुर में पहले ही 90 से 95 प्रतिशत लोगों को निकाल लिया गया था. ‘‘यह हमारे लिये चुनौती थी, जिसमें हमें काफी सफलता मिली है.’’ यह पूछे जाने पर कि उत्तराखंड त्रसदी के समय एनडीएमए ने आपदा से निपटने एवं कार्रवाई के संदर्भ में एक व्यापक रिपोर्ट तैयार करने की पहल की थी, रेड्डी ने कहा, ‘‘इस पर काफी काम किया गया है. हर मंत्रालय  और एजेंसी से बात की गई है और उनसे कार्ययोजना एवं सुझाव प्राप्त किये गए हैं.’’

Thursday, 3 October 2013

इंदिरा गांधी की राह पर सोनिया गांधी



लोकसभा चुनाव के अब चंद माह रह गए हैं। कांग्रेस खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण विधेयकों के जरिये लोगों तक यह संदेश लेकर जाने की योजना बना रही है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे को उनकी बहु सोनिया गांधी आगे बढ़ा रही हैं। हाल में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआइसीसी) ने खाद्य सुरक्षा विधेयक पर यही उपाय किया था। दोनों विधेयक संसद में पारित हो चुके हैं। कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री की टिप्पणी है कि इंदिरा गांधी ने गरीब और समाज के सबसे दबे कुचले लोगों की भूख और कुपोषण की समस्या समाप्त करने के लिए ‘गरीबी हटाओ’ नारे पर अमल शुरू किया था। उनके अधूरे काम को उनकी बहु सोनिया गांधी पूरा करने की कोशिश कर रही हैं।
1969 में इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और रजवाड़ों का प्रीवि पर्स और विशेषाधिकार खत्म किए थे, तब भी विपक्ष उन कदमों का राजनीतिक निहितार्थ समझे बिना इंदिरा के विरोध में लगा रहा। इंदिरा सरकार ने जब प्रीवि पर्स खत्म करने की खातिर संसद में संविधान संशोधन बिल पेश किया तो विपक्ष ने उसे राज्यसभा में एक वोट से गिरा दिया। कांग्रेस संसद में कामयाब नहीं हो पाई मगर उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में उसने विपक्ष को करारी शिकस्त देते हुए 352 सीटें जीती थीं। इंदिरा गांधी हमेशा अपनी पिच पर खेलती थीं और विपक्ष के पास कोई विकल्प नहीं बचने देती थीं। वह विपक्ष को अपने अजेंडे का समर्थन या विरोध करने पर मजबूर कर देती थीं।
यह कहने की जरूरत नहीं कि जब यूपीए सरकार ने फूड सिक्युरिटी बिल पर अध्यादेश लाने का फैसला कर एकबार फिर देश का राजनीतिक अजेंडा अपने हाथ में लेने की कोशिश की थी, तब विपक्ष खास तौर से भाजपा इस पर जिस तरह के सवाल उठा रही है, वह कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है। सच तो यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अब इंदिरा गांधी की तरह चुनाव से पहले सटीक राजनीतिक फैसले लेना सीख गई हैं। फूड अध्यादेश उन्हीं के निदेर्शों पर लाया गया है। इंदिरा जी की कार्यशैली के बारे में एकबार अटल बिहारी वाजपेयी बता रहे थे कि वह आपसे पूछती थीं कि चाय लेंगे या कॉफी। हंसते हुए उन्होंने कहा था कि इंदिरा किसी तीसरी चीज की गुंजाइश नहीं छोड़ती थीं। सोनिया ने भी अब देश में बहस का विषय फूड बिल और उसके लिए लाए जाने वाले अध्यादेश को बना दिया है। बीजेपी जिन मुद्दों पर चुनाव चाहती थी, कांग्रेस उन्हें हाशिये पर धकेल कर फिर गरीब और उनका हमदर्द कौन पर बहस को लाना चाहती है। इंदिरा ने जब 1971 में गरीबी हटाओ का नारा दिया था तो उन्होंने कहा था कि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, ये (विपक्ष) कहते हैं इंदिरा हटाओ। कांग्रेस भी अब कह रही है कि हम कहते हैं कि भूख मिटाओ, ये कहते हैं भूखों को भूल जाओ।
खाद्य सुरक्षा बिल में देश की 80 फीसदी आबादी को भोजन मुहैया कराने की गारंटी, तो भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों की इच्छा के बगैर जमीन लेने पर रोक की तैयारी है। कांग्रेसी हलके में चर्चा है कि दोनों ही बिल कांग्रेस को उसी तरह से जीत के दर्शन कराएंगे, जैसे मनरेगा और किसानों की कर्ज माफी ने 2009 में कांग्रेस की राह आसान की थी। खबर यह भी है कि कांग्रेस का ही एक आर्थिक सुधारवादी तबका यह सोचता है कि इससे आर्थिक विकास की गति थमेगी और संकट बढ़ेगा। लेकिन शायद सोनिया गांधी को यकीन है कि महंगाई, घोटालों और नेतृत्वहीनता के गंभीर आरोपों से जूझ रही सरकार के पास चुनाव जीतने का कोई कारगर मंत्र नहीं है, लिहाजा लोक-लुभावन योजनाओं से ही आम आदमी का दिल जीता जा सकता है।
सोनिया गांधी के इस मूड ने एक बार फिर इंदिरा गांधी की याद दिलाई है। इंदिरा गांधी हवा के खिलाफ दो टूक फैसले लेने के लिए जानी जाती थीं। उनकी निर्णय क्षमता पर आलोचक भी सवाल नहीं खड़े करते थे। 1967 के बाद चाहे वह पार्टी के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वी वी गिरि को समर्थन देना हो, या फिर बैंक राष्ट्रीयकरण करना और प्रिवी पर्स खत्म करना हो, या 1971 में बांग्लादेश को आजाद कराने के लिए सेना भेजना हो, या फिर 1984 में स्वर्ण मंदिर से चरमपंथियों को निकालना हो, एक बार तय करने के बाद इंदिरा गांधी हिचकी नहीं। किसी मामूली नेता के लिए सत्तर के दशक में आपातकाल लागू करने का फैसला आसान नहीं होता। इंदिरा गांधी ने न केवल फैसला किया, बल्कि गलती का एहसास होते ही आपातकाल उठा भी लिया। सोनिया गांधी के करीबी लोगों का कहना है कि राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी को काफी करीब से देखा और उनसे काफी कुछ सीखा।यह सच है कि सोनिया गांधी के सामने इंदिरा जैसी चुनौती कभी नहीं रही। न ही उन्हें पार्टी पर नियंत्रण के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। शरद पवार ने जरूर विदेशी मूल का मुद्दा उठाया, पर यह मसला परवान नहीं चढ़ा और हारकर पवार को उनसे ही गठबंधन करना पड़ा, जबकि इंदिरा गांधी को शुरूआती दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। पार्टी पर पुराने दिग्गज और क्षेत्रीय क्षत्रप हावी थे। कामराज, एस निजलिंग्प्पा, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, एस के पाटिल, अतुल्य घोष जैसे लोगों की तूती बोला करती थी। ये सभी लोग जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष और सहयोगी थे। इंदिरा गांधी ने इन सबका मुकाबला करने और पार्टी को दक्षिणपंथी नेताओं के चंगुल से बाहर लाने के लिए रातोंरात समाजवादी एजेंडे को आगे किया। लेफ्ट का समर्थन लेकर मोरारजी जैसे तगड़े प्रतिद्वंद्वी और पुराने दिग्गजों को किनारे लगा दिया।यूपीए-दो के समय सोनिया गांधी की तबियत बेहतर नहीं थी और साथ ही राहुल को पार्टी की बागडोर संभालने की ऊहापोह ने पार्टी को काफी समय तक अनिर्णय की स्थिति में डाले रखा। यह ऐसा वक्त था, जब पार्टी और सरकार को लकवा मारने की बात कही जाने लगी। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। अर्थव्यवस्था डांवांडोल हुई। पार्टी में निराशा का भाव जगा। चुनाव के पहले ही तमाम नेता कहने लगे कि पार्टी सौ सीट भी ले आए, तो बड़ी बात होगी। सोनिया फिर सक्रिय हुईं। पूरी इंडस्ट्री, बुद्धिजीवी वर्ग और सरकार-पार्टी के एक बड़े तबके के विरोध के बावजूद दोनों बिलों को लाने का फैसला किया।