लोकसभा चुनाव के अब चंद माह रह गए हैं। कांग्रेस खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण विधेयकों के जरिये लोगों तक यह संदेश लेकर जाने की योजना बना रही है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे को उनकी बहु सोनिया गांधी आगे बढ़ा रही हैं। हाल में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआइसीसी) ने खाद्य सुरक्षा विधेयक पर यही उपाय किया था। दोनों विधेयक संसद में पारित हो चुके हैं। कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री की टिप्पणी है कि इंदिरा गांधी ने गरीब और समाज के सबसे दबे कुचले लोगों की भूख और कुपोषण की समस्या समाप्त करने के लिए ‘गरीबी हटाओ’ नारे पर अमल शुरू किया था। उनके अधूरे काम को उनकी बहु सोनिया गांधी पूरा करने की कोशिश कर रही हैं।
1969 में इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और रजवाड़ों का प्रीवि पर्स और विशेषाधिकार खत्म किए थे, तब भी विपक्ष उन कदमों का राजनीतिक निहितार्थ समझे बिना इंदिरा के विरोध में लगा रहा। इंदिरा सरकार ने जब प्रीवि पर्स खत्म करने की खातिर संसद में संविधान संशोधन बिल पेश किया तो विपक्ष ने उसे राज्यसभा में एक वोट से गिरा दिया। कांग्रेस संसद में कामयाब नहीं हो पाई मगर उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में उसने विपक्ष को करारी शिकस्त देते हुए 352 सीटें जीती थीं। इंदिरा गांधी हमेशा अपनी पिच पर खेलती थीं और विपक्ष के पास कोई विकल्प नहीं बचने देती थीं। वह विपक्ष को अपने अजेंडे का समर्थन या विरोध करने पर मजबूर कर देती थीं।
यह कहने की जरूरत नहीं कि जब यूपीए सरकार ने फूड सिक्युरिटी बिल पर अध्यादेश लाने का फैसला कर एकबार फिर देश का राजनीतिक अजेंडा अपने हाथ में लेने की कोशिश की थी, तब विपक्ष खास तौर से भाजपा इस पर जिस तरह के सवाल उठा रही है, वह कांग्रेस के पक्ष में जा रहा है। सच तो यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अब इंदिरा गांधी की तरह चुनाव से पहले सटीक राजनीतिक फैसले लेना सीख गई हैं। फूड अध्यादेश उन्हीं के निदेर्शों पर लाया गया है। इंदिरा जी की कार्यशैली के बारे में एकबार अटल बिहारी वाजपेयी बता रहे थे कि वह आपसे पूछती थीं कि चाय लेंगे या कॉफी। हंसते हुए उन्होंने कहा था कि इंदिरा किसी तीसरी चीज की गुंजाइश नहीं छोड़ती थीं। सोनिया ने भी अब देश में बहस का विषय फूड बिल और उसके लिए लाए जाने वाले अध्यादेश को बना दिया है। बीजेपी जिन मुद्दों पर चुनाव चाहती थी, कांग्रेस उन्हें हाशिये पर धकेल कर फिर गरीब और उनका हमदर्द कौन पर बहस को लाना चाहती है। इंदिरा ने जब 1971 में गरीबी हटाओ का नारा दिया था तो उन्होंने कहा था कि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, ये (विपक्ष) कहते हैं इंदिरा हटाओ। कांग्रेस भी अब कह रही है कि हम कहते हैं कि भूख मिटाओ, ये कहते हैं भूखों को भूल जाओ।
खाद्य सुरक्षा बिल में देश की 80 फीसदी आबादी को भोजन मुहैया कराने की गारंटी, तो भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों की इच्छा के बगैर जमीन लेने पर रोक की तैयारी है। कांग्रेसी हलके में चर्चा है कि दोनों ही बिल कांग्रेस को उसी तरह से जीत के दर्शन कराएंगे, जैसे मनरेगा और किसानों की कर्ज माफी ने 2009 में कांग्रेस की राह आसान की थी। खबर यह भी है कि कांग्रेस का ही एक आर्थिक सुधारवादी तबका यह सोचता है कि इससे आर्थिक विकास की गति थमेगी और संकट बढ़ेगा। लेकिन शायद सोनिया गांधी को यकीन है कि महंगाई, घोटालों और नेतृत्वहीनता के गंभीर आरोपों से जूझ रही सरकार के पास चुनाव जीतने का कोई कारगर मंत्र नहीं है, लिहाजा लोक-लुभावन योजनाओं से ही आम आदमी का दिल जीता जा सकता है।
सोनिया गांधी के इस मूड ने एक बार फिर इंदिरा गांधी की याद दिलाई है। इंदिरा गांधी हवा के खिलाफ दो टूक फैसले लेने के लिए जानी जाती थीं। उनकी निर्णय क्षमता पर आलोचक भी सवाल नहीं खड़े करते थे। 1967 के बाद चाहे वह पार्टी के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वी वी गिरि को समर्थन देना हो, या फिर बैंक राष्ट्रीयकरण करना और प्रिवी पर्स खत्म करना हो, या 1971 में बांग्लादेश को आजाद कराने के लिए सेना भेजना हो, या फिर 1984 में स्वर्ण मंदिर से चरमपंथियों को निकालना हो, एक बार तय करने के बाद इंदिरा गांधी हिचकी नहीं। किसी मामूली नेता के लिए सत्तर के दशक में आपातकाल लागू करने का फैसला आसान नहीं होता। इंदिरा गांधी ने न केवल फैसला किया, बल्कि गलती का एहसास होते ही आपातकाल उठा भी लिया। सोनिया गांधी के करीबी लोगों का कहना है कि राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी को काफी करीब से देखा और उनसे काफी कुछ सीखा।यह सच है कि सोनिया गांधी के सामने इंदिरा जैसी चुनौती कभी नहीं रही। न ही उन्हें पार्टी पर नियंत्रण के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। शरद पवार ने जरूर विदेशी मूल का मुद्दा उठाया, पर यह मसला परवान नहीं चढ़ा और हारकर पवार को उनसे ही गठबंधन करना पड़ा, जबकि इंदिरा गांधी को शुरूआती दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। पार्टी पर पुराने दिग्गज और क्षेत्रीय क्षत्रप हावी थे। कामराज, एस निजलिंग्प्पा, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, एस के पाटिल, अतुल्य घोष जैसे लोगों की तूती बोला करती थी। ये सभी लोग जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष और सहयोगी थे। इंदिरा गांधी ने इन सबका मुकाबला करने और पार्टी को दक्षिणपंथी नेताओं के चंगुल से बाहर लाने के लिए रातोंरात समाजवादी एजेंडे को आगे किया। लेफ्ट का समर्थन लेकर मोरारजी जैसे तगड़े प्रतिद्वंद्वी और पुराने दिग्गजों को किनारे लगा दिया।यूपीए-दो के समय सोनिया गांधी की तबियत बेहतर नहीं थी और साथ ही राहुल को पार्टी की बागडोर संभालने की ऊहापोह ने पार्टी को काफी समय तक अनिर्णय की स्थिति में डाले रखा। यह ऐसा वक्त था, जब पार्टी और सरकार को लकवा मारने की बात कही जाने लगी। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। अर्थव्यवस्था डांवांडोल हुई। पार्टी में निराशा का भाव जगा। चुनाव के पहले ही तमाम नेता कहने लगे कि पार्टी सौ सीट भी ले आए, तो बड़ी बात होगी। सोनिया फिर सक्रिय हुईं। पूरी इंडस्ट्री, बुद्धिजीवी वर्ग और सरकार-पार्टी के एक बड़े तबके के विरोध के बावजूद दोनों बिलों को लाने का फैसला किया।
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