Friday, 29 May 2015

वादों को हकीकत में बदलिए जनाब


कोष आबंटित किए बिना ही बस लोगों से किए गए अपने वादों के आधार पर मोदी सरकार अपना एक साल मना रही है। नरेंद्र मोदी सरकार के इस एक साल में नया कुछ भी नहीं हुआ। मोदी सरकार ने कई राज्यों के साथ भेदभाव किया है। यदि हम बिहार की बात करें, तो पटना में कच्ची दरगाह पर गंगा पर छह लेन वाले पुल के निर्माण के लिए तमाम तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, लेकिन वादे के अनुरुप कोष उपलब्ध कराने के बजाय केंद्र अब परियोजना उसके हवाले करने की बात कह रही है। इसी तरह गंगा पर गांधी सेतु के लिए सिर्फ वादे ही किए गए हैं जबकि यह उत्तर बिहार के लिए जीवन रेखा माना जाता है। 
मोदी सरकार सिवाय डेंटिंग-पेंटिंग के कुछ नहीं कर रही। रक्षा क्षेत्र में यूपीए सरकार द्वारा मंजूर किया गया 27 हजार करोड़ रुपया वापस लौट गया। मोदी सरकार ने उसका इस्तेमाल तक नहीं किया। ये सत्ता में आने से पहले बोलते थे कि सेना की अनदेखी की जा रही है, जबकि इन्होंने सेना के लिए कुछ नहीं किया। सीजफायर उल्लंघन के मुद्दे पर आएं तो यूपीए के आखिरी एक साल में 96 बार पाकिस्तान ने सीजफायर का उल्लंघन किया था, जबकि मोदी सरकार के आते ही ये आंकड़ा 746 तक पहुंच गया है। अब, ये आंकड़े बताते हैं कि कौन विरोधियों से बेहतर ढंग से निपटा ? 
सरकार ने जो कुछ भी किया है, वह टेलीविजन कैमरे के सामने ही किया। सारी योजनाओं का श्रीगणेश भारी-भरकम कार्यक्रम करके ही किया गया। इसके बावजूद प्रधानमंत्री को खुद और उनके मंत्रियों को गांव-गांव तक जाकर प्रेस कांफ्रेंस करके लोगों को बताना पड़ रहा है कि उन्होंने क्या-क्या किया है तो इसका मतलब है कि नतीजे अभी लोगों तक पहुंचने नहीं शुरू हुए हैं। जो उम्मीदें पहले बिना संकोच और दुविधा के थीं,  उनके पूरे होने में कुछ संदेह होने लगा है। असल में यह समस्या बहुत अधिक उम्मीदें पैदा होने के कारण हुई है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रचार करते हुए अपने को हर मर्ज की दवा की तरह पेश किया था। यूपीए सरकार में जो कुछ भी बुरा होने की खबर आ रही थी, मोदी उसकी काट के तौर पर अपने को पेश कर रहे थे। उन्होंने कहा कि वे भ्रष्टाचार मिटा देंगे, काला धन वापस ला देंगे, पाकिस्तान और चीन को सबक सिखा देंगे, आतंकवाद खत्म कर देंगे, गरीबी दूर कर देंगे, नौजवानों को रोजगार देंगे, अयोध्या में राममंदिर बना देंगे, अनुच्छेद 370 खत्म हो जाएगा, पेट्रोल-डीजल सस्ता हो जाएगा, डॉलर 40 रुपए में बिकने लगेगा, मोदी भारत को विश्वगुरू बना देंगे, और न जाने क्या-क्या कर देंगे। नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने को करोड़ों लोगों की उम्मीदों के एवरेस्ट पर खड़ा कर लिया था। अब वहां से उनका उतरना मुश्किल है और उतनी उम्मीदों को पूरा करना तो लगभग नामुमकिन है। 
हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी अब भी व्यावहार धरातल पर नहीं उतर रहे हैं। वे और उनके मंत्री अब भी लोगों को सुंदर सपनों की सैर करा रहे हैं। प्रधानमंत्री का देश-विदेश का हर कार्यक्रम चुनावी दौरे की तरह होता है। वे अब भी लोगों की उम्मीदें जगाते हैं। दूसरी ओर कड़वी सचाई है, जिससे लोग रोज रूबरू हो रहे हैं। सपने और हकीकत का यह फर्क है, नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल को बिगाड़ने वाला है।

Tuesday, 26 May 2015

आज ही हुआ था एक युग का अंत


हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय राजनीति में वैसी अमिट छाप छोड़ी है, जिसका कोई दूसरा उपमा नहीं दिया जा सकता है। उनके जैसा कोई दूसरा राजनीति नहीं हुआ। उनके बारे में बहुतेरे बात लोगों के जेहन में हैं और रहेंगे। ऐसे ही चंद बातों का जिक्र हम कर रहे हैं, जिसे याद करने से हम गदगद हो उठते हैं।


 14 अगस्त की रात 11 बजे से ही आजादी समारोह शुरू हो गया था. समारोह के मुख्य वक्ताओं में से एक हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे. नेहरू ने कहा, 'मध्य रात्रि की इस बेला में जब पूरी दुनिया नींद की आगोश में सो रही है, हिंदुस्तान एक नई जिंदगी और आजादी के वातावरण में अपनी आंख खोल रहा है. यह एक ऐसा पल है जो इतिहास में बहुत ही कम दिखता है, जब हम पुराने युग से नए युग में प्रवेश करते हैं और जब एक युग खत्म होता है और जब एक देश की बहुत दिनों से दबाई गई आत्मा अचानक अपनी अभिव्यक्ति पा लेती है.' नेहरू ने यह भाषण इंग्लिश में दिया था लेकिन इसके बावजूद भी बहुत से इंग्लिश न जानने वालों की आंखें नम हो गईं थीं.

तिरंगे को लेकर नेहरू ने दिसंबर 1929 लाहौर अधिवेशन में यादगार भाषण दिया. नेहरू ने अपने संदेश में कहा, 'एक बार फिर आपको याद रखना है कि अब यह झंडा फहरा दिया गया है. जब तक एक भी हिंदुस्तानी मर्द, औरत, बच्चा जिंदा है, यह तिरंगा झुकना नहीं चाहिए.'


बंटवारे की तकलीफ सबसे ज्यादा महिलाओं को ही उठानी पड़ी. हिंदू, मुसलमान, सिख महिलाओं का अपहरण कर बलात्कार के अनगिनत मामले सामने आए. बाद में सरकार की कोशिशों से जब यह महिलाएं वापस घर लौटने की स्थिति में आईं तो बहुत सारी महिलाएं या तो घर जाना ही नहीं चाहती थी या महिलाओं के परिवारों ने 'अपवित्र' कह उनका परित्याग कर दिया था. आजादी के बाद दिल्ली, मुंबई के वेश्यालयों में महिलाओं की संख्या काफी बढ़ गई थी. नेहरू ने एक रेडियो कार्यक्रम के जरिए इन महिलाओं को संबोधित करते हुए कहा, 'बंटवारे के दौरान जिन महिलाओं को तमाम तरह की तकलीफों का सामना करना पड़ा, उन्हें ये नहीं सोचना चाहिए कि हमें उनके चरित्र के बारे में कोई संदेह है. हम उन्हें प्यार से वापस लाना चाहते हैं क्योंकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है. हम उन्हें बहुत प्यार से अपने घरों में रखना चाहते हैं. ऐसी महिलाओं की हर संभव मदद की जाएगी.'

 अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान की ओर से आए हमलावरों के कबीलाई हमले में कश्मीर की शांति भंग हो गई थी. उस वक्त कश्मीर भारत में शामिल नहीं हुआ था. भारत ने समय रहते सेना भेजकर कबीलाई हमले को बढ़ने से रोका था. कश्मीर में शांति स्थापित हो जाने के बाद नेहरू ने अपनी बहन को खत लिखकर कहा, 'मैं यह मानता हूं कि कश्मीर के भाग्य का फैसला कश्मीरी लोग ही करेंगे. जहां तक मेरा ख्याल है मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है कि कश्मीर कमोवेश आजाद हो जाए. लेकिन यह एक क्रूर मजाक होगा कि कश्मीर पाकिस्तान का एक शोषित हिस्सा बनकर रह जाए.'


 हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने के बड़े पक्षधर आरवी धूलेकर ने 10 दिसंबर 1946 को संसद की कार्यवाही के दौरान कहा कि जो लोग हिंदुस्तानी नहीं समझते उन्हें सदन में रहने का कोई हक नहीं है और ऐसे लोग अगर सदन में मौजूद हैं तो वो सदस्य बनने के काबिल नहीं हैं. वो यहां से चले जाएं. इस बात पर सदन में हंगामा शुरू हो गया. हंगामा बढ़ता देख नेहरू ने मंच पर जाकर सदस्यों से कहा, 'ये कोई झांसी की जनसभा नहीं है कि आप उठे और भाइयों बहनों कहते हुए ऊंची आवाज में अपना ज्ञान देना शुरू कर दें.'



राष्ट्र के गठन से लेकर देश के बंटवारे दौरान अल्पसंख्यकों का ख्याल नेहरू के लिए बड़ी चुनौती बनकर सामने आई. नेहरू ने इस बारे में एक बार कहा, 'हम जिस तरह से अपने बहुसंख्यक समाज के साथ व्यवहार करते हैं, उसी तरह का व्यवहार अल्पसंख्यक वर्ग के साथ भी करेंगे. मैं तो कहूंगा कि अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का ही नहीं, बल्कि इस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए कि उन्हें इसका एहसास हो कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा.'

 1952 में भारत में पहला चुनाव हुआ था. इस चुनाव में नेहरू ने दिल्ली में एक जनसभा के बीच करीब 95 मिनट लंबा भाषण दिया. नेहरू के इस भाषण के उस अंश को लोगों ने काफी पसंद किया, जिसमें नेहरू ने कहा, 'अगर कोई आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है तो मैं सरकार का मुखिया होने के नाते, जिंदगी की आखिरी सांस तक उससे लड़ता रहूंगा.'

 नेहरू कुछ मामलों में बेहद ही जिद्दी स्वभाव के थे. आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर 19 अक्टूबर 1952 को पोट्टी श्रीरामलू ने आमरण अनशन शुरू कर दिया था. इस अनशन को लोगों का काफी समर्थन हासिल हुआ. इस बारे में नेहरू को भी यथास्थिति पता थी. नेहरू ने 3 दिसंबर को मद्रास के मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी को खत लिखकर कहा,'आंध्र प्रदेश की मांग के लिए अनशन जैसी घटनाएं शुरू हुई हैं और मुझे इस बाबत विचलिच कर देने वाले टेलीग्राम मिल रहे हैं. मैं इससे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हूं और मैं इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर देना चाहता हूं.' लेकिन इस खत के 12 दिन बाद 15 दिसंबर को अनशन के 58वें दिन श्रीरामलू की मौत हो गई. मौत की खबर सुनते ही आंध्र का पूरा इलाका हिंसा में डूब गया. हिंसा को देखते हुए श्रीरामलू की मौत के दो दिन बाद ही नेहरू ने आंध्र प्रदेश राज्य के गठन के लिए हामी भर दी.

 भारत के निर्माण में आजादी के बाद तमाम नेताओं और नागरिकों को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा. नेहरू से एक बार फ्रांसीसी लेखक मेलरौक्स ने आजादी के बाद उनकी सबसे बड़ी समस्या के बारे में जानना चाहा. तब नेहरू ने कहा, 'न्यायपूर्ण साधनों द्वारा एक समतामूलक समाज का निर्माण मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या रही. शायद एक धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण भी मेरे लिए समस्या रही है.'

 26 नवंबर 1962, वो दिन जब प्रधानमंत्री नेहरू ने रेडियो के जरिए चीनी फौजों के आगे भारत की हार का ऐलान किया. नेहरू ने कहा, 'इन चीनी फौजों ने हमारे ऊपर हमला किया और पूर्वी सीमा प्रांत नेफा से ये लोग हमारे मुल्क में घुस आए और उन्होंने हमारे फौजी जवान दस्तों पर हमला किया. उसके बाद वहां एक काफी बड़ी जंग हुई. चीनियों ने इतनी बड़ी फौज वहां डाली कि उन्होंने हमारी उससे छोटी फौज को हटा दिया और दबा दिया.' चीन से हार का नेहरू को गहरा झटका लगा और चीन से हार के करीब डेढ़ साल बाद 27 मई 1964 को नेहरू ने अंतिम सांस ली और एक युग का अंत हो गया.

Wednesday, 13 May 2015

अनुकरणीय व्यक्तित्व वाले इंसान थे फखरुद्दीन अली अहमद




फखरुद्दीन अली अहमद एक अनुकरणीय व्यक्तित्व वाले इंसान थे । उनके व्यक्तित्व पर एक संपन्न परिवार से संबंधित होने की झलक साफ दिखाई पड़ती थी । वह हमेशा शोषण के प्रति आवाज उठाने के लिए तत्पर रहते थे । इसी उद्देश्य से उन्होंने मजदूर संघों का भी नेतृत्व किया । वह एक बेहद संयमित और अपने अपने लक्ष्यों के प्रति गंभीर व्यक्ति थे । अहमद अली 1974 से 1977 के दरम्यान भारत के राष्ट्रपति रहे। फखरुद्दीन अली अहमद भारत के पांचवें राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं। इनका राष्ट्रपति चुना जाना भी भारतवर्ष की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था का एक ज्वलंत प्रमाण है। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा करने वाले राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ही थे। फखरुद्दीन अली अहमद का जन्म 13 मई 1905 को पुरानी दिल्ली के हौज काजी इलाके में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘कर्नल जलनूर अली अहमद’ और दादा का नाम ‘खलीलुद्दीन अहमद’ था। फखरुद्दीन अली अहमद के दादा गोलाघाट शहर के निकट कदारीघाट के निवासी थे, जो असम के सिवसागर में स्थित था। इनके दादा का निकाह उस परिवार में हुआ था, जिसने औरंगजेब द्वारा असम विजय के बाद औरंगजेब के प्रतिनिधि के रूप में असम पर शासन किया था। फखरुद्दीन अली अहमद के पिता तब अंग्रेज सेना में इण्डियन मेडिकल सर्विस के तहत कर्नल के पद पर थे।
फखरुद्दीन अली अहमद न केवल एक नामी मुस्लिम घराने में पैदा हुए थे, बल्कि इनके परिवार में बेहद सम्पन्नता और शिक्षा के प्रति अच्छी जागृति भी थी। इनकी आरंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश गोंडा सरकारी हाई स्कूल में सम्पन्न हुई लेकिन 1918 में पिता का स्थानांतरण दिल्ली हो गया। 1921 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1927 में फखरुद्दीन अली अहमद ने स्नातक स्तर की शिक्षा तथा 1928 में विधि की शिक्षा सम्पन्न कर ली। विधि की डिग्री लेने के बाद यह भारत लौट आए और पंजाब हाई कोर्ट में वकील के तौर पर नामांकित हुए।
फखरुद्दीन अली अहमद अपने पिता के मित्र मुहम्मद शफी जो पेशे से एक एडवोकेट थे उनके सहयोग में आकर एक सहयोगी के रूप में विधि व्यवसाय करने लगे। लेकिन कुछ समय बाद पिता की प्रेरणा से फखरुद्दीन अली असम चले गए। इन्होंने अपने गृह राज्य के गोहाटी हाई कोर्ट में विधि व्यवसाय आरंभ किया। कुछ समय बाद इन्हें बड़ी सफलता प्राप्त हुई। यह उच्चतम न्यायालय में बतौर वरिष्ठ एडवोकेट के रूप में कार्य करने लगे। फखरुद्दीन अली के पिता कर्नल जलनूर अली अहमद एक राष्ट्रवादी शख्स थे लेकिन स्वयं फखरुद्दीन अली ने उनसे एक कदम आगे रहते हुए 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता प्राप्त कर ली। 1937 में यह असम लेजिसलेटिव असेम्बली में सुरक्षित मुस्लिम सीट से निर्वाचित हुए। जवाहरलाल नेहरू ने इन्हें कांग्रेस की कार्य समिति का सदस्य बनाया। 1964 से 1974 तक यह कार्य समिति और केन्द्रीय संसदीय बोर्ड में रहे।
1938 में जब गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में असम में कांग्रेस की संयुक्त सरकार बनी तो फखरुद्दीन अली अहमद को वित्त एवं राजस्व मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ तो फखरुद्दीन अली अहमद ने भी उसमें भाग लिया। इस कारण अंग्रेज सरकार ने इन्हें 13 अप्रैल 1940 को गिरफ्तार करके एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया। इन्हें अप्रैल 1945 तक साढ़े तीन वर्ष जेल भुगतनी पड़ी।
फखरुद्दीन अली अहमद इंदिरा गांधी के करीबी सहयोगी थे। 29 जनवरी 1966 को इन्हें संघीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शामिल कर लिया। उन्होंने शिक्षा मंत्री के रूप में भी 14 नवम्बर 1966 से 12 मार्च 1967 तक कार्य किया। 3 जुलाई 1974 तक खाद्य कृषि मंत्री के रूप में इनकी सेवाएं जारी रहीं।
3 जुलाई 1974 को फखरुद्दीन अली अहमद ने केन्द्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री के रूप में अपना त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्रपति नियुक्त होने के समय यह लोक सभा के सदस्य भी थे, अत: उन्होंने 21 अगस्त 1974 लोक सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इन्होंने 24 अगस्त 1974 को शपथ ग्रहण की। डा जाकिर हुसैन के पश्चात ये दूसरे ऐसे अल्पसंख्यक नेता थे जो राष्ट्रपति बने। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा करने वाले राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ही थे। 11 फरवरी 1977 को वे इस संसार से चले गए।

Friday, 8 May 2015

मां तो मां है...

मदर्स डे दुनिया भर में मनाया जाता है। भारत में मदर्स डे मई माह के दूसरे रविवार को मनाते हैं। मदर्स डे का इतिहास लगभग 400 वर्ष पुराना है। प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में मदर्स डे को मनाया जाता था। इसके पीछे कई धार्मिक कारण जुड़े थे।
मां, कितना मीठा, कितना अपना, कितना गहरा और कितना खूबसूरत शब्द है। समूची पृथ्वी पर बस यही एक पावन रिश्ता है जिसमें कोई कपट नहीं होता। कोई प्रदूषण नहीं होता। इस एक रिश्ते में निहित है छलछलाता ममता का सागर। शीतल और सुगंधित बयार का कोमल अहसास। इस रिश्‍ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी अव्यक्त अनुभूति छुपी है जैसे हरी, ठंडी व कोमल दूब की बगिया में सोए हों। लाज और लावण्य से दीपदिपाते-पुलकित इस भाव को किसी भाषा, किसी शब्द और किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती। 'मां' शब्द की पवित्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में देवियों को मां कहकर पुकारते है। बेटी या बहन के संबोधनों से नहीं। मदर मैरी और बीवी फातिमा का ईसाई और मुस्लिम धर्म में विशिष्ट स्थान है। बेटी नहीं तो मां नहीं और मां नहीं तो संसार का अस्तित्व नहीं।
आज याद आ रही है एक कवि की कविता, जो काफी अंदर तक झकझोरती है।
माँ…माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है,
माँ…माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ…माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ…माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ…माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ…माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ…माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ…माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ…माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ…माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ…माँ परामत्मा की स्वयँ एक गवाही है,
माँ…माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ…माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ…माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ…माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ…माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कधों का नाम है,
माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ…माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ…माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ…माँ चुल्हा-धुंआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ…माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्याला है,
माँ…माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ.