Tuesday, 18 November 2014

समाज और देश को नई दिशा दी इंदिरा गांधी ने

इंदिरा गांधी को बीसवीं सदी की विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं में गिना जाता है. एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देश और देशवासियों को गर्व के कई मौके उपलब्ध कराये. उन्होंने भारत-निर्माण में अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत को बहुत अच्छी तरह से आगे बढ़ाने का काम किया. इंदिरा गांधी के समय में ही भारत में ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ. प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के मौजूदा नजरिये से देखें, तो इस हरित क्रांति का बहुत महत्व है और यही वजह है कि हमारी पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश में फिर से हरित क्रांति की अलख जगाने की बात कर चुकी हैं.
इंदिरा गांधी की विदेश नीति पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का काफी प्रभाव था. लेकिन जवाहरलाल नेहरू को एक बहुत बड़ा एडवांटेज यह था कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के कारण वैश्विक स्तर पर उनका दबदबा था. विश्व के बड़े-बड़े राजेनता और बुद्धिजीवी उनका मान-सम्मान करते थे. जवाहरलाल नेहरू की बेटी होने के कारण इंदिरा गांधी को भी यह कुछ हद तक विरासत में मिला था. नेहरू जी विश्व राजनीति के बहुत बड़े जानकार थे. यहां तक कि वे जनसभाओं में भी विदेश नीति का जिक्र करते थे, कि इंडोनेशिया में ये हो रहा है या वियतनाम में ये हो रहा है. लेकिन, इंदिरा गांधी ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद विश्व की स्थिति बखूबी समझा और उसके अनुरूप नीतियों को ढाला. इंदिरा गांधी भले ही अर्थशास्त्र की बड़ी जानकार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने अपने कॉमनसेंस का अच्छा इस्तेमाल किया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक साहसी और बड़ा कदम था. भारत को खाद्य पदार्थो के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा.

इंदिरा गांधी की विदेश नीति को देखें तो उन्होंने भारत-सोवियत मैत्री को आगे बढ़ाया और भारत के पक्ष में उसका इस्तेमाल किया. इस तरह हम कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने भारत की प्रतिनिधि के रूप में न केवल विश्व की स्थिति को बारीकी से समझा, बल्कि भारतीय विदेश नीति को देश और समय की जरूरतों के हिसाब से ढाला भी. लिंडन जॉन्सन का राष्ट्रपतिकाल हो या रिचर्ड निक्सन का, इंदिरा गांधी अमेरिका के दबाव में कभी नहीं आयीं और उसके खिलाफ मजबूती से टिकी रहीं, जबकि भारत एक विकासशील देश था. परमाणु अप्रसार संधि के पक्ष में वोट न देकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक अलग पहचान बनायी. 1971 के बांग्लादेश युद्ध में मिली जीत में उनकी ऐतिहासिक और सराहनीय भूमिका थी. इसके बाद पाकिस्तान ने वैश्विक पटल, पर खासतौर पर इसलामिक देशों में, भारत के खिलाफ जो घेराबंदी की, उसका उन्होंने बखूबी सामना किया. सोवियत संघ के साथ मित्रता संधि उनकी कूटनीतिक होशियारी की मिसाल है.
विश्व राजनीति के मंच पर भारत को मजबूत करने में इंदिरा गांधी की ऐसी और भी कई उपलब्धियां हैं, जिनकी वजह से भारत का एक अलग और स्वतंत्र अस्तित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बना. इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन की चर्चा भी करनी होगी. जवाहर लाल नेहरू गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बहुत बड़े लीडर थे, पर धीरे-धीरे ऐसे हालात बने कि यह आंदोलन कमजोर पड़ता गया. इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को फिर से मजबूत किया. दो ध्रुवों के टकराव के दौर, जिसे ‘कोल्डवार एरा’ कहते हैं, में उन्होंने अफ्रीका और एशिया के बीच में एक स्पेशल ग्रुप बनाया. वह एक हद तक समाजवादी सोवियत संघ की ओर झुकी रहीं, लेकिन साथ ही भारत के अमेरिका के साथ कामकाजी रिश्ते भी बने रहे. इस तरह वे एक दूरदर्शी प्रधानमंत्री साबित हुईं.विदेश नीति को लेकर भारत में हमेशा से ही राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति रही है कि मिल कर काम करना चाहिए. यही कारण है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में सार्क सम्मेलन का सूत्रपात हुआ. हालांकि, उस वक्त वे सोवियत संघ के करीब थीं, लेकिन अपनी विदेश नीति में उन्होंने उसे हावी नहीं होने दिया. सोवियत संघ के घटनाचक्रों का भारत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ और वे सोवियत संघ के साथ मैत्री बनाये रखने के साथ ही अमेरिका से निडर भी होती चली गयीं. विदेश नीतियों के मामले में इंदिरा अपने पिता पंडित नेहरू की विदेश नीतियों के बेहद करीब तक जाती हैं.
भारत में सबसे पहले परमाणु परीक्षण का श्रेय भी उनके कार्यकाल को ही जाता है. 1974 में पहली बार इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही परमाणु परीक्षण हुआ और आधुनिक भारत के निर्माण के रूप में यह एक ऐसी परिघटना के रूप में दर्ज है, जिसने सामरिक रूप से हिंदुस्तान को एक नया आयाम दिया.उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू उनको राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित कर रहे थे और यही वजह है कि इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू की बहुत सी नीतियों को आगे बढ़ाया और उन्हें प्राथमिकता दी. गुट निरपेक्ष आंदोलन (नॉन-एलायंस मूवमेंट) उनमें से एक है. अपनी मृत्यु से एक-डेढ़ साल पहले, 1983 में इंदिरा गांधी ने एक बड़े ‘नॉन एलायंस समिट’ का आयोजन कर यह जता दिया था कि पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन को कमजोर नहीं होने देना है, बल्कि इसे और भी आगे ले जाना है. यह उनकी सशक्त छवि का ही परिचायक माना जा सकता है.

Tuesday, 11 November 2014

विज्ञान में पंडित नेहरु का योगदान

आजादी की कड़ी लड़ाई के बाद स्वतंत्र भारत को संभालना भी एक जंग से कम न था। आजादी के बाद विभाजन की आंधी से लड़ने के लिए काफी मशक्कत की जरुरत थी, और इस दौर में भी भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने हार न मानते हुए सरकार संभालने में अहम भूमिका निभाई। ऐसे ही नेताओं में सर्वश्रेष्ठ थे पंडित जवाहरलाल नेहरु। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और एक अहम स्वतंत्रता सेनानी थे पंडित जवाहरलाल नेहरु। आजादी की लड़ाई के 24 वर्ष में जवाहरलाल नेहरु जी को आठ बार बंदी बनाया गया, जिनमें से अंतिम और सबसे लंबा बंदीकाल, लगभग तीन वर्ष का कारावास जून 1945 में समाप्त हुआ। नेहरू ने कुल मिलाकर नौ वर्ष से ज़्यादा समय जेलों में बिताया। अपने स्वभाव के अनुरूप ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है।

नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 1936, 1937 और 1946 में चुने गए थे। उन्हें 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 1945 में छोड दिया गया। 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्वपूर्ण भागीदारी की।
1947 में आजादी के बाद उन्हें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री का पद दिया गया। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
भारतीय विज्ञान का विकास प्राचीन समय में ही हो गया था। अगर यह कहा जाए कि भारतीय विज्ञान की परंपरा दुनिया की प्राचीनतम परंपरा है, तो अतिशयोक्ति न होगी। जिस समय यूरोप में घुमक्कड़ जातियाँ अभी अपनी बस्तियाँ बसाना सीख रही थीं, उस समय भारत में सिंध घाटी के लोग सुनियोजित ढंग से नगर बसा कर रहने लगे थे। उस समय तक भवन-निर्माण, धातु-विज्ञान, वस्त्र-निर्माण, परिवहन-व्यवस्था आदि उन्नत दशा में विकसित हो चुके थे। फिर आर्यों के साथ भारत में विज्ञान की परंपरा और भी विकसित हो गई। इस काल में गणित, ज्योतिष, रसायन, खगोल, चिकित्सा, धातु आदि क्षेत्रों में विज्ञान ने खूब उन्नति की। विज्ञान की यह परंपरा ईसा के जन्म से लगभग 200वर्ष पूर्व से शुरू होकर ईसा के जन्म के बाद लगभग 11वीं सदी तक काफी उन्नत अवस्था में थी। इस बीच आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधयन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, कणाद से लेकर सवाई जयसिंह तक वैज्ञानिकों की एक लंबी परंपरा विकसित हुई।
भारत में आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा का विकास मुख्य रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद से शुरू हुआ। यहाँ एक बात मुख्य रूप से धयान देने की है। वह यह कि आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से बहुत भिन्न नहीं है। बल्कि उसी को आगे बढ़ाने वाली एक कड़ी के रूप में विकसित हुई है। दोनों परंपराओं के विकास में एक मूलभूत अंतर है, वह है यांत्रिकी का विकास। प्राचीन भारतीय परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो काफ़ी तेजी से विकास कर लिया था, किंतु यांत्रिकी यानी मशीनी स्तर पर कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की। आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा यहीं से प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से खुद को अलग कर लेती है। पूरे आधुनिक परिदृश्य को देखें तो आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है, यांत्रिकी का विकास। अब तक जो भी प्राचीन वैज्ञानिक उपलब्धियाँ थीं उन्हीं को आधर बनाते हुए यांत्रिकी का विकास किया गया और यह परंपरा पूरी दुनिया में प्रचलित हो गई। फिर यांत्रिकी के विकास से विज्ञान में नए अनुसंधानों के अनेक रास्ते खुले, जैसे - कंप्यूटर के विकास से रसायन, भौतिक, जीव विज्ञान आदि हर क्षेत्र में नए-नए प्रयोगों में आसानी हो गई। आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा के एक-साथ पूरी दूनिया में प्रसार के पीछे मुख्य कारण था - दुनिया के ज़्यादातर देशों में अंग्रेजों का राज। इसी प्रकार जिस भी यांत्रिक अथवा वैज्ञानिक परंपरा का विकास हुआ वह थोड़े-से अंतर पर अथवा एक-साथ पूरी दुनिया में प्रचलित हो गई। अतः आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा ने देश और काल की सीमाएँ भी तोड़ी।
भारत का वैज्ञानिक विकास देश के प्रथम प्रधनमंत्र पं॰ जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ। उन्होंने देश के वैज्ञानिक विकास के लिए लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यानी साइंटिफिक टेम्पर जगाने का संकल्प लिया। अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही उन्होंने इस कार्य को डॉ॰ शांतिस्वरूप भटनागर को सौंप दिया, जिसे डॉ॰ भटनागर ने सहर्ष स्वीकारा। परिणामस्वरूप उन्हें औद्योगिक अनुसंधान का प्रणेता होने का गौरव प्राप्त हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार इन्हीं के नाम पर वैज्ञानिकों को दिया जाता है। देश के समुचित वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के लिए डॉ॰ भटनागर ने अथक परिश्रम किया और इसके लिए उन्हें पं॰ नेहरू का भरपूर सहयोग मिला जिसके परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की कड़ी स्थापित होती चली गई। इस कड़ी की पहली प्रयोगशाला पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला थी, जिसका उद्घाटन 3 जनवरी 1950 को पं॰ नेहरू ने किया। इसके बाद दिल्ली में राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला तथा जमशेदपुर में राष्ट्रीय धत्विक प्रयोगशाला की स्थापना हुई। 10 जनवरी 1953 को नई दिल्ली में सी. एस. आई. आर. मुख्यालय का उद्घाटन हुआ। 1 जनवरी 1955 को जब डॉ॰ भटनागर की मृत्यु हुई थी तब तक देश में विभिन्न स्थानों पर लगभग 15 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना हो चुकी थी और ये सभी प्रयोगशालाएँ किसी-न-किसी उद्योग से जुड़ी थीं। इन सभी प्रयोगशालाओं का उद्घाटन और शिलान्यास पं॰ नेहरू द्वारा ही संपन्न हुआ। प्रयोगशालाओं की बढ़ती कड़ी को ‘नेहरू-भटनागर प्रभाव’ कहा गया है।
10 अगस्त 1948 को परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए डॉ॰ होमी जहाँगीर भाभा के प्रयासों से परमाणु ऊर्जा आयोग का गठन हुआ था। तब से लेकर आज तक हुए विकास के फलस्वरूप हम खनिज अनुसंधान के लिए ईंधन निर्माण, व्यर्थ पदार्थों से ऊर्जा उत्पादन, कृषि चिकित्सा उद्योग एवं अनुसंधान में आत्मनिर्भर हो गए हैं। परमाणु ऊर्जा के अंतर्गत नाभिकीय अनुसंधान के क्षेत्र में मुंबई स्थित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की भूमिका सराहनीय है। यहाँ हो रहे नित नए अनुसंधानों के कारण हम पोखरण-2 का सफल परीक्षण कर विश्व की परमाणु शक्ति वाले देशों की पंक्ति में आ खड़े हुए हैं।

Monday, 10 November 2014

बच्चों से विशेष प्रेम था जवाहरलाल नेहरू को


बच्चे हर देश का भविष्य और उसकी तस्वीर होते हैं. यह वही देश है जहां भगवान विष्णु को बाल रूप में पूजा जाता है और जहां के प्रथम प्रधानमंत्री को बच्चे इतने प्यारे थे कि उन्होंने अपना जन्मदिवस ही उनके नाम कर दिया. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू  को बच्चों से विशेष प्रेम था. यह प्रेम ही था जो उन्होंने अपने जन्मदिवस को बाल दिवस  के रूप में मनाने का निर्णय लिया. जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से लगाव था तो वहीं बच्चे भी उन्हें चाचा नेहरू के नाम से जानते थे. जवाहरलाल नेहरू  ने नेताओं की छवि से अलग हटकर एक ऐसी तस्वीर पैदा की जिस पर चलना आज के नेताओं के बस की बात नहीं. आज चाचा नेहरू का जन्मदिन है. तो चलिए जानते हैं जवाहरलाल नेहरू  के उस पक्ष के बारे में जो उन्हें बच्चों के बीच चाचा बनाती थी.
एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुजरते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे. उनका ध्यान पौधों पर था. तभी पौधों के बीच से उन्हें एक बच्चे के रोने की आवाज आई. नेहरूजी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो रो रहा था. जवाहरलाल नेहरू  ने उसकी मां को इधर-उधर ढूंढ़ा पर वह नहीं मिली. चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं माली के साथ काम कर रही होगी. नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज कर दिया. इस पर उन्होंने उस बच्चे की मां की भूमिका निभाने का मन बना लिया. वह बच्चे को गोद में उठाकर खिलाने लगे और वह तब तक उसके साथ रहे जब तक उसकी मां वहां नहीं आ गई. उस बच्चे को देश के प्रधानमंत्री के हाथ में देखकर उसकी मां को यकीन ही नहीं हुआ.
दूसरा वाकया जुड़ा है तमिलनाडु से. एक बार जब पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर गए तब जिस सड़क से वे गुजर रहे थे वहां लोग साइकलों पर खड़े होकर तो कहीं दीवारों पर चढ़कर नेताजी को निहार रहे थे. प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए हर आदमी इतना उत्सुक था कि जिसे जहां समझ आया वहां खड़े होकर नेहरू जी को निहारने लगा.इस भीड़ भरे इलाके में नेहरूजी ने देखा कि दूर खड़ा एक गुब्बारे वाला पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था. ऐसा लग रहा था कि उसके हाथों के तरह-तरह के रंग-बिरंगी गुब्बारे मानो पंडितजी को देखने के लिए डोल रहे हों. जैसे वे कह रहे हों हम तुम्हारा तमिलनाडु में स्वागत करते हैं. नेहरूजी की गाड़ी जब गुब्बारे वाले तक पहुंची तो गाड़ी से उतरकर वे गुब्बारे खरीदने के लिए आगे बढ़े तो गुब्बारे वाला हक्का-बक्का-सा रह गया. जवाहरलाल नेहरू  ने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहकर सारे गुब्बारे खरीदवाए और वहां उपस्थित सारे बच्चों को वे गुब्बारे बंटवा दिए. ऐसे प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों के प्रति बहुत लगाव था. नेहरू जी के मन में बच्चों के प्रति विशेष प्रेम और सहानुभूति देखकर लोग उन्हें चाचा नेहरू के नाम से संबोधित करने लगे और जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों के हाथों तक पहुंचे बच्चों ने चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की तेज आवाज से वहां का वातावरण उल्लासित कर दिया. तभी से वे चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध हो गए.

आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू


आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ भारत के नव निर्माण, लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले बच्चों के चाचा नेहरू और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अद्भुक्त वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, इतिहासकार, स्वप्नद्रष्टा और आधुनिक भारत के निर्माता थे। आर्थिक और विदेश नीति के निर्धारण में मौलिक योगदान के साथ-साथ नेहरू ने जहां हमारे देश में प्रजातंत्र की जडें मजबूत कीं और उससे भी यादा महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू ने भारत को पूरी ताकत लगाकर एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया। चूँकि हमने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया उसके परिणामस्वरूप हमारे देश में प्रजातंत्र की जड़े गहरी होती गईं। जहां नव-आजाद देशों में से अनेक  में प्रजातंत्र समाप्त हो गया है और तानाशाही कायम हो गई है वहीं भारत में प्रजातंत्र का कोई बाल बांका नहीं कर सका। इस तरह कहा जा सकता है कि जहां सरदार पटेल भारत को भौगोलिक दृष्टि से एक राष्ट्र बनाया वहीं नेहरू ने ऐसा राजनीतिक-आर्थिक एवं सामाजिक आधार बनाया जिससे भारत की एकता को कोई डिगा नहीं पाया। इस तरह आधुनिक भारत के निर्माण में पटेल और नेहरू दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है। आर्थिक और विदेश नीति के निर्धारण में मौलिक योगदान के साथ-साथ नेहरू ने जहां हमारे देश में प्रजातंत्र की जडें मजबूत कीं और उससे भी यादा महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू ने भारत को पूरी ताकत लगाकर एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया। चूँकि हमने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया उसके परिणामस्वरूप हमारे देश में प्रजातंत्र की जड़े गहरी होती गईं। जहां नव-आजाद देशों में से अनेक में प्रजातंत्र समाप्त हो गया है और तानाशाही कायम हो गई है वहीं भारत में प्रजातंत्र का कोई बाल बांका नहीं कर सका।

संघ परिवार का हमेशा यह प्रयास रहता है कि आजाद भारत के निर्माण में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका को कम करके पेश किया जाये और यह भी कि आज यदि पूरा कश्मीर हमारे कब्जे में नहीं है, तो उसके लिये सिर्फ और सिर्फ नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाए। संघ परिवार इस बात को भूल जाता है कि आजाद भारत में पंड़ित नेहरू और सरदार पटेल की अपनी.अपनी भूमिकायें थीं। जहां सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से सभी राजे.रजवाड़ों का भारत में विलय करवाया और भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप दिया वहीं नेहरू ने भारत को एक शक्तिशाली आर्थिक नींव देने के लिए आवश्यक योजनायें बनाईं और उनके क्रियान्वयन के लिये उपयुक्त वातावरण भी।  हमारे देश के कुछ संगठन, विशेषकर जो संघ परिवार से जुड़े हैं, जब भी सरदार पटेल की चर्चा करते हैं तो उस समय वे पटेल के बारे में दो बातें अवश्य कहते हैं। पहली यह कि सरदार पटेल आज के भारत के निर्माता हैं और यह कि यदि कश्मीर की समस्या सुलझाने का उत्तरदायित्व सरदार पटेल को दिया जाता तो पूरे कश्मीर पर हमारा कब्जा होता। अभी हाल में सरदार पटेल की जयंती के अवसर पर उनको याद करते हुये पुन: यह बातें दुहराई गयी। संघ परिवार का हमेशा यह प्रयास रहता है कि आजाद भारत के निर्माण में जवाहर लाल नेहरू की भूमिका को कम करके पेश किया जाये और यह भी कि यदि पूरा कश्मीर हमारे कब्जे में नहीं है तो उसके लिये सिर्फ और सिर्फ जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार हैं। चौहान और संघ परिवार इस बात को भूल जाते हैं कि आजाद भारत में पंड़ित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल की अपनी-अपनी भूमिकायें थी। जहां सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से सभी राजे- रजवाड़ों का भारत में विलय करवाया और भारत को एक  राष्ट्र का रूप दिया वहीं जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को एक शक्तिशाली नींव पर खड़े रहने के लिये आवश्यक योजनायें बनाई और उनके यिान्वयन के लिये वातावरण बनाया।
नेहरू जी के योगदान को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहला, ऐसी शक्तिशाली संस्थाओं का निर्माण जिनसे भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम हो और बाद में कायम रहे। इन संस्थाओं में जन प्रतिनिधि संस्थाओं के रूप में संसद एवं विधान सभायें, एक उत्तरदायी एवं पूर्ण स्वतंत्र न्यायपालिका शामिल हैं। दूसरा, प्रजातंत्र को जिंदा रखने के लिये निश्चित अवधि के बाद चुनाव की व्यवस्था और ऐसा संवैधानिक प्रावधान कि भारत के प्रजातंत्र का मुख्य आधार धर्मनिरपेक्षता हो। तीसरा, मिश्रित अर्थव्यवस्था और उच्च शिक्षा संस्थानों की बड़े पैमाने पर स्थापना। वैसे जवाहर लाल नेहरू समाजवादी समाज व्यवस्था के समर्थक नहीं थे। परंतु वे भारत को पँजीवादी देश भी नहीं बनाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने भारत में एक मिश्रित आर्थिक व्यवस्था की नींव रखी। मिश्रित व्यवस्था में उन्होंने जहां उद्योग में निजी पूँजी की भूमिका बनाये रखी वहीं उन्होंने अधोसंरचना उद्योगों के लिये अत्यधिक शक्तिशाली सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया। उन्होंने कुछ ऐसे उद्योग चुने जिन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में ही रखा गया। ये ऐसे उद्योग थे जिनके बिना निजी उद्योग पनप ही नहीं सकता था। बिजली का उत्पादन पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र में रखा गया। इसी तरह इस्पात, बिजली के उपकरणों के कारखाने, रक्षा उद्योग, एल्यूमिनियम एवं अणु ऊर्जा भी सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए। इसके अतिरिक्त देश में तेल की खोज की गई और पेट्रोल और एल.पी.जी. के कारखाने भी सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गये। उद्योगीकरण की सफलता के लिये तकनीकी ज्ञान में माहिर लोगों की आवश्यकता होती है। फिर इन उद्योगों के संचालन के लिये प्रशिक्षित प्रबंधको को भी तैयार करने की आवश्यकता महसूस की गई। उच्च तकनीकी शिक्षा देने के लिये आईआईटी स्थापित किये गये। इसी तरह प्रबंधन के गुर सिखाने के लिए आईआईएम खोले गए। इन उच्चकोटि के संस्थानों के साथ-साथ संपूर्ण देश के पचासों छोटे-बड़े शहरों इंजीनियरिंग कालेज व देशवासियों के स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिये मेडिकल कॉलेज स्थापित किये गये।  चूँकि अंग्रेजों के शासन के दौरान देश की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी इसलिये उसे पटरी पर लाने के लिये अनेक बुनियादी कदम उठाये गये। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण देश का योजनाबध्द विकास था। योजनाबध्द विकास संभव हो सके इसलिये योजना आयोग की स्थापना की गई। स्वयं नेहरू जी योजना आयोग के अध्यक्ष बने। योजना आयोग ने देश के चहुमुखी विकास के लिये पंचवर्षीय योजनाएं बनाई गई। उस समय पंचवर्षीय योजना का विचार सोवियत रूस सहित अन्य समाजवादी देशों में लागू था परंतु पंचवर्षीय योजना का ढांचा एक ऐसे देश में लागू करना था जो पूरी तरह से न तो समाजवादी था और न ही पूँजीवादी। इसलिये उसे हमारे देश में लागू करना एक कठिन काम था।


Wednesday, 5 November 2014

नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥


कार्तिक पूर्णिमा और गुरुनानक जयंती पर देशभर के गुरुद्वारों, मंदिरों की भव्य सजावट की शोभा देखती ही बन रही है. कार्तिक पूर्णिमा और देव दीपावली पर गंगा समेत नदियों के घाटों को सजाया गया है. लाखों भक्त सुबह से ही पवित्र नदियों में स्नान करते देखे जा रहे हैं. साथ ही शाम को देव दीपावली के अवसर पर हरिद्वार और वाराणसी में दीपों की दिवाली मनाई जाएगी.इसे देखने देश-विदेश के दर्शक घाटों पर उमड़ेंगे.
गुरू नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे। गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) १५ अप्रैल, १४६९ ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। इस दिन को सिख धर्म के अनुयायी गुरु पर्व]] के रूप में मनाते हैं।
इनका जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में संवत् १५२७ में कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्यानचंद या मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था।
बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। ७-८ साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य ऴ्यक्तित्व मानने लगे। बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। ३२ वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पीछे दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत १५०७ में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़।

गुरु नानकदेव के पद

झूठी देखी प्रीत

जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥

#

को काहू को भाई

हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥

धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥

Tuesday, 4 November 2014

डॉ. मनमोहन सिंह ने रचा इतिहास


भारत-जापान संबंधों में अहम योगदान के लिए डॉ मनमोहन सिंह को जापान के टॉप नेशनल अवॉर्ड के लिए चुना गया है। डॉ मनमोहन सिंह को द ग्रैंड कॉर्डन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द पाउलोनिया फ्लावर्स से सम्मानित किया जाएगा। इस अवॉर्ड से नवाजे जाने वाले वे पहले भारतीय होंगे। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का मन जापान को बहुत भाया है। जापान ने पूर्व पीएम मनमोहन सिंह को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान देने के लिए चुना गया है।  जापानी एंबेसी के मुताबिक, डॉ मनमोहन सिंह को भारत-जापान के दोस्ताना रिश्तों को बढ़ावा देने के लिए यह सम्मान दिए जाने का फैसला किया गया है।
सम्मान देने की घोषणा के बाद पूर्व पीएम डॉ मनमोहन सिंह ने कहा, “जापान सरकार ने मुझ पर जो प्यार बरसाया है, उससे मैं बहुत सम्मानित और कृतज्ञ महसूस कर रहा हूं। भारत-जापान रिश्तों में और तरक्की और उन्नति देखना मेरा सपना रहा है। न सिर्फ अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में, बल्कि लोकसेवा के अपने करियर में यही मेरा मकसद भी रहा।”
डा. मनमोहन सिंह एक कुशल राजनेता के साथ-साथ एक अच्छे विद्वान, अर्थशास्त्री और विचारक भी हैं। एक मंजे हुये अर्थशास्त्री के रुप में उनकी ज्यादा पहचान है। अपने कुशल और ईमानदार छवि की वजह से सभी राजनैतिक दलों में उनकी अच्छी साख है। लोकसभा चुनाव 2009 में मिली जीत के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए हैं जिनको पाँच वर्षों का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला है। उन्होंने 21 जून 1999 से 16 मई
1996 तक नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री के रूप में भी कार्य किया है। वित्त मंत्री के रूप में
उन्होंने भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की।मनमोहन सिंह का जन्म पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में २६ सितंबर 1932 को हुआ था। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया। यहां पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक तथा स्वनातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये। जहाँ से उन्होंने पी. एच. डी. की। तत्पश्चात् उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी. फिल. भी किया। उनकी पुस्तक इंडियाज़ एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड प्रोस्पेक्ट्स फॉर सेल्फ सस्टेंड ग्रोथ, (अंग्रेजी: India’s Export Trends and Prospects for Self-Sustained Growth), भारत के अन्तर्मुखी व्यापार नीति की पहली और सटीक आलोचना मानी जाती है। डा. सिंह ने अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर काफी ख्याति अर्जित की। वे पंजाब विश्वविद्यालय और बाद में प्रतिष्ठित डेलही स्कूल आफ इकनामिक्स में प्राध्यापक रहे। इसी बीच वे UNCTAD सचिवालय में सलाहकार भी रहे और 1987 तथा 1990 में जेनेवा में साउथ कमीशन में सचिव भी रहे। 1971 में डा. मनमोहन सिंह  भारत के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किये गये। इसके तुरंत बाद 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया। इसके बाद के वर्षों में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब डा. सिंह 1991 से 1996 तक भारत के वित्त मंत्री रहे। उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का प्रणेता माना गया है। आम जनमानस में ये साल निश्चित रुप से डा. सिंह के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। 

Sunday, 2 November 2014

अल्लाह का महीना है मुहर्रम



अल्लाह का फरमान है “ किसी ऐसी चीज की पैरवी ना करो {यानि उसके पीछे न चलो , उसकी इत्तेबा ना करो } जिसका तुम्हें इल्म ना हो , यकीनन तुम्हारे कान, आँख, दिमाग {की कुव्वत जो अल्लाह ने तुमको अता की है }इसके बारे में तुमसे पूछताछ की जाएगी”
{सूरह बनी इस्राईल 17, आयत 36}
और नबी सल्ल० ने फ़रमाया “इल्म सीखना हर मुसलमान मर्द-औरत पर फ़र्ज़ है”
{इब्ने माजा हदीस न० 224 }
यानि इतना इल्म जरुर हो कि क्या चीज शरियत में हलाल है क्या हराम और क्या अल्लाह को पसंद है क्या नापसंद , कौन से काम करना है और कौन से काम मना है और कौन से ऐसे काम है जिनको करने पर माफ़ी नहीं मिल सकती द्य
अब लोगों का क्या हाल है एक तरफ तो अपने आपको मुसलमान भी कहते है दूसरी तरफ काम इस्लाम के खिलाफ़ करते है और जब कोई उनको रोके तो उसको कहते है कि ये काम तो हम बाप दादा के ज़माने से कर रहे है , यही वो बात है जिसको अल्लाह ने कुरआन में भी बता दिया सूरह बकरा की आयत 170 में “और जब कहा जाये उनसे की पैरवी करो उसकी जो अल्लाह ने बताया है तो जवाब में कहते है कि हम तो चलेंगे उसी राह जिस पर हमारे बाप दादा चले , अगर उनके बाप दादा बेअक्ल हो और बेराह हो तब भी {यानि दीन की समझ बूझ ना हो तब भी उनके नक्शेकदम पर चलेंगे ? }
हक़ीकत खुराफ़ात में खो गई
जी हाँ मुहर्रम की भी हकीकत खुराफ़ात में खो गई उलमाओं के फतवे और अहले हक़ लोगों के बयान मौजूद है फिर भी मुहर्रम की खुराफ़ात पर लोग यही दलील देते है कि यह काम हम बाप दादों के ज़माने से करते आ रहे है ? बेशक करते होंगे लेकिन कौन से इल्म की रौशनी में ? जाहिर है वो इल्म नहीं बेईल्मी होगी क्योंकि इल्म तो इस काम को मना कर रहा है। इस्लाम धर्म के त्योहारों के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि यह त्योहार चंद्र कैलेंडर एवं हिजरी पर आधारित होते हैं, न कि ग्रेगेरियन कैलेंडर पर। मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला माह होता है। इस महीने को इस्लाम धर्म के चार पवित्र महीनों में शामिल किया जाता है। खुदा के दूत हजरत मुहम्मद ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। इस माह मनाया जाने वाला मोर्हरम का त्योहार माह के पहले दिन से शुरू होकर दसवें दिन तक चलता है।
इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन के शोक में मनाए जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था। दुनिया के विभिन्न धर्मों के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमें सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम महीना है। मुहर्रम एक महीना है, जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।
 कहा जाता है कि पैगंबर-ए-इस्लाम के बाद चार खलीफा (राष्ट्राध्यक्ष) उस दौर की अरबी कबीलाई संस्कृति के अनुसार प्रमुख लोगों द्वारा मनोनीत किए गए। लोग आपस में तय करके किसी योग्य व्यक्ति को प्रशासन, सुरक्षा इत्यादि के लिए प्रमुख चुन लेते थे। उस चुनाव में परिवार, पहुंच और धनबल का इस्तेमाल नहीं होता था। अगर होता तो पैगंबर साहब के बाद उनके दामाद और चचेरे भाई निकटतम व्यक्ति हजरत अली ही पहले खलीफा होते। जिन लोगों ने अपनी भावना से हजरत अली को अपना इमाम (धर्मगुरु) और खलीफा चुना, वो लोग शियाने अली यानी शिया कहलाते हैं। शिया यानी हजरत अली के समर्थक। इसके विपरीत सुन्नी वे लोग हैं, जो चारों खलीफाओं के चुनाव को सही मानते हैं। रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया। मक्का से दूर सीरिया के गवर्नर यजीद ने अपनी खिलाफत का एलान कर दिया। यजीद की कार्यपद्धति बादशाहों जैसी थी। याद रहे इस्लाम में श्बादशाहश् और शहंशाह दिखने लगे, जो इस्लामी मान्यता के बिल्कुल उलट है। इस्लाम में बादशाहत की इंसानी कल्पना नहीं है। जमीन-आसमान का एक ही श्बादशाह अल्लाह यानी ईश्वर होगा। यजीद की खिलाफत के एलान के समय इमाम हुसैन मक्का में थे।
एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। इस्लामी यानी हिजरी सन् का पहला महीना मुहर्रम है। हिजरी सन् का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। इत्तिफाक की बात है कि आज मुहर्रम का यह पहलू आमजन की नजरों से ओझल है और इस माह में अल्लाह की इबादत करनी चाहीये जबकि पैगंबरे-इस्लाम (सल्ल.) ने इस माह में खूब रोजे रखे और अपने साथियों का ध्यान भी इस तरफ आकर्षित किया। इस बारे में कई प्रामाणिक हदीसें मौजूद हैं।
मुहर्रम महीने के १०वें दिन को श्आशुराश् कहते है। आशुरा के दिन हजरत रसूल के नवासे हजरत इमाम हुसैन को और उनके बेटे घरवाले और उनके सथियों (परिवार वालो) को करबला के मैदान में शहीद कर दिया गया था। मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस माह की बहुत विशेषता और महत्व है। सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या) के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हजरत इमाम हुसैन अ० की हुई। पर जाहिरी तौर पर यजीद के कमांडर ने हजरत इमाम हुसैन अ० और उनके सभी 72 साथियो (परिवार वालो) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हजरत अली असगर भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी कौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का गम मनाकर उनकी याद करते हैं। आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था।
कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकों से लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की जरुरत है। इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे द्य दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हजरत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। इमाम हुसेन की औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं।
क्या मुहर्रम के महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखना सुन्नत है ? और क्या इस महीने को इसके अलावा अन्य महीनों पर कोई फज़ीलत प्राप्त है ? मुहर्रम का महीना अरबी महीनों का प्रथम महीना है, तथा वह अल्लाह के चार हुर्मत व अदब वाले महीनों में से एक है। अल्लाह तआला का फरमान हैरू
ष्अल्लाह के निकट महीनों की संख्या अल्लाह की किताब में 12 --बारह- है उसी दिन से जब से उसने आकाशों और धरती को पैदा किया है, उन में से चार हुर्मत व अदब -सम्मान- वाले हैं। यही शुद्ध धर्म है, अतः तुम इन महीनों में अपनी जानों पर अत्याचार न करो।ष् (सूरतुत-तौबाः 36)
बुखारी (हदीस संख्यारू 3167) और मुस्लिम (हदीस संख्यारू1679) ने अबू बक्ररह रज़ियल्लाहु अन्हु के माध्यम से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है कि आप ने फरमायारू ज़माना घूमकर फिर उसी स्थिति पर आ गया है जिस तरह  कि वह उस दिन था जिस दिन अल्लाह तआला ने आकाशों और धरती को पैदा किया। साल बारह महीनों का होता है जिनमें चार हुर्मत व अदब वाले हैं, तीन महीने लगातार हैं रू ज़ुल क़ादा, ज़ुलहिज्जा, मुहर्रम, तथा मुज़र क़बीले से संबंधित रजब का महीना जो जुमादा और शाबान के बीच में पड़ता है।ष् तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि रमज़ान के बाद सबसे अफज़ल (सर्वश्रेष्ठ) रोज़ा मुहर्रम के महीने का रोज़ा है। चुनाँचि अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया रू ष्रमज़ान के महीने के बाद सबसे श्रेष्ठ रोज़े अल्लाह के महीना मुहर्रम के हैं, और फर्ज़ नमाज़ के बाद सर्वश्रेष्ठ नमाज़ रात की नमाज़ है।ष् इसे मुस्लिम (हदीस संख्यारू 1163) ने रिवायत किया है।
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान रू ष्अल्लाह का महीनाष् में महीना को अल्लाह से सम्मान के तौर पर संबंधित किया गया है। मुल्ला अली क़ारी कहते हैं रू प्रत्यक्ष यही होता कि है इस से अभिप्राय संपूर्ण मुहर्रम का महीना है। किंतु यह बात प्रमाणित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रमज़ान के अलावा कभी भी किसी महीने का मुकम्मल रोज़ा नहीं रखा। अतः इस हदीस को मुहर्रम के महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखने की रूचि दिलाने पर महमूल किया जायेगा, न कि पूरे महीने का रोज़ा रखने पर।