Saturday, 24 May 2014

क्यों बढ़ रहे हैं तलाक ?



सात फेरों में लिया गया जनम जनम का बंधन अब दरकने लगा है, परंपराए टूटने लगी है, संस्कार बिखरने लगे हैं। जी हां महानगर तलाक की राजधानी बनकर उभर रहे हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे महानगरों में हर रोज हजारों तलाक होते हैं। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर में तो रोजाना 10 हजार से ज्यादा तलाक होते हैं। जबकि देश में हर 100 वीं शादी का अंत तलाक पर होता है। आज के आधुनिक समाज में दंपत्तियों के बीच मन मुटाव और फिर तलाक काफी आम हो गया है। जिसे कभी बुरा माना जाता था उसे आज एक अच्छा निर्णय कहा जाता है।यह कहना गलत नहीं होगा कि जीवन की जितनी बड़ी सच्चाई शादी है उतना ही बड़ा सच तलाक भी है। हालांकि, इसे लेने से पहले लोग पर्सनल फाइनेंस के बारे में बेहद कम सोचते हैं।  बदलती जीवनशैली और आजाद सोच के कारण शादियों का अंत तलाक के साथ हो रहा है। करीब 5 साल पहले 1000 शादियों में 1 तलाक का मामला आता था और अब प्रत्येक 1000 शादियों में यह मामले 13 हो चुके हैं।
देश में तलाक के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। कई बार तो अजीबोगरीब वजह बताते हुए तलाक मांगा जाता है। वैसे, शारीरिक हिंसा तलाक का सबसे बड़ा कारण है। जबकि शादी के बाद भी पर पुरुष या स्त्री से शारीरिक संबंध, नशे की लत, जीवन साथी  को लेकर बहुत अधिक पजेसिव (उस पर अधिकार जमाना) होने जैसे कारण भी रिश्तों में दरार के लिए जिम्मेदार हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, जैसे महानगरों में तलाक की जो दर है, वह छोटे शहरों से कहीं ज्यादा है। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर तलाक की ‘राजधानी’ बनकर उभर रहे हैं। एक आकलन के मुताबिक इन दोनों शहरों में हर साल 10 हजार से अधिक तलाक होते हैं। जबकि देश में होने वाली हर 100वीं शादी का अंत तलाक पर जाकर होता है। केरलाज मेंटल ब्लॉक रिपोर्ट के अनुसार, ‘देश की कुल आबादी में तलाक का प्रतिशत 1.1 है तो केरल में यह दर 3.3 फीसदी है। केरल सबसे अधिक साक्षरता वाला राज्य है। यहां पिछले एक दशक में तलाक की दर 350 फीसदी बढ़ी है। जबकि कृषि आधारित राज्य, पंजाब और हरियाणा में एक दशक में 150 फीसदी की बढ़त देखने को मिली है।’ राष्ट्रीय स्तर पर बीते पांच-छह सालों में तलाक की दर सौ फीसदी बढ़ गई है।
एक-दूसरे पर विश्वास की कमी  तलाक की सबसे बड़ी वजहों में से एक हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो फेसबुक जैसी सोशल साइटों पर फर्जी आईडी के माध्यम से अपने हमसफर पर नजर रखते हैं। फर्जी प्रोफाइल से खुद की ही पत्नी या पति से चैट किया जाता है और नतीजा तू-तू, मैं-मैं से शुरू होकर तलाक तक पहुंच जाता है। शारीरिक हिंसा तलाक का सबसे बड़ा कारण है। एकल परिवार, शादी के बाद भी दूसरे पुरुष या स्त्री से शारीरिक संबंध, नशे की लत, जीवन साथी को लेकर बहुत अधिक पजेसिव होने जैसे कारण भी रिश्तों में दरार के लिए जिम्मेदार हैं। कई बार तलाक के पीछे अजीबोगरीब कारण होते हैं। अब तक तलाक की अर्जी के बाद कोर्ट पति पत्नी को थोड़ा वक्त देता था ताकि शादी को बचाया जा सके लेकिन नए सुधार के बाद अब तलाक की अर्जी देने के बाद महीनों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
हाल ही में केन्द्रीय केबिनेट ने हिन्दुओं में तलाक को सरल बनाने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन को मंजूरी दी। तलाक के मामलों में जल्द निपटारा करने के लिए सरकार पर हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन करने का दबाव था जिसे अंततरू सरकार ने स्वीकार कर लिया। संशोधन के अनुसार अगर पत-िपत्नी परस्पर सहमति से एक-दूसरे से अलग रहना चाहते हैं तो ऎसे मामले को अधिक समय तक बिना किसी वजह के लंबित नहीं रखा जा सकेगा। उन्हें शीघ्र अलग कर दिया जाएगा। इस संशोधन के साथ ही प्रश्नों के असंख्य चेहरे उभरते हैं और गौर से देखें तो 99 प्रतिशत चेहरे भय, पीड़ा, तकलीफ, बिछोह, टूटन और अलगाव की ही त्रासदी बयान करते हैं। कहीं गलत बंधन की वजह से छुटकारा पाने की तीव्र इच्छा होगी तब भी जब छुटे तब कितने-कितने टूटे यह उनका ही मन जानता है।
तलाक के कारण पर्सनल फाइनेंस के सभी कारकों पर प्रभाव पड़ता है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि तलाक सर्वसम्मति के साथ हो रहा है तो सलाहकार दोनों जीवन साथियों के लिए मैत्रीपूर्ण समझौता बनाते हैं। इस समझौते पर पहुंचने के बाद कानूनी खर्चो के बोझ को हलका कर दिया जाता है।तलाक के कारण फाइनेंशियल प्लानिंग के संबंध में बच्चे के संरक्षण पर असर नहीं पड़ना चाहिए। यदि किसी ने श्चाइल्ड प्लानश् ले रखा है और इसे संयुक्त रूप से फंडिड किया जा रहा है तो उसे बंद नहीं करना चाहिए। बंद करने से आप पर जुर्माना लग सकता है।  परिवार की सभी परिसंपत्तियों जैसे प्रॉपर्टी, इंवेस्टमेंट, इंश्योरेंस आदि की एक सूची बनाएं। कानूनी सलाह लेने से पहले यह सूची मददगार साबित हो सकती है। यदि दंपत्ति किसी समझौते पर नहीं पहुंचे हैं तो भागीदारी के हिसाब से परिसंपत्तियों को प्रत्येक जीवनसाथी के बीच बांटना चाहिए। संयुक्त जिम्मेदारी को व्यक्तिगत कर्ज से अलग रखना चाहिए।

राजनीति में वकीलों का दम

देश में करियर बनाने के विकल्पों पर बात हो, तो शायद ही कोई युवा होगा जो ये कहेगा कि हमें तो वकील बनना है। ऐसी हालत तब है जब देश में कम से कम 900 विधि (यानी लॉ) कॉलेज हैं और 14 उच्चस्तरीय केंद्रीय विधि संस्थान हैं। अगर कुछ साल पहले (दस साल) तक की बात करें तो लॉ कॉलेजों का ये आंकड़ा देश में मौजूद कुल इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों की संख्या पर भी बीस पड़ता था...(इन दो विभागों से तुलना इसीलिए क्योंकि देश में कैरियर के तौर पर इन्हीं दो विकल्पों को रामबाण माना जाता रहा है)। लेकिन समय के साथ मान्यताएं बदली हैं। लोग अब अपने बच्चों को वकील भी बना रहे हैं। इसके पीछे एक कारण राजनीति भी है। कई वकील जितना नाम वकालत में नहीं कमा पाए, उससे अधिक उनके नामों की चर्चा लोगों की जुबान पर है।
गौर करने योग्य यह भी है कि देश को आजाद कराने में वकीलों ने अहम भूमिका निभाई थी। आज भी समाज को आगे बढ़ाने तथा समाज को जागृत करने में वकील अपनी भूमिका निभा रहे हैं। देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने और आजादी के आंदोलन में वकीलों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, उनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। आंदोलन के सूत्रधार महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने विदेश से कानून की पढ़ाई वकील बनने के लिए ही किया था। दोनों ने लंदन, इलाहाबाद और मुंबई में प्रैक्टिस भी शुरू कर दी थी, लेकिन देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने कांग्रेस से जुड़कर काम  करना शुरू किया।
आज भी राजनीति में दर्जनों वकील संगठन और सरकार में अच्छा खासा दखल रखते हैं, लेकिन उन्होंने कभी उस व्यवसाय के लिए कोई ठोस काम करने की पहल तक नहींकी, जिसके कारण उनकी राजनीति में पकड़ बनी। राजनैतिक दलों ने जिस मकसद से वकीलों को संगठन से जोड़ा था वह काफी हद तक पूरी हुई, लेकिन उसकेबाद वकीलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई कि उन्होंने सत्ता के गलियारे में इतनी पैठ बना ली है कि आने वाले समय में राजनीति में उनके वर्चस्व को तोड़ पाना मुश्किल है। बीते कार्यकाल के दौरान राजग ने राम जेठमलानी और उसके बाद अरुण जेटली को यह सोच कर कानून मंत्री बनाया था, कि दोनों सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील हैं और कननू को जानने वाले हैं। इसलिए कुछ ऐसा करेंगे, जिससे देश की न्याय व्यवस्था में सुधार आएगा, लेकिन दोनों ने कोई ऐतिहासिक फैसला करने की जगह न्यायिक प्रक्रिया में उलटफेर करने में ही समय बिता दिया। यूपीए ने हंसराज भारद्वाज को इसलिए कानून मंत्री बनाया कि वे कानून के जानकार हैं, लेकिन उन्होंने भी वैसा ही काम किया, जैसे दूसरे कांग्रेसी मंत्री कर रहे हैं। भाजपा में रविशंकर प्रसाद और सुषमा स्वराज दो बड़े नेता भी वकालत से जुड़े रहे हैं। कांग्रेस में कपिल सिब्बल को पार्टी ने मंत्रिमंडल में जगह देकर पार्टी के प्रति उनकी वफादारी का इनाम दे दिया है। अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी को पार्टी ने प्रवक्ता बना कर उनको महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी है। मनीष को टिकट देकर उनके काम का भी इनाम दे दिया गया है। एक जमाने में कांग्रेस ने आरके आनंद को चुनाव लड़वाया था और पार्टी में उन्हें बहुत ताकतवर माना जाता था, लेकिन नरसिम्हा राव के करीबी होने के कारण इस समय वे संगठन में हाशिए पर हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इस समय आरके आनंद मायावती के करीब आ चुके हैं और आने वाले समय में बसपा में शामिल हो सकते हैं। बसपा में सतीश चंद्र मिश्र बसपा सुप्रीमो के बाद सबसे ताकतवर स्थिति में माने जाते हैं। वकीलों को बड़े पैमाने पर जोडने के लिए कांगे्रस और भाजपा ने जिला स्तर तक अपने-अपने प्रकोष्ठ का गठन किया है। इसके पीछे पार्टी की मंशा यह रहती है कि केंद्र में सुप्रीम कोर्ट, राज्यों में हाईकोर्ट और जिलों में जिला अदालतों में काम करने वाले वकीलों को संगठन से जुड़ जाने पर एक तो संगठन को आराम से अदालती काम करने वाला वकील मिल जाएगा और दूसरा इसके माध्यम से पढ़े-लिखे लोगों में पार्टी का आधार खड़ा हो जाएगा, लेकिन दिल्ली में संगठन का काम करने वाले वकील पार्टी से सबसे ज्यादा फायदा ले जाते हैं। कई बार राज्यों में काम करने वाले वकीलों का भी नंबर लग जाता है, लेकिन जिलों में काम करने वाले अधिकांश वकीलों को कुछ नहीं मिल पाता है। छोटे और मझोले नेताओं की तरह वे न तो वकालत कर पाते हैं और न ही नेता बन पाते हैं।
ऐसा नहीं है कि यह नया सिलसिला है। भारतीय राजनीति में वकील नेताओं का शुरुआत से ही बोलबाला रहा है। इस समय भी राजनीति में वकील ही छाए हुए हैं। लोकसभा के मौजूदा 544 सदस्यों में से 76 वकालत के पेशे से जुड़े हुए हैं। राज्यसभा के 243 सदस्यों में 39 वकील हैं। 15वीं लोकसभा के अध्यक्ष मीरा कुमार के साथ ही यूपी सरकार में रक्षा मंत्री ए के एंटनी, वित्त मंत्री पी चिदंबरम, गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे, पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली, कानून मंत्री कपिल सिब्बल, वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा, रेल मंत्री मल्लिकार्जुन खडगे और विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद वकालत करते रहे हैं। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय से संबद्ध राज्यमंत्री वी नारायण स्वामई और सूचना व प्रसारण राज्यमंत्री मनीश तिवारी भी वकील रहे। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायवती और और उनके नंबर दो सतीश मिश्र भी एडवोकेट हैं। राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद ने भी वकालत की पढाई  की। इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिस्ठ अधिवक्ता केशरीनाथ त्रिपाठी ने भाजपा की सरकार में मंत्री पद के अलावा विधानसभा अध्यक्ष जैसा अहम पद संभाला। बतौर विधानसभा अध्यक्ष वह सूबे ही नहीं देश की राजनीति में भी चर्चित रहे और राजनीति के चाणक्य माने गए।
कुछ समय पहले तक कामयाब लोग राजनीति में नहीं आना चाहते थे, लेकिन अब बदलाव की बयार चल रही है। इन दिनों गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के लोग, पत्रकार, बड़ी कंपनियों से जुड़े लोग, पूर्व नौकरशाह, आईआईएम-आईआईटी से पढ़े-लिखे पेशेवर, खिलाड़ी, वकील, बॉलीवुड हस्तियां, कला क्षेत्र के बड़े नाम, सेना में रहे लोग राजनीतिक दलों से जुड़ते नजर आ रहे हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता जाएगा, इसमें और तेजी आएगी। हाल ही में पूर्व थलसेनाध्यक्ष वी.के. सिंह, टीवी पत्रकार आशुतोष, मुंबई के पूर्व कमिश्नर सत्यपाल सिंह, डेक्कन एयर के गोपीनाथ, नृत्यांगना मल्लिका साराभाई, समाजसेवी मेधा पाटकर, आरबीएस की पूर्व चेयरपर्सन मीरा सान्याल, एनडीटीवी के पूर्व सीईओ समीर नायर, इंफोसिस के वी. बालाकृष्णन, संगीतकार बप्पी लाहिड़ी आदि प्रमुख हैं।

Sunday, 4 May 2014

वाणी पर संयम है जरूरी

हाल के ही मामलों को देखें तो चुनाव आयोग ने समाज में कटुता फैलाने एवं उन्मादी भाषणों पर भाजपा नेता अमित शाह और समाजवादी नेता आजम खान की रैलियों पर रोक लगा दी। यानी ये दोनों नेता उत्तर प्रदेश में लोकसभा के बाकी बचे चरणों में रैली, भाषण, जुलूस आदि में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। लेकिन, चुनाव आयोग कार्रवाई करे या फिर चेतावनी दे, नेताओं के भड़काउ बोल रुकने का नाम नहीं ले रहे। एक के बाद एक नेताओं के बेतुके बयान सामने आ रहे हैं। डॉक्टर प्रवीण तोगडि़या और बिहार भारतीय जनता पार्टी के एक प्रमुख नेता द्वारा की गई टिप्पणियों ने पुनः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के असली चेहरे को उजागर कर दिया है। डाक्टर प्रवीण तोगडि़या ने गुजरात के एक शहर के हिन्दू मोहल्ले में एक मुसलमान द्वारा मकान खरीदने पर सख्त ऐतराज जाहिर किया और उस क्षेत्र के हिन्दुओं से कहा कि वे मुसलमान द्वारा खरीदे जा रहे मकान पर कब्जा कर लें या उसमें आग लगा दें। इसी तरह, बिहार के गिरिराज सिंह ने कहा है कि जो भी नरेन्द्र मोदी का विरोध करता है उसे पाकिस्तान चले जाना चाहिए। डाक्टर प्रवीण तोगड़िया, संघ परिवार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण सदस्य हैं। संघ परिवार की अनेक शाखाएं हैं,जिनमें एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण शाखा विश्व हिन्दू परिषद है। इस समय डाक्टर तोगड़िया विश्व हिन्दू परिषद के मुखिया हैं। इसी तरह, गिरिराज सिंह,जो भाजपा के लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार हैं, बिहार  मंत्रिपरिषद के सदस्य रहे हैं, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद में वे भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में शामिल रहे हैं। उनके पास महत्वपूर्ण विभाग रहे हैं।
सच तो यह भी है कि देश में लोकतांत्रिक इतिहास में यह लोकसभा चुनाव शायद सबसे ज्यादा अभ्रद भाषा के इस्तेमाल के लिए जाना जाएगा। विभिन्न दलों के नेता निरंतर एक-दूसरे के खिलाफ आपत्तिजतनक और अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। राजनीतिक विरोध का स्तर पर इतना नीचे गिर गया है कि केंद्रीय मंत्री भी अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी सबसे ज्यादा निशाने पर रहे हैं। मोदी भी अपने विरोधियों के खिलाफ हमले करते निजी स्तर तक चले जाते हैं। हालांकि मोदी ने भी रक्षा मंत्री एके एंटनी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को ‘पाकिस्तान का एजेंट’ कहा। जैसे-जैसे चुनाव आगे बढते जा रहे हैं नेताओं की जुबान और भी ज्यादा तल्ख होती जा रही है। विरोधियों पर वार करने में नेता कब मर्यादा की सीमा लांघ जा रहे हैं पता ही नहीं चल रहा। कभी अमित शाह, आजम खान तो कभी गिरिराज शाह, मानो हर नेता में दूसरे से ज्यादा तीखे और बेतुके बयान देने की होड़ लगी है। इसी कड़ी में एक और नाम जुड़ गया है राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष अजित सिंह का। अलीगढ़ की एक सभा में बोलते हुए अजित सिंह ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की तुलना बकरे से कर डाली। और उसके बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने मोदी से बेहतर तो कसाई को बता दिया।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी की सरकार पर आरोप लगाया कि वह किसानों की जमीन चुरा रहे हैं। उन्होंने मोदी का नाम लिए बगैर कहा वह ‘नाजी तानाशाह एडोल्फ हिटलर’ की तरह काम करते हैं। वैसे, मोदी राहुल को अक्सर ‘शहजादा’ कहते रहे हैं और उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ इतालवी मरीन के मुद्दे को लेकर निशाना साधा। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद ने मोदी को ‘टुकडे-टुकडे करने’ वाला बयान देकर विवाद खडा किया। इस बयान को लेकर उन्हें जेल की हवा खानी पडी. विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए कहा, ‘हम तुमको (मोदी) लोगों की हत्या करने का आरोपी नहीं बता रहे हैं। हमारा आरोप है कि तुम नपुंसक हो।’ केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा प्रमुख शरद पवार ने कहा कि मोदी को मानसकि अस्पताल में उपचार कराने की जरूरत है।
भाजपा नेता और पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि कांग्रेस वोटरों को भाजपा का नाम ले ले कर धमका रही है, तो दूसरी तरफ आरएलडी अध्यक्ष अजित सिंह ने मोदी को बकरा बता दिया। वहीं बिहार के भागलपुर में एक रैली में बोलते हुए जेडीयू नेता शकुनि चैधरी ने मोदी को वहीं गाड़ देने की बात कही। गिरिराज सिंह अकेले नहीं हैं, जो इस बार के चुनाव में भड़काऊ बोल बोल रहे हैं। इससे पहले भी कई नेता इस तरह के बोल बोल चुके हैं। शिकायतों पर चुनाव आयोग ने कार्रवाई भी की है, लेकिन फिर भी चुनावी समर में अपनी-अपनी जीत देख रहे ये नेता जोश में जनता के सामने बेतुके बोल बोलने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं।
नेताओं की बदजुबानी की कहानी यहीं नहीं रुकती। हाल ही में राजद छोड़ जेडीयू में शामिल हुए शकुनी चैधरी एक कदम और आगे बढ़कर मोदी पर हमला बोलते हैं। बिहार के भागलपुर में नीतीश कुमार के सामने मंच पर खड़े शकुनी चैधरी जोश में जनता से वादा करते हैं कि अगर उनका साथ मिला तो वो मोदी को भागलपुर में ही गाड़ देंगे। बीजेपी नेता नितिन गडकरी भी विरोधियों पर निशाना साध रहे हैं। नेताओं की बदजुबानी को लेकर चुनाव आयोग में लगातार शिकायतें हो रही हैं। आयोग चेतावनी देने से लेकर रैलियों, जनसभाओं, रोड शो पर रोक तक लगा दे रहा है। लेकिन लगता है कि ऐसे बेतुके बयान देने वालों नेताओं को चुनाव आयोग की इन कार्रवाइयों का भी कोई डर नहीं। तभी तो तमाम कोशिशों के बाद भी नेताओं की जबान पर लगाम नहीं लग रही है।
राजनीति में लोग एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहते हैं लेकिन कोई मंत्री या नेता अपनी मर्यादा को भूल जाए..बड़ी शर्मनाक बात है। चुनाव आयोग ने सही समय पर कदम उठाया नहीं तो आने वाले दिनों में अमित शाह और आजम खान दोनों अपने-अपने वोटों के ध्रुवीकरण के लिए आपत्तिजनक, उकसावे और उन्मादी बयानों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं भय रहित चुनाव संपन्न कराने का पूरा दारोमदार चुनाव आयोग पर होता है। लेकिन कई बार ऐेसा भी देखने में आता है कि नेता आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हैं लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पाती। उन्हें नोटिस जारी कर महज कागजी खाना-पूर्ति की जाती है। चुनाव आयोग को बिना भेद-भाव किए आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं पर कार्रवाई करनी चाहिए। हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कुछ अधिकारियों का तबादला करने से इंकार कर दिया था, लेकिन जैसे ही चुनाव आयोग सख्त हुआ ममता को झुकना पड़ा। चुनाव आयोग को कुछ इसी तरह की कार्रवाई आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले सभी मामलों में करनी चाहिए। कार्रवाई का भय होगा तभी नेता आपत्तिजनक, भड़काऊ और उन्मादी बयान देने से परहेज करेंगे।