बिना किसी राग-द्वेष के कह सकते हैं कि मीडिया और राजनीति में आज कापोर्रेट कल्चर पूरी तरह हावी हो चुका है। एक समय था जब नेता और मीडिया दोनों ही समाज के लिए उत्तरदायी होते थे। एक काल था जब कवियों और आलोचकों से देश के नीति निर्धारक खौफ खाते थे। कवि अपने छंदों के माध्यम से सरकार की बखिया उघेड़ देते थे, तो आलोचकों द्वारा नेतागिरी और मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता था। आज समय बदल चुका है, आज ये आलोचक और कवि न जाने कहां खो गए हैं। इन दोनों प्रजातियों के लगभग विलुप्त होने के चलते मीडिया और राजनीति अपने पथ से भटक चुकी है। जिस तरह कापोर्रेट सेक्टर में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए गलाकाट स्पर्धा मची रहती है, ठीक उसी तरह इन दोनों ही क्षेत्रों में अपने आप को स्थापित करने के लिए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
अस्सी के दशक तक मीडिया की लगाम मूलत: पत्रकारिता से जुड़े लोगों के हाथों में ही रही है। एक समय था जब समाचार पत्रों के मालिक नियमित तौर पर लेखन कार्य किया करते थे। आज कापोर्रेट कल्चर में व्यवस्थाएं बदल चुकी हैं। आज मीडिया के मालिक संपादकों को बुलाकर अपनी पॉलिसी और स्टेंड बता देते हैं, फिर उसी आधार पर मीडिया उसे अपनी पॉलिसी बता आगे के मार्ग तय कर रहा है, जो निश्चित तौर पर प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के लिए अशुभ संकेत ही कहा जाएगा। रूतबे, निहित स्वार्थों और शोहरत के लिए की जाने वाली पत्रकारिता का विरोध किया जाना चाहिए। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के नीति निर्धारकों की नजरों में आज भी अंग्रेजी मीडिया पर ही आश्रित हैं। ब्यूरोक्रेसी और टॉप लेबल के पालीटिशन आज भी अंग्रेजी के ही पोषक नजर आ रहे हैं। कलम के दम पर धन, शोहरत और समाज में नाम कमाने वाले पत्रकारों ने अपनी कलम बेचने या गिरवी रखने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। पत्रकारिता को बतौर पेशा अपनाने वाले ह्वजनसेवकोंह्व की लंबी फेहरिस्त मौजूद है। कल तक व्यवस्था के खिलाफ कलम बुलंद करने वाले जब उसी व्यवस्था का अंग बनते हैं तो दम तोड़ते तंत्र में उनका जमीर न जाने कहां गायब हो जाता है?
सचमुच लोकतंत्र के लिहाज से यह बहुत दुर्भाग्य से भरा और डर में डूब समय है, क्योंकि राजनीति, मीडिया और समाज के पतन के लेकर चारों तरफ चिंताएं व्याप्त हैं। लेकिन सच तो यह है कि ये सब बोया हुआ काटने का ही नतीजा है। इससे अलग कुछ नहीं। अगर आजादी वाले दौर में मीडिया और राजनीति के रिश्तों की पड़ताल करें, तो सारे निर्मम सच उजागर हो जाते हैं। हालांकि, पुराने दौर को बहुत आदर्शपूर्ण बताया जाता है, लेकिन तथ्यों को देखें तो यह सोचना मिथ्या अभिमान से ज्यादा कुछ नहीं। आज ज्यादातर लोग इसी विश्वास में गर्क हैं कि अतीत के सामाजिक लोग, राजनेता और पत्रकार बहुत महान थे। और वे सब होते तो सीना तानकर चलने वाले अपराधियों को संरक्षण देने का तो सवाल ही नहीं था, रुपये-पैसे का भी आज जैसा बोलबाला नहीं रहता! आखिर मीडिया और राजनीति के रिश्तों के बीच लोकतांत्रिक दायित्वों के पतन और उत्थान, द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व तथा हर्ष और विषाद से जुड़े इस यथार्थ की पड़ताल तो करनी ही चाहिए।
इससे इत्तर हम बात करें, तो न्यायिक व्यवस्था और मीडिया या न्यायिक व्यवस्थ और राजनीति की, तो कई पहलू सामने आती है। पिछले कुछ समय से जिस तरह न्यायिक फैसलों, पुलिसिया कार्रवाइयों और कुछ वैसे मुकदमे जो किसी न किसी बडी हस्ती से जुडे होते हैं, उनकी कवरेज में मीडिया जैसी दिलचस्पी दिखा रहा है। उसने कभी कभार नुकसान पहुंचाने के बावजूद अधिकांश में कानून व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था ,और समाज को आत्ममंथन करने पर मजबूर जरूर किया है। क्या ऐसा संभव था कि जिस मुकदमे को हाल फिलहाल की न्यायिक सक्रियता के बावजूद फैसले पर पहुंचने में, वह भी अदालत की पहली पायदान पर ही, उन्नीस-बीस बरस लग जाते हैं। उस मुकदमे उसमें इतनी तेजी से इतना सब हो जाएगा? इन सबने दो बातें तो जरूर ही प्रमाणित कर दी हैं। पहली ये कि अब भी मीडिया अपनी खबरों से और सबसे बड़ी बात की खबरों की दिशा से जनमानस को तैयार कर लेता है। और दूसरा यह कि जब एक बार कोई खबर बन जाती है, तो फिर बाकी का काम बहुत कठिन नहीं रहता है। इसलिए यदि हम मीडिया की असंवेदनशीलता, नकलचीपन, और उनके चुके हुए थिंक टैंक के लिए उन्हें कोसते हैं, तो फिर इस तरह के प्रयासों के लिए उनका धन्यवाद तो देना ही चाहिए।
मेरा यह भी कहना है कि देश का विश्वास अगर किसी एक संस्था के ऊपर अभी तक बना हुआ है, तो वह है हमारी न्यायिक व्यवस्था, जो कभी-कभी इसकी झलकियां देती हैं और यह संदेश भी कि लोगों को उसके ऊपर विश्वास बनाए रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट जब फैसला देता है, तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले देश में दिशा निर्देश का काम करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें निचली अदालतों ने सटीक फैसले दिए। न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की जरूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका जिÞंदगी जीना हराम कर रहे हैं। अपनी सीमाओं में बंधे रहने के कारण अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं। कई बार लोगों का आरोप होता है कि सरकार गरीब के साथ नहीं खड़ी है। अगर खड़ी होती, तो गरीब को न्यायालय में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था। यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति कभी-कभी कंपा देता है। आंतरिक अव्यवस्था से बचने का एक बड़ा जरिया हमारी न्यायिक व्यवस्था हो सकती है।
अस्सी के दशक तक मीडिया की लगाम मूलत: पत्रकारिता से जुड़े लोगों के हाथों में ही रही है। एक समय था जब समाचार पत्रों के मालिक नियमित तौर पर लेखन कार्य किया करते थे। आज कापोर्रेट कल्चर में व्यवस्थाएं बदल चुकी हैं। आज मीडिया के मालिक संपादकों को बुलाकर अपनी पॉलिसी और स्टेंड बता देते हैं, फिर उसी आधार पर मीडिया उसे अपनी पॉलिसी बता आगे के मार्ग तय कर रहा है, जो निश्चित तौर पर प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के लिए अशुभ संकेत ही कहा जाएगा। रूतबे, निहित स्वार्थों और शोहरत के लिए की जाने वाली पत्रकारिता का विरोध किया जाना चाहिए। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के नीति निर्धारकों की नजरों में आज भी अंग्रेजी मीडिया पर ही आश्रित हैं। ब्यूरोक्रेसी और टॉप लेबल के पालीटिशन आज भी अंग्रेजी के ही पोषक नजर आ रहे हैं। कलम के दम पर धन, शोहरत और समाज में नाम कमाने वाले पत्रकारों ने अपनी कलम बेचने या गिरवी रखने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। पत्रकारिता को बतौर पेशा अपनाने वाले ह्वजनसेवकोंह्व की लंबी फेहरिस्त मौजूद है। कल तक व्यवस्था के खिलाफ कलम बुलंद करने वाले जब उसी व्यवस्था का अंग बनते हैं तो दम तोड़ते तंत्र में उनका जमीर न जाने कहां गायब हो जाता है?
सचमुच लोकतंत्र के लिहाज से यह बहुत दुर्भाग्य से भरा और डर में डूब समय है, क्योंकि राजनीति, मीडिया और समाज के पतन के लेकर चारों तरफ चिंताएं व्याप्त हैं। लेकिन सच तो यह है कि ये सब बोया हुआ काटने का ही नतीजा है। इससे अलग कुछ नहीं। अगर आजादी वाले दौर में मीडिया और राजनीति के रिश्तों की पड़ताल करें, तो सारे निर्मम सच उजागर हो जाते हैं। हालांकि, पुराने दौर को बहुत आदर्शपूर्ण बताया जाता है, लेकिन तथ्यों को देखें तो यह सोचना मिथ्या अभिमान से ज्यादा कुछ नहीं। आज ज्यादातर लोग इसी विश्वास में गर्क हैं कि अतीत के सामाजिक लोग, राजनेता और पत्रकार बहुत महान थे। और वे सब होते तो सीना तानकर चलने वाले अपराधियों को संरक्षण देने का तो सवाल ही नहीं था, रुपये-पैसे का भी आज जैसा बोलबाला नहीं रहता! आखिर मीडिया और राजनीति के रिश्तों के बीच लोकतांत्रिक दायित्वों के पतन और उत्थान, द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व तथा हर्ष और विषाद से जुड़े इस यथार्थ की पड़ताल तो करनी ही चाहिए।
इससे इत्तर हम बात करें, तो न्यायिक व्यवस्था और मीडिया या न्यायिक व्यवस्थ और राजनीति की, तो कई पहलू सामने आती है। पिछले कुछ समय से जिस तरह न्यायिक फैसलों, पुलिसिया कार्रवाइयों और कुछ वैसे मुकदमे जो किसी न किसी बडी हस्ती से जुडे होते हैं, उनकी कवरेज में मीडिया जैसी दिलचस्पी दिखा रहा है। उसने कभी कभार नुकसान पहुंचाने के बावजूद अधिकांश में कानून व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था ,और समाज को आत्ममंथन करने पर मजबूर जरूर किया है। क्या ऐसा संभव था कि जिस मुकदमे को हाल फिलहाल की न्यायिक सक्रियता के बावजूद फैसले पर पहुंचने में, वह भी अदालत की पहली पायदान पर ही, उन्नीस-बीस बरस लग जाते हैं। उस मुकदमे उसमें इतनी तेजी से इतना सब हो जाएगा? इन सबने दो बातें तो जरूर ही प्रमाणित कर दी हैं। पहली ये कि अब भी मीडिया अपनी खबरों से और सबसे बड़ी बात की खबरों की दिशा से जनमानस को तैयार कर लेता है। और दूसरा यह कि जब एक बार कोई खबर बन जाती है, तो फिर बाकी का काम बहुत कठिन नहीं रहता है। इसलिए यदि हम मीडिया की असंवेदनशीलता, नकलचीपन, और उनके चुके हुए थिंक टैंक के लिए उन्हें कोसते हैं, तो फिर इस तरह के प्रयासों के लिए उनका धन्यवाद तो देना ही चाहिए।
मेरा यह भी कहना है कि देश का विश्वास अगर किसी एक संस्था के ऊपर अभी तक बना हुआ है, तो वह है हमारी न्यायिक व्यवस्था, जो कभी-कभी इसकी झलकियां देती हैं और यह संदेश भी कि लोगों को उसके ऊपर विश्वास बनाए रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट जब फैसला देता है, तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले देश में दिशा निर्देश का काम करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें निचली अदालतों ने सटीक फैसले दिए। न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की जरूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका जिÞंदगी जीना हराम कर रहे हैं। अपनी सीमाओं में बंधे रहने के कारण अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं। कई बार लोगों का आरोप होता है कि सरकार गरीब के साथ नहीं खड़ी है। अगर खड़ी होती, तो गरीब को न्यायालय में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था। यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति कभी-कभी कंपा देता है। आंतरिक अव्यवस्था से बचने का एक बड़ा जरिया हमारी न्यायिक व्यवस्था हो सकती है।
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