Thursday, 26 September 2013

वंचित के लिए विशेष योजना

विश्‍व के सभी बड़े धर्मों के अनुयायी भारत में भी हैं। यहां हिन्‍दू बहुसंख्‍यक हैं और राष्‍ट्रीय अल्‍पसंख्‍यक आयोग, अधिनियम, 1992 के तहत मुस्लिमों, सिखों, ईसाइयों, बौद्ध एवं पारसियों को अल्‍पसंख्‍यक का दर्जा प्राप्‍त है। देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में अल्‍पसंख्‍यक समुदाय महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। सरकार ने इन समुदायों के सामाजिक-आर्थिक उत्‍थान के लिए समय-समय पर विभिन्‍न कार्यक्रम एवं योजनाएं संचालित की है। इसी के मद्देनजर भारत सरकार ने अल्‍पसंख्‍यक समुदायों के सशक्‍तीकरण और उनकी संस्‍कृति, भाषा एवं धार्मिक स्‍वरूप को बनाए रखने के लिए अल्‍पसंख्‍यक मामलों के मंत्रालय का गठन किया है। इस मंत्रालय का लक्ष्‍य सकारात्‍मक कार्यों तथा समावेशी विकास के जरिए अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार लाना है ताकि एक प्रगतिशील देश के निर्माण में हर नागरिक को बराबर के अवसर मिल सकें।
 अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की शिक्षा, रोजगार, आर्थिक गतिविधियों में बराबर की हिस्‍सेदारी तथा उनका उत्‍थान सुनिश्चित करने के लिए जून 2006 में अल्‍पसंख्‍यकों के कल्‍याण के लिए प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम की घोष्‍णा की गई थी। इसके तहत विभिन्‍न लक्ष्‍यों को निश्चित समयावधि में हासिल किए जाने पर जोर दिया गया है। इस कार्यक्रम के मुख्‍य उद्देश्‍य इस प्रकार हैं : शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों को बढ़ावा देना।
मौजूदा एवं नयी योजनाओं के जरिए आर्थिक गतिविधियों एवं रोजगार में अल्‍पसंख्‍यकों की समान हिस्‍सेदारी सुनिश्चित करना, स्‍वरोजगार के लिए ऋण सहायता को बढ़ावा देना तथा राज्‍य एवं केन्‍द्र सरकार की नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्‍व बढ़ाना। बुनियादी सुविधाओं के विकास से जुड़ी योजनाओं में उनकी पर्याप्‍त हिस्‍सेदारी सुनिश्चित करते हुए उनके जीवन स्‍तर में सुधार लाना। सांप्रदायिक हिंसा एवं वैमनस्‍यता की रोकथाम तथा नियंत्रण।
 इस कार्यक्रम का मुख्‍य उद्देश्‍य इस बात को सुनिश्चित करना है कि वंचित तबकों के लिए शुरू की गई विभिन्‍न सरकारी योजनाओं का लाभ अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के वंचित वर्गों तक अवश्‍य पहुंचे। इन योजनाओं का लाभ समान रूप से अल्‍पसंख्‍यकों तक पहुंचाने के लिए इस कार्यक्रम में इस बात पर विशेष ध्‍यान दिया गया है कि अल्‍पसंख्‍यक बहुल क्षेत्रों में विकासात्‍मक परियोजनाओं की निश्चित हिस्‍सेदारी हो।   केन्‍द्र सरकार ने सच्‍चर समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए कुछ सीमित उपाय भी किए हैं। देश के शैक्षिक रूप से पिछड़े 374 जिलों में प्रत्‍येक में एक मॉडल कॉलेज की स्‍थापना की जाएगी। इन 374 जिलों में से 61 जिलों की पहचान अल्‍पसंख्‍यक बहुल जिलों के रूप में की गई है। जिन क्षेत्रों में अल्‍पसंख्‍यक खासकर मुस्लिम अधिक रहते हैं, वहां के विश्‍वविद्यालयों एवं कॉलेजों में महिला छात्रावास की स्‍थापना व्‍यवस्‍था में विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग से वरीयता का प्रावधान।अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्‍लामिया विश्‍वविद्यालय, नई दिल्‍ली तथा मौलाना आजाद राष्‍ट्रीय उर्दू विश्‍वविद्यालय, हैदराबाद में उर्दू माध्‍यम के शिक्षकों के लिए पेशेवर अकादमियों की स्‍थापना। इसके अलावा केन्‍द्र सरकार ने 2008-09 में बहु-आयामी विकास कार्यक्रम भी शुरू किया है। इस कार्यक्रम का मुख्‍य उद्देश्‍य अल्‍पसंख्‍यक बहुल जिलों में लोगों के जीवन की गुणवत्‍ता में सुधार लाना, विभिन्‍न प्रकार के असन्‍तुलनों को कम करना तथा सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार लाना है। विकास के नजरिए से जो जिले मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, उनके लिए विशेष योजना बनाई गई है, जिसमें स्‍कूली एवं माध्‍यमिक शिक्षा की बेहतर व्‍यवस्‍था, साफ सफाई पर ध्‍यान देना, पक्‍के घरों का निर्माण, स्‍वच्‍छ पेयजल एवं बिजली की उपलब्‍धता तथा आय बढ़ाने वाली लाभार्थी आधारित योजनाएं शामिल हैं। इसमें इस बात पर ध्‍यान दिया गया है कि जीवन स्‍तर में सुधार लाने के लिए बुनियादी सुविधाओं जैसे बेहतर सड़क संपर्क, मूलभूत स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं, कौशल विकास एवं विपणन सुविधाओं का होना जरूरी है।

    

Wednesday, 25 September 2013

गरीबों के कल्याण के लिए यूपीए समर्पित

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रविवार को 'अनोखे' खाद्य सुरक्षा कानून और ग्रामीण रोजगार योजना का उल्लेख करते हुए कहा कि सरकार का जोर कमजोर तबके के लोगों और महिलाओं के कल्याण पर है। राजस्थान के बाड़मेड़ जिले के पचपदरा में 37,000 करोड़ रुपये लागत से 90 लाख टन वार्षिक क्षमता वाले तेलशोधक एवं पेट्रोकेमिकल परिसर की आधारशिला रखने के बाद विशाल जनसभा को सोनिया गांधी  ने संबोधित किया।
सोनिया गांधी ने कहा कि यूपीए सरकार का सदैव कमजोर तबके के लोगों और महिलाओं को सबल बनाने पर जोर रहा है। हमारी प्राथमिकता है कि विकास हो और समाज के हर तबके को उसका लाभ मिले।
अपने 10 मिनट के भाषण में सोनिया ने यूपीए सरकार की ओर से शुरू की गई कल्याणकारी योजनाओं की खूबियां गिनाई। उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार ने क्रांतिकारी कदम उठाए हैं और संपूर्ण विकास के लिए कानून लागू कराए हैं। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए रोजगार सुनिश्चित किया है। उन्होंने कहा कि भुखमरी और कुपोषण को दूर भगाने के लिए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक लाया, जिससे 80 करोड़ लोगों को सीधे लाभ मिलेगा। सोनिया गांधी ने कहा कि इस तेलशोधक से 25,000 लोगों को रोजगार मुहैया हो सकेगा। आने वाले वर्षो में यह क्षेत्र अभूतपूर्व विकास का गवाह बनेगा। रिफाइनरी से होने वाली राजस्व आय का राज्य सरकार आम आदमी की भलाई में इस्तेमाल कर सकेगी। उन्होंने अशोक गहलोत सरकार की ओर से चलाई जा रही लोक कल्याणकारी योजनाओं की सराहना की। केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने कहा कि रिफाइनरी से सृजित होने वाले रोजगार से बाड़मेड़ क्षेत्र के लोग लाभान्वित होंगे।

गरीबों के लिए काम करती है कांग्रेस

               
कांग्रेस गरीबों व आम आदमी की पार्टी है, जिसने सदैव उनके हितों की लड़ाई लड़ी है।कांग्रेस आम आदमी की पार्टी है। इसीलिए इसने लंबे समय तक सत्ता में रहकर गरीबों और आम आदमी की सेवा की है। विपक्षी नेता सिर्फ लंबे-चौड़े वादे करते हैं और अमीरों के लिए काम करते हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी गरीबों के साथ खड़ी होती है और उन्हें उनके सपनों को साकार बनाने में मदद करने में यकीन रखती है। लोग आते हैं और लंबे-चौड़े दावे करते हैं। हम लंबे-चौड़े दावे करने में यकीन नहीं करते। हम काम करते हैं। हम चाहते हैं कि आपके बच्चे बड़े सपने देखें। अगर आप सपने नहीं देख पाएंगे तो यह देश आगे भी नहीं बढ़ सकता। जब गरीबों के लिए योजनाओं की बात होती है तो वे लोग पूछते हैं कि पैसा कहां से आएगा, परंतु जब खदानें आबंटित होती हैं और जमीनों का अधिग्रहण होता है तो कोई सवाल नहीं पूछता। यही इन दलों और कांग्रेस के बीच अंतर है। केंद्र सरकार ने समाज के सभी वर्गो का ख्याल रखा है। विशेषकर गरीबों के लिए खाद्य बिल पारित करा लागू कराया।खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण विधेयक तथा मनरेगा जैसे संप्रग सरकार सभी योजनाओ को आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के उत्थान के लिए बनाया गया है। कांग्रेस सरकार चाहती है कि देश में पुल बने, सड़क बनें और रेल लाइन बनें पर विपक्ष गरीबों के बारे में नहीं सोंचता है।  विपक्ष चाहता है कि सत्‍ता की ताकत मात्र कुछ लोगों तक ही सीमित होकर रह जाये, कुछ पांच सौ, हजार लोग तरक्‍की करें, लेकिन हम चाहते हैं कि एक गरीब किसान का बेटा पायलेट बने हवाई जहाज उड़ाये। विपक्षी नेता सिर्फ लंबे-चौड़े वादे करते हैं और अमीरों के लिए काम करते हैं, जबकि हमारी पार्टी गरीबों के साथ खड़ी होती है|
गांव के गरीबों और आम भूमिहीनों के बारे में केन्द्र सरकार ने भारी-भरकम धनराशि अपने खजाने से निकाल दी। ग्रामीण क्षेत्रों में आम गरीब को घर बनाने के लिए सरकार ने मदद का हाथ तो बढ़ाया ही ही, साथ ही भूमिहीनों को घर के लिए जमीन खरीदने का दोगुना पैसा देने के लिये भी सरकार ने खजाने को खोल दिया।  कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के ताजा फैसले से सरकारी खजाने से 4 हजार करोड़ रुपये की धनराशि गरीबों के सपनों का घर बनाने में खर्च करने हेतु दिये जाने का अनुमान है। चालू वित्त वर्ष में इंदिरा आवास की मद में जहां 11 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, वहीं आगामी वित्त वर्ष 2013-14 में यह राशि बढ़कर 15 हजार करोड़ रुपये हो जाएगी। ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने ‘इंदिरा आवास योजना’ को गरीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों खासतौर से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, मुक्त बंधुआ मजदूरों और शारीरिक रुप से अक्षम लोगों को निर्माण/आवास के लिए सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से लागू किया था।

भूमिहीन लाभार्थियों के लिए भी केन्द्र सरकार ने बड़ी राहत देते हुए ऐलान किया कि जिस जमीन पर भूमिहीन अपना आवास बनायेगा उस जमीन को खरीदने के लिए मिलने वाली मदद अब पहले की तुलना में दोगुनी हो जायेगी। इस पहल को बीते दिनों भूमिहीनों को सरकार की तरफ से दिये गये वादे को पूरा करने के रूप में भी देखा जा रहा है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले ऐसे ग्रामीणों को जिनके पास न तो कृषि भूमि है और न ही मकान बनाने के लिए जगह है पहले 10 हजार प्रति आवास की धनराशि मिलती थी अब यह बढ़कर 20 हजार रुपये हो गई है। प्रत्येक आवासीय इकाई में शौचालय बनाने के लिए 9 हजार रुपये अलग से दिए जाएंगे। भूमिहीनों के लिये इंदिरा आवास हेतु जमीन खरीदने का आग्रह केवल सात राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, केरल, महाराष्ट्र, सिक्किम, उत्तर प्रदेश और राजस्थान ने ही किया है। विकास की दुहाई देने वाले बाकी राज्य केन्द्र सरकार की इस योजना का लाभ गरीबों तक पहुंचाने में अभी भी कोताही कर रहे हैं।

Monday, 23 September 2013

करना होगा जतन


एक रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में एक दलित व्यक्ति ने उच्चतम न्यायालय में इंसाफ के लिए गुहार लगाई है। व्यक्ति ने आरोप लगाया है कि उच्च जाति से ताल्लुक रखने वाले कुछ बदमाशों, जिनकी जान-पहचान काफी रसूख वालों के साथ है, ने उसकी नाबालिग बेटी के साथ बलात्कार किया है। आरोपियों ने कथित तौर पर परिवार को धमकी दी थी कि मामले को पुलिस में ले जाने पर उसे गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा। परिवार ने उनकी धमकी को गंभीरता से नहीं लेते हुए पुलिस में मामला दर्ज कराया। स्थानीय पुलिस स्टेशन ने उनकी रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दिया और बच्ची की मां को गोली मार दी गई। अभी तक किसी को पता नहीं है कि किसने क्या किया है लेकिन पुलिस नाबालिक युवती और उसके परिवार द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच करने में आनाकानी कर रही है। आखिरकार जब युवती के पिता ने उन्हें लगातार मिल रही धमकियों से सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तब न्यायालय ने इस घटनाक्रम पर 'अप्रसन्नताझ् जताई और पुलिस से इस मामले की जांच करने को कहा। हालांकि रुपये में जारी जबरदस्त गिरावट को सभी अखबारों के मुखपृष्ठद्द पर जगह मिल रही थी ये कुछ ऐसे मामले हैं, जो घटना होने के कई महीने बाद ही सामने आए हैं वह भी इसलिए क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने इसमें दखल दिया।मेरा यह भी कहना है कि देश का विश्वास अगर किसी एक संस्था के ऊपर अभी तक बना हुआ है, तो वह है हमारी न्यायिक व्यवस्था, जो कभी-कभी इसकी झलकियां देती हैं और यह संदेश भी कि लोगों को उसके ऊपर विश्वास बनाए रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट जब फैसला देता है, तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले देश में दिशा निर्देश का काम करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें निचली अदालतों ने सटीक फैसले दिए। न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की जरूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका जिÞंदगी जीना हराम कर रहे हैं। अपनी सीमाओं में बंधे रहने के कारण अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं। कई बार लोगों का आरोप होता है कि सरकार गरीब के साथ नहीं खड़ी है। अगर खड़ी होती, तो गरीब को न्यायालय में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था। यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति कभी-कभी कंपा देता है। आंतरिक अव्यवस्था से बचने का एक बड़ा जरिया हमारी न्यायिक व्यवस्था हो सकती है।

Friday, 13 September 2013

सभी दोषियों को फांसी की सजा

1200 पन्नों की चार्जशीट, 86 गवाहियां और 243 दिनों की सुनवाई के बाद आखिरकार वह फैसला आ गया जिसका इंतजार पूरे देश को था। ज्योति के हत्यारे चारों दरिंदों मुकेश शर्मा, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और पवन गुप्ता को दिल्ली की साकेत अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है। अदालत ने मामले को 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' श्रेणी में रखते हुए यह फैसला सुनाया। साकेत स्थित फास्ट ट्रैक कोर्ट के जज योगेश खन्ना ने चारों आरोपियों को फांसी की सजा का ऐलान करते हुए कहा कि इस घटना को रेयरेस्ट आफ द रेयर की श्रेणी में रखा जाना जरूरी है लिहाजा सभी चार दोषियों को फांसी की सजा दे दी गई।
जिन दोषियों को मृत्युदंड सुनाया गया उनके नाम हैं मुकेश, पवन, विनय और अक्षय। इस मामले में एक नाबालिग को हाल ही में बाल न्यायालय ने तीन साल की सजा सुनाई थी। एक अन्य आरोपी राम सिंह कुछ समय पहले जेल में ही आत्महत्या कर चुका है। अदालत ने इस मामले के चारों अभियुक्तों को हत्या और बलात्कार का दोषी करार दिया था। उन्हें दी जाने वाली सजा के बारे में अदालत में सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष ने अभियुक्तों के साथ रियायत बरतने की अपील की जबकि अभियोजन पक्ष ने उनके अपराध को जघन्यतम श्रेणी का करार देते हुए फांसी की सजा देने की मांग की थी। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ जघन्य गैंगरेप के इन सभी चारों अभियुक्तों अक्षय, विनय, पवन और मुकेश को रिकार्ड नौ महीने के भीतर ये सजा सुनाई गई है। सजा के ऐलान के बाद कोर्ट के भीतर सभी मुल्जिम रोने लगे। हालांकि चारों दोषियों के सजा के ऐलान पर पीड़िता के परिवार ने प्रशासन, पुलिस और अदालत को धन्यवाद दिया है।

रोकना होगा पतन को

बिना किसी राग-द्वेष के कह सकते हैं कि मीडिया और राजनीति में आज कापोर्रेट कल्चर पूरी तरह हावी हो चुका है। एक समय था जब नेता और मीडिया दोनों ही समाज के लिए उत्तरदायी होते थे। एक काल था जब कवियों और आलोचकों से देश के नीति निर्धारक खौफ खाते थे। कवि अपने छंदों के माध्यम से सरकार की बखिया उघेड़ देते थे, तो आलोचकों द्वारा नेतागिरी और मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता था। आज समय बदल चुका है, आज ये आलोचक और कवि न जाने कहां खो गए हैं। इन दोनों प्रजातियों के लगभग विलुप्त होने के चलते मीडिया और राजनीति अपने पथ से भटक चुकी है।  जिस तरह कापोर्रेट सेक्टर में ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए गलाकाट स्पर्धा मची रहती है, ठीक उसी तरह इन दोनों ही क्षेत्रों में अपने आप को स्थापित करने के लिए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
अस्सी के दशक तक मीडिया की लगाम मूलत: पत्रकारिता से जुड़े लोगों के हाथों में ही रही है। एक समय था जब समाचार पत्रों के मालिक नियमित तौर पर लेखन कार्य किया करते थे। आज कापोर्रेट कल्चर में व्यवस्थाएं बदल चुकी हैं। आज मीडिया के मालिक संपादकों को बुलाकर अपनी पॉलिसी और स्टेंड बता देते हैं, फिर उसी आधार पर मीडिया उसे अपनी पॉलिसी बता आगे के मार्ग तय कर रहा है, जो निश्चित तौर पर प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के लिए अशुभ संकेत ही कहा जाएगा। रूतबे, निहित स्वार्थों और शोहरत के लिए की जाने वाली पत्रकारिता का विरोध किया जाना चाहिए।  हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि देश के नीति निर्धारकों की नजरों में आज भी अंग्रेजी मीडिया पर ही आश्रित हैं। ब्यूरोक्रेसी और टॉप लेबल के पालीटिशन आज भी अंग्रेजी के ही पोषक नजर आ रहे हैं। कलम के दम पर धन, शोहरत और समाज में नाम कमाने वाले पत्रकारों ने अपनी कलम बेचने या गिरवी रखने में कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। पत्रकारिता को बतौर पेशा अपनाने वाले ह्वजनसेवकोंह्व की लंबी फेहरिस्त मौजूद है। कल तक व्यवस्था के खिलाफ कलम बुलंद करने वाले जब उसी व्यवस्था का अंग बनते हैं तो दम तोड़ते तंत्र में उनका जमीर न जाने कहां गायब हो जाता है?
सचमुच लोकतंत्र के लिहाज से यह बहुत दुर्भाग्य से भरा और डर में डूब समय है, क्योंकि राजनीति, मीडिया और समाज के पतन के लेकर चारों तरफ चिंताएं व्याप्त हैं। लेकिन सच तो यह है कि ये सब बोया हुआ काटने का ही नतीजा है। इससे अलग कुछ नहीं। अगर आजादी वाले दौर में मीडिया और राजनीति के रिश्तों की पड़ताल करें, तो सारे निर्मम सच उजागर हो जाते हैं। हालांकि, पुराने दौर को बहुत आदर्शपूर्ण बताया जाता है, लेकिन तथ्यों को देखें तो यह सोचना मिथ्या अभिमान से ज्यादा कुछ नहीं। आज ज्यादातर लोग इसी विश्वास में गर्क हैं कि अतीत के सामाजिक लोग, राजनेता और पत्रकार बहुत महान थे। और वे सब होते तो सीना तानकर चलने वाले अपराधियों को संरक्षण देने का तो सवाल ही नहीं था, रुपये-पैसे का भी आज जैसा बोलबाला नहीं रहता! आखिर मीडिया और राजनीति के रिश्तों के बीच लोकतांत्रिक दायित्वों के पतन और उत्थान, द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व तथा हर्ष और विषाद से जुड़े इस यथार्थ की पड़ताल तो करनी ही चाहिए।
इससे इत्तर हम बात करें, तो न्यायिक व्यवस्था और मीडिया या न्यायिक व्यवस्थ और राजनीति की, तो कई पहलू सामने आती है। पिछले कुछ समय से जिस तरह न्यायिक फैसलों, पुलिसिया कार्रवाइयों और कुछ वैसे मुकदमे जो किसी न किसी बडी हस्ती से जुडे होते हैं, उनकी कवरेज में मीडिया जैसी दिलचस्पी दिखा रहा है। उसने कभी कभार नुकसान पहुंचाने के बावजूद अधिकांश में कानून व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था ,और समाज को आत्ममंथन करने पर मजबूर जरूर किया है। क्या ऐसा संभव था कि जिस मुकदमे को हाल फिलहाल की न्यायिक सक्रियता के बावजूद फैसले पर पहुंचने में, वह भी अदालत की पहली पायदान पर ही, उन्नीस-बीस बरस लग जाते हैं। उस मुकदमे उसमें इतनी तेजी से इतना सब हो जाएगा? इन सबने दो बातें तो जरूर ही प्रमाणित कर दी हैं। पहली ये कि अब भी मीडिया अपनी खबरों से और सबसे बड़ी बात की खबरों की दिशा से जनमानस को तैयार कर लेता है। और दूसरा यह कि जब एक बार कोई खबर बन जाती है, तो फिर बाकी का काम बहुत कठिन नहीं रहता है। इसलिए यदि हम मीडिया की असंवेदनशीलता, नकलचीपन, और उनके चुके हुए थिंक टैंक के लिए उन्हें कोसते हैं, तो फिर इस तरह के प्रयासों के लिए उनका धन्यवाद तो देना ही चाहिए।
मेरा यह भी कहना है कि देश का विश्वास अगर किसी एक संस्था के ऊपर अभी तक बना हुआ है, तो वह है हमारी न्यायिक व्यवस्था, जो कभी-कभी इसकी झलकियां देती हैं और यह संदेश भी कि लोगों को उसके ऊपर विश्वास बनाए रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट जब फैसला देता है, तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले देश में दिशा निर्देश का काम करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान में कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें निचली अदालतों ने सटीक फैसले दिए। न्यायिक व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाने की जरूरत है, क्योंकि लाखों मामले लंबित हैं, लोग जेलों में हैं, लोग अन्याय सह रहे हैं, बाहुबली और दबंग उनका जिÞंदगी जीना हराम कर रहे हैं। अपनी सीमाओं में बंधे रहने के कारण अदालतें उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रही हैं। कई बार लोगों का आरोप होता है कि सरकार गरीब के साथ नहीं खड़ी है। अगर खड़ी होती, तो गरीब को न्यायालय में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। वह सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों से अपनी शिकायत करके न्याय हासिल कर सकता था। यह न्याय की विडंबना, न्याय की विसंगति कभी-कभी कंपा देता है। आंतरिक अव्यवस्था से बचने का एक बड़ा जरिया हमारी न्यायिक व्यवस्था हो सकती है।