कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी का आज 69वां जन्म दिन है। इटली के एक छोटे से गांव की एक साधारण सी लड़की के भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने की बहू बनने की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है। सोनिया गांधी और राजीव गांधी की जिंदगी के शुरुआती 13 साल कई सियासी उतार-चढ़ावों से होकर गुजरे क्योंकि पूरा परिवार एक के बाद एक दुखद घटनाओं से जूझ रहा था। पहले विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत, उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या और सात साल बाद खुद राजीव गांधी की हत्या। हर बार सोनिया गांधी को शिद्दत से ये एहसास हो रहा था कि ये राजनीति ही थी जो राजीव गांधी और उनकी जिंदगी की दुश्मन साबित हुई थी, पर विकल्प कोई नहीं था। बाद के सालों ने दिखाया कि विदेश में पैदा हुई ये गांधी अपनी जिंदगी और इस देश की सियासत की किताब नए सिरे से लिखने को तैयार हो रही थी। उनकी भावना की तुलना बाद में उन्हें मिली फतह से की जा सकती है।
साल 2004 में बीजेपी ने सोनिया गांधी की ताकत को अनदेखा किया था और अब बीजेपी के सामने ही सोनिया गांधी एक खास अंदाज में अपने लिए लिखे भाषण पढ़कर उस भारत तक पहुंच रही थीं जो उतना चमकदार नहीं था जितना दावा किया जा रहा था। सोनिया गांधी की लगातार एक ही कोशिश थी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए सहयोगी मिल जाएं। पुराने दुश्मन अब दोस्त का दर्जा पा गए थे। कुछ जातियों और समुदायों में सोनिया ने भी अपनी पैठ बना ली थी अचानक सोनिया एम करुणानिधि, वायको, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं की भी पसंद बन गई थीं।
हरकिशन सिंह सुरजीत से उनकी काफी बनती थी। एक बार वो सुरजीत के घर भी गई थीं। गर्मियों के दिन थे। सुरजीत ने कहा कि उनके घर में अंदर के कमरे में एक एयरकंडिश्नर है तो क्या तुम अंदर जा सकती हो और सोनिया गांधी तुरंत चली गईं। जिस कुर्सी पर वो बैठीं वो टूटी हुई थी। सोनिया गांधी ने उस पर तकिया रखा और बैठकर बातचीत करती रहीं। तब से सुरजीत से सोनिया गांधी की अच्छी दोस्ती हो गई और याद रखें कि ये कोई राजनीतिक दोस्ती नहीं थी, जिसके लिए वो पांच साल से मोलतोल कर रही थीं।
2004 चुनावों ने दिखाया कि दांव पर क्या लगा था। कांग्रेस का अस्तित्व ही नहीं बल्कि भारत की राजनीति में शायद एक गांधी की औकात भी दांव पर लगी थी। देश ने कांग्रेस को चुना और कांग्रेस ने सोनिया गांधी को और सोनिया गांधी ने उस शख्स को चुना जो सियासतदान कम था वफादार ज्यादा। उनके घर के बाहर कांग्रेसियों का हुजूम लग गया। पर सोनिया गांधी की तरफ से न हो चुकी थी। सोनिया गांधी के त्याग की कहानी देशभर में टेलीकास्ट हुई। सत्ता त्यागकर सोनिया और भी ताकतवर बन गई थीं। यहां तक कि बीजेपी ने भी माना कि ये सोनिया गांधी का मास्टरस्ट्रोक था।
ये उस नेता की कामयाबी थी, जिसे 1999 में सियासत का नौसिखिया कहा जाता था। राष्ट्रपति भवन के सामने कभी न भूलने वाली वो प्रेस कांफ्रेंस जब सोनिया गांधी ने जादुई आंकड़ों का ऐलान किया और कहा कि हमें यकीन है कि हमें 272 सीटें मिलेंगी। चुनाव अभियान का कर्ताधर्ता गलती कर सकता था, पर संसद में पार्टी प्रमुख के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। पता चला कि आंकड़ा 272 तक नहीं पहुंच पाया और 40 कम है तो चुनाव मजबूरी बन गए और सोनिया ने पाया कि उनके लिए अब अपनी छवि बनाए रखना बहुत जरूरी था। सोनिया गांधी से दोबारा गलती नहीं हुई। अब उन्होंने अपनी हर रुकावट को अपने फायदे में बदलना शुरू कर दिया। इस हद तक कि उनके विरोधी भी चौंक जाते थे।
राष्ट्रपति चुनाव, लाभ के पद के संकट और न्यूक्लियर करार पर तकरार जैसे जोखिम से गुजरकर सोनिया गांधी सत्ता में भागीदारी की कला अच्छी तरह जान गई थीं। एक सर्वशक्तिमान नेता और एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री के गठबंधन ने सत्ता में भागीदारी की नई परंपरा को जन्म दिया। सोनिया गांधी पार्टी के लिए जिम्मेदार थीं तो मनमोहन सरकार के लिए। ऐसी हिस्सेदारी पहले नहीं देखी गई थी फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि सत्ता सिर्फ सोनिया गांधी के पास ही रहती थी।
सोनिया गांधी ने १९९७ में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके ६२ दिनों के अंदर १९९८ में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उन्होंने सरकार बनाने की असफल कोशिश भी की। राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेश में जन्म हुए होने का मुद्दा उठाया गया। उनकी कमज़ोर हिन्दी को भी मुद्दा बनाया गया। उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे।
सोनिया गांधी अक्टूबर १९९९ में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और करीब तीन लाख वोटों की विशाल बढ़त से विजयी हुईं। १९९९ में १३वीं लोक सभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गयी। २००४ के चुनाव से पूर्व आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधान मंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देश भर में घूमकर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को अनपेक्षित २०० से ज़्यादा सीटें मिली। सोनिया गांधी स्वयं रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिये कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फ़ैसला किया जिससे कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों का स्पष्ट बहुमत पूरा हुआ। १६ मई २००४ को सोनिया गांधी १६-दलीय गंठबंधन की नेता चुनी गई जो वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाता जिसकी प्रधानमंत्री सोनिया गांधी बनती। सबको अपेक्षा थी की सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सबने उनका समर्थन किया। परंतु एन डी ए के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए। सुषमा स्वराज और उमा भारती ने घोषणा की कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुँडवा लेंगीं और भूमि पर ही सोयेंगीं। १८ मई को उन्होने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया और प्रचारित किया कि सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की है। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने का अनुरोध किया पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने पर सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया।
राष्ट्रीय सुझाव समिति का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी पर लाभ के पद पर होने के साथ लोकसभा का सदस्य होने का आक्षेप लगा जिसके फलस्वरूप २३ मार्च २००६ को उन्होंने राष्ट्रीय सुझाव समिति के अध्यक्ष के पद और लोकसभा का सदस्यता दोनों से त्यागपत्र दे दिया। मई २००६ में वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से पुन: सांसद चुनी गई और उन्होंने अपने समीपस्थ प्रतिद्वंदी को चार लाख से अधिक वोटों से हराया। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर यूपीए के लिए देश की जनता से वोट मांगा। एक बार फिर यूपीए ने जीत हासिल की और सोनिया यूपीए की अध्यक्ष चुनी गई। महात्मा गांधी की वर्षगांठ के दिन २ अक्टूबर २००७ को सोनिया गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित किया।
सोनिया गांधी ने बार-बार सरकार का फोकस आम आदमी की तरफ मोड़ने की कोशिश की। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, सूचना का अधिकार अधिनियम ये सभी तब आए जब 2006 तक वो नेशनल एडवाइजरी काउंसिल की अध्यक्ष थीं। इधर, दो साल से कम वक्त में दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष फिर बाहर निकलीं और अपने पारिवारिक गढ़ रायबरेली में चुनावी समर के लिए वापस लौटीं।
2009 में सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने देश के दूसरे हिस्सों पर भी ध्यान देना शुरू किया। बेशक दोनों देश के दूसरे इलाकों का दौरा करके पार्टी की नींव मजबूत करने में लगे हों, लेकिन रायबरेली और अमेठी में तो मानो जीत गांधी परिवार के खाते में पहले से ही लिख दी गई है। साल 2013 के बाद एक के बाद एक हुए चुनावों में पार्टी की हार से नेहरू-गांधी की जमीन धीरे-धीरे उनके पैरों से खिसकने लगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पकड़ कमजोर पड़ गई और देश की जनता ने उसे नकार दिया एनडीए को जहां एक ओर भारी बहुमत मिला वहीं कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई, ये कांग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक हार थी, लगने लगा कि अब कांग्रेस के लिए दोबारा उभरना आसान नहीं होगा, लेकिन एक बार फिर सोनिया गांधी ने पार्टी को हार से उभारने के लिए पूरी तरह एक्टिव हो गई हैं। गिरती सेहत के बावजूद सोनिया गांधी आज भा कांग्रेस की ढाल बनकर खड़ी हैं।
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