Saturday, 27 December 2014

सबके लिए है कांग्रेस


कांग्रेस दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतांत्रिक दलों में से एक है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य राजनीति की समानता है , जिसमें संसदीय लोकतंत्र पर आधारित एक समाजवादी राज्य की स्थापना शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से की जा सकती है जो आर्थिक और सामाजिक अधिकारों और विश्व शांति और फेलोशिप के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति सच्ची श्रद्धा और भारत के संविधान के प्रति निष्ठा और संप्रभुता रखती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत की एकता और अखंण्डता को कायम रखेगी। अपने जन्म से लेकर अब तक, कांग्रेस में सभी वर्गों और धर्मों का समान प्रतिनिधित्व रहा है। कांग्रेस के पहले अध्यक्ष श्री डब्ल्यू सी. बनर्जी ईसाई थे, दूसरे अध्यक्ष श्री दादाभाई नौराजी पारसी थे और तीसरे अध्यक्ष जनाब बदरूदीन तैयबजी मुसलमान थे। अपनी धर्मनिरपेक्ष नीतियों की वजह से ही कांग्रेस की स्वीकार्यता आज भी समाज के हर तबके में समान रूप से है। गुलामी के बंधन में जकड़े भारत की तस्वीर बदलने के लिए करीब 130 साल पहले कांग्रेस पार्टी ने जन्म लिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन 1885 में ए ओ ह्यूम ने दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और मदनमोहन मालवीय के सहयोग से की। डब्ल्यू सी बनर्जी कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बनाए गए। शुरूआत में कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य भारत की जनता की आवाज ब्रिटिश शासकों तक पहुंचाना था, लेकिन धीरे-धीरे ये संवाद आजादी की मांग में बदलता चला गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद महात्मा गांधी के साथ कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज का नारा बुलंद कर दिया और 1947 में भारत आजाद हो गया।
1947 में जब देश आजाद हुआ, तो देश ने बेहिचक शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में सौंप दी। पंडित जवाहर लाल नेहरु देश की पसंद बन कर उभरे और देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने शपथ ली। पंडित नेहरु के नेतृत्व में देश ने विकास की नई ऊंचाइयों को छुआ और आर्थिक आजादी के सपने सच होने लगे। पंडित नेहरु के साथ कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। अपनी स्थापना, और विशेषकर आजादी के बाद से, कांग्रेस की लोकप्रियता अपने शिखर पर रही है। भारत की जनता ने आजादी के बाद से अब तक सबसे ज्यादा कांग्रेस पर ही भरोसा दिखाया है। आजादी के बाद से अभी तक हुए कुल 15 आम चुनावों में 6 बार कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई है और 4 बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है। यानी कि पिछले 67 सालों में से करीब 50 साल, कांग्रेस देश की जनता की पसंद बनकर रही है। ये कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय राजनीति के पटल पर चाहे जितने दल उभरे हैं, देश की जनता के दिल में कांग्रेस ही राज करती है।
लोकतांत्रिक परंपराओं और धर्मनिरपेक्षता में यकीन करने वाली कांग्रेस देश के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए निरंतर प्रयासरत रही है। 1931 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों के विषय में महात्मा गांधी ने एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि देश की जनता का शोषण न हो इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक आजादी के साथ-साथ करोड़ों गरीबों को असली मायनों में आर्थिक आजादी मिले। 1947 में प्रधानमंत्री बनने के बाद पंडित नेहरु ने इस वायदे को पूरा किया। वो देश को आर्थिक और सामाजिक स्वावलंबन की दिशा में आगे ले गए। कांग्रेस ने संपत्ति और उत्पादन के साधनों को कुछ चुनिंदा लोगों के कब्जे से निकाल कर आम आदमी तक पहुंचाया और उन्हें सही मायनों में भूख, गरीबी और असमानता से छुटकारा दिलाकर आजादी के पथ पर अग्रसर करने में प्रभावकारी भूमिका निभाई। श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेस ने समाजवाद के नारे को और जोरदार तरीके से बुलंद किया और इसे राष्ट्रवाद से जोड़ते हुए देश को एक सूत्र में बांध दिया। देश में गरीबों की आवाज सुनने वाली, उनका दर्द समझने वाली कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा बुलंद किया जो कांग्रेस के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। 1984 में श्री राजीव गांधी के साथ कांग्रेस ने देश को संचार क्रांति के पथ पर अग्रसर किया। 21वीं सदी के भारत की मौजूदा तस्वीर को बनाने का श्रेय कांग्रेस और श्री राजीव गांधी को ही जाता है। 90 के दशक में जब अर्थव्यवस्था डूब रही थी, तब कांग्रेस के श्री नरसिंह राव ने देश को एक नया जीवन दिया। कांग्रेस के नेतृत्व में श्री नरसिंहराव और श्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण के जरिए आम आदमी की उम्मीदों को साकार किया।
हमारे देश के समकालीन इतिहास पर कांग्रेस की एक के बाद एक बनी सरकारों की उपलब्धियों की अमिट छाप है। आर.एस.एस.-भाजपा गठबंधन ने कांग्रेस द्वारा किए गए हर काम का मखौल उड़ाने उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करने और अर्थ का अनर्थ करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी और जीती। हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम कर रहे भारतीय जनता पार्टी के पूर्वजों ने तो भारत छोड़ो आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी द्वारा किए गए ष्करेंगे या मरेंगेश्श् के आह्वान का बहिष्कार किया था। यह कांग्रेस ही है, जिसके गांधी जी, इंदिरा जी और राजीव जी जैसे नेताओं ने देश की सेवा में अपनी जान भी कुर्बान कर दी।
यह कांग्रेस ही है, जिसने संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की और उसकी जड़ों को सींचने का काम किया। यह कांग्रेस ही थी, जिसने आमूल और शांतिपूर्ण सामाजिक-आर्थिक बदलाव के राष्ट्रीय घोषणा पत्र भारतीय संविधान की रचना संभव बनाई। यह कांग्रेस ही थी, जिसने सदियो से शोषण और भेदभाव का शिकार हो रहे लोगों को गरिमामयी जिंदगी मुहैया कराने के लिए सामाजिक सुधारों की मुहिम की अगुवाई की। यह कांग्रेस ही है, जिसने भारत की राजनीतिक एकता और सार्वभौमिकता की हमेशा रक्षा की।
यह कांग्रेस ही है, जिसने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने, देश का औद्योगीकरण करने, तरक्की की राह के दरवाजे करोड़ों भारतवासियों के लिए खोलने और खासकर दलितों और आदिवासियों को रोजगार मुहैया कराने, अनदेखी का शिकार हो रहे पिछड़े इलाकों में विकास करने, देश को तकनीकी विकास के नए शिखर पर ले जाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण किया।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने जमींदारी प्रथा को खत्म किया और भूमि सुधार के कार्यक्रम शुरू किए। कांग्रेस ही देश में हरित क्रांति और श्वेत क्रांति लाई और इन कदमों ने हमारे किसानों तथा खेत मजदूरों की जिंदगी में नई सपंन्नता पैदा की और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक मुल्क बनाया।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने मुल्क में वैज्ञानिक-भाव पैदा किया और विज्ञान संस्थाओं का एक ऐसा ढांचा तैयार किया कि भारत नाभिकीय, अंतरिक्ष और मिसाइल जगत की एक बड़ी ताकत बना और सूचना क्रांति की दुनिया में हमने मील के पत्थर कायम किए। मई 1998 में भारत परमाणु विस्फोट सिर्फ इसलिए कर पाया कि इसकी नींव कांग्रेस ने पहले ही तैयार कर दी थी। अग्नि जैसी मिसाइलें और इनसेट जैसे उपग्रह कांग्रेस के वसीयतनाते के पन्ने हैं।
कांग्रेस ने ही गरीबी मिटाने और ग्रामीण इलाकों का विकास करने के व्यापक कार्यक्रमों की शुरूआत की। इन कार्यक्रमों पर हुए अमल ने गांवों की गरीबी दूर करने में खासी भूमिका अदा की और समाज के सबसे वंचित तबके की दिक्कतें दूर करने में भारी मदद की। आजादी मिलने के वक्त जिस देश की दो तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जिंदगी बसर कर रही थी, आज आजादी के पचास बरस के भीतर ही उस देश की दो तिहाई आबादी गरीबी की रेखा के ऊपर है। भारत का मध्य-वर्ग कांग्रेस ने निर्मित किया और इस पर हम गर्व करते हैं।
कांग्रेस ने ही अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की बेहतरी और कल्याण के लिए उन्हें आरक्षण दिया और उनके लिए समाज कल्याण तथा आर्थिक विकास की कई योजनाएं शुरू कीं।
यह कांग्रेस ही थी, जिसने महात्मा गांधी के ष्ग्राम स्वराज के जरिए पूर्ण स्वराजश्श् देने के आह्वान का अनुगमन किया और देश भर के गांवों और मुहल्लों में जमीनी लोकतंत्र के जरिए जमीनी विकास को प्रोत्साहन दिया। कांग्रेस ने ही पंचायती राज और नगर निकायों से संबंधित संविधान संशोधन की रूपरेखा तैयार की और पंचायती राज की स्थाना के लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए।
कांग्रेस ने ही संगठित क्षेत्र के कामगारों और अनुबंधित मजदूरों को रोजगार की सुरक्षा तथा उचित पारिश्रमिक दिलाने के लिए व्यापक श्रम कानून बनाए और उन पर अमल कराया। कांग्रेस ने ही देश के कुल कामगारों के उस 93 फीसदी हिस्से को सामाजिक सुरक्षा देने की प्रक्रिया शुरू कराई, जो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। यह कांग्रेस ही है, जिसने उच्च और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे क्रांतिकारी कदम उठाए कि भारतीय मस्तिष्क आज दुनिया में सबसे कीमती मस्तिष्क माना जाता है। कांग्रेस ने ही देश भर में भारतीय तकनीकी संस्थानः आई.आई.टी. रू और भारतीय प्रबंधन संस्थान रू आई.आई.एम. रू खोले और पूरे मुल्क में शोध प्रयोगशालाओं की स्थापना की।
कांग्रेस देश का अकेला अखिल भारतीय राजनीतिक दल है- अकेली ऐसी राजनीतिक ताकत, जो इस विशाल देश के हर इलाके में मौजूद है। सत्ता में रह या सत्ता के बाहर, कांग्रेस देश भर के गांवों, कस्बों और शहरों में वास्तविक और प्रत्यक्ष तौर पर मौजूद है। कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसे हमारे रंगबिरंगे समाज के हर वर्ग से शक्ति मिलती है, जिसे रह वर्ग का समर्थन हासिल है और जा हर वर्ग को पसंद आती है। कांग्रेस अकेला राजनीतिक दल है, जिसने अपने संगठन में अनुसूचति जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर रखी है।  कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके राजकाज का दर्शन लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याया के साथ होने वाली आर्थिक तरक्की और सामाजिक उदारतावाद एवं आर्थिक उदारीकरण के सामंजस्य गुंथा हुआ है। कांग्रेस संवाद में विश्वास करती है, अनबन में नही। कांग्रेस समायोजन में विश्वास करती है, कटुता में नहीं। कांग्रेस अकेला ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके राजकाज का दर्शन एक मजबूत केंद्र द्वारा मजबूत राज्यों और शक्तिसंपन्न स्वायत्त निकायों के साथ लक्ष्यों को पाने के लिए काम करने पर आधारित है। कांग्रेस का मकसद है ष् राजनीतिक से लोकनीति, ग्रामसभा से लोकसभाश्श्। कांग्रेस हमेशा नौजवानों का राजनीतिक दल रहा है। कांग्रेस बुजुर्गियत और वरिष्ठता का सदा सम्मान करती है, लेकिन युवा ऊर्जा और गतिशीलता हमेशा ही कांग्रेस की पहचान रहे हैं। 1989 में श्री राजीव गांधी ने ही मतदान कर सकने की उम्र घटा कर 18 साल की थी। राजीव जी ने ही स्वामी विवेकांनद के जन्म दिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया था। राजीव जी ने ही नेहरू युवा केंद्र की गतिविधियों का देश के हर जिले में विस्तार किया था।  कांग्रेस की नीतियों का जन्म हमेशा राजनीतिक तौर पर एकजुट, आर्थिक तौर पर संपन्न, सामाजिक तौर पर न्यायसम्मत और सांस्कृति तौर पर समरस भारत के निर्माण का नजरिया सामने रख कर होता रहा है। इन नीतियों को कभी भी बिना सोचे-समझे सिद्धांतों या खोखली हठधर्मिता या मंत्रों में तब्दील नहीं होने दिया गया। कांग्रेस ने हमेशा समय की जरूरतों के मुताबिक इन नीतियों में सकारात्मक बदलाव के लिए जगह रखी। कांग्रेस सदा व्यावहारिक रही। कांग्रेस हमेशा नई चुनौतियों का मुकाबला करने को तैयार रही। नतीजतन, बुनियादी सिद्धांतों के प्रति वफादारी की भावना ने नर्द जरूरतों के मुताबिक खुद को तैयार करने के काम में कभी अड़चन महसूस नहीं होने दी।
1950 के दशक में भूमि सुधारों, सामुदायिक विकास, सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना और कृषि, उद्योग, सिचांई, शिक्षा, विज्ञान, वगैरह के आधारभूत ढांचे को विकसित करने की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों। 19६0 और 1970 में गरीबी हटाने के लिए सीधा हमला बोलने, कृषि और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में एकदम नया रुख अपनाने, तेल के घरेलू भंडार का पता लगाने और उसका उत्खनन करने और किसानों, बुनकरों कुटीर उद्योगों तथा छोटे दूकानदारों को प्राथमिकता देने के साथ बड़े उद्योगों का ध्यान रखने और अन्य सामाजिक जरूरतों एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों। 1980 के दशक में लोगों की दिक्कतों को दूर करने और इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निबटने के लिए उद्योगों का आधुनिकीकरण करने के मकसद से विज्ञान और टकनालाजी पर नए सिरे से जोर देने की जरूरत थी। इस दौर में भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और दूरसंचार के क्षेत्र में भी तेजी से विकसित करने की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्चित किया कि ये सभी काम पूरे हों।
1990 के दशक में दुनिया के बदलने आर्थिक परिदृश्य में भारत को जगह दिलाने के लिए आर्थिक तरक्की की रफ्तार को तेज करने आर्थिक सुधारों तथा उदारीकरण के साहसिक कदम उठाने और निजी क्षेत्र की भूमिका को व्यापक बनाने की जरूरत थी। आर्थिक विकास में सरकार की भूमिका की नई परिभाषा रचने और संविधान सम्मत पंचायती राज की संस्थाओं एवं नगर निकायों को स्वायत्तशासी इकाइयों के तौर पर स्थापित करना भी इस दौर की जरूरत थी। कांग्रेस ने सुनिश्ति किया कि ये सभी काम पूरे हों। कांग्रेस देशवासियों को एक सच्चा वचन देना चाहती है कि वह सभी लोगों के बीच शांति फिर कायम करेगी, सामाजिक सद्भाव पर जोर दे कर धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को मजबूत बनाएगी, सास्कृतिक बहुलता और कानून का राज सुनिश्चित करेगी और देश के हर परिवार के लिए एक सुरक्षित आर्थिक भविष्य का निर्माण करेगी। देश भर में सामाजिक सद्भाव और एकता को बनाए रखने के लिए बिना किसी भय और पक्षपता के कानूनों को लागू किया जाएगा। इस मामले में किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा।
कांग्रेस कभी भी पारंपरिक अर्थों वाला राजनीतिक दल नहीं रहा। वह हमेशा एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन की तरह रही है। पिछले 118 साल में कांग्रेस ने विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि रखने वाले लोगों को देश सेवा की लिए साथ लाने के मकसद से असाधारणतौर पर व्यापक मंच की तरह काम किया है। कांग्रेस भारत-विचार की ऐसी अभिव्यक्ति है, जैसा कोई और राजनीतिक दल नहीं। कांग्रेस के लिए भारतीय राष्ट्रवाद सबको सम्मिलित करने वाला और सर्वदेशीय तत्व है। राष्ट्रवाद, जो इस देश की संपन्न विरासत के हर रंग से सृजनात्मकता ग्रहण करता है। राष्ट्रवाद, जो संकीर्ण और धर्मान्ध नहीं है, बल्कि हमारी मिलीजुली संस्कृति में भारत-भूूमि पर मौजूद हर धर्म के योगदान का उत्सव मनाता है। राष्ट्रवाद, जिसमें प्रत्येक भारतीय का और हर उस चीज का जो भारतीय है, समान और गरिमापूर्ण स्थान है। राष्ट्रवाद, जो भारत को भावनात्मक तौर पर जोड़े रखता है। भारतीय जनता पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीयों को भावनात्मक तौर पर तोड़ने का हथियार है। कांग्रेस भारत को सर्वसम्मति के जरिए जोड़े रखने का काम करती है। भाजपा भारत को विवादों के जरिए तोड़ने का काम करती है।
कांग्रेस को इस बात की गहरी चिंता है कि पिछले कुछ वर्षों में धर्मनिरपेक्षता पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे हैं। कांग्रेस के लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब है पूर्ण स्वतंत्रता और सभी धर्मों का पूरा आदर। धर्म निरपेक्षता का मतलब है सभी धर्मों के मानने वालों को समान अधिकार और धर्म के आधार पर किसी के भी साथ कोई भेदभाव नहीं। सबसे बढ़ कर इसका मतलब है हर तरह की सांप्रदायिकता को ठोस विरोध।
हमारे समाज में नफरत और अलगाव फैलाने के लिए किसी भी धर्म का दुरूपयोग करना सांप्रदायिकता है। लोकप्रिय भावनाओं को आपसी दुर्भावना भड़काने के लिए किसी भी धर्म का दुरूपयोग करना सांप्रदायिकता है। ज्यादातर भारतीय दूसरे धर्मो के प्रति आदर का भाव रखते हैं। ज्यादातर भारतीय दूसरे भारतीयों के साथ मिलजुल कर शांति से रहना चाहते हैं, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। लेकिन कुछ भारतीय अपने धर्म के स्वंयभू संरक्षक बन गए हैं। ये ही वे लोग हैं, जो सामाजिक सद्भाव को नष्ट करना चाहते हैं। ये ही वे लोग हैं, जो हमें दो समुदायों में नफरत फैलाने के लिए खुद ही आविष्कृत कर लिए गए और तोड़-मरोड़ कर बताए गए हमारे अतीत का हमें गुलाम बना कर रखना चाहते हैं। धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई का असली मैदान यही है। यह बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मुद्दे से कहीं बड़ा मसला है। दरअसल यह संघर्ष इस मुल्क के सभी धर्मों के सार को बचाए रखने की कोशिश कर रही ताकतों और जानबूझ कर, चुनावी मकसदों की वजह से और मंजूर नहीं किए जा सकने लायक वैचारिक कारणों का हवाला दे कर इस मिलीजुली संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा ताकतों के बीच है।
धर्मनिरपेक्षता प्रत्येक कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए आस्था का विषय है। कांग्रेस के दो महानतम नायकों ने धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिये, भारत की धर्मनिरपेक्ष विरासत संरक्षित और सुरक्षित रहे, इसके लिए उन्होंने अपना जीवन दे दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके समान अन्य नेता भारत के धर्मनिरपेक्ष बने रहने के लिए आजीवन अथक परिश्रम करते रहे, क्योंकि वे जानते थे कि बिना धर्मनिरपेक्षता के भारत संगठित और शक्तियशाली नहीं बना रह सकेगा।

Wednesday, 24 December 2014

दान का त्योहार है क्रिसमस


 क्रिसमस क्रिश्चियन समुदाय का सबसे बड़ा और खुशी का त्योहार है, इस कारण इसे बड़ा दिन भी कहा जाता है।क्रिश्चियन समुदाय के लोग हर साल 25 दिसंबर के दिन क्रिसमस का त्योहार मनाते हैं। क्रिसमस का त्योहार ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। क्रिसमस एक अनोखा पर्व है जो ईश्वर के प्रेम, आनंद एवं उद्धार का संदेश देता है। क्रिसमस का त्योहार अब केवल ईसाई धर्म के लोगों तक ही सिमित नही रह गया है, बल्कि देश के सभी समुदाय के लोग इसे पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाते हैं। क्रिसमस मानव जाति के उद्धार के लिए परमेश्वर के द्वारा की गई पहल को दर्शाने वाला त्योहार भी है।
अब आप सोच रहे होंगे कि आप अपनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी से इतना समय कैसे निकालें कि कुछ दान करने के बारे में या किसी रोते को हंसाने के बारे में सोच सकें। तो इसकी शुरूआत आप अपने घर से ही कर सकते हैं, आप के घर में अगर कुछ पुराने कपड़े हैं जिन्हे आप इस्तेमाल नही कर रहे हैं, आप उसे किसी मंदिर या गुरूद्वारे में दे सकते हैं ताकि वो किसी गरीब के तन ढकने के काम आ सके और कम से कम इन सर्दियों को बिना किसी तकलीफ के गुजार पांए। अगर आप के घर में छोटे बच्चे हैं तो आप उन्हे भी सिखांए कि वो अपने पुराने खिलौनों को आपके घर में काम करने वाले गरीब जरूरतमंद को दे दें। अगर आप क्रिसमस देने के लिए उपहार खरीदने का सोच रहे हैं तो आप किसी अनाथ आश्रम या संस्था में बच्चों के हाथ से बने हुए उपहार खरीदें।
पर क्या आप जानते हैं कि आखिर सांता क्लॉज ढेर सारे उपहार लेकर एक ही रात में दुनिया भर के सभी घरों में कैसे पहुँच सकता है। इसका जवाब है, हम सब के बीच ही एक सांता छुपा होता है लेकिन हम उसे पहचान नही पाते हैं। सांता बिना किसा भी स्वार्थ के सब के जीवन में खुशियाँ ले कर आता है। हमे भी उस से एक सबक लेना चाहिए कि किस तरह हम किसी भी तरह अगर एक इंसान को खुशी दे सकें तो शायद हम भी इस क्रिसमस को सही मायने में मनाने में कामयाब हो सकेंगे।
क्या आपको पता है कि क्रिसमस के मौके पर क्रिसमस ट्री, क्रिसमस कार्ड, क्रिसमस स्टार, क्रिसमस फादर की शुरुआत कैसे हुई। क्रिसमस में कैंडिल का भी काफी महत्व है। एक हजार वर्ष पहले ऑस्ट्रेलिया के एक गांव में छोटा परिवार रहता था। पति और पत्‍‌नी रात के अंधेरे में आने जाने वालों के लिए बाहर दरवाजे पर प्रतिदिन एक कैंडिल जलाकर रख देते थे। दूसरे देश से युद्ध छिड़ा और समाप्त होने के बाद किसी ने गांव में सूचना दी कि युद्ध समाप्त हो गया। पूरे गांव में लोगों ने अपने घरों के बाहर कैंडिल जलाया। उस दिन 24 दिसंबर की रात थी। इसको क्रिसमस से जोड़ दिया गया। क्रिसमस ट्री के विषय में,  सदियों पहले एक प्रचारक दल अफ्रीका के घने जंगल में रहने वाले लोगों को प्रभु यीशु का शुभ संदेश सुनाने पहुंचा। 24 दिसंबर की रात में जंगल का नजारा ही दूसरा था। जंगलियों ने एक पेड़ में बच्चे बांध दिया था। जल्लाद उस बच्चे की बलि चढ़ाने जा रहा था। उस जाति के लोगों को विश्वास था कि बच्चे की बलि से बिजली देवता प्रसन्न होकर वर्षा करेंगे और हम सबको सूखे से निजात मिल जाएगी। प्रचारक दल के मुखिया ने जल्लाद को बलि करने से रोक दिया। कबीले के सरदार को क्रोध आ गया। उसने कहा कि आप लोगों की प्रार्थना से बिजली नहीं चमकी और वर्षा नहीं हुई तो सभी को तलवार से कत्ल कर दिया जाएगा। प्रचारक दल ने प्रार्थना किया, बिजली चमकी और वर्षा भी हुई। तभी से प्रभु यीशु के जन्मोत्सव पर क्रिसमस ट्री अनिवार्य रुप से दर्शाया जाता है।






Monday, 22 December 2014

सवा लाख से एक लड़ाऊं तब गुरु गोविन्द कहाऊं


गुरु गोबिन्द सिंह जी  ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जी  जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोबिन्द सिंह जी  ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।
दसवें गुरु के पूर्व के अनेक गुरुओं ने मुगल शासकों के बहुत अत्याचार झेले परंतु धर्म के मार्ग से विचलित नही हुए। लेकिन गुरु गोविन्द ने अपने समय में इस बात को अच्छी तरह से समझ लिया कि धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाना भी जरुरी है। इसीलिए उन्होने पंज प्यारों की खोज की तथा इसी लिए कड़ा, काछिया, कंधा केस, कर कटार सिक्खों का वेष निर्धारित कर दिया। इसी के साथ उन्होने यह घोषणा भी कर दी कि सिक्खों का अब कोई गुरु नही होगा। ग्रंथ साहिब ही हमेशा के लिए सिक्ख संगति के लोगों के गुरु बने
रहेंगे। सिक्ख संगत के सभी गुरु संत थे। वे हमेशा धम््र्रा के विस्तार और समाज की भलाई के लिए काम करते रहे। गुरु गोविन्द साहब ही ऐसे गुरु हुए जिन्होंने समझ लिया कि देश ,धर्म और राष्ट की रक्षा के लिये अत्याचारियों और अधर्मियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा। इस लिए उन्होने सिक्ख समुदाय को एक नई दिशा और नई राह भी दी।
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. को पटना, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोबिन्द राय' था। गोबिन्द सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।
गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,
"उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"
तेग़बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में 'गुरु गोबिन्द राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोबिन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल
गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।




Monday, 15 December 2014

स्थानीय ही समझते हैं बेहतर



दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारी में हर कोई व्यस्त हो चुका है। हर सीट पर बेहतर सोच के साथ रूपरेखा तैयार की जा रही है। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि उस क्षेत्र का विकास बेहतर होता है, जहां के प्रतिनिधि उस क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में लुटियन्स का इलाका सबसे महत्वपूर्ण है। बीते चुनाव में इसी लुटियन के लोगों ने नई दिल्ली विधाानसभा से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को अपना प्रतिनिधि चुना, लेकिन उन्होंने क्या किया ? कुछ भी तो नहीं। जनता ने उन पर भरोसा किया, लेकिन केजरीवाल ने अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लिया। जिम्मेदारी का पद मुख्यमंत्री का है, लेकिन उसकी महत्ता को भी नहीं समझा।
असल में, लगातार तीन चुनाव में कांगे्रस की शीला दीक्षित यहां से जीत का परचम लहराते हुए 15 वर्षों तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं, वहीं पिछले चुनाव में यहीं से ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल जीत दर्ज कर मुख्यमंत्री बने थे। नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र का दुर्भाग्य रहा है कि आमतौर पर यहां से कोई भी  दल स्थानीय नेता को टिकट नहीं देता है। पिछले चुनाव में कांग्रेस की शीला दीक्षित के मुकाबले ‘आप’ से अरविंद केजरीवाल एवं ऽााजपा से बिजेंद्र गुप्ता मैदान में थे। हालांकि, केजरीवाल चुनाव जीत गए, लेकिन न तो उनका, न ही बिजेंद्र गुप्ता का कोई ताल्लुक नई दिल्ली क्षेत्र से रहा है। चूंकि उस समय लोग कांग्रेस से नाराज थे, ऐसे में केजरीवाल की किस्मत चमक गई।’
इस बार शीला दीक्षित चुनाव से खुद को दूर रख रही हैं और भाजपा  प्रत्याशी चयन को लेकर उहापोह में है। ऐसी स्थिति में अगर कांग्रेस यहां से किसी स्थानीय नेता को चुनाव लड़ाती है, तो इसमें संदेह नहीं कि वह ‘आप’ और भाजपा के ‘बाहरी’ उम्मीदवारों को न केवल दमदार चुनौती पेश करेगा, बल्कि यह सीट कांग्रेस की झोली में भी जा सकती है। इस क्षेत्र में जितना विकास हुआ है अब तक वह कांग्रेस की ही देन है। यहां की विधायक रहीं श्रीमती शीला दीक्षित और सांसद अजय माकन ने नई दिल्ली के लोगों की हर सुविधाओं का ख्याल रखा।

Friday, 12 December 2014

वर्तमान व्यवस्था बदलने की चाहत थी ओशो में

इतिहास की पूरी धारा में ओशो की अपनी एक अलग वैचारिक पहचान है. ओशो के रुप में मानवता ने एक बड़ा विचारक और चिंतक पाया है, जिनका प्रभाव और प्रसांगिकता समय के साथ बढ़ और चमक रहा है. एक बार एक महाशय ने ओशो को बोला कि आप तो एक बड़े मिशन में लगे हुए हैं, तो उनका जबाव था – मैं किसी मिशन में नहीं लगा हूं, मैं तो मस्त हूं अपनी मस्ती में, और इसमें अगर कुछ बड़ा हो जाए तो अच्छा. ओशो मानवता की एक नई आवाज हैं, क्रांति की एक नई भाषा हैं. ओशो का शाब्दिक अर्थ है, वह व्यक्ति जिसपर भगवान फूलों की वर्षा कर रहे हैं . ओशो भगवान रजनीश के नाम से भी जाने जाते हैं. अपने भगवान होने की घोषणा उन्होंने स्वयं की थी. ओशो के स्वरूप को निर्धारित करना बहुत कठिन है. कभी उन्हें दार्शनिक समझा जाता है तो कभी एक अनोखा धर्मगुरु. लेकिन ओशो ने खुद को ऐसे किसी घेरे में बांधने से इन्कार कर दिया. विचारों की एक ऊंची श्रृंखला और आध्यात्मिक आंदोलन की आंधी का दूसरा नाम है ओशो.
ओशो ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत एक शिक्षक के रुप में की. जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और अपने व्याख्यानों से चर्चा में आने लगे. ओशो की अदभुत तार्किक क्षमता ने लोगों को आकर्षित किया. उनमें किसी भी मानीवय पक्षों की एक गहरी समझ थी, जिसे बड़े ही सहज शब्दों में वह लोगों को समझाते थे. एक असीम और अलौकिक शक्ति में उनका विश्वास और समर्पण था जिसने इस पूरे जीवन-संसार की रचना की है. ओशो ने एक क्रांतिकारी की तरह बड़े बदलाव की बात की. लेकिन उनका परिवर्तन व्यक्ति से शुरु होता, व्यवस्था से नहीं. उनका मानना था कि हर व्यक्ति में असीम संभावना है जिसे जगाने की जरुरत है.
ओशो का मूल नाम चन्द्र मोहन जैन था। वे अपने पिता की ग्यारह संतानो में सबसे बड़े थे। उनका जन्म मध्य प्रदेश में रायसेन जिले के अंतर्गत आने वाले कुचवाडा ग्राम में हुआ था। उनके माता पिता श्री बाबूलाल और सरस्वती जैन, जो कि तेरापंथी जैन थे, ने उन्हें अपने ननिहाल में ७ वर्ष की उम्र तक रखा था। ओशो के स्वयं के अनुसार उनके विकास में इसका प्रमुख योगदान रहा क्योंकि उनकी नानी ने उन्हें संपूर्ण स्वतंत्रता, उन्मुक्तता तथा रुढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखा। जब वे ७ वर्ष के थे तब उनके नाना का निधन हो गया और वे "गाडरवाडा" अपने माता पिता के साथ रहने चले गए. ओशो रजनीश (११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०) का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में हुआ था ओशो शब्द लैटिन भाषा के शब्द ओशोनिक से लिया गया है, जिसका अर्थ है सागर में विलीन हो जाना। १९६० के दशक में वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से या 'ओशो भगवान श्री रजनीश' नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे, तथा भारत व विदेशों में जाकर उन्होने प्रवचन दिये।
ओशो कहते हैं कि -"धार्मिक व्यक्ति की पुरानी धारणा यह रही है कि वह जीवन विरोधी है। वह इस जीवन की निंदा करता है, इस साधारण जीवन की - वह इसे क्षुद्र, तुच्छ, माया कहता है। वह इसका तिरस्कार करता है। मैं यहाँ हूँ, जीवन के प्रति तुम्हारी संवेदना व प्रेम को जगाने के लिये।"
वे दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे। उनके द्वारा समाजवाद, महात्मा गाँधी की विचारधारा तथा संस्थागत धर्मं पर की गई अलोचनाओं ने उन्हें विवादास्पद बना दिया। वे काम के प्रति स्वतंत्र दृष्टिकोण के भी हिमायती थे जिसकी वजह से उन्हें कई भारतीय और फिर विदेशी पत्रिकाओ में "सेक्स गुरु" के नाम से भी संबोधित किया गया। १९७० में ओशो कुछ समय के लिए मुंबई में रुके और उन्होने अपने शिष्यों को "नव संन्यास" में दीक्षित किया और अध्यात्मिक मार्गदर्शक की तरह कार्य प्रारंभ किया। अपनी देशनाओं में उन्होने सम्पूूूर्ण विश्व के रहस्यवादियों, दार्शनिकों और धार्मिक विचारधारों को नवीन अर्थ दिया। १९७४ में "पूना " आने के बाद उन्होनें अपने "आश्रम" की स्थापना की जिसके बाद विदेशियों की संख्या बढ़ने लगी। १९८० में ओशो "अमेरिका" चले गए और वहां सन्यासियों ने "रजनीशपुरम" की स्थापना की।
ओशो अपने सेक्स के विचारों के कारण विवादों में घिर गए. लोगों को संभोग से समाधि का रास्ता दिखाया. सेक्स को दबाने की प्रवृति को मानवीय जीवन की विकृत मानसिकता का मूल कारण बताया. उन्होंने घोषणा की कि संभोग के क्षण में ईश्वर की झलक है. ओशो ने स्पष्ट कहा कि शादी जैसी कृत्रिम संस्था में मेरा विश्वास नहीं है और बिना शर्त प्रेम की हिमायत की. वह दुनिया को एक इंटरनेशनल कम्युन बनाना चाहते थे.
ओशो में एक दार्शनिक उंचाई थी और उन्होंने खुल कर धार्मिक पाखंडवाद पर प्रहार किया. इस मामले में वे कबीर को एक आग और क्रांति मानते थे. ओशो कहते थे बुद्ध बनो, बौद्ध नहीं. जीसस, बुद्ध, पैगम्बर मुहम्मद नानक, कबीर, कृष्ण, सुक्रात ये ओशो के विचारों में तैरते थे.
अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए उन्होंने पूना में ओशो इंटरनेशनल नाम से एक ध्यान-क्रेंद स्थापित किया और बाद में अमेरिका चले गए जहां अमेरिकी सरकार के निशाने पर आने लगे. वहां इनकी प्रसिद्धी से डरी हुई अमेरिकी सरकार ने इन पर बहुत सारे केस चला दिए और इनको गिरफ्तार कर के विभिन्न जेलों में घुमाती रही. बाद में मोरारजी देसाई सरकार की पहल पर इन्हें भारत लाया गया. अधिकांश यूरोपीय सरकारों ने ओशो पर अपने देशों में आने पर प्रतिबंध लगा दिया. ओशो मावन-जीवन को मुक्त करना चाहते थे. अतीत और भविष्य के घेरों को तोड़ना चाहते थे. उनमें जीवन की वर्तमान व्यवस्था बदलने की चाहत थी, लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी हिंसा और शस्त्र का सहारा नहीं लिया. कभी कोई भड़काउ बाते नहीं कही. चंगेज खा, हिटलर और माओ के बदलाव के हिंसक प्रयासों की अलोचना की और सनकी व्यक्तियों व विचारों से दुनिया को सावधान किया.
ओशो ने जीवन से मुक्ति के तीन मार्ग बताए- प्रेम, ज्ञान और समाधि. ओशो का मानना था कि मौत है ही नहीं, वह तो जिंदगी का ही रुपांतरण है. यह जीवन और जगत उस इश्वर की कृति है, इसलिए जितना ईश्वर सच है उतना ही यह जगत भी सच है, इस तरह उन्होंने संसार के माया और भ्रम होने की बात को नकार दिया. उन्होंने आध्यात्मिकता और भौतिकता को मिलाने की बात कही और बड़े ही जोड़ देकर कहा कि दोनों में कोई विरोध नहीं है. जीवन से भागना नहीं, जीवन को समझना है. समझ ही मुक्ति है. एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से जुड़ाव प्यार है, वहीं एक व्यक्ति का प्रत्येक व्यक्ति से जुड़ाव समाधि है. इस तरह प्रेम का ही विस्तृत रुप समाधि है.