मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार विजय के सूत्रधार हैं और राहुल गांधी गठबंधन के सूत्रधार हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की प्रभावशाली भूमिका के बिना महागठबंधन संभव नहीं होता। जिस समय राजद प्रमुख को इस बारे में आपत्तियां थी, तब राहुल ने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई। बिहार की विजय राहुल गांधी के पार्टी प्रमुख बनने का सही समय है। वैसे इस मुद्दे पर कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और राहुल गांधी को फैसला करना है।
कांग्रेस के लिए बिहार चुनावों में गठबंधन का रास्ता काफी फायदेमंद साबित हुआ है। परिणाम दर्शाते हैं कि पार्टी ने जिन 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था उनमें से 27 पर वह जीत दर्ज करने में कामयाब रही। 2010 के विधानसभा चुनावों में इसे सिर्फ चार सीटें मिली थीं जबकि उसने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार कम सीट पर चुनाव लड़ने के कारण उसका मत प्रतिशत भी कम हो गया जो 2010 में 8.37 फीसदी के मुकाबले 6.7 फीसदी रहा । पिछले चुनावों में पार्टी के 216 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
इस चुनाव में पार्टी के हिसाब से देखें तो मत प्रतिशत के मामले में कांग्रेस चौथे स्थान पर है। पिछले वर्ष मई के लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी के लिए बिहार एक बड़ी जीत है। लोकसभा चुनावों में पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट कर रह गई है। पार्टी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. दिल्ली में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था।
भारत की आजादी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अविभाजित बिहार की 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2010 में बिहार के विभाजित होने के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कीं। साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती।
ऐसे में इन चुनावों में 5 से 27 सीटों तक का सफर तय करके कांग्रेस ने शानदार कमबैक किया है. मंडल दौर के बाद लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कद में दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई। साल 1995 के चुनावों में कांग्रेस मात्र 29 सीटों पर सिमट गई। बीजेपी इन चुनावों में 41 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफल हुई। साल 2000 में लालू यादव ने कांग्रेस के 23 विधायकों को राबड़ी देवी कैबिनेट में शामिल किया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह को असेंबली स्पीकर भी बनाया गया।
इसके बाद कांग्रेस ने दोबारा कभी बिहार में अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की मजबूत कोशिश नहीं की। प्रदेश स्तर पर किसी ओबीसी या महादलित नेता को भी तैयार नहीं किया गया। कांग्रेस को बिहार की राजनीति में की हुईं गलतियों से सबक नहीं लेने का परिणाम 2005 के चुनावों में मिल गया। इन चुनावों में कांग्रेस के हाथ मात्र 5 सीटें आईं, अगले चुनावों (2010) में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें हासिल कर सकी।
इसके पांच साल बाद 2015 में कांग्रेस ने न चुनावों में लालू और नीतीश ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुना। यही नहीं चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने 6 और राहुल गांधी ने 10 रैलियां कीं। इस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लालू और नीतीश ने अपने कंधों पर संभाली और कांग्रेस को 41 में से 27 सीटों पर जीत दिलाई।
हालांकि, कांग्रेस ने बिहार की राजनीति में वापसी की है लेकिन इसे बरकरार रखने के लिए कांग्रेस को बिहार में नेताओं की नई फौज तैयार करनी पड़ेगी.
कांग्रेस के लिए बिहार चुनावों में गठबंधन का रास्ता काफी फायदेमंद साबित हुआ है। परिणाम दर्शाते हैं कि पार्टी ने जिन 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था उनमें से 27 पर वह जीत दर्ज करने में कामयाब रही। 2010 के विधानसभा चुनावों में इसे सिर्फ चार सीटें मिली थीं जबकि उसने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार कम सीट पर चुनाव लड़ने के कारण उसका मत प्रतिशत भी कम हो गया जो 2010 में 8.37 फीसदी के मुकाबले 6.7 फीसदी रहा । पिछले चुनावों में पार्टी के 216 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
इस चुनाव में पार्टी के हिसाब से देखें तो मत प्रतिशत के मामले में कांग्रेस चौथे स्थान पर है। पिछले वर्ष मई के लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी के लिए बिहार एक बड़ी जीत है। लोकसभा चुनावों में पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट कर रह गई है। पार्टी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. दिल्ली में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था।
भारत की आजादी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अविभाजित बिहार की 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2010 में बिहार के विभाजित होने के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कीं। साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती।
ऐसे में इन चुनावों में 5 से 27 सीटों तक का सफर तय करके कांग्रेस ने शानदार कमबैक किया है. मंडल दौर के बाद लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कद में दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई। साल 1995 के चुनावों में कांग्रेस मात्र 29 सीटों पर सिमट गई। बीजेपी इन चुनावों में 41 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफल हुई। साल 2000 में लालू यादव ने कांग्रेस के 23 विधायकों को राबड़ी देवी कैबिनेट में शामिल किया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह को असेंबली स्पीकर भी बनाया गया।
इसके बाद कांग्रेस ने दोबारा कभी बिहार में अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की मजबूत कोशिश नहीं की। प्रदेश स्तर पर किसी ओबीसी या महादलित नेता को भी तैयार नहीं किया गया। कांग्रेस को बिहार की राजनीति में की हुईं गलतियों से सबक नहीं लेने का परिणाम 2005 के चुनावों में मिल गया। इन चुनावों में कांग्रेस के हाथ मात्र 5 सीटें आईं, अगले चुनावों (2010) में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें हासिल कर सकी।
इसके पांच साल बाद 2015 में कांग्रेस ने न चुनावों में लालू और नीतीश ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुना। यही नहीं चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने 6 और राहुल गांधी ने 10 रैलियां कीं। इस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लालू और नीतीश ने अपने कंधों पर संभाली और कांग्रेस को 41 में से 27 सीटों पर जीत दिलाई।
हालांकि, कांग्रेस ने बिहार की राजनीति में वापसी की है लेकिन इसे बरकरार रखने के लिए कांग्रेस को बिहार में नेताओं की नई फौज तैयार करनी पड़ेगी.
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