Wednesday, 18 November 2015

सशक्त देश की पहचान इंदिरा गांधी

देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्म आज ही के दिन, 17 नवंबर 1917 को हुआ था। भारतीय राजनीति के इतिहास में इंदिरा गांधी को विशेष रूप से याद रखा जाता है। एक तेज तर्रार, त्‍वरित निर्णयाक क्षमता और लोकप्रियता ने इंदिरा गांधी को देश और दुनिया की सबसे ताकतवर नेताओं में शुमार कर दिया। इंदिरा को तीन कामों के लिए देश सदैव याद करता रहेगा। पहला बैंकों का राष्ट्रीयकरण, दूसरा राजा-रजवाड़ों के प्रिवीपर्स की समाप्ति और तीसरा पाकिस्तान को युद्ध में पराजित कर बांग्लादेश का उदय।

गुलाम भारत को आजादी की कितनी जरूरत है यह इंदिरा ने अच्छे से समझ लिया था। बचपन से ही वो भी भारत की आजादी की लड़ाई में जुट गई थीं। उन्होंने अपने हमउम्र बच्चों के साथ एक वानर सेना बनाई जिसका उद्देश्य देश की आजादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारी एवं आंदोलनकारियों तक गुप्त सूचनाएं पहुंचाना था। 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इंदिरा गांधी का कहना था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बदौलत ही देश भर में बैंक क्रेडिट दी जा सकेगी। उस वक्त के वित्त मंत्री मोरारजी देसाई इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर चुके थे। 19 जुलाई 1969 को एक अध्यादेश लाया गया और 14 बैंकों का स्वामित्व राज्य के हवाले कर दिया गया। उस वक्त इन बैंकों के पास देश का 70 प्रतिशत जमापूंजी थी। 1969 में इंदिरा गांधी ने भूमिहीन और समाज के कमजोर वर्ग के लिए भूमि सुधार नीति बनाई। हरित क्रांति इंदिरा के अथक प्रयास का फल था। बीस सूत्रीय कार्यक्रम की शुरुआत भी इंदिरा गांधी ने ही की थी।
1967 के आम चुनावों में कई पूर्व राजे-रजवाड़ों ने सी.राजगोपालाचारी के नेतृत्व में स्वतंत्र पार्टी का गठन लिया था। इनमें से कई कांग्रेस के बागी भी थे। इस कारण इंदिरा ने प्रिवीपर्स समाप्ति का संकल्प ले लिया। 1971 के चुनावों में सफलता के बाद इंदिरा ने संविधान में संशोधन कराया और प्रिवीपर्स की समाप्ति कर दी। इस तरह राजे-महाराजों के सारे अधिकार और सहूलियतें वापस ले ली गईं। 1971 के चुनाव में इंदिरा जी ने नारा दिया था ‘गरीबी हटाओ’। इस नारे का जादू देश भर में लोगों के सिर चढ़कर बोला। पाकिस्तान के साथ युद्ध में विजयी होने के बाद वे संसद में पहले ही दुर्गा की परिभाषा से विभूषित हो चुकी थी। उनकी लोकप्रियता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से जीती। भारत पाकिस्तान के बीच तीसरे युद्ध ने दक्षिण एशिया का भूगोल ही नहीं इतिहास भी बदल दिया। ये इंदिरा की अगुवाई का ही कमाल था कि भारत ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर भी मजबूर तक दिया जब महाबली अमेरिकी खुद उसका खुलकर साथ दे रहा था।पाकिस्तान से लड़ाई के तीन साल बाद 18 मई 1974 को भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण कर विश्व पटल पर अपनी सैन्य ताकत दर्ज कराने की कोशिश की। इसके साथ ही अमरीका, सोवियत संघ (तत्कालीन), ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बाद भारत छठा ऐसा करने वाला देश बन गया।साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर सैन्य हमले पर विचार किया था। वह पड़ोसी देश को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए ऐसा करना चाहती थीं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के सार्वजनिक किए गए एक दस्तावेज में यह दावा किया गया।
 बांगलादेश के उदय को इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन का उत्कर्ष कहा जा सकता है, वहीं 1975 में रायबरेली के चुनाव में गड़बड़ी के आरोप और जेपी द्वारा संपूर्ण क्रांति के नारे के अंतर्गत समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। इस पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। आपातकाल में नागरिक अधिकार रद्द हो गए और प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लागू हो गई। कई विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए। संजय गांधी के नेतृत्व में जबरन नसबंदी अभियान और सत्ता पक्ष द्वारा दमन के कारण आपातकाल को इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन का निम्न बिंदु कहा जाने लगा।
दरअसल, 1971 में ही हाईकोर्ट ने रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध ठहरा दिया था। इस चुनाव में राजनारायण थोड़े ही मतों से हार गए थे। इंदिरा गांधी ने इस निर्णय को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी तो उन्हें स्टे मिल गया। वे प्रधानमंत्री के पद पर बनी रह सकतीं थी लेकिन सदन की कार्रवाई में भाग नहीं ले सकती थीं और न ही सदन में वोट दे सकती थीं। इन्ही परिस्थितियों के मद्देनजर इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगा दिया था। इसका जनता ने माकूल जवाब दिया। 1977 में इमरजेंसी हटा ली गई और  आम चुनाव हुए जिसमें इंदिरा गांधी की अभूतपूर्व हार हुई।
जनता पार्टी के नेतृत्व में चार घटक दलों के साथ मोरराजी देसाई प्रधानमंत्री बने। हालांकि दो साल ही जनता पार्टी में खींचतान शुरू हो गई। चरण सिंह 64 सांसदों को साथ जनता पार्टी से अलग हो गए। मोरारजी देसाई ने सदन में विश्वासमत का सामना करने से पहले् ही इस्तीफा दे दिय़ा।
चरणसिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन गए। चरणसिंह भी सदन में विश्वास मत हासिल करते इसके पहले ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति से नए चुनाव करने का अनुरोध किया । 1980 के चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त जीत हासिल हुई और कांग्रेस सत्ता में लौटी। जाहिर है इंदिरा के शासनकाल में हुई ये ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाओं ने भारत में न केवल राजनीतिक बल्‍कि सामाजिक परिवर्तन भी किए। आज भी देश और दुनिया इंदिरा गांधी को एक मजबूत नेता के रूप में जानती है।

Friday, 13 November 2015


जय जवाहरलाल की

'हम कोटि-कोटि कुटुम्बियों की और विश्व विशाल की,
सुख-शांति-चिंता थी, तुम्हारी सहचरी चिरकाल की।
तुम जागते थे रात में भी, जबकि सोते थे सभी,
जन-मात्र की सच्ची विजय है, जय जवाहरलाल की।'
- मैथिलीशरण गुप्त की कविता 'जय' से



नेहरू जी यह जानते थे कि देश को आजादी मिलने के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के साथ देश को मजबूत बनाया जाना बड़ा जरूरी है। भारत के आजाद होने के पहले ही चीन भी साम्राज्यवादी राजतंत्र से आजाद हुआ था। नेहरू की सर्वभौम वैश्विक दृष्टि थी। उनकी सोच यही थी कि नए आजाद हुए एशियाई देशों में सहयोग और भाईचारे की भावना जरूरी है तभी वे गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी जैसी चुनौतियों से पार पा सकेंगे। उन्होंने चीन के साथ पंचशील का समझौता इसी उद्देश्य से किया था कि देश के सैन्य संसाधनों का अनाश्यक विस्तार न करते हुए देश निर्माण पर ध्यान दिया जाए। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू एक गांव में पहुंचे। उन्होंने ग्रामीणों से सवाल किया कि आप अक्सर भारत माता की जय का नारा लगाते हैं, क्या आप बता सकते हैं भारत माता कौन है। कोई जवाब नहीं मिला तो नेहरू बोले हमारे पहाड़, नदियां, जंगल, जमीन, वन संपदा,खनिज... यही तो भारत माता है।
आप भारत माता की जय का नारा लगाते हैं तो आप हमारे प्राकृतिक संसाधनों की जय ही करते हैं। नेहरू कहते थे हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज़ नहीं है, वह बुरी चीज़ है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मजदूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों,और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। नेहरू की इसी सोच के चलते उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भाखड़ा नंगल डेम, बीएचईएल (बिजली के भारी उपकरणों का उद्योग) आईआईटी, एम्स, नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी की स्थापना की। नेहरू ने गांधी की आर्थिक संकल्पना को व्यवहारवादी रुख देते हुए देश में बड़े कारखानों, तकनीकी प्रगति और वैज्ञानिक सोच को समाविष्ट किया।
देश के प्रथम प्रधानमंंत्री की घरेलू नीति चार स्तंभों पर थी लोकतंत्र, समाजवाद,एकता और धर्मनिरपेक्षता। नेहरू ने अपने कार्यकाल के दौरान इन चारों स्तंभों को मजबूती प्रदान की। नेहरू एक आइकॉन थे। उनके आदर्श और राजनीतिक कुशलता का सम्मान विदेशों में भी किया जाता था। देश के जनमानस को आधुनिक मूल्य और विचारों से नेहरू ने ही संपृक्त कराया। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को सदा ही महत्व दिया। उन्होंने हमेशा देश की एकता बनाए रखने का प्रयास किया। वे जातीय अस्मिताओं और विविध धार्मिक समूहों वाले इस देश को वैज्ञानिक नवाचार और तकनीकी प्रगति के आधुनिक युग में लेकर गए। समाज में हाशिए के लोग और गरीब उनकी चिंता के केंद्र थे। लोकतात्रिंक मूल्यों में नेहरू ने सदैव पूर्ण आस्था रखी।
नेहरू को खास तौर पर हिंदू सिविल कोड लागू करने के लिए याद किया जाता है, इसी की बदौलत हिंदू औरतें उत्तराधिकार और संपत्ति में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा पा सकीं। नेहरू ने ही हिंदू कानून में बदलाव लाकर जातिगत भेदभाव को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में ला दिया। नेहरू ने ही पांच वर्षीय योजना में देश के सभी बच्चों को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देने की गारंटी दी।
नेहरू के अनुसार भारत की सेवा का अर्थ, करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान, और अवसर की विषमता का अन्त करना है। नेहरू की आकांक्षा यही रही कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आँसू को पोंछ दिया जाए, ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।
पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर निजी शिक्षकों से प्राप्त की। पंद्रह साल की उम्र में वे इंग्लैंड चले गए और हैरो में दो साल रहने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया जहाँ से उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। 1912 में भारत लौटने के बाद वे सीधे राजनीति से जुड़ गए। यहाँ तक कि छात्र जीवन के दौरान भी वे विदेशी हुकूमत के अधीन देशों के स्वतंत्रता संघर्ष में रुचि रखते थे। उन्होंने आयरलैंड में हुए सिनफेन आंदोलन में गहरी रुचि ली थी। उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनिवार्य रूप से शामिल होना पड़ा।
1912 में उन्होंने एक प्रतिनिधि के रूप में बांकीपुर सम्मेलन में भाग लिया एवं 1919 में इलाहाबाद के होम रूल लीग के सचिव बने। 1916 में वे महात्मा गांधी से पहली बार मिले जिनसे वे काफी प्रेरित हुए। उन्होंने 1920 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1920-22 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में उन्हें दो बार जेल भी जाना पड़ा।
पंडित नेहरू सितंबर 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने। उन्होंने 1926 में इटली, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, बेल्जियम, जर्मनी एवं रूस का दौरा किया। बेल्जियम में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में ब्रुसेल्स में दीन देशों के सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने 1927 में मास्को में अक्तूबर समाजवादी क्रांति की दसवीं वर्षगांठ समारोह में भाग लिया। इससे पहले 1926 में, मद्रास कांग्रेस में कांग्रेस को आजादी के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध करने में नेहरू की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन के खिलाफ एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए उन पर लाठी चार्ज किया गया था। 29 अगस्त 1928 को उन्होंने सर्वदलीय सम्मेलन में भाग लिया एवं वे उनलोगों में से एक थे जिन्होंने भारतीय संवैधानिक सुधार की नेहरू रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर किये थे। इस रिपोर्ट का नाम उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू के नाम पर रखा गया था। उसी वर्ष उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ की स्थापना की एवं इसके महासचिव बने। इस लीग का मूल उद्देश्य भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्णतः अलग करना था।
1929 में पंडित नेहरू भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए जिसका मुख्य लक्ष्य देश के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना था। उन्हें 1930-35 के दौरान नमक सत्याग्रह एवं कांग्रेस के अन्य आंदोलनों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने 14 फ़रवरी 1935 को अल्मोड़ा जेल में अपनी ‘आत्मकथा’ का लेखन कार्य पूर्ण किया। रिहाई के बाद वे अपनी बीमार पत्नी को देखने के लिए स्विट्जरलैंड गए एवं उन्होंने फरवरी-मार्च, 1936 में लंदन का दौरा किया। उन्होंने जुलाई 1938 में स्पेन का भी दौरा किया जब वहां गृह युद्ध चल रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर भी गए।
पंडित नेहरू ने भारत को युद्ध में भाग लेने के लिए मजबूर करने का विरोध करते हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह किया, जिसके कारण 31 अक्टूबर 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दिसंबर 1941 में अन्य नेताओं के साथ जेल से मुक्त कर दिया गया। 7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक संकल्प ‘भारत छोड़ो’ को कार्यान्वित करने का लक्ष्य निर्धारित किया। 8 अगस्त 1942 को उन्हें अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर अहमदनगर किला ले जाया गया। यह अंतिम मौका था जब उन्हें जेल जाना पड़ा एवं इसी बार उन्हें सबसे लंबे समय तक जेल में समय बिताना पड़ा। अपने पूर्ण जीवन में वे नौ बार जेल गए। जनवरी 1945 में अपनी रिहाई के बाद उन्होंने राजद्रोह का आरोप झेल रहे आईएनए के अधिकारियों एवं व्यक्तियों का कानूनी बचाव किया। मार्च 1946 में पंडित नेहरू ने दक्षिण-पूर्व एशिया का दौरा किया। 6 जुलाई 1946 को वे चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए एवं फिर 1951 से 1954 तक तीन और बार वे इस पद के लिए चुने गए।

Tuesday, 10 November 2015

कांग्रेस की सात गुना छलांग

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार विजय के सूत्रधार हैं और राहुल गांधी गठबंधन के सूत्रधार हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की प्रभावशाली भूमिका के बिना महागठबंधन संभव नहीं होता।  जिस समय राजद प्रमुख को इस बारे में आपत्तियां थी, तब राहुल ने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई। बिहार की विजय राहुल गांधी के पार्टी प्रमुख बनने का सही समय है।  वैसे इस मुद्दे पर कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और राहुल गांधी को फैसला करना है।
कांग्रेस के लिए बिहार चुनावों में गठबंधन का रास्ता काफी फायदेमंद साबित हुआ है। परिणाम दर्शाते हैं कि पार्टी ने जिन 41 सीटों पर चुनाव लड़ा था उनमें से 27 पर वह जीत दर्ज करने में कामयाब रही। 2010 के विधानसभा चुनावों में इसे सिर्फ चार सीटें मिली थीं जबकि उसने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस बार कम सीट पर चुनाव लड़ने के कारण उसका मत प्रतिशत भी कम हो गया जो 2010 में 8.37 फीसदी के मुकाबले 6.7 फीसदी रहा । पिछले चुनावों में पार्टी के 216 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी।
इस चुनाव में पार्टी के हिसाब से देखें तो मत प्रतिशत के मामले में कांग्रेस चौथे स्थान पर है। पिछले वर्ष मई के लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी के लिए बिहार एक बड़ी जीत है। लोकसभा चुनावों में पार्टी महज 44 सीटों पर सिमट कर रह गई है। पार्टी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. दिल्ली में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था।
भारत की आजादी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अविभाजित बिहार की 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी। इसके बाद 2010 में बिहार के विभाजित होने के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कीं। साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती।
ऐसे में इन चुनावों में 5 से 27 सीटों तक का सफर तय करके कांग्रेस ने शानदार कमबैक किया है. मंडल दौर के बाद लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कद में दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हुई। साल 1995 के चुनावों में कांग्रेस मात्र 29 सीटों पर सिमट गई। बीजेपी इन चुनावों में 41 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफल हुई।  साल 2000 में लालू यादव ने कांग्रेस के 23 विधायकों को राबड़ी देवी कैबिनेट में शामिल किया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह को असेंबली स्पीकर भी बनाया गया।
इसके बाद कांग्रेस ने दोबारा कभी बिहार में अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने की मजबूत कोशिश नहीं की। प्रदेश स्तर पर किसी ओबीसी या महादलित नेता को भी तैयार नहीं किया गया। कांग्रेस को बिहार की राजनीति में की हुईं गलतियों से सबक नहीं लेने का परिणाम 2005 के चुनावों में मिल गया। इन चुनावों में कांग्रेस के हाथ मात्र 5 सीटें आईं, अगले चुनावों (2010) में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें हासिल कर सकी।
इसके पांच साल बाद 2015 में कांग्रेस ने न चुनावों में लालू और नीतीश ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुना। यही नहीं चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने 6 और राहुल गांधी ने 10 रैलियां कीं। इस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लालू और नीतीश ने अपने कंधों पर संभाली और कांग्रेस को 41 में से 27 सीटों पर जीत दिलाई।
हालांकि, कांग्रेस ने बिहार की राजनीति में वापसी की है लेकिन इसे बरकरार रखने के लिए कांग्रेस को बिहार में नेताओं की नई फौज तैयार करनी पड़ेगी.

Saturday, 7 November 2015

जीती जनता, नीतीश कुमार को बधाई

विभिन्न लोगो की राय अलग अलग है लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि हमारा समाज परिपक्व है व चुनाव में धन बल व प्रचार का महत्व होते हुये भी निर्णायक नही है ।निर्णायक भूमिका है वर्तमान सरकार के नेतृत्व की कार्यप्रणाली व उसकी छवि तथा उसके विपरीत मैदान में मुख्य विपक्षी दल के नेतृत्व व स्वीकार्यता । गत चुनावों में केन्द्र ,राजस्थान,महाराष्ट्र व हरियाना में सरकारों को बुरी तरह हराना,झारखण्ड में दोनो पक्षों मे किसी का विश्वसनीय न होनेपर निर्णायक बहुमत किसी को न देना तथा मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में अच्छा कार्य करने वाले नेतृत्व को जनता ने आशीर्वाद दिया था ।उसी क्रम में नितिश के नेतृत्व में अपना मत देकर जनता ने उनकी कार्य प्रणाली की स्वीकार्यता पर मुहर लगाया है क्योंकि उनके सामने कोई विश्वसनीय स्थानीय नेतृत्व नहीं था । पर नितिश जी को लालू की छवी व उनके तौर तरीक़ों से सतर्क रहना होगा ।लेकिन बिहार अभी भी जातिवाद के कोढ़ से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया है ।देखे शायद नई पीढ़ी इस कोढ़ से मुक्ति दिला दे क्योकि जातिवाद राजनिति के पोषक नेताओं का अस्पताल अब पास ही है ।

बिहार के 243 सदस्यीय विधानसभा चुनाव केजो नतीजे सामने आ रहे हैं वो बता रहे हैं कि नीतीश कुमार और लालू यादव के बवंडर में मोदी लहर पूरी तरह हवा हो गई। महागठबंधन बंपर बहुमत की तरफ बढ़ रहा है। एनडीए गठबंधन 100 सीटों से भी कम पर सिमटता दिख रहा है। रुझानों के बाद जहां बीजेपी खेमे में खामोशी है और बैठकों का दौर शुरू हो गया है, वहीं महागठबंधन  खेमे में जबरदस्त उत्साह और जश्न का माहौल है। आज सुबह लालू यादव ने कहा था, गुड मॉर्निंग हम जीत रहे हैं। लालू की ये बात सही भी साबित हुई। 
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए पिछले एक माह से जारी चुनाव नतीजों  के रुझानों से तय हो गया है कि जेडीयू नीत महागठबंधन को बहुमत मिल रहा है। बीजेपी के लिए ये नतीजे किसी झटके से कम नहीं। बीजेपी गठबंधन 100 से भी कम सीटों पर सिमट गया। आइए उन कारणों के बारे में जानते हैं जिससे महागठबंधन को इतनी बड़ी कामयाबी मिलती दिख रही है। बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह इस बार पूरी तरह विफल रहे। बीजेपी की चुनावी रणनीति शुरुआत से ही संदेहों के घेरे में रही। विकास के मुद्दे से शुरू हुआ चुनाव प्रचार हर चरण के साथ बदलते हुए आरक्षण के रास्ते कब ध्रुवीकरण और बदजुबानी तक पहुंच गया पता ही नहीं चला। बीजेपी नेता कभी बीफ तो कभी पाकिस्तान में पटाखे छूटने की बात करते रहे और नीतीश कुमार मीडिया हलचल से दूर अपनी रणनीति को अमल में लाते रहे। नीतीश ने लालू को बीजेपी का मुकाबला करने के आगे बढ़ाकर अपनी योजना को सफल बनाने में लगे रहे और यहां बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह नीतीश के चुनावी रणनीति को समकझने में नाकाम रहे। बीजेपी कभी पीएम मोदी के जाति बताकर जातीय समीकरण साधते दिखी तो कभी संघ के संग ध्रुवीकरण लेकिन कुल मिलाकर चुनावी रमनीति स्पष्ट न होने के खामियाजा भुगतना पड़ा।
एक बात स्पष्ट है कि मात्र लफ्फाबाजी व अनर्गल / दुष्प्रचार से चुनाव जीत पाना सम्भव नहीं है व जनता के आशिर्वाद के लिये सरकारों को काम करना होगा व अपनी छवि में सुधार करना होगा यानि विकास, नेतृत्व की सत्यनिष्ठा प्रदर्शित करनी होगी ।
यह देश व देशवासियों के लिये शुभ संदेश /समाचार है ।
जय भारत,जय लोक तन्त्र,जय समाजवाद व जय जनता जनार्दन ।।