Wednesday, 7 January 2015

जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए सोचना है


महात्मा गांधी को हमारे आदर्श हैं।  यदि यह कहा जाय कि  महात्मा गांधी ने किसी नए दर्शन की रचना नहीं की है वरन् उनके विचारों का जो दार्शनिक आधार है, वही गांधी दर्शन है, तो गलत नहीं होगा।  ईश्वर की सत्ता में विश्वास करनेवाले भारतीय आस्तिक के ऊपर जिस प्रकार के दार्शनिक संस्कार अपनी छाप डालते हैं वैसी ही छाप गांधी जी के विचारों पर पड़ी हुई है। वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। किसी गंभीर रहस्यवाद में न पड़कर वे यह मान लेते हैं कि शिवमय, सत्यमय और चिन्मय ईश्वर सृष्टि का मूल है और उसने सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन से की है। वे ऐसे देश में पैदा हुए जिसने चैतन्य आत्मा की अक्षुण और अमर सत्ता स्वीकार की है। वे उस देश में पैदा हुए जिसमें जीवन, जगत सृष्टि और प्रकृति के मूल में एकमात्र अविनश्वर चेतन का दर्शन किया गया है और सारी सृष्टि की प्रक्रिया को भी सप्रयोजन स्वीकार किया गया है। उन्होंने यद्यपि इस प्रकार के दर्शन की कोई व्याख्या अथवा उसकी गूढ़ता के विषय में कहीं विशद और व्यवस्थित रूप से कुछ लिखा नहीं है, पर उनके विचारों का अध्ययन करने पर उनकी उपर्युक्त दृष्टि का आभास मिलता है। उनका वह प्रसिद्ध वाक्य है-- जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है।
 वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतयरू केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है।
दरअसल सर्वधर्म सम्भाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले गांधी जी मानते थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का सम्पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजी भी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी। आनंद कुमार बताते हैं कि अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्घान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्यङक्त -श्कर्म किए जा, फल की चिंता मत करश् की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। आनंद कुमार ने कहा कि आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशतयः सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं। बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़े मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस श्शॉर्टकटश् अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में साम्प्रदायिकता फल फूल रही है। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्यम्भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं साम्प्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। अब तो भारत के एक राज्य विशेष के कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग पूरे उत्तर भारतीयों के विरुद्घ नफरत के बीज बो रहे हैं। दरअसल यह इनके द्वारा किया जाने वाला कर्म नहीं है। बल्कि राज सत्ता रूपी फल फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विषयान्ध जैसी हो चुकी है। और एक विषयान्ध व्यक्ति नीतियों, सिद्घान्तों यहां तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य को अजिर्त करने के लिए निमन् से निमन् स्तर तक के .फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।
गांधी जी के विचारधाराओं से प्रभावित होकर कांग्रेस का एक सिपाही बनने का मन बनाया। उसके बाद से श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी ने जो भी जिम्मेदारी पार्टी में दी, उसे निभाया। आज भी पार्टी के नेताओं द्वारा दी गई हर जिम्मेदारियों का बेहतर निर्वहन करता हूं। सार्वजनिक जीवन में कथनी और करनी में एका होना चाहिए। इसके लिए सदैव तत्पर रहता हूं। जीवन की सार्थकता स्वयं से हटकर दूसरों के लिए सोचना भी है। यह संदेश यदि फलों से लदे वृक्ष, फूलों से लटकती डालियाँ दे सकती हैं तो फिर मनुष्य क्यों नहीं। तुलसीदासजी ने भी रामचरित मानस में कहा है- श्परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाईश्। समाजसेवा को जीवन में अंगीकार करने के लिए संवेदनशीलता जरूरी है। समाजसेवा फूल की सुगंध की तरह होती हैं, जिससे देश सुंदर और समृद्ध बन सकेगा।

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