Friday, 2 January 2015

पूंजीपतियों के दबाब में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश



उद्योगों और अवस्थापना परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को ज्यादा सरल बनाने के लिए केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण पुनर्वास एवं मुआवजा अधिनियम-2013 में जो बदलाव किए हैं, उनसे मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून अब बेहद नरम हो जाएगा। हालांकि भाजपा की किसान राजनीति के दबाव को देखते हुए भूस्वामियों (किसानों) को जमीन अधिग्रहण के बदले दिए जाने वाले मुआवजे के प्रावधानों में कोई बदलाव न करके सरकार ने किसान हितों की सुरक्षा का संदेश जरूर दिया है, लेकिन पीपीपी की खिड़की के जरिए सरकार ने निजी क्षेत्र को किसानों की जमीन लेने के सारे रास्ते खोल दिए हैं। यूपीए सरकार के दौरान संसद में भाजपा सहित सभी दलों की सहमति से 2013 में जो भूमि अधिग्रहण कानून पारित किया गया था उसमें सरकारी या गैर सरकारी किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए संबंधित क्षेत्र के भूस्वामियों की कुल आबादी के 70 फीसदी लोगों की सहमति अनिवार्य बनाया गया। लेकिन अध्यादेश में पांच क्षेत्रों औद्योगिक गलियारा, राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण अवस्थापना विद्युतीकरण और सामाजिक अवस्थापना के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) की परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए भूस्वामियों के 70 फीसदी हिस्से की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है।
अध्यादेश के मुताबिक सरकार अब जमीन अधिग्रहण करके पीपीपी के लिए निजी क्षेत्र को जमीन दे सकती है, हालांकि स्वामित्व सरकार का ही रहेगा, लेकिन नियंत्रण और उपयोग परियोजना चलाने वाली कंपनी के पास होगा। कानून में किसानों की सिंचित कृषि भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाई गई है, लेकिन अध्यादेश ने अब इसे खत्म कर दिया है। उक्त पांच क्षेत्रों के लिए सिंचित और बहु फसलों वाली हरित भूमि का भी अधिग्रहण हो सकेगा। अध्यादेश के जरिए लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करके किसानों को झटका दिया है। इससे सरकार ने पीपीपी के जरिए उद्योगपतियों के लिए किसानों की कृषि भूमि लेने के रास्ते फिर खोल दिए हैं।

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