Monday, 26 January 2015

गरिमा और निष्पक्षता के मिसाल आर. वेंकटरमण

रामास्वामी वेंकटरमण को उनकी गरिमा और निष्पक्षता के लिए जाना जाता था। बहुत से लोग उन्हें सिर्फ़ आरवी के नाम से पुकारते हैं। उन्हें इतिहास में ऐसे राष्ट्रपति के तौर पर जाना जाएगा जिसने चार प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया। इनमें से तीन वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर और पी.वी. नरसिंह राव को उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान शपथ भी दिलाई। अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए चुना, लेकिन क़रीब एक दशक पहले राष्ट्रीय राजनीतिक में भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते प्रभाव के बारे में की गई वेंकटरमण की टिप्पणियों के कारण कांग्रेस उनसे नाराज़ भी रही। वेंकटरमण ने ज्ञानी जैल सिंह के बाद राष्ट्रपति पद संभाला। पेशे से वकील और तमिलनाडु से संबंध रखने वाले वेंकटरमण पक्के कांग्रेसी थे। वह 25 जुलाई 1987 से जुलाई 1992 तक राष्ट्रपति पद पर रहे।

रामस्वामी वेंकटरमण, (रामास्वामी वेंकटरमन, रामास्वामी वेंकटरामण या रामास्वामी वेंकटरमण) (४ दिसंबर १९१०-२७ जनवरी २००९) भारत के ८वें राष्ट्रपति थे। वे १९८७ से १९९२ तक इस पद पर रहे। राष्ट्रपति बनने के पहले वे ४ वर्षों तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे। मंगलवार को २७ जनवरी को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। वे ९८ वर्ष के थे। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत देश भर के अनेक राजनेताओं ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है। उन्होंने २:३० बजे दिल्ली में सेना के रिसर्च एंड रेफरल हॉस्पिटल में अंतिम साँस ली। उन्हें मूत्राशय में संक्रमण (यूरोसेप्सिस) की शिकायत के बाद विगत १२ जनवरी को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वे साँस संबंधी बीमारी से भी पीड़ित थे। उनका कार्यकाल १९८७ से १९९२ तक रहा। राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से पूर्व वेंकटरमन करीब चार साल तक देश के उपराष्ट्रपति भी रहे।
वेंकटरमन का जन्‍म ४ दिसंबर, १९१० को तमिलनाडु में तंजौर के निकट पट्टुकोट्टय में हुआ था। उनकी ज्‍यादातर शिक्षा-दीक्षा राजधानी चेन्नई (तत्‍कालीन मद्रास) में ही हुई। उन्होंने अर्थशास्त्र से स्नातकोत्तर उपाधि मद्रास विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने मद्रास के ही लॉ कॉलेज से कानून की पढ़ाई की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में सन १९३५ से वकालत शुरू की और १९५१ से उन्होंने उच्चतम न्यायालय में वकालत शुरू की। वकालत के दौरान ही उन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद वकालत में उनकी श्रेष्ठता को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें देश के उत्कृष्ट वकीलों की टीम में स्थान दिया। १९४७ से १९५० तक वे मद्रास प्रान्त की बार फेडरेशन के सचिव पद पर रहे। कानून की जानकारी और छात्र राजनीति में सक्रिय होने के कारण वे जल्द ही राजनीति में आ गए। सन १९५० में उन्हें आजाद भारत की अस्थायी संसद के लिए चुना गया। उसके बाद १९५२ से १९५७ तक वे देश की पहली संसद के सदस्य रहे। वे सन १९५३ से १९५४ तक कांग्रेस पार्टी में सचिव पद पर भी रहे।
१९५७ में संसद के लिए चुने जाने के बावजूद रामस्वामी वेंकटरमन ने लोक सभा सीट से इस्तीफा देकर मद्रास सरकार में एक मंत्री का पद भार ग्रहण किया। इस दौरान उन्होंने उद्योगों, समाज, यातायात, अर्थव्यस्था व जनता की भलाई के लिए कई विकासपूर्ण कार्य किए। १९६७ में उन्हें योजना आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया और उन्हें उद्योग, यातायात व रेलवे जैसे प्रमुख विभागों का उत्तरदायित्व सौंपा गया। १९७७ में दक्षिण मद्रास की सीट से उन्हें लोकसभा का सदस्य चुना गया। जिसमें उन्होंने विपक्षी नेता की भूमिका निभाई। १९८० में वे लोकसभा का सदस्य चुने जाने के बाद इंदिरा गांधी की सरकार में उन्हें वित्त मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया और उसके बाद उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया। उन्होंने पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के साथ ही सोवियत यूनियन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण पश्चिमी एशिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूगोस्लाविया और मॉरिशस की आधिकारिक यात्राएँ कीं। वे अगस्त १९८४ में देश के उप राष्ट्रपति बने। इसके साथ ही वे राज्यसभा के अध्यक्ष भी रहे। इस दौरान वे इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार व जवाहरलाल नेहरू अवार्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टैंडिंग के निर्णायक पीठ के अध्यक्ष रहे। उन्होंने २५ जुलाई १९८७ को देश के आठवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।
केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन के सम्मान में देशमें सात दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया है। एक सरकारी प्रवक्ता ने बताया कि इस अवधि में कोई भी सरकारी मनोरंजन कार्यक्रम नहीं होगा और सभी सरकारी इमारतों पर तिरंगा आधा झुका रहेगा। इसके साथ ही गणतंत्र दिवस समारोह के बाद होने वाले बीटिंग रट्रीट तथा राष्ट्रीय कैडेट कोर की प्रधानमंत्री रैली समेत सभी सरकारी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए। २९ जनवरी को नई दिल्ली में एकता स्थल पर पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनकी अन्त्येष्टि की गई। उनके दामाद केबी वेंकट ने उन्हें मुखाग्नि दी। सर्वधर्म प्रार्थना और २१ तोपों की सलामी के बीच वेंकटरमन का पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। इससे पहले राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उनको श्रद्धांजलि दी। ३० जनवरी को पूर्व राष्ट्रपति की अस्थियाँ हरिद्वार में गंगा नदी में प्रवाहित की गई। उनके दामाद डॉ॰ के वेंकटरमन और प्रोफेसर आर रामचंद्रन तथा पुत्री लक्ष्मी वी वेंकटेश्वर दिल्ली से उनकी अस्थियाँ लेकर यहाँ पहुँचे। विशिष्ट घाट पर उत्ताराखंड के शिक्षा मंत्री मदन कौशिक, हरिद्वार के जिलाधिकारी, शैलेश बागोली और एसएसपी संजय गुंज्याल भी उपस्थित थे। पूर्व राष्ट्रपति के परिवार के सदस्यों के साथ दिल्ली से आए पंडित सुंदर राघव शर्मा ने घाट पर पूजा-अर्चना की और बाद में नदी में अस्थियाँ प्रवाहित की गई। इससे पहले सेना की छठी आर्टिलरी ब्रिगेड के शीर्ष अधिकारियों ने पवित्र शहर के बाहरी ओर स्थित रायवाला क्षेत्र में वेंकटरमन के अस्थिकलश पर पुष्प माला अर्पित की।




Saturday, 24 January 2015

इतिहास, वर्तमान और भविष्य को समझने का दिन



हर वर्ष 26 जनवरी एक ऐसा दिन है जब प्रत्‍येक भारतीय के मन में देश भक्ति की लहर और मातृभूमि के प्रति अपार स्‍नेह भर उठता है। ऐसी अनेक महत्‍वपूर्ण स्‍मृतियां हैं जो इस दिन के साथ जुड़ी हुई है। हम विविध, विभिन्न बोली, भाषा, रंगरूप, रहन-सहन, खाना-पान, जलवायु में होने के बावजूद एकी संस्कृति की माला पिरोये हुए हैं। हमारे लोकतंत्र के प्रहरी अपने इस अवसर सपने को परिपक्वता के साथ मजबूत दीवार एवरेस्ट की चोटी से ऊंचा बना लिया है। कई उतार-चढ़ाव आए, आपातकाल भी देखा लेकिन भारत की सार्वभौमिकता बरकरार है। जनतंत्र-गणतंत्र की प्रौढ़ता को हम पार कर रहे हैं लेकिन आम जनता को उसके अधिकार, कर्तव्य, ईमानदारी समझाने में पिछड़े, कमजोर, गैर जिम्मेदार साबित हो रहे हैं। चूंकि स्वयं समझाने वाला प्रत्येक राजनीतिक पार्टियां, नेता स्वयं ही कर्तव्य, ईमानदारी से अछूते, गैर जिम्मेदार हैं।
इसलिए असमानता की खाई गहराती जा रही है और असमानता, गैरबराबरी बढ़ गई है। जबकि बराबरी के आधार पर ही समाज की उत्पत्ति हुई थी। 1947 में गांधी जी, ने भी बराबरी का बात कही थी लेकिन लोलुप अमानवीयता की हदें पार कर जनतंत्र-गणतंत्र को रौंद रहे हैं।  यही वह दिन है जब जनवरी 1930 में लाहौर ने पंडित जवाहर लाल नेहरु ने तिरंगे को फहराया था और स्‍वतंत्र भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना की घोषणा की गई थी। 26 जनवरी 1950 वह दिन था जब भारतीय गणतंत्र और इसका संविधान प्रभावी हुए। यही वह दिन था जब 1965 में हिन्‍दी को भारत की राजभाषा घोषित किया गया।

गणतंत्र दिवस के जश्न का सफर कई दौर से गुजरा है। कभी राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बग्घी में बैठकर परेड में हिस्सा लेने पहुंचते थे। एक दौर ऐसा भी आया जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद परेड की अगुवाई की। पहले 5 साल तक तो यही तय नहीं था कि गणतंत्र दिवस समारोह कहां मनाया जाए। 1955 से तय हुआ कि परेड राजपथ से निकलेगी और लालकिले तक जाएगी। आजादी के बाद तत्कालीन गवर्नर सी. राजगोपालाचारी ने सुबह 10 बजकर 18 मिनट पर भारत को गणराज्य घोषित किया। छह मिनट के भीतर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। गणतंत्र दिवस समारोह पहले से तय था। दोपहर 2 बजकर 30 मिनट पर राजेंद्र बाबू बग्घी में सवार होकर गवर्मेंट हाउस (राष्ट्रपति भवन) से निकले। कनॉट प्लेस जैसे नई दिल्ली के इलाकों का चक्कर लगाते हुए 3 बजकर 45 मिनट पर पुराने किले के पास स्थित नेशनल स्टेडियम पहुंचे। यह मैदान तब इरविन स्टेडियम कहलाता था। राजेंद्र बाबू जिस शाही बग्घी में सवार हुए थे वह 35 साल पुरानी थी। छह ऑस्ट्रेलियाई घोड़े उनकी बग्घी को खींच रहे थे। पहले समारोह के लिए प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो को न्यौता दिया था। परेड स्थल पर राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू को शाम के वक्त 31 तोपों की सलामी दी गई थी।
इस अवसर के महत्‍व को दर्शाने के लिए हर वर्ष गणतंत्र दिवस पूरे देश में बड़े उत्‍साह के साथ मनाया जाता है, और राजधानी, नई दिल्‍ली में राष्‍ट्र‍पति भवन के समीप रायसीना पहाड़ी से राजपथ पर गुजरते हुए इंडिया गेट तक और बाद में ऐतिहासिक लाल किले तक शानदार परेड का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंडिया गेट पर अमर जवान ज्‍योति पर पुष्‍प अर्पित करने के साथ आरंभ होता है, जो उन सभी सैनिकों की स्‍मृति में है जिन्‍होंने देश के लिए अपने जीवन कुर्बान कर दिए। इसे शीघ्र बाद 21 तोपों की सलामी दी जाती है, राष्‍ट्रपति महोदय द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया जाता है और राष्‍ट्रीय गान होता है। इस प्रकार परेड आरंभ होती है।
महामहिम राष्‍ट्रपति के साथ एक उल्‍लेखनीय विदेशी राष्‍ट्र प्रमुख आते हैं, जिन्‍हें आयोजन के मुख्‍य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है। राष्‍ट्रपति महोदय के सामने से खुली जीपों में वीर सैनिक गुजरते हैं। भारत के राष्‍ट्रपति, जो भारतीय सशस्‍त्र बल, के मुख्‍य कमांडर हैं, विशाल परेड की सलामी लेते हैं। भारतीय सेना द्वारा इसके नवीनतम हथियारों और बलों का प्रदर्शन किया जाता है जैसे टैंक, मिसाइल, राडार आदि। इसके शीघ्र बाद राष्‍ट्रपति द्वारा सशस्‍त्र सेना के सैनिकों को बहादुरी के पुरस्‍कार और मेडल दिए जाते हैं जिन्‍होंने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व साहस दिखाया और ऐसे नागरिकों को भी सम्‍मानित किया जाता है जिन्‍होंने विभिन्‍न परिस्थितियों में वीरता के अलग-अलग कारनामे किए। इसके बाद सशस्‍त्र सेना के हेलिकॉप्‍टर दर्शकों पर गुलाब की पंखुडियों की बारिश करते हुए फ्लाई पास्‍ट करते हैं। सेना की परेड के बाद रंगारंग सांस्‍कृतिक परेड होती है। विभिन्‍न राज्‍यों से आई झांकियों के रूप में भारत की समृद्ध सांस्‍कृतिक विरासत को दर्शाया जाता है। प्रत्‍येक राज्‍य अपने अनोखे त्‍यौहारों, ऐतिहासिक स्‍थलों और कला का प्रदर्शन करते है। यह प्रदर्शनी भारत की संस्‍कृति की विविधता और समृद्धि को एक त्‍यौहार का रंग देती है।
विभिन्‍न सरकारी विभागों और भारत सरकार के मंत्रालयों की झांकियां भी राष्‍ट्र की प्र‍गति में अपने योगदान प्रस्‍तुत करती है। इस परेड का सबसे खुशनुमा हिस्‍सा तब आता है जब बच्‍चे, जिन्‍हें राष्‍ट्रीय वीरता पुरस्‍कार हाथियों पर बैठकर सामने आते हैं। पूरे देश के स्‍कूली बच्‍चे परेड में अलग-अलग लोक नृत्‍य और देश भक्ति की धुनों पर गीत प्रस्‍तुत करते हैं। परेड में कुशल मोटर साइकिल सवार, जो सशस्‍त्र सेना कार्मिक होते हैं, अपने प्रदर्शन करते हैं। परेड का सर्वाधिक प्रतीक्षित भाग फ्लाई पास्‍ट है जो भारतीय वायु सेना द्वारा किया जाता है। फ्लाई पास्‍ट परेड का अंतिम पड़ाव है, जब भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान राष्‍ट्रपति का अभिवादन करते हुए मंच पर से गुजरते हैं। राज्‍यों में होने वाले आयोजन अपेक्षाकृत छोटे स्‍तर पर होते हैं और ये सभी राज्‍यों की राजधानियों में आयोजित किए जाते हैं। यहां राज्य के राज्‍यपाल तिरंगा झंडा फहराते हैं। समान प्रकार के आयोजन जिला मुख्‍यालय, उप संभाग, तालुकों और पंचायतों में भी किए जाते हैं।
गणतंत्र दिवस का आयोजन कुल मिलाकर तीन दिनों का होता है और 27 जनवरी को इंडिया गेट पर इस आयोजन के बाद प्रधानमंत्री की रैली में एनसीसी केडेट्स द्वारा विभिन्‍न चौंका देने वाले प्रदर्शन और ड्रिल किए जाते हैं। सात क्षेत्रीय सांस्‍कृतिक केन्‍द्रों के साथ मिलकर संस्‍कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा हर वर्ष 24 से 29 जनवरी के बीच ‘’लोक तरंग - राष्‍ट्रीय लोक नृत्‍य समारोह’’ आयोजित किया जाता है। इस आयोजन में लोगों को देश के विभिन्‍न भागों से आए रंग बिरंगे और चमकदार और वास्‍तविक लोक नृत्‍य देखने का अनोखा अवसर मिलता है।
बीटिंग द रिट्रीट गणतंत्र दिवस आयोजनों का आधिकारिक रूप से समापन घोषित करता है। सभी महत्‍वपूर्ण सरकारी भवनों को 26 जनवरी से 29 जनवरी के बीच रोशनी से सुंदरता पूर्वक सजाया जाता है। हर वर्ष 29 जनवरी की शाम को अर्थात गणतंत्र दिवस के बाद अर्थात गणतंत्र की तीसरे दिन बीटिंग द रिट्रीट आयोजन किया जाता है। यह आयोजन तीन सेनाओं के एक साथ मिलकर सामूहिक बैंड वादन से आरंभ होता है जो लोकप्रिय मार्चिंग धुनें बजाते हैं। ड्रमर भी एकल प्रदर्शन (जिसे ड्रमर्स कॉल कहते हैं) करते हैं। ड्रमर्स द्वारा एबाइडिड विद मी (यह महात्‍मा गांधी की प्रिय धुनों में से एक कहीं जाती है) बजाई जाती है और ट्युबुलर घंटियों द्वारा चाइम्‍स बजाई जाती हैं, जो काफी दूरी पर रखी होती हैं और इससे एक मनमोहक दृश्‍य बनता है। इसके बाद रिट्रीट का बिगुल वादन होता है, जब बैंड मास्‍टर राष्‍ट्रपति के समीप जाते हैं और बैंड वापिस ले जाने की अनुमति मांगते हैं। तब सूचित किया जाता है कि समापन समारोह पूरा हो गया है। बैंड मार्च वापस जाते समय लोकप्रिय धुन ‘’सारे जहां से अच्‍छा बजाते हैं। ठीक शाम 6 बजे बगलर्स रिट्रीट की धुन बजाते हैं और राष्‍ट्रीय ध्‍वज को उतार लिया जाता हैं तथा राष्‍ट्रगान गाया जाता है और इस प्रकार गणतंत्र दिवस के आयोजन का औपचारिक समापन होता हैं।
भारत के संविधान को लागू किए जाने से पहले भी 26 जनवरी का बहुत महत्त्व था। 26 जनवरी को विशेष दिन के रूप में चिह्नित किया गया था, 31 दिसंबर सन् 1929 के मध्‍य रात्रि में राष्‍ट्र को स्वतंत्र बनाने की पहल करते हुए लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हु‌आ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की ग‌ई कि यदि अंग्रेज़ सरकार 26 जनवरी, 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। 26 जनवरी, 1930 तक जब अंग्रेज़ सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगे झंडे को फहराया गया था परंतु साथ ही इस दिन सर्वसम्मति से एक और महत्त्वपूर्ण फैसला लिया गया कि प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन सभी स्वतंत्रता सेनानी पूर्ण स्वराज का प्रचार करेंगे। इस तरह 26 जनवरी अघोषित रूप से भारत का स्वतंत्रता दिवस बन गया था। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा।

Friday, 23 January 2015

ऋतुराज के आगमन का प्रथम दिन




वसंत पंचमी या श्रीपंचमी एक त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन स्त्रियाँ पीले वस्त्र धारण करती हैं। वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।
प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों मे सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है।
यह पर्वोत्सव माघ मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि को धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व ऋतुराज वसंत की अगुवानी की सूचना देता है। इस दिन से ही होरी तथा धमार गीत प्रारंभ किए जाते हैं। गेहूं तथा जौ की स्वर्णिम बालियां भगवान को अर्पित की जाती हैं। नर-नारी-बालक बालिकायें सभी वसंती व पीत वस्त्र धारण करते हैं। इस तिथि को श्री पंचमी व श्री सरस्वती जयंती के नाम से भी जाना जाता है। भगवान् विष्णु, माता लक्ष्मी व मां सरस्वती के व्रत पूजन से अभीष्ट कामनायें सिद्ध होकर स्थिर लक्ष्मी व विद्या बुद्धि की प्राप्ति होती है। वसंत पंचमी के आगमन से शरीर में स्फूर्ति व चेतना शक्ति जागृत होती है। बौराए आम्र वृक्षों पर मधुप (भौरे) गुंजार तथा कोयल-कूक मुखरित होने लगती है। गुलाब, मालती आदि में फूल खिल जाते हैं। मंद-सुगंध-शीतल पवन बहने लगती है। इस ऋतु के प्रमुख देवता काम तथा रति हैं अतः वसंत ऋतु कामोद्दीपक होता है। चरक संहिता का कथन है कि इस ऋतु में स्त्रियों तथा वनों का सेवन करना चाहिए। काम तथा रति की विशेष पूजा करनी चाहिए। वेद में कहा गया है कि ‘वसंते ब्राह्मणमुपनयीत’ वेद अध्ययन का भी यही समय था। बालकों को इसी दिन विद्यालय में प्रवेश दिलाना चाहिए। केशर से कांसे की थाली में ‘ऊँ ऐं सरस्वत्यै नमः’ मंत्र को नौ बार लिखकर थाली में गंगाजल डालकर जब लिखित मंत्र पूर्णतया गंगाजल में घुल जाय तो उस जल को मंद बुद्धि बालक को पिला देने से उसकी बुद्धि प्रखर होती है। माघ शुक्ल पूर्वविद्धा पंचमी को उत्तम वेदी पर नवीन पीत वस्त्र बिछाकर अक्षतों का अष्टदल कमल बनायें। उसके अग्रभाग में गणेश जी और पृष्ठ भाग में ‘वसंत’ जौ, गेहूं की बाल का पुंज (जो जलपूर्ण कलश में डंठल सहित रखकर बनाया जाता है) स्थापित करके सर्वप्रथम गणेशजी का पूजन करें, पुनः उक्त पुंज में रति और कामदेव का पूजन करें। उन पर अबीर आदि के पुष्पोपम छींटे लगाकर वसंत सदृश बनाएं। तत्पश्चात् ‘शुभा रतिः प्रकर्तव्या वसन्तोज्ज्वल भूषणा। नृत्यमाना शुभा देवी समस्ताभरणैर्युता।। वीणावादनशीला च मदकर्पूरचर्चिता’ से ‘रति’ का और कामदेवस्तु कर्तव्यो रूपेणाप्रतिमों भुवि। अष्टबाहुः स कर्तव्यः शंखपद्म विभूषणः ।। चापबाणकरश्चैव मदादंचितलोचनः। रतिः प्रीतिस्तथा शक्तिर्मदशक्तिस्त - थोज्ज्वला।। चतस्त्रस्तस्य कर्तव्याः पत्न्यो रूपमनोहराः। चत्वारश्च करास्तस्य कार्या भार्यास्तनोपगाः।। केतुश्च मकरः कार्यः पंचबाण मुखो महान्।’ से कामदेव का ध्यान करके विविध प्रकार के फल, पुष्प और पत्रादि समर्पण करंे तो गृहस्थ जीवन सुखमय होकर प्रत्येक कार्य में उत्साह प्राप्त होता है। वसंत ऋतु रसों की खान है और इस ऋतु में वह दिव्य रस उत्पन्न होता है जो जड़-चेतन को उन्मत्त करता है। इसकी कथा इस प्रकार है- भगवान् विष्णु की आज्ञा से प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि रचना की। स्वयं के सृष्टि रचना कौशल को जब इस संसार में ब्रह्माजी ने नयन भरके देखा तो चहुं ओर सुनसान निर्जनता ही दिखायी दी। उदासी से संपूर्ण वातावरण मूक सा हो गया था जैसे किसी के वाणी ही न हो। इस दृश्य को देखकर ब्रह्माजी ने उदासी तथा सूनेपन को दूर करने हेतु अपने कमंडल से जल छिड़का। उन जलकणों के पड़ते ही वृक्षों से एक शक्ति उत्पन्न हुई जो दोनों हाथों से वीणा बजा रही थी तथा दो हाथों में क्रमशः पुस्तक तथा माला धारण किए थी। ब्रह्माजी ने उस देवी से वीणा बजाकर संसार की उदासी, निर्जनता, मूकता को दूर करने को कहा। तब उस देवी ने वीणा के मधुर-मधुर नाद (ध्वनि) से सब जीवों को वाणी प्रदान की, इसीलिए उस अचिन्त्य रूप लावण्य की देवी को सरस्वती कहा गया। यह देवी विद्या बुद्धि को देने वाली है। अतः इस दिन- ध्यान: या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृत्ता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्मासना।। या ब्रह्मच्युतशंकराप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाडय्यापहा।। तथा ‘ऊँ वीणा पुस्तक धारिण्यै श्री सरस्वत्यै नमः’ इस नाम मंत्र से गंधादि उपचारों द्वारा षोडशोपचार पूजन करें। संसार में माता सरस्वती का स्वरूप हंसवाहिनी-वीणा वादिनी के रूप में है जहां ये विद्या, कला, संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री महादेवी हैं। वहीं अष्टमुखी महासरस्वती के रूप में संपूर्ण सृष्टि का आधार और निराकार ब्रह्म का साकार रूप भी आप ही हैं। आद्यशक्ति माता ने भगवती दुर्गा का रूप धारण करने से पहले ज्ञान, कला, साहित्य और संगीत मां आधिष्ठात्री देवी सरस्वती का ही रूप धारण किया था। दुर्गा सप्तशती के अनुसार दूसरे मनु के राज्यकाल में एक बार सुरथ नामक राजा और समाधि नामक वैश्य महाऋषि मेधा के आश्रम में गये। राजा का राज्य छिन गया था और वैश्य को स्त्री, पुत्रों ने घर से निकाल दिया था। उनके दुखों का कारण और निवारण के लिए वे महाऋषि के पास आये थे। महाऋषि ने उर दिया कि बड़े-बड़े ज्ञानी इस मोह जाल में फंस जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति योग निद्रा व्यक्तियों को मोह में जकड़ती है। भगवती भवानी जिस पर कृपा करती है वे इस मोह से बच जाते हैं और अंत में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। भगवान विष्णु भी जब प्रलय काल के समय योग निद्रा के वशीभूत होकर निष्क्रिय हो जाते हैं तब भगवती ही उन्हें जगाकर देवताओं की रक्षा के लिए प्रेरित करती है। महर्षि मेधा ने कहा- प्राचीन समय में शुंभ और निशुंभ नामक दो राक्षस भाइयों ने देवताओं से स्वर्ग और देवराज इंद्र से उनका आसन तक छीन लिया, देवताओं से सभी अधिकार छीनने के बाद देवता श्रीहीन होकर भूमंडल पर भटकने लगे। सभी देवी-देवता जानते थे कि उन्हें इन राक्षसों से केवल योगमाया ही बचा सकती है। सभी देवी-देवता हिमालय पर्वत पर जाकर तरह-तरह से माता की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर माता पार्वती जी ने दर्शन दिये और उन्होंने देवताओं की पुकार पर अपने शरीर कोष से भगवती अम्बा का प्रादुर्भाव किया। पार्वती मां के शरीर कोष से प्रकट होने के कारण उनका एक नाम कौशिकी है तो परमतेजोमय सारस्वत रूप होने के कारण एक और दूसरा नाम महासरस्वती भी है। भगवती अंबिका सोलह वर्षीय सरस्वती जी का रूप धारण करके एक पर्वत शिखर पर तपस्या करने बैठ गयीं। शंभ निशुंभ के दूतों ने आकर देखा और माता के रूप की प्रशंसा उन दैत्य राजाओं से की। शंभ निशंभ ने पहले दूतों को और फिर सारी सेना को देवी को पकड़ने के लिए भेजा, सेना के मारे जाने पर शंुभ निशंभ स्वयं आये और देवी द्वारा मारे गये। दुर्गा सप्तशती में इसका विस्तार पूर्वक वर्णन है। परंतु संक्षेप में केवल इतना ही समझ लें कि माता महासरस्वती ही दुर्गा भी हैं और महाकाली भी तथा निराकार रूप में भगवती योग माया भी आप ही हैं। मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गा-चरित में माता दुर्गा के एक रूप में माता सरस्वती हैं इसलिए सरस्वती के बिना दुर्गा पूजा सम्पन्न नहीं होती। शास्त्रों में ऐसा भी वर्णित मिलता है कि मातेश्वरी सरस्वती जी के जगत् पिता ब्रह्माजी से तीन संबंध है। ये तीनों संबंध न केवल पूरी तरह अलग-अलग हैं बल्कि परस्पर विरोधी भी हैं। सभी देवों की उत् होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तथा सभी देवताओं और चराचर जीव जगत की माता हैं। वीणा वादिनी और हंस वाहिनी रूप में ब्रह्मा जी की पुत्री हैं। इसके साथ ही शक्तिरूप में आप ब्रह्मा जी की अद्र्धांगिनी भी हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में कहीं ब्रह्मा जी की माता, कहीं पुत्री और कहीं भार्या कहा गया है। शास्त्रों में यह भी वर्णन मिलता है कि सृष्टि के प्रारंभ में भगवान विष्णु की तीन पत्नियां महालक्ष्मी, सरस्वतीजी और गंगाजी थीं। सौतनं होने के कारण आपस में झगड़ा होता था। एक बार इसी झगड़े ने विशाल रूप लिया और एक-दूसरे को श्राप दे दिया। श्राप के कारण सरस्वती और गंगा नदी के रूप में और महालक्ष्मीजी तुलसी के रूप में इस देव भूमि भारत में अवतरित हुईं। बाद में सागर-मंथन के समय सागर से प्रकट हुई लक्ष्मीजी को भगवान विष्ण् ने भार्या के रूप में ग्रहण किया। तीर्थ राज प्रयाग से लुप्त होकर सरस्वती के बैकुण्ठ पहंचने पर श्री हरि ने जगद्पिता की पत्नी बनने हेतु ब्रह्मा जी के निकट भेज दिया। गंगा जी तो पहले ही भगवान शिव की जटाओं में हैं। ऐसी कथायें शास्त्रों में प्रचलित हैं। माता सरस्वती के अलग-अलग स्वरूप हैं। सभी मातृ शक्तियां महासरस्वती का ही विभिन्न स्वरूप हैं। यही कारण है कि बंगाल और पूर्वी भारत के अन्य राज्यों में दुर्गा के समान ही सरस्वती जी की भी सामूहिक पुजाओं के भी भव्य आयोजन होते हैं। वहां काली के साथ ही सरस्वती की भी पूजा की जाती है। माता सरस्वती के अधिकांश मंदिर हमारे देश में नहीं हैं। शायद यही कारण है कि माता सरस्वती के सारे भक्त घर में किसी पवित्र स्थान पर मातेश्वरी की मूर्ति अथवा चित्र लगाकर पूजा-आराधना करते हैं। वैसे तो दुर्गा पूजा के साथ-साथ सरस्वती पूजन तो होता ही है। लेकिन माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती पूजन का विधान है। भगवान विष्णु तथा सरस्वती जी की मूर्ति या तस्वीर को स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य व गुलाल के साथ पूजा करनी चाहिए। मीठे-चावलों का भोग लगाने की परंपरा है। सबसे पहले पंचोपचार पूजा में मातेश्वरी सरस्वती जी तथा भगवान विष्णु का चित्र लगाकर, समीप ही चंद पानी की बूंदें भूमि पर गिराते हैं या धातु की मूर्ति लगाकर जल से स्नान करवा के वस्त्र आदि अर्पण करते हैं। फिर चंदन और सिंदूर तिलक लगाते हैं और नैवेद्य आदि अर्पण करते हैं। फिर पुष्प अर्पित करने के बाद धूप, दीप जलाकर आरती की जाती है। फिर दशोपचार पूजा का विधान है। जैसे चरणों को पखारना, अघ्र्य, (जल चढ़ाना) आचमन स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, चंदन लगाना, चावल चढ़ाना, पुष्प इत्यादि अर्पण करना, धूप दीप जलाना, आरती करना, भोग लगाना यह दशोपचार पूजा है। अगले चरण में षोड्शोपचार पूजा की जाती है। सर्वप्रथम स्वस्तिवाचन से गणेश वंदना तक करने के बाद आराध्य देवी सरस्वती और भगवान विष्णु को आसन समर्पित करते हैं। फिर मंत्र उच्चारण करते हुए वस्तुएं समर्पित की जाती हैं। स्नान हेतु श्रद्धा अनुसार दूध, दही, शहद, घृत, शक्कर, गंगा जल का प्रयोग किया जाता है। धातु की प्रतिमा, चित्र या तस्वीर है तो अलग से किसी बर्तन में अपनी भावना से दूध, दही, शहद, घृत, शक्कर, गंगाजल दिखाकर भूमि पर गिरा देना चाहिए उसके बाद वस्त्र समर्पित करने के बाद लाल चंदन के साथ-साथ केसर कुंकुम भी प्रयोग में लाये जाते हैं। संपूर्ण शृंगार करने के बाद धूप, दीप, नैवेद्य समर्पण करके प्रदक्षिणा की जाती है। फिर ताम्बूल, पुंगी फल (पान-सुपारी) के साथ दक्षिणा भी समर्पित की जाती है। पुष्प इत्यादि चढ़ाकर धूप-, दीप, आरती करके नमस्कार स्तुति करके चालीसा, मंत्रों तथा आरती द्वारा पूजा की जाती है फिर क्षमायाचना इत्यादि की जाती है। षोड्शोपचार में ध्यान, आह्नान, आसन, पाद्य, अघ्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत व आभूषण, गंध (चंदन-केसर), पुष्प समर्पण, अंग-पूजा, अर्चना, धूप, दीप, नैवेद्य एवं फल, तांबूल, दक्षिणा, आरती आदि प्रदक्षिणा, पुष्पांजलि, नमस्कार, स्तुति, जप इत्यादि करने के बाद अगले दिन सुबह मूर्ति को किसी पवित्र नदी पर ले जाते हैं और क्षमा याचना करके विशेष अघ्र्य देकर, जल आरती की जाती है। उसके बाद विसर्जन कर दिया जाता है।

Tuesday, 13 January 2015

खुषियों का पर्व है मकर संक्रांति



हर वर्ष 14 या 15 जनवरी को मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। जिस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है, उस दिन मकर संक्रांति मनाई जाती है। इस वर्ष 14 जनवरी की शाम को सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर रहा है, इस कारण 14 नहीं, 15 जनवरी को मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाना चाहिए। इस संबंध में पंचांग भेद भी हैं। प्राचीन परंपराओं के अनुसार इन दिन दान और नदी स्नान का विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि जो लोग संक्रांति पर दान करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और दुख-दर्द से छुटकारा मिलता है।
रंग-बिरंगी पतंगों से सजा खिला-खिला आकाश, उत्तरायण में खिलते नारंगी सूर्य देवता, तिल-गुड़ की मीठी-भीनी महक और दान-पुण्य करने की उदार धर्मपरायणता। यही पहचान है भारत के अनूठे और उमंग भरे पर्व मकर संक्रांति की। मकर संक्रांति यानी सूर्य का दिशा परिवर्तन, मौसम परिवर्तन, हवा परिवर्तन और मन का परिवर्तन। ये पतंगे जीवन के सरल-कठिन पेंच सिखाती है। रिश्तों में इतनी ढील ना रहे कि सामने वाला लहराता ही रहे और ना ही इतनी खींचतान या तनाव कि वह आगे बढ़ ही न सके। ये पतंगे उन्नति, उमंग और उल्लास का लहराता प्रतीक है। ये पतंगे बच्चों की किलकती-चहकती खुशियों का सबब है। ये पतंगे आसमान को छू लेने का रंगों भरा हौसला देती है। ये पतंगे ही तो होती है जो सिर पर तनी मायावी छत को जी भर कर देख लेने का मौका देती है वरना रोजमर्रा के कामों में भला कहां फुरसत कि ऊंचे गगन को बैठकर निहारा जाए?
मकर संक्रान्ति पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है क्योंकि इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं।
सम्पूर्ण भारत में मकर संक्रान्ति विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। विभिन्न प्रान्तों में इस त्योहार को मनाने के जितने अधिक रूप प्रचलित हैं उतने किसी अन्य पर्व में नहीं। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व १३ जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। बहुएँ घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी माँगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारम्परिक मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द भी उठाया जाता है
उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से 'दान का पर्व' है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। १४ जनवरी से ही इलाहाबाद में हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी तक का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। एक समय था जब उत्तर भारत में है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी तक पूरे एक महीने किसी भी अच्छे काम को अंजाम भी नहीं दिया जाता था। मसलन शादी-ब्याह नहीं किये जाते थे परन्तु अब समय के साथ लोगबाग बदल गये हैं। परन्तु फिर भी ऐसा विश्वास है कि १४ जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से पृथ्वी पर अच्छे दिनों की शुरुआत होती है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन स्नान के बाद दान देने की भी परम्परा है।बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा-स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े-बड़े मेले लगते है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्व होता है।
मकर संक्रांति के दिन लोग खिचड़ी बनाते हैं और सूर्य देव को खिचड़ी प्रसाद स्वरूप अर्पित करते हैं। सूर्य देव भी इस दिन भक्तों से प्राप्त खिचड़ी का स्वाद बड़े आनंद से लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों न हो, इस दिन खिचड़ी बनाने और इसे ही प्रसाद स्वरूप देवाताओं को अर्पित करने की परंपरा शुरू करने वाले भगवान शिव जो माने जाते हैं। खिचड़ी की बात सुनकर अगर आपको पिछले साल की खिचड़ी याद आ रही है तो हो सकता है कि मुंह में पानी आ गया हो। साल भर में आपने भले ही कितनी ही बार खिचड़ी खायी हो लेकिन मकर संक्रांति जैसी खिचड़ी का स्वाद आपको सिर्फ मकर संक्रांति के मौक पर ही मिल सकता है। मान्यता है कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा की शुरूआत हुई। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। खिचड़ी बनने की परंपरा को शुरू करने वाले बाबा गोरखनाथ थे। बाबा गोरखनाथ को भगवान शिव का अंश भी माना जाता है। कथा है कि खिलजी के आक्रमण के समय नाथ योगियों को खिलजी से संघर्ष के कारण भोजन बनाने का समय नहीं मिल पाता था। इससे योगी अक्सर भूखे रह जाते थे और कमज़ोर हो रहे थे।

शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ठ होता है-

माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥

Wednesday, 7 January 2015

जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए सोचना है


महात्मा गांधी को हमारे आदर्श हैं।  यदि यह कहा जाय कि  महात्मा गांधी ने किसी नए दर्शन की रचना नहीं की है वरन् उनके विचारों का जो दार्शनिक आधार है, वही गांधी दर्शन है, तो गलत नहीं होगा।  ईश्वर की सत्ता में विश्वास करनेवाले भारतीय आस्तिक के ऊपर जिस प्रकार के दार्शनिक संस्कार अपनी छाप डालते हैं वैसी ही छाप गांधी जी के विचारों पर पड़ी हुई है। वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। किसी गंभीर रहस्यवाद में न पड़कर वे यह मान लेते हैं कि शिवमय, सत्यमय और चिन्मय ईश्वर सृष्टि का मूल है और उसने सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन से की है। वे ऐसे देश में पैदा हुए जिसने चैतन्य आत्मा की अक्षुण और अमर सत्ता स्वीकार की है। वे उस देश में पैदा हुए जिसमें जीवन, जगत सृष्टि और प्रकृति के मूल में एकमात्र अविनश्वर चेतन का दर्शन किया गया है और सारी सृष्टि की प्रक्रिया को भी सप्रयोजन स्वीकार किया गया है। उन्होंने यद्यपि इस प्रकार के दर्शन की कोई व्याख्या अथवा उसकी गूढ़ता के विषय में कहीं विशद और व्यवस्थित रूप से कुछ लिखा नहीं है, पर उनके विचारों का अध्ययन करने पर उनकी उपर्युक्त दृष्टि का आभास मिलता है। उनका वह प्रसिद्ध वाक्य है-- जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है।
 वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोजगारी, महंगाई तथा तनावपूर्ण वातावरण में आज बार-बार यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि गांधी के सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों की आज कितनी प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। यूं तो गांधीवाद का विरोध करने वालों ने जिनमें दुर्भाग्यवश और किसी देश के लोग नहीं बल्कि अधिकांशतयरू केवल भारतवासी ही शामिल हैं, ने गांधी के विचारों की प्रासंगिकता को तब भी महसूस नहीं किया था जबकि वे जीवित थे। गांधी से असहमति के इसी उन्माद ने उनकी हत्या तो कर दी परन्तु आज गांधी के विचारों से मतभेद रखने वाली उन्हीं शक्तियों को भली-भांति यह महसूस होने लगा है कि गांधी अपने विरोधियों के लिए दरअसल जीते जी उतने हानिकारक नहीं थे जितना कि हत्या के बाद साबित हो रहे हैं। और इसकी वजह केवल यही है कि जैसे-जैसे विश्व हिंसा, आर्थिक मंदी, भूख, बेरोजगारी और नफरत जैसे तमाम हालात में उलझता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनिया को न केवल गांधी के दर्शन याद आ रहे हैं बल्कि गांधीदर्शन को आत्मसात करने की आवश्यकता भी बड़ी शिद्दत से महसूस की जाने लगी है।
दरअसल सर्वधर्म सम्भाव की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले गांधी जी मानते थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का सम्पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजी भी अहिंसा की बात उस समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी। आनंद कुमार बताते हैं कि अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्घान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्यङक्त -श्कर्म किए जा, फल की चिंता मत करश् की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। आनंद कुमार ने कहा कि आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशतयः सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं। बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़े मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस श्शॉर्टकटश् अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में साम्प्रदायिकता फल फूल रही है। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्यम्भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं साम्प्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। अब तो भारत के एक राज्य विशेष के कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग पूरे उत्तर भारतीयों के विरुद्घ नफरत के बीज बो रहे हैं। दरअसल यह इनके द्वारा किया जाने वाला कर्म नहीं है। बल्कि राज सत्ता रूपी फल फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विषयान्ध जैसी हो चुकी है। और एक विषयान्ध व्यक्ति नीतियों, सिद्घान्तों यहां तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य को अजिर्त करने के लिए निमन् से निमन् स्तर तक के .फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।
गांधी जी के विचारधाराओं से प्रभावित होकर कांग्रेस का एक सिपाही बनने का मन बनाया। उसके बाद से श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी ने जो भी जिम्मेदारी पार्टी में दी, उसे निभाया। आज भी पार्टी के नेताओं द्वारा दी गई हर जिम्मेदारियों का बेहतर निर्वहन करता हूं। सार्वजनिक जीवन में कथनी और करनी में एका होना चाहिए। इसके लिए सदैव तत्पर रहता हूं। जीवन की सार्थकता स्वयं से हटकर दूसरों के लिए सोचना भी है। यह संदेश यदि फलों से लदे वृक्ष, फूलों से लटकती डालियाँ दे सकती हैं तो फिर मनुष्य क्यों नहीं। तुलसीदासजी ने भी रामचरित मानस में कहा है- श्परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाईश्। समाजसेवा को जीवन में अंगीकार करने के लिए संवेदनशीलता जरूरी है। समाजसेवा फूल की सुगंध की तरह होती हैं, जिससे देश सुंदर और समृद्ध बन सकेगा।

Friday, 2 January 2015

पूंजीपतियों के दबाब में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश



उद्योगों और अवस्थापना परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को ज्यादा सरल बनाने के लिए केंद्र सरकार ने अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण पुनर्वास एवं मुआवजा अधिनियम-2013 में जो बदलाव किए हैं, उनसे मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून अब बेहद नरम हो जाएगा। हालांकि भाजपा की किसान राजनीति के दबाव को देखते हुए भूस्वामियों (किसानों) को जमीन अधिग्रहण के बदले दिए जाने वाले मुआवजे के प्रावधानों में कोई बदलाव न करके सरकार ने किसान हितों की सुरक्षा का संदेश जरूर दिया है, लेकिन पीपीपी की खिड़की के जरिए सरकार ने निजी क्षेत्र को किसानों की जमीन लेने के सारे रास्ते खोल दिए हैं। यूपीए सरकार के दौरान संसद में भाजपा सहित सभी दलों की सहमति से 2013 में जो भूमि अधिग्रहण कानून पारित किया गया था उसमें सरकारी या गैर सरकारी किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए संबंधित क्षेत्र के भूस्वामियों की कुल आबादी के 70 फीसदी लोगों की सहमति अनिवार्य बनाया गया। लेकिन अध्यादेश में पांच क्षेत्रों औद्योगिक गलियारा, राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण अवस्थापना विद्युतीकरण और सामाजिक अवस्थापना के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) की परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए भूस्वामियों के 70 फीसदी हिस्से की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है।
अध्यादेश के मुताबिक सरकार अब जमीन अधिग्रहण करके पीपीपी के लिए निजी क्षेत्र को जमीन दे सकती है, हालांकि स्वामित्व सरकार का ही रहेगा, लेकिन नियंत्रण और उपयोग परियोजना चलाने वाली कंपनी के पास होगा। कानून में किसानों की सिंचित कृषि भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाई गई है, लेकिन अध्यादेश ने अब इसे खत्म कर दिया है। उक्त पांच क्षेत्रों के लिए सिंचित और बहु फसलों वाली हरित भूमि का भी अधिग्रहण हो सकेगा। अध्यादेश के जरिए लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करके किसानों को झटका दिया है। इससे सरकार ने पीपीपी के जरिए उद्योगपतियों के लिए किसानों की कृषि भूमि लेने के रास्ते फिर खोल दिए हैं।