Wednesday, 19 August 2015

अविस्मरणीय है राजीव गॉंधी



देश ने विकास के नये आयाम को स्व- राजीव गॉंधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में छुआ और अपने अहम निर्णयों से भारत को विश्व के शिखर पर पहुंचा दिया। अपने कार्यकाल में राजीव गॉंधी ने संचार क्रांति, पंचायती राज की स्थापना के क्षेत्र में निर्णय लेकर देश को विकास के पथ पर अग्रसर किया, इसके साथ ही उस समय पंजाब, नॉर्थ इस्ट के क्षेत्र में उत्पन्न हुयी विषम परिस्थितियों से निबटने के लिये कई समझौतों को अमली जामा पहनाया। पंजाब में दशकों से चल रहे आतंकवाद को समाप्त कर विकास की नयी परिभाषा तैयार की। राजीव गॉंधी ने देश के विकास में युवा वर्ग को भागीदार बनाने हेतु चुनाव में मदतान की आयु सीमा 18 र्व ा करने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसमें आज भी युवा वर्ग प्रभावित है।
राजीव गॉंधी का व्यक्तित्व सम्मोहक था, उनकी कार्यशैली विश्वास जागृत करती थी, वे प्रेरणा के स्तम्भ रहे, पॉंच साल के प्रधानमंत्रीत्वकाल में स्व. राजीव गॉंधी ने देश की राजनीति को जो मोड़ दिया उससे 21वीं सदी के भारत की परिकल्पना के साथ देशवासियों का साक्षात्कार हुआ। स्व. राजीव गॉंधी का विश्वास सत्ता प्राप्ति से ज्यादा विकास पर केन्द्रित रहा, संचार क्रांति के अग्रदूत के रूप में उनकी भूमिका सदैव अविस्मरणीय रहेगी।
भारत की विदेश नीति के क्षेत्र में जो पहल की उससे देश को विश्व पटल पर मजबूती मिली, उनके शासनकाल में हुए संविधान संशोधनों के माध्यम से पंचायत राज संस्थाओं का सशक्तीकरण किया गया, सूचना प्रौद्योगिकी के नये आयाम स्थापित हुए, उनके विचारों का उस समय विरोध करने वाले आज संचार क्रांति के सबसे बड़े हिमायती बनने का ढोंग रच रहे हैं। भारत की अधिकांश आबादी मोबाईल फोन का इस्तेमाल कर रही है, चंद रूपयों में देश-विदेश में आसानी से बात की जा सकती है। आईटी के क्षेत्र में भारत 100 बिलियन डॉलर का निर्यात करता है, यह स्व. राजीव गॉंधी की ही कल्पना थी, जिसमें इन्टरनेट पर हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल को भी सार्थक बना दिया। स्व. राजीव गॉंधी की कूटनीति, कौशल विकास व सूचना प्रौद्योगिकी की दूरगामी सोच का ही नतीजा है कि देश आज विश्व शक्ति के रूप में उभर रहा है।
राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त 1944 को बम्बई में हुआ था। वे सिर्फ तीन वर्ष के थे जब भारत स्वतंत्र हुआ और उनके दादा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। उनके माता-पिता लखनऊ से नई दिल्ली आकर बस गए। उनके पिता फिरोज गांधी सांसद बने एवं जिन्होंने एक निडर तथा मेहनती सांसद के रूप में ख्याति अर्जित की। राजीव गांधी ने अपना बचपन अपने दादा के साथ तीन मूर्ति हाउस में बिताया जहाँ इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की परिचारिका के रूप में कार्य किया। वे कुछ समय के लिए देहरादून के वेल्हम स्कूल गए लेकिन जल्द ही उन्हें हिमालय की तलहटी में स्थित आवासीय दून स्कूल में भेज दिया गया। वहां उनके कई मित्र बने जिनके साथ उनकी आजीवन दोस्ती बनी रही। बाद में उनके छोटे भाई संजय गाँधी को भी इसी स्कूल में भेजा गया जहाँ दोनों साथ रहे। स्कूल से निकलने के बाद श्री गाँधी कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए लेकिन जल्द ही वे वहां से हटकर लन्दन के इम्पीरियल कॉलेज चले गए। उन्होंने वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।
यह तो स्पष्ट था कि राजनीति में अपना करियर बनाने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। उनके सहपाठियों के अनुसार उनके पास दर्शन, राजनीति या इतिहास से संबंधित पुस्तकें न होकर विज्ञान एवं इंजीनियरिंग की कई पुस्तकें हुआ करती थीं। हालांकि संगीत में उनकी बहुत रुचि थी। उन्हें पश्चिमी और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय एवं आधुनिक संगीत पसंद था। उन्हें फोटोग्राफी एवं रेडियो सुनने का भी शौक था। हवाई उड़ान उनका सबसे बड़ा जुनून था। अपेक्षानुसार इंग्लैंड से घर लौटने के बाद उन्होंने दिल्ली फ्लाइंग क्लब की प्रवेश परीक्षा पास की एवं वाणिज्यिक पायलट का लाइसेंस प्राप्त किया। जल्द ही वे घरेलू राष्ट्रीय जहाज कंपनी इंडियन एयरलाइंस के पायलट बन गए। कैम्ब्रिज में उनकी मुलाकात इतालवी सोनिया मैनो से हुई थी जो उस समय वहां अंग्रेजी की पढ़ाई कर रही थीं। उन्होंने 1968 में नई दिल्ली में शादी कर ली। वे अपने दोनों बच्चों, राहुल और प्रियंका के साथ नई दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी के निवास पर रहे। आस-पास राजनीतिक गतिविधियों की ऐसी हलचल के बावजूद वे अपना निजी जीवन जीते रहे। लेकिन 1980 में एक विमान दुर्घटना में उनके भाई संजय गाँधी की मौत ने सारी परिस्थितियां बदल कर रख दीं। उनपर राजनीति में प्रवेश करने एवं अपनी माँ को राजनीतिक कार्यों में सहयोग करने का दवाब बन गया। फिर कई आंतरिक एवं बाह्य चुनौतियाँ भी सामने आईं। पहले उन्होंने इन दबावों का विरोध किया लेकिन बाद में वे उनके द्वारा दिए गए तर्क से सहमत हो गए। उन्होंने अपने भाई की मृत्यु के कारण खाली हुए उत्तर प्रदेश के अमेठी संसद क्षेत्र का उपचुनाव जीता।
नवंबर 1982 में जब भारत ने एशियाई खेलों की मेजबानी की थी, स्टेडियम के निर्माण एवं अन्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने संबंधी वर्षों पहले किये गए वादे को पूरा किया गया था। श्री गांधी को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि सारे काम समय पर पूर्ण हों एवं यह सुनिश्चित किया जा सके कि बिना किसी रूकावट एवं खामियों के खेल का आयोजन किया जा सके। उन्होंने दक्षता एवं निर्बाध समन्वय का प्रदर्शन करते हुए इस चुनौतीपूर्ण कार्य को संपन्न किया। साथ-ही-साथ कांग्रेस के महासचिव के रूप में उन्होंने उसी तन्मयता से काम करते हुए पार्टी संगठन को व्यवस्थित एवं सक्रिय किया। उनके सामने आगे इससे भी अधिक मुश्किल परिस्थितियां आने वाली थीं जिसमें उनके व्यक्तित्व का परीक्षण होना था।
जब 31 अक्टूबर 1984 को अपनी मां की क्रूर हत्या के बाद वे कांग्रेस अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन व्यक्तिगत रूप से इतने दु:खी होने के बावजूद उन्होंने संतुलन, मर्यादा एवं संयम के साथ राष्ट्रीय जिम्मेदारी का अच्छे से निर्वहन किया। महीने भर के लंबे चुनाव अभियान के दौरान श्री गांधी ने पृथ्वी की परिधि के डेढ़ गुना के बराबर दूरी की यात्रा करते हुए देश के लगभग सभी भागों में जाकर 250 से अधिक सभाएं कीं एवं लाखों लोगों से आमने-सामने मिले। स्वभाव से गंभीर लेकिन आधुनिक सोच एवं निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता वाले श्री गांधी देश को दुनिया की उच्च तकनीकों से पूर्ण करना चाहते थे और जैसा कि वे बार-बार कहते थे कि भारत की एकता को बनाये रखने के उद्देश्य के अलावा उनके अन्य प्रमुख उद्देश्यों में से एक है – इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माण। 40 वर्ष की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले श्री राजीव गांधी भारत के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री थे और संभवतः दुनिया के उन युवा राजनेताओं में से एक हैं जिन्होंने सरकार का नेतृत्व किया है। उनकी माँ श्रीमती इंदिरा गांधी 1966 में जब पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तब वह उनसे उम्र में आठ साल बड़ी थीं। उनके महान दादाजी पंडित जवाहरलाल नेहरू 58 वर्ष के थे जब उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में 17 साल की लंबी पारी शुरू की थी।
देश में पीढ़ीगत बदलाव के अग्रदूत श्री गांधी को देश के इतिहास में सबसे बड़ा जनादेश प्राप्त हुआ था। अपनी मां की हत्या के शोक से उबरने के बाद उन्होंने लोकसभा के लिए चुनाव कराने का आदेश दिया। उस चुनाव में कांग्रेस को पिछले सात चुनावों की तुलना में लोकप्रिय वोट अधिक अनुपात में मिले और पार्टी ने 508 में से रिकॉर्ड 401 सीटें हासिल कीं।

Monday, 17 August 2015

साज और आनन्द का उत्सव है तीज



इस समय जब प्रकृति चारों तरफ हरियाली की चादर सी बिछा देती है तो प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाच उठता है। जगह-जगह झूले पड़ते हैं। स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते हैं। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। इसे हरितालिका तीज भी कहते हैं। जनमानस में यह हरियाली तीज के नाम से जानी जाती है।तीज भारत के अनेक भागों में मनाई जाती है, परन्तु राजस्थान की राजधानी जयपुर में इसका विशेष महत्त्व है। तीज का आगमन भीषण ग्रीष्म ऋतु के बाद पुनर्जीवन व पुनर्शक्ति के रूप में होता है। यदि इस दिन वर्षा हो, तो यह और भी स्मरणीय हो उठती है। लोग तीज जुलूस में ठंडी बौछार की कामना करते हैं। ग्रीष्म ऋतु के समाप्त होने पर काले - कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यंतर आनन्दित हो उठता है। ऐसे में भारतीय लोक जीवन कजली या हरियाली तीज का पर्वोत्सव मनाता है। आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण ही इस त्योहार या पर्व को 'कजली' या 'कज्जली तीज' तथा पूरी प्रकृति में हरियाली के कारण 'तीज' के नाम से जाना जाता है।
इस त्योहार पर लड़कियों को ससुराल से पीहर बुला लिया जाता है। विवाह के पश्चात पहला सावन आने पर लड़की को ससुराल में नहीं छोड़ा जाता है। नवविवाहिता लड़की की ससुराल से इस त्योहार पर सिंजारा भेजा जाता है। हरियाली तीज से एक दिन पहले सिंजारा मनाया जाता है। इस दिन नवविवाहिता लड़की की ससुराल से वस्त्र, आभूषण, शृंगार का सामान, मेहंदी और मिठाई भेजी जाती है। इस दिन मेहंदी लगाने का विशेष महत्त्व है। तीज के दिन का विशेष कार्य होता है, खुले स्थान पर बड़े–बड़े वृक्षों की शाखाओं पर झूला बाँधना। झूला स्त्रियों के लिए बहुत ही मनभावन अनुभव है। मल्हार गाते हुए मेंहदी रचे हुए हाथों से रस्सी पकड़े झूलना एक अनूठा अनुभव ही तो है। सावन में तीज पर झूले न लगें, तो सावन क्या? तीज के कुछ दिन पूर्व से ही पेड़ों की डालियों पर, घर की छत की कड़ों या बरामदे में कड़ों में झूले पड़ जाते हैं और नारियाँ, सखी - सहेलियों के संग सज - संवरकर लोकगीत, कजरी आदि गाते हुए झूला झूलती हैं। पूरा वातावरण ही उनके गीतों के मधुर लयबद्ध सुरों से रसमय, गीतमय और संगीतमय हो उठता है।
इस त्योहार की सबसे बड़ी विशेषता है, महिलाओं का हाथों पर विभिन्न प्रकार से बेलबूटे बनाकर मेंहदी रचाना। पैरों में आलता लगाना, महिलाओं के सुहाग की निशानी है। राजस्थान में हाथों व पाँवों में भी विवाहिताएँ मेंहदी रचाती हैं। जिसे "मेंहदी - माँडना" कहते हैं। इस दिन राजस्थानी बालाएँ दूर देश गए अपने पति के तीज पर आने की कामना करती हैं। जो कि उनके लोकगीतों में भी मुखरित होता है। तीज पर तीन बातें त्यागने का विधान है -

पति से छल–कपट
झूठ एवं दुर्व्यवहार करना
परनिन्दा

Monday, 10 August 2015

बुद्ध का स्त्री विमर्श



बुद्ध ने नर्तकी अंबपाली का आतिथ्य स्वीकार किया. कुछ लोग इस तथ्य के आधार पर साबित करना चाहते हैं कि बुद्ध तत्कालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध स्त्रियों के पक्षधर थे. बात ऐसी नहीं है. अंबपाली का स्वीकार उसी पितृसत्तात्मक मूल्यों के अधीन वेश्यावृत्ति को मान्यता प्रदान करना था. कहना न होगा कि बुद्ध ने जब संघ स्थापित किया तो शुरू में उन्होंने दासों की तरह महिलाओं को उसमें आने नहीं दिया, उन्हें संघ में आने से बार-बार मना किया, उन्हें उसमें जगह नहीं लेने दी. जहां एक ओर बुद्ध और अन्य दूसरे लोग स्त्रियों का संघ में आने और जीवन का दूसरा रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे, वहीं आनंद, जो बुद्ध के चचेरे भाई थे, जैसे लोग भी थे जो स्त्रियों के संघ में आने दिए जाने का समर्थन और उसके लिए तर्क कर रहे थे. कहना होगा कि बुद्ध को रास्ता दिखाया आनंद ने. संघ में स्त्रियों के आने के लिए जिसने बार-बार प्रश्न उठाया वह आनंद की मां थीं, प्रजापति गौतमी. जहां-जहां बुद्ध जाते थे, वहां-वहां वे बुद्ध के पीछे-पीछे जाती थीं. आनंद ने बुद्ध से पूछा कि ‘अगर औरतें कोशिश करें तो क्या वे निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं?’ जवाब में बुद्ध ने कहा-‘हां’, इस पर आनंद ने कहा कि ‘तब फिर आप उन्हें संघ में क्यों नहीं आने देते?’ क्योंकि निर्वाण प्राप्त करने के लिए संघ में आना जरूरी था।
सच तो यह है कि आनंद उस संपूर्ण प्रकरण में स्त्रियों का एकमात्र सुभेच्छु था जो इस सिद्धांत में विश्वास रखता था कि स्त्री और पुरुष समान रूप से निर्वाण के हकदार हो सकते हैं. बुद्ध की मृत्यु के बाद अनेक अवसरों पर इस बात के लिए आनंद की निन्दा की गई थी. प्रथमतः, महाप्रजापति गौतमी के मामले में संघ में प्रवेश के सवाल पर और द्वितीयतः रोती हुई माता के बुद्ध के अंतिम दर्शन के अवसर पर (चुल्लवग , पृष्ठ 411). संपूर्ण बौद्ध साहित्य में आनंद के अलावे किसी दूसरे व्यक्ति का उल्लेख तक नहीं मिलता जो स्त्रियों का पक्षधर हो. यह आनंद के व्यक्तित्त्व का मानवीय पहलू हो सकता है, लेकिन इस तरह का कोई उल्लेख शायद ही मिलता है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि बुद्ध या बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार था. यहां अंगुत्तरनिकाय (खंड-२, पृष्ठ ७६) का वह प्रसंग उल्लेखनीय है जब आनंद स्त्रियों के दरबार में नहीं बैठने एवं शील-चर्चा के क्रम में उपस्थित नहीं रहने के प्रश्न पर बुद्ध से चर्चा करता है।
उस समय और उनके कायदे के अनुसार, इस प्रश्नोत्तर के क्रम में बुद्ध ने अंततः उन्हें संघ में आने दिया, लेकिन कायदे ऐसे बनाए कि संघ में भिक्षुणियों को भिक्षुओं के नीचे दबे रहना था। संघ को भिक्षु एवं भिक्षुणि इन दो संघों में बांटकर भिक्षु संघ को ऊपर का दर्जा दिया गया और भिक्षुणि संघ को उसके नीचे का। उन्होंने भिक्षुणियों के लिए दस शर्तें, नियम या कायदे बताए जिनके पालन के पश्चात ही औरतें संघ में आ सकती थीं। उनमें से एक बहुत ही चोट पहुंचानेवाला कायदा था कि चाहे जितनी भी वरिष्ठ भिक्षुणि हो उसके सामने चाहे जितना भी कनिष्ठ भिक्षु आ जाए, उसे उसको सलामी देनी पड़ेगी। भिक्षुणियों पर और भी कई सख्त प्रतिबंध थे। इसके साथ ही समान गलती के लिए भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों को अधिक सख्त दंड का भागी बनना पड़ता था। ऐसा आप कह ले सकते हैं कि यह औरत और मर्द के बीच स्थापित उच्च एवं निम्न के भेद को कायम रखने के लिए किया गया। इसका सीधा सा अर्थ था- औरतों को संघ के अंदर भी पुरुषों के दबाव में रखना।
स्त्रियों के प्रति बुद्ध के विचार को बौद्ध साहित्य में वर्णित गाथाओं के माध्यम से भी समझा जा सकता है। एक गाथा (कोलिय जातक,१३०) इस प्रकार शुरू होती है- ‘वह एक श्रद्धालु उपासक ब्राह्मण की ब्राह्मणी थी; बहुत दुश्चरित्र, पापिन। रात को दुराचार करती थी. ... ब्राह्मण घर आता तो (रोग का) बहाना बनाकर लेट जाती। उसके बाहर जाने पर ‘‘जारों’’ के साथ गुजारती। वह ब्राह्मण बुद्धदेव का भक्त था-‘‘उपासक’’. (गृहस्थ बौद्ध को उपासक कहा जाता है)। वह ब्राह्मण तक्षशिला का स्नातक था और वाराणसी का प्रसिद्ध आचार्य भी था। सौ राजधानियों के क्षत्रिय राजकुमार उनके पास पढ़ा करते थे (देखें, मोहनलाल महतो वियोगी, जातककालीन भारतीय संस्कृति , पृष्ठ १४८).
एक दूसरे ब्राह्मण की स्त्री भी घोर दुश्चरित्रा थी। ब्राह्मण भी अपनी पत्नी के अनाचार को जानता था। जब ब्राह्मण व्यापार के लिए जाने लगा तो अपने दो पालित पुत्रों को सचेत करता गया- ‘यदि माता ब्राह्मणी अनाचार करें, तो रोकना।’ पालित पुत्रों ने जवाब दिया- ‘रोक सकेंगे तो रोकेंगे, नहीं तो चुप रहेंगे।’ जातक कथा में यह वाक्य है- ‘उसके जाने के दिन से ब्राह्मणी ने अनाचार करना आरंभ किया। घर में प्रवेश करनेवालों और निकलनेवालों की गिनती नहीं रही। ब्राह्मण का वह घर क्या था, पूरा वेश्यालय! उसके धर्मपुत्र भी उदासीन रहकर सब कुछ देखते रहे’ (राधजातक , १४५).
राधजातक (१७९) के अनुसार, ‘एक ब्राह्मण ने दो तोते पाले। ब्राह्मणी व्यभिचारिणी थी। ब्राह्मण तोतों को निगाह रखने का आदेश देकर व्यापार के उद्येश्य से कहीं चला गया। मौका मिलते ही ब्राह्मणी ने खुलकर अनाचार करना शुरू कर दिया।’
पुनश्च, ‘किसी ब्राह्मण की पत्नी दुश्चरित्रा थी। एक नट को उसने घर में बुला लिया। ब्राह्मण घर से बाहर गया हुआ था। ब्राह्मणी ने नट को भात-दाल पकाकर खिलाया। वह जैसे ही खाने बैठा कि ब्राह्मण आ गया। नट को ब्राह्मणी ने छिपा दिया। ब्राह्मण ने भोजन मांगा तो नट की जूठी थाली में थोड़ा-सा भात डालकर ब्राह्मण के आगे घर दिया। ब्राह्मण खाने लगा। एक नट भिखमंगा, जो दरवाजे पर बैठा सब कुछ देख रहा था, ने ब्राह्मण से सारी कथा कह दी’ (उच्छिट्ठभत्त जातक , २१२).
एक गाथा ऐसी है जिसमें बतलाया गया है कि एक ब्राह्मणी युवती ने अपने तुरंत के ब्याहे महापराक्रमी पति का खून डकैत सरदार के हाथ में तलवार पकड़ाकर करा दिया। उन्चास तीरों से उन्चास डकैतों को उस पराक्रमी ने ब्राह्मण ने मार गिराया। पचासवां व्यक्ति था डाकू-सरदार। अब ब्राह्मण के पास तीर न था। उसने डाकू सरदार को पटक दिया और अपनी स्त्री से तलवार मांगी। स्त्री उस डाकू-सरदार पर पहले ही मुग्ध हो चुकी थी। उसने तलवार डाकू-सरदार को पकड़ा दी और उस डाकू ने ब्राह्मण पर वार कर दिया। डाकू-सरदार के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा, ‘मैंने तुम पर आसक्त हो अपने कुल-स्वामी को मरवा दिया।’ वह डकैत भी ब्राह्मण ही था; क्योंकि उस ब्राह्मणी ने उसे ‘बाह्मण’ कह पुकारा था-‘सब्बं भण्डं समादाय पारं तिण्णोसि ब्राह्मण।’ (चुल्लधनुग्गह जातक , ३७४).
एक ब्राह्मणी ऐसी थी जिसने अपने पति को भीख मांगकर धन जमा करने के लिए बाहर भेज दिया और खुद अनाचार में लिप्त हो गई। धन कमाकर ब्राह्मण जब लौटा, तब ब्राह्मणी ने उस धन को अपने उपपति को दे दिया (सत्तुभस्त जातक , ४०२).
जातकों में उल्लिखित तथ्य एवं निष्कर्ष से भी स्त्रियों की सामाजिक हैसियत एवं उसके प्रति बुद्ध के विचार पर प्रकाश पड़ता है. बुद्ध, बोधिसत्व के रूप में एक बार भी मादा योनि में जन्म नहीं लेते हैं. पशु या मनुष्य दोनों ही कोटि के जीवों में वे नर रूप ही धारण करते हैं. बुद्ध सदैव स्त्रियों को घृणित, दुर्गंधयुक्त एवं व्यभिचारी बताते पाये जाते हैं. ( डॉक्टर अशोक कुमार, बौद्ध परंपरा में स्त्रियों का स्थान , पोस्ट डॉक्टोरल थीसिस,आई .सी एच .आर .हेतु शोधरत). बुद्ध की स्पष्ट घोषणा है कि वह देश रहने योग्य नहीं है जहां स्त्री शासक है (कंडिन जातक ) . स्त्रियां आम तौर पर असंगत और पापिणी प्रकृति की होती हैं (असात्मंत्र जातक ). स्त्रियों की प्रकृति एवं चरित्र संदिग्ध है (अंडभूत जातक). बोधिसत्व लोक-प्रसिद्ध आचार्य के रूप में अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं कि आमतौर पर स्त्रियां व्यभिचारिणी होती हैं. अतएव बुद्धिमान पुरुष के लिए यही उचित है कि उसकी प्रकृति को समझें, घृणा न करें। स्त्रियां उस धर्म-स्थल की नदी के समान होती हैं जहां साधु और चांडाल दोनों स्नान करते हैं (अनभिरत् जातक )।
जातकों के अलावे भी बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जो स्त्रियों के प्रति बुद्ध एवं बौद्ध धर्म के नजरिये को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं। कहना होगा कि सर्वत्र स्त्रियों को काला नाग, दुर्गंध, व्यभिचारिणी और पुरुषों को फांसनेवाली कहा गया है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-1, पृष्ठ २६३). स्त्रियों को रहस्यमयी कहा गया है. स्त्रियां अपने दुर्गुणों एवं दुराचारी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक कर्मों में हिस्सेदार नहीं हो सकती थीं। महत्त्वपूर्ण है कि स्त्रियों के संबंध में ये विचार किसी एक स्त्री को ध्यान में रखकर नहीं व्यक्त किये गये थे, बल्कि स्त्रियों की प्रकृति पर विचार करते हुए सामने आये हैं।
इस तरह, हम पाते हैं कि बौद्ध साहित्य में स्त्रियों के इर्द-गिर्द जिस तरह की घेराबंदी कर दी गई थी, उससे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती ब्राह्मण साहित्य की मान्यताओं का अनायास स्मरण हो आता है, जहां स्त्रियां अपने पति और पुत्र की निगरानी में ही सुरक्षित रह सकती थीं। बौद्ध साहित्य भी इस बोध से परे नहीं है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-२, पृष्ठ ७६). स्त्रियों की मूल भूमिका पति की विश्वासी सेविका की थी (वही, खंड-३, पृष्ठ २४४,३६१-६७). स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व एवं स्वतंत्र दायित्त्व के अस्तित्त्व की कल्पना का घोर अभाव उसे घर और पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही बंधे रहने को प्रेरित करता था। स्वयं बुद्ध की नजरों में भी यह कल्पना से परे था कि कोई स्त्री तथागत या चक्रवर्ती भी हो सकती है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-१, पृष्ठ २९).
अतएव विचारणीय प्रश्न है कि सामाजिक-धार्मिक जीवन में हिस्सेदारी से स्त्रियों को अलग/वंचित रखकर किस प्रकार बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार हो सकता था ?

कैसे मिटेगा यह अंधविष्वास


ऐसा लगता है कि झारखंड और देश के अन्य कई अंचल 21वीं सदी में नहीं अंधकार युग में रह रहे हैं। ज्ञान-शिक्षा, सुख सुविदाओं से युक्त स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने के इस दौर में यह घटना हमें यह सोचने को मजबूर करती है कि आखिर हमारा ग्रामीण समाज अब भी किस मानसिकता से जी रहा है। अब भी भारत में 70 प्रतिशत लोग गांवों में ही रहते हैं। गांवों के विकास से ही देश का विकास संभव है। किन्तु मांडर के इस गांव की घटना हमारी शिक्षा, ज्ञान और विकास के सपनों पर प्रश्न चिह्न खड़ा करती है। ऐसी कुरीतियों से उबरे बिना हम विकसित भारत की कल्पना नहीं कर सकते। ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटना इस क्षेत्र में पहली बार घटी है। ऐसा भी नहीं कि यह काम किसी वहशी ने यूं ही ताव में आकर कर दिया। बाकायदा पंचायत लगाकर सामूहिक फैसले के बाद घटना को अंजाम दिया गया। झारखंड में डायन प्रथा विरोधी कानून 2001 से लागू है। इतने साल गुजर जाने के बाद भी इसे न तो प्रभावी तौर पर लागू करने की कोशिश की गयी और न ही कानून के लागू होने के बाद समाज में कोई बदलाव आया है। वर्ष 2001 से अब तक झारखंड में डायन बताकर 1200 से ज्यादा महिलाओं की हत्या की जा चुकी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड व्यूरो के अनुसार देशभर में वर्ष 2000 से 2012 के बीच ऐसी 2,097 हत्याएं होने का अनुमान है। डायन बिसाही जैसी कुप्रथा को समाप्त किये बिना एक सभ्य और विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। झारखंड सरकार को इस दिशा में गंभीरता से विचार करते हुए डायन प्रथा के विरोध में बने कानून को सख्ती से लागू करना चाहिये ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। लेकिन इसके साथ ही जनजागृति का मोर्चा भी खोलना होगा।
रांची के मांडर थाना क्षेत्र में डायन-बिसाही के आरोप में पांच महिलाओं की नृशंस हत्या के मामले में एक महीने के अंदर चार्जशीट दायर करने का निर्णय लिया गया है। इस मामले में अब तक 27 आरोपियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। पिछले तीन वर्षों से लंबित ऐसे सभी मामलों के जल्द निष्पादन के लिए उच्च न्यायालय से फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन के लिए अनुरोध किया जायेगा। साथ ही लंबित मामलों के तीव्र निष्पादन के लिए स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर नामित किया जायेगा। समीक्षा के दौरान मुख्य सचिव ने डायन व अंधविश्वास से जुडे पूर्व में लंबित मामले, जो अनुसंधान के क्रम में हैं, की एक महीने के अन्दर समीक्षा कर निष्पादन करने का निर्देश दिया। साथ ही आदिवासी बहुल ग्रामीण इलाकों में मुख्यमंत्री द्वारा घोषित आदिवासी ग्राम विकास योजना को मिशन मोड में क्रियान्वयन करने की बात कही।