Monday, 18 August 2014

बातों को अधूरा छोड़ते मोदी


‘कांग्रेस का 60 वर्ष बनाम 60 महीना’ जैसे कुछ जुमले लोकसभा चुनाव के दौरान खूब चले। जनता ने भरोसा भी किया। अब न तो जनता के हिसाब से वे सफल हो पाए और न ही अपने वादों के हिसाब से। कम से कम मोदी सरकार के 100 दिन के कार्यकाल तो इसी ओर इशारा करते हैं। न तो महंगाई रूकी और न नौकरी की भरमार हुई। भ्रष्टाचार का शोर अभी भी सुनाई पड़ रहा है। सरकारी बाबओं का रवैया पहले जैसा ही रहा। हां, इतना जरूर है कि कई मौके पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े सरकारी अधिकारियों से सीधा संवाद किया। अपने मातहत मंत्रियों और सांसदों को इस बात की विशेष हिदायत दे रखी है कि कोई भी अपने निकटतम संबंधी को अपना निजी कर्मचारी न बनाएं। पांच वर्षों के लिए चुनी गई किसी भी सरकार को उसके 100 दिन के लिए काम के आधार पर नहीं परखा जा सकता, लेकिन जिस तरह के अप्रत्याशित जनादेश के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार बनाई, उसमें इस सरकार के केवल एक माह, दो माह या सौ दिन का ही नहीं, बल्कि एक-एक दिन की समीक्षा होना स्वाभाविक ही है।  जो लोग यूपीए सरकार के दस वर्षों के कार्यकाल से अकुता गए थे, उन्होंने निगेटिव वोटिंग किया और नतीजा सबके सामने आया। 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी इस सदी के सबसे विवादास्पद नेताओं में से एक रहे हैं।
हम मोदी सरकार के पहले सप्ताह की ही बात करें, तो कार्यकाल में पीएमओ में बहुत सारे कर्मचारी निजी स्तर पर उनसे पहचान बनाने में नाकाम रहे। कुछ ने तो बस मनमोहन को गाड़ी से उतरते और चढ़ते देखा, वहीं मोदी ने कार्यकाल संभालने के तीसरे दिन ही पीएमओ में चहलकदमी की और स्टाफ की वर्किंग और उनकी परेशानियों के बारे में जाना। पीएम का पद संभालने वाले दिन ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात। इसके अलावा, सार्क देशों के प्रतिनिधियों से मुलाकात। मोदी ने अपने काम करने के तरीके से बता दिया कि वह अहम मुद्दों पर देरी करने में भरोसा नहीं रखते और उन्हें किसी पूर्व तैयारी की जरूरत नहीं है। कुछ मामलों में नरेंद्र मोदी काफी जल्दबाजी में भी नजर आए। ट्राई के चेयरमैन रहे नृपेंद्र मिश्रा को पद संभालने के कुछ घंटे के अंदर ही आपातकालीन अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अपना मुख्य सचिव बनाया। इसके लिए पीएमओ ने टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया एक्ट 1977 में विधेयक लाकर बदलाव किया गया। इस कदम की कुछ आलोचना भी हुई। आलोचक यह मानते रहे हैं कि यूपीए सरकार में कई पावर सेंटर थे। मोदी की कैबिनेट पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने ऐसी कोई गुंजाइश बाकी ही नहीं छोड़ी। उनके हर कदम की राजनीतिक समीक्षा करने पर यही पता चलते है कि मोदी की अपनी सरकार के सर्वेसर्वा हैं। पिछली सरकार में मंत्रियों की नियुक्ति बहुत कुछ उनके अनुभव और कद के मुताबिक की गई, लेकिन मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में कुछ नए लोगों को मौका देकर नई शुरुआत की। निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, प्रकाश जावड़ेकर समेत कई नाम इनमें शामिल हैं। पीएम के चुनाव की आलोचना भी हुई।
इसी के बीच सवाल यह भी उठता है कि देश की जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कौन-सी अपेक्षाएं रखती हैं ? राष्ट्रीय सुरक्षा, बढ़ती हुई महँगाई, सड़ते हुए अनाज भंडार, एक अनिश्चित मॉनसून की तैयारी, सूखा व बाढ पीडि़तों की राहत व्यवस्था, बढता राजस्व घाटा और सबसे ज्यादा औद्योगिक विकास को प्रेरित करना। माना यह जा रहा था कि शपथ ग्रहण समारोह की स्याही शायद सूख भी न पाये और प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमण्डल के सदस्यांे को इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत होना पड़ेगा, लेकिन ऐसा हो न सका। ये वे अपेक्षाएं हैं, जिन्हें इन नेताओं ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार दुहराकर जनता को इसकी पूर्ति के लिए आश्वस्त कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने हाल के कुछ महीनों के दौरान देश में तेजी से बढ़ी सांप्रदायिकता, खासतौर पर पश्चिमी यूपी के दंगों सहित कई राज्यों में हुई हिंसक झड़पों, उसके कारणों और जिम्मेवार लोगों पर कोई ठोस टिप्पणी नहीं की है। यह बात जोर देकर कही है कि अगले दस वर्षो के लिए जातिवाद-संप्रदायवाद जैसे जहर का स्थगन जरूरी है। सवाल है कि सिर्फ दस साल के लिए स्थगन ही क्यों? इनका समूल नाश क्यों नहीं? प्रधानमंत्री के संबोधन में उन मुद्दों को उतनी तवज्जो नहीं मिली, जिनका चुनावों के दौरान उन्होंने उल्लेख किया। कालाधन की वापसी के लिए ठोस कदम, बड़े स्तर पर रोजगार-सृजन, महंगाई और भ्रष्टाचार पर निर्णायक अंकुश जैसे वायदों पर सरकार ने अब तक क्या किया और आगे क्या रणनीति है, संबोधन से लगभग गायब थे। शिक्षा और सबके लिए चिकित्सा-सेवा सहित ऐसे तमाम वायदों को पूरा करने के लिए सरकार ने अब तक क्या कुछ किया? क्या विदेशी बीमा कंपिनयां देश के आम लोगों को चिकित्सा-सुविधा का कवच देंगी?
अब एक महीना नहीं, सौ दिन होने वाले हैं। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई अच्छे दिन आ रहे हैं, जैसा सरकार का वादा था। सरकार ने 100 दिन के जिस एजेंडे की बात की थी क्या उस पर काम शुरू कर लिया है। वैसे आज के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं।एजेंडे के नाम पर बैठकों का दौर जारी है। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू कहते हैं कि हम बीच में नहीं बतायेंगे। सभी मंत्री 100 दिन के एजेंडे पर अच्छा काम कर रहे हैं। कुछ कड़े फैसले लेनें पड़ रहे हैं क्योंकि विरासत में कुछ भी ठीक नही मिला है।पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए कुछ कड़वी दवाएं देनी होंगी। उसका नतीजा अब आने लगा हैं। ठीक एक महीने बाद यानी 25 जून से रेल किराया 14.2 फीसदी बढा दिया गया। चीनी पर आयात शुल्क 15 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी  शुल्क कर दिया गया। नतीजे में चीनी थोक भाव में एक-दो रुपये महंगी हो गई। लेकिन जल संसाधन मंत्री उमा भारती कहती हैं कि होमियोपैथी दवा ऐसी है जो शुरू में मर्ज बढाती है, लेकिन इसका असर अलग तरह से होता है और बाद में पूरी तरह बीमारी खत्म हो जाती है। वैसे फिलहाल मोदी सरकार के 100 दिन के एजेंडे में कई ब्रेक लग गए हैं। खराब मॉनसून के अंदेशे ने प्याज खाने के तेल और दाल के दाम बढा  दिए। कृषि और खाद्य संस्करण राज्य मंत्री संजीव बालियान के मुताबिक, हम ऐसी प्राकृतिक मुसीबतों पर जल्द ही काबू पा लेंगे और अच्छे दिन आने में कोई रोक नहीं लग सकती। लेकिन, हकीकत यह है कि महंगाई फिलहाल पांच महीनों के सबसे ऊंचे स्तर पर है और अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खस्ता है तो बढ़ी हुई महंगाई और घटे हुए मॉनसून के बीच सबको अब भी अच्छे दिनों के शुरू होने का इंतजार  ही है।
भाजपा के समर्थक ही नहीं, अनेक गैर-भाजपाई लोग भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण की तारीफ करते मिल रहे हैं। उनमें ज्यादातर इस बात की तारीफ कर रहे हैं कि उनका भाषण लिखा हुआ नहीं था, उसमें अद्भुत जोश था, जमीनी-अनुभवों की रोशनी थी, बड़े वायदे नहीं किये पर जो बातें कहीं, वे बहुत सारगर्भित थीं।

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