Tuesday, 19 August 2014

देश को 21वीं सदी में ले जाने का मिशन



राजनीति से राजीव रत्‍न गांधी को विरक्ति-सी थी। वे स्‍वच्‍छंद जीवन जीने के आदी थे, तभी तो वे आकाश की ऊंचाईयों में वायुयान उड़ाते थे। लेकिन परिस्थितियों ने उन्‍हें देश की राजनीति के ‘कॉकपिट’ में बिठा दिया और यहां भी उन्‍होंने अपने पेशे से पूरी ईमानदारी बरती और देश को प्रगति के आकाश में परवान चढ़ाया। उनका कहना था- ‘मैंने एक सपना देखा है, महान भारतवासियों का सपना, जो आत्‍मविश्‍वास के साथ, भविष्‍य की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। मैं एक ऐसे भारत का सपना देखता हूं, जो अपने को हर क्षेत्र में उत्‍कृष्‍ट सिद्ध करता है।’ यह पुस्‍तक उन्‍हीं के महान जीवनदर्शन पर आधारित है। इसके माध्‍यम से पाठक और अधिक निकट से राजीव गांधी के जीवन-वृत्‍त के दर्शन कर सकते हैं।
1984 में गहरे राजनीतिक उथल-पुथल के बीच जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, उन्होंने करीब डेढ़ दशक पहले ही भारत को 21वीं सदी में ले जाने का सपना दिखाया. देश को तकनीकी रूप से सशक्त बना कर उन्होंने पंडित नेहरू द्वारा रखी आधुनिक भारत की नींव में एक नया आयाम जोड़ा. इतना तो जरूर मानना होगा कि नेहरू के बाद भारत के विकास मॉडल में सबसे बेहतर कीर्तिस्तंभ राजीव गांधी ही थे, जिन्होंने देश को तकनीकी रूप से मजबूत बनाने की तकरीबन मुकम्मल कोशिश की. राजीव गांधी के विकास मॉडल और उनकी राजनीति पर बात करते हुए उन संदर्भो में दो महत्वपूर्ण घटनाओं से होकर गुजरना पड़ेगा. एक तो यह कि 1984 में जो राजीव गांधी को जो भारी बहुमत मिला था, उसमें निश्चित रूप से राजीव गांधी का सशक्त नेतृत्व था और दूसरा यह कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश एक भावुकता के दौर से गुजर रहा था, इन दोनों पहलुओं से होकर ही कांग्रेस ने एक बड़ी ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. राजीव गांधी के अंदर कहीं न कहीं एक नौजवान प्रधानमंत्री बनने का सपना था. इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने खुद का बहुत ईमानदाराना इस्तेमाल किया. उन्होंने अपने नौजवान सपने के नजरिये को न सिर्फ देश से रूबरू कराया, बल्कि अपनी नेतृत्व शक्ति से दुनिया के बेहतरीन दिमागों को भारत में जमा किया और फिर उन दिमागों की मदद से देश को 21वीं सदी में ले जाने के मिशन को पूरा करने के लिए दिल-ओ-जान से जुट गये.
राजीव गांधी ने दो बड़े पैमाने पर आधुनिक भारत के दरवाजे खोले. एक है दूरसंचार (टेलीकम्युनिकेशन सेक्टर) और दूसरा है सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी सेक्टर). खास तौर पर दूरसंचार के क्षेत्र में उनके योगदान को भारत के आधुनिक इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकेगा. उनके राजनीतिक योगदान को इस नजरिये से देखा जाये, तो कुछ चीजें स्पष्ट हो जायेंगी. जब वे कहते थे कि भारत को 21वीं सदी में ले जाना है और बहुत ही आधुनिक देश की स्थापना करनी है, तो कुछ लोग उन पर हंसते थे. 1984 का वह दौर था, जब लोग हंसते हुए कहते थे कि भई!  स्वर्गीय इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के बेटे, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की आज 67वीं जयंती है. 20 अगस्त, 1944 को जन्में राजीव गांधी का पूरा नाम राजीव रत्न गांधी था. 3 जून, 1980 को राजीव के छोटे भाई संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु हुई तब उन्होंने अपनी मां को सहयोग देने के लिए राजनीति में प्रवेश किया. वहीं 1984 में मां की हत्या ने उन्हें पूर्ण रूप से कांग्रेस के प्रति समर्पित नेता बना दिया.
राजीव गांधी एक नायक थे। देश के ऐसे नायक जो विश्व-पटल पर तेज़ी से अपनी जगह बनाते हुए नज़र आए। देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री के तौर पर लोकप्रिय राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय मंचों की शोभा भी होते थे। देश को आज भी अपने लोकप्रिय नेता की कमी महसूस होती है। वैसे नेता, जिस संचार-क्रांति की वजह से ख़ास तौर पर याद किया जाता है।
इंदिरा गांधी और फिरोज़ गांधी की सबसे बड़ी संतान ने दून स्कूल से शिक्षा हासिल करने के बाद उच्च-अध्ययन के लिए भारत छोड़ दिया था। विदेश प्रवास के दौरान ही 1965 में सोनिया माइनो से उनकी मुलाक़ात हुई जिनसे माइनो परिवार के शुरुआती विरोध के बावजूद उन्होंने 28 फरवरी 1968 को विवाह किया। राजीव राजनीति में क़दम रखने के इच्छुक नहीं थे लेकिन अनुज संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में असमय मौत के बाद परिस्थितियों से मजबूर होकर उन्होंने 11 मई 1981 को कांग्रेस (ई) की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और 15 जून 1981 को उत्तर प्रदेश के अमेठी संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए जहाँ से मौजूदा समय में उनके पुत्र राहुल गांधी सांसद हैं। इससे पहले इंडियन एयरलाइन्स के पायलट के तौर पर काम कर चुके राजीव को दो फरवरी 1983 को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया गया। 31 अक्टूबर 1984 को उन पर भारी विपदा आई लेकिन देश की बागडोर संभालने की ज़िम्मेदारी भी मिली। उस दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई और देश का राजीतिक माहौल डाँवाडोल हो गया। ऐसे नाज़ुक़ वक़्त में राजनीति से अछूते राजीव के कंधे पर प्रधानमंत्री जैसे ज़िम्मेदार पद का बोझ पड़ गया जिसे उन्होंने आने वाले समय में बख़ूबी निभाया। उन्होंने देश में कई क्षेत्रों में नई पहल और शुरुआत की जिनमें संचार-क्रांति, कंप्यूटर क्रांति शिक्षा का प्रसार 18 साल के युवाओं को मताधिकार, लाइसेंस-परमिट राज की समाप्ति आदि शामिल हैं। राजीव ने कई साहसिक क़दम उठाए जिनमें श्रीलंका में शांति सेना का भेजा जाना, असम समझौता, मिज़ोरम समझौता आदि शामिल हैं। 21वीं सदी के भारत के बारे में राजीव के विचार स्पष्ट थे। उन्होंने कहा था कि भविष्य में होने वाले सभी परिवर्तनों को पहले से नहीं बताया जा सकता। इतिहास पूर्वनियोजित या पूर्वनिर्धारित नहीं होता। घटनाएँ इसलिए मोड़ लेती हैं कि व्यक्ति फ़ैसला लेता है। उन्होंने अपनी इस बात को पुष्ट करते हुए कहा था कि आइंस्टीन पदार्थ और ऊर्जा के बीच के संबंध को सामने लाता है। एक लेनिन, एक गांधी, एक माओ और हो-ची-मिन्ह क्रांति का नेतृत्व करता है। एक जवाहर लाल नेहरू अपना ही लोकतांत्रिक जज़्बा पूरे देश को दे देता है। असंभव संभव हो जाता है।
राजीव गांधी भारतीय राजनीति और कांग्रेस के इतिहास में ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने शायद सबसे पहले किसी सार्वजनिक मंच पर खुद सरकार में होते हुए सरकार में फैले भ्रष्टाचार पर अंगुली उठाई. देश में सरकारी घोटालों की असलियत को खुद अपने मुंह से स्वीकारने वाले युवा और कर्मठ नेता राजीव गांधी की आज जयंती है. आज चाहे कांग्रेस सरकार कितने ही घोटालों से घिरी हो लेकिन कांग्रेस के राज में कभी कमान राजीव गांधी जैसे नेता के हाथ में भी थी जिन्होंने अपने अल्पकाल के शासन में ही देश को ढेरों सपने दिखाए.
अभी तो 25-26 साल बचे हुए हैं, अभी तो सरकार के पांच साल की बात करिये, देश को अभी 21वीं सदी में ले जाने की बात बेमानी है. लेकिन, अगर आज के दौर को देख कर आप इतिहास के उन पन्नों को पलटें और उन पर गौर करें, तो आप पायेंगे कि राजीव गांधी के उस सपने पर लोगों का हंसना यह साबित करता है कि नेतृत्व का ईमानदार और दृढ़निश्चयी होना राजीव के लिए कितना मायने रखता था. यही वजह है कि उनके आधुनिक भारत के विकास के मॉडल ने एक आयाम स्थापित किया, जो उनसे पहले या बाद की पीढ़ियों में नजर नहीं आया. हालांकि, इंदिरा गांधी ने भी ग्रीन रिवोल्यूशन की मुहिम चलायी और खाद्यान्न की बेशुमार उपलब्धता से देश को आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन इमरजेंसी की विभीषिका ने उनके नेतृत्व पर एक तानाशाह का दाग लगा दिया. राजीव गांधी का जनता से सीधा जुड़ाव था, जो राजनीतिक नेतृत्व के लिए बहुत जरूरी होता है. मौजूदा कांग्रेस में इसी बात की कमी नजर आती है. यही वजह है कि कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में लगातार हाशिये पर जा रही है. यहां सबसे अहम बात यह है कि राजीव गांधी की प्रासंगिकता के मद्देनजर उन्हें सिर्फ याद करने से कांग्रेस या देश को कुछ भी हासिल नहीं होगा. जरूरत इस बात की है कि उनके जैसा कोई ठोस नेतृत्व उभर कर आये.



Monday, 18 August 2014

बातों को अधूरा छोड़ते मोदी


‘कांग्रेस का 60 वर्ष बनाम 60 महीना’ जैसे कुछ जुमले लोकसभा चुनाव के दौरान खूब चले। जनता ने भरोसा भी किया। अब न तो जनता के हिसाब से वे सफल हो पाए और न ही अपने वादों के हिसाब से। कम से कम मोदी सरकार के 100 दिन के कार्यकाल तो इसी ओर इशारा करते हैं। न तो महंगाई रूकी और न नौकरी की भरमार हुई। भ्रष्टाचार का शोर अभी भी सुनाई पड़ रहा है। सरकारी बाबओं का रवैया पहले जैसा ही रहा। हां, इतना जरूर है कि कई मौके पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े सरकारी अधिकारियों से सीधा संवाद किया। अपने मातहत मंत्रियों और सांसदों को इस बात की विशेष हिदायत दे रखी है कि कोई भी अपने निकटतम संबंधी को अपना निजी कर्मचारी न बनाएं। पांच वर्षों के लिए चुनी गई किसी भी सरकार को उसके 100 दिन के लिए काम के आधार पर नहीं परखा जा सकता, लेकिन जिस तरह के अप्रत्याशित जनादेश के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार बनाई, उसमें इस सरकार के केवल एक माह, दो माह या सौ दिन का ही नहीं, बल्कि एक-एक दिन की समीक्षा होना स्वाभाविक ही है।  जो लोग यूपीए सरकार के दस वर्षों के कार्यकाल से अकुता गए थे, उन्होंने निगेटिव वोटिंग किया और नतीजा सबके सामने आया। 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी इस सदी के सबसे विवादास्पद नेताओं में से एक रहे हैं।
हम मोदी सरकार के पहले सप्ताह की ही बात करें, तो कार्यकाल में पीएमओ में बहुत सारे कर्मचारी निजी स्तर पर उनसे पहचान बनाने में नाकाम रहे। कुछ ने तो बस मनमोहन को गाड़ी से उतरते और चढ़ते देखा, वहीं मोदी ने कार्यकाल संभालने के तीसरे दिन ही पीएमओ में चहलकदमी की और स्टाफ की वर्किंग और उनकी परेशानियों के बारे में जाना। पीएम का पद संभालने वाले दिन ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात। इसके अलावा, सार्क देशों के प्रतिनिधियों से मुलाकात। मोदी ने अपने काम करने के तरीके से बता दिया कि वह अहम मुद्दों पर देरी करने में भरोसा नहीं रखते और उन्हें किसी पूर्व तैयारी की जरूरत नहीं है। कुछ मामलों में नरेंद्र मोदी काफी जल्दबाजी में भी नजर आए। ट्राई के चेयरमैन रहे नृपेंद्र मिश्रा को पद संभालने के कुछ घंटे के अंदर ही आपातकालीन अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अपना मुख्य सचिव बनाया। इसके लिए पीएमओ ने टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया एक्ट 1977 में विधेयक लाकर बदलाव किया गया। इस कदम की कुछ आलोचना भी हुई। आलोचक यह मानते रहे हैं कि यूपीए सरकार में कई पावर सेंटर थे। मोदी की कैबिनेट पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने ऐसी कोई गुंजाइश बाकी ही नहीं छोड़ी। उनके हर कदम की राजनीतिक समीक्षा करने पर यही पता चलते है कि मोदी की अपनी सरकार के सर्वेसर्वा हैं। पिछली सरकार में मंत्रियों की नियुक्ति बहुत कुछ उनके अनुभव और कद के मुताबिक की गई, लेकिन मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में कुछ नए लोगों को मौका देकर नई शुरुआत की। निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, प्रकाश जावड़ेकर समेत कई नाम इनमें शामिल हैं। पीएम के चुनाव की आलोचना भी हुई।
इसी के बीच सवाल यह भी उठता है कि देश की जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कौन-सी अपेक्षाएं रखती हैं ? राष्ट्रीय सुरक्षा, बढ़ती हुई महँगाई, सड़ते हुए अनाज भंडार, एक अनिश्चित मॉनसून की तैयारी, सूखा व बाढ पीडि़तों की राहत व्यवस्था, बढता राजस्व घाटा और सबसे ज्यादा औद्योगिक विकास को प्रेरित करना। माना यह जा रहा था कि शपथ ग्रहण समारोह की स्याही शायद सूख भी न पाये और प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमण्डल के सदस्यांे को इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत होना पड़ेगा, लेकिन ऐसा हो न सका। ये वे अपेक्षाएं हैं, जिन्हें इन नेताओं ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार दुहराकर जनता को इसकी पूर्ति के लिए आश्वस्त कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने हाल के कुछ महीनों के दौरान देश में तेजी से बढ़ी सांप्रदायिकता, खासतौर पर पश्चिमी यूपी के दंगों सहित कई राज्यों में हुई हिंसक झड़पों, उसके कारणों और जिम्मेवार लोगों पर कोई ठोस टिप्पणी नहीं की है। यह बात जोर देकर कही है कि अगले दस वर्षो के लिए जातिवाद-संप्रदायवाद जैसे जहर का स्थगन जरूरी है। सवाल है कि सिर्फ दस साल के लिए स्थगन ही क्यों? इनका समूल नाश क्यों नहीं? प्रधानमंत्री के संबोधन में उन मुद्दों को उतनी तवज्जो नहीं मिली, जिनका चुनावों के दौरान उन्होंने उल्लेख किया। कालाधन की वापसी के लिए ठोस कदम, बड़े स्तर पर रोजगार-सृजन, महंगाई और भ्रष्टाचार पर निर्णायक अंकुश जैसे वायदों पर सरकार ने अब तक क्या किया और आगे क्या रणनीति है, संबोधन से लगभग गायब थे। शिक्षा और सबके लिए चिकित्सा-सेवा सहित ऐसे तमाम वायदों को पूरा करने के लिए सरकार ने अब तक क्या कुछ किया? क्या विदेशी बीमा कंपिनयां देश के आम लोगों को चिकित्सा-सुविधा का कवच देंगी?
अब एक महीना नहीं, सौ दिन होने वाले हैं। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई अच्छे दिन आ रहे हैं, जैसा सरकार का वादा था। सरकार ने 100 दिन के जिस एजेंडे की बात की थी क्या उस पर काम शुरू कर लिया है। वैसे आज के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं।एजेंडे के नाम पर बैठकों का दौर जारी है। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू कहते हैं कि हम बीच में नहीं बतायेंगे। सभी मंत्री 100 दिन के एजेंडे पर अच्छा काम कर रहे हैं। कुछ कड़े फैसले लेनें पड़ रहे हैं क्योंकि विरासत में कुछ भी ठीक नही मिला है।पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए कुछ कड़वी दवाएं देनी होंगी। उसका नतीजा अब आने लगा हैं। ठीक एक महीने बाद यानी 25 जून से रेल किराया 14.2 फीसदी बढा दिया गया। चीनी पर आयात शुल्क 15 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी  शुल्क कर दिया गया। नतीजे में चीनी थोक भाव में एक-दो रुपये महंगी हो गई। लेकिन जल संसाधन मंत्री उमा भारती कहती हैं कि होमियोपैथी दवा ऐसी है जो शुरू में मर्ज बढाती है, लेकिन इसका असर अलग तरह से होता है और बाद में पूरी तरह बीमारी खत्म हो जाती है। वैसे फिलहाल मोदी सरकार के 100 दिन के एजेंडे में कई ब्रेक लग गए हैं। खराब मॉनसून के अंदेशे ने प्याज खाने के तेल और दाल के दाम बढा  दिए। कृषि और खाद्य संस्करण राज्य मंत्री संजीव बालियान के मुताबिक, हम ऐसी प्राकृतिक मुसीबतों पर जल्द ही काबू पा लेंगे और अच्छे दिन आने में कोई रोक नहीं लग सकती। लेकिन, हकीकत यह है कि महंगाई फिलहाल पांच महीनों के सबसे ऊंचे स्तर पर है और अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खस्ता है तो बढ़ी हुई महंगाई और घटे हुए मॉनसून के बीच सबको अब भी अच्छे दिनों के शुरू होने का इंतजार  ही है।
भाजपा के समर्थक ही नहीं, अनेक गैर-भाजपाई लोग भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण की तारीफ करते मिल रहे हैं। उनमें ज्यादातर इस बात की तारीफ कर रहे हैं कि उनका भाषण लिखा हुआ नहीं था, उसमें अद्भुत जोश था, जमीनी-अनुभवों की रोशनी थी, बड़े वायदे नहीं किये पर जो बातें कहीं, वे बहुत सारगर्भित थीं।

योगेश्वर कृष्ण आनंद का संगम




 योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी को भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। श्रीराम तो राजा दशरथ के यहाँ एक राजकुमार के रूप में अवतरित हुए थे, जबकि श्रीकृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस के कारागार में हुआ था। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु के भय से बहिन देवकी और वसुदेव को कारागार में क़ैद किया हुआ था।
कृष्ण जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी। चारों तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था। श्रीकृष्ण का अवतरण होते ही वसुदेव–देवकी की बेड़ियाँ खुल गईं, कारागार के द्वार स्वयं ही खुल गए, पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव किसी तरह श्रीकृष्ण को उफनती यमुना के पार गोकुल में अपने मित्र नन्दगोप के घर ले गए। वहाँ पर नन्द की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। कंस ने उस कन्या को पटककर मार डालना चाहा। किन्तु वह इस कार्य में असफल ही रहा। श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया। बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। अन्त में श्रीकृष्ण ने आतातायी कंस को ही मार दिया। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का नाम ही जन्माष्टमी है। गोकुल में यह त्योहार 'गोकुलाष्टमी' के नाम से मनाया जाता है।
पाण्डवों के रक्षक के रूप में, कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन के रथ के सारथी बने श्रीकृष्ण की उदारता तथा उनका दिव्यसंदेश, शाश्वत व सभी युगों के लिए उपयुक्त है। शोकग्रस्त व व्याकुल अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह दिव्यसंदेश ही गीता में लिखा है। 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः' इस श्लोकांश से भगवद् गीता का प्रारंभ होता है। गीता मनुष्य के मनोविज्ञान को समझाने, समझने का आधार ग्रंथ है। हमारी संस्कृति के दो ध्रुव हैं- एक है श्रीराम और दूसरे ध्रुव है श्रीकृष्ण। राम अनुकरणीय हैं और कृष्ण चिंतनीय। भारतीय चिंतन कहता है पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ जीवन है, वह विष्णु का अवतरण है। सभी छवियाँ महाकाल की महेश की, और जन्म लेने को आतुर सारी की सारी स्थितियाँ ब्रह्मा की हैं। ऊर्जा के उन्मेष के यही तीन ढंग हैं चाहे तो हम इस सारे विषय को पावन 'त्रिमूर्ति' भी कह सकते हैं।
इसी परम तत्त्व का ज्ञान श्रीकृष्ण ने आज से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में, हताश अर्जुन को दिया था। गीता श्रीकृष्ण का भावप्रवण हृदय ग्रंथ है। इस पूरे विराट में जो नीलिमा समाई है और लगातार जो स्वर ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह श्रीकृष्ण की वंशी है। उन्हें सत्-चित् आनंद का संगम माना गया है, सत् सब तरफ भासमान है चित् मौन और आनंद अप्रकट है, जिस प्रकार दूध में मक्खन छिपा रहता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की शरण में गया आदमी, आनंद से पुलकित हो जाता है। कृष्ण भी कुछ ऐसे करुण हृदय हैं कि डूबकर पुकारो तो पलभर में, कृतकृत्य कर देते हैं। श्रीकृष्ण 'रसेश्वर' भी हैं और 'योगेश्वर' भी हैं। कृष्ण, जिसके जन्म से पूर्व ही उसके मार देने का ख़तरा है। अंधेरी रात, कारा के भीतर, एक बच्चे का जन्म, जिसे जन्म के तत्काल बाद अपनी माँ से अलग कर दिया जाता है। जन्म के छ: दिन बाद पूतना (पूतना का अर्थ है पुत्र विरोधन नारी) जिसके पयोधर ज़हरीलें हैं, उसे मारने का प्रयत्न करती है।
अपने यहाँ चार पुरुषार्थ गिनाए गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों का निर्वचन ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक में है। ईश शब्द 'ईंट' धातु से बना हुआ है। मतलब यह है कि जो सभी को अनुशासित करता है या जिसका आधिपत्य सब पर है, वही ईश्वर है। उसे न मानना स्वयं को भी झुठलाना है। जो अपने को नहीं जानता वही ईश्वर को भी नहीं मानता। 'कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा रखे' ईशावास्य उपनिषद का यह मंत्र हम सब जानते हैं। 'ईशावास्यमिंद सर्वम्', इस मंत्र में तीन पुरुषार्थ के लिए तीन बातें कही गई हैं।
मोक्ष पुरुषार्थ के लिए : 'ईशावास्यमिंद सर्वम्।'
काम पुरुषार्थ के लिए : 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा:।'
अर्थ पुरुषार्थ के लिए : 'मागृध: कस्यस्विद् धनम्॥'
और चौथे धर्म नामक पुरुषार्थ के लिए : कुर्वन्नेवीह कर्माणि
कृष्ण कर्म की बात कर रहे हैं और साथ ही यह भी कह रहे हैं- 'सर्वधर्मान परित्यज्य', सब धर्म अर्थात् पिता, पुत्र, वाला धर्म छोड़कर जितने शारीरिक, सांसारिक या भौतिक, दैविक राग और रोग हैं वे सारी परिधियाँ पार कर, मैं जो सभी का कर्त्ता और भर्त्ता हूँ, उसकी शरण में आ। तब तू सब पापों से मुक्त, परम स्थिति को पा लेगा।

Monday, 11 August 2014

वाकई सर्वश्रेष्ठ हैं डा. कर्ण सिंह



राजनीति में जब आप शुचिता और अपने कर्तव्यपरायणता का पूरा ख्याल रखते हैं, तो उसका सम्मान हर कोई करता है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, कांग्रेस नेता डा. कर्ण सिंह और जदयू अध्यक्ष शरद यादव को संसद ने सर्वश्रेष्ठ सांसद के तौर पर सम्मानित करने का पफैसला लिया है। आज इन्हें सम्मानित किया जाएगा। इन तीनों नेताओं का चयन पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने वर्ष 2013 में ही किया था। डॉ. कर्ण सिंह को 2010, अरुण जेटली को 2011 और शरद यादव को 2012 के लिए सर्वश्रेष्ठ सांसद चुना गया है। मौजूदा समय में अरुण जेटली गुजरात, कर्ण सिंह दिल्ली और शरद यादव बिहार से राज्यसभा सांसद हैं।
कर्ण सिंह (जन्म 1931) भारतीय राजनेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ हैं। जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी (युवराज) के रूप में जन्मे डॉ. कर्ण सिंह ने अठारह वर्ष की ही उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर लिया था और वर्ष १९४९ में प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप पर उनके पिता ने उन्हें राजप्रतिनिधि (रीजेंट) नियुक्त कर दिया। इसके पश्चात अगले अठारह वर्षों के दौरान वे राजप्रतिनिधि, निर्वाचित सदर-ए-रियासत और अन्ततरू राज्यपाल के पदों पर रहे। १९६७ में डॉ. कर्ण सिंह प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। इसके तुरन्त बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और कश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे वर्ष १९७१, १९७७ और १९८० में पुनरू चुने गए। डॉ. कर्ण सिंह को पहले पर्यटन और नगर विमानन मंत्रालय सौंपा गया। वे ६ वर्ष तक इस मंत्रालय में रहे, जहाँ उन्होंने अपनी सूक्ष्मदृष्टि और सक्रियता की अमिट छाप छोड़ी। १९७३ में वे स्वास्थ्य और परिवार नियोजन मंत्री बने। १९७६ में जब उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की तो परिवार नियोजन का विषय एक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के रूप में उभरा। १९७९ में वे शिक्षा और संस्कृति मंत्री बने। डॉ. कर्ण सिंह देशी रजवाड़े के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से प्रिवी पर्स का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित श्हरि-तारा धर्मार्थ न्यासश् को दे दी। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। इसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हजार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। डॉ. कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे सौ से अधिक हिन्दू तीर्थ-स्थलों तथा मंदिरों सहित जम्मू और कश्मीर में अन्य कई न्यासों का काम-काज भी देखते हैं। हाल ही में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केंद्र की स्थापना की है। यह केंद्र सृजनात्मक दृष्टिकोण के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभर रहा है।
डा. कर्ण सिंह ने देहरादून स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और इसके बाद जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रह चुके हैं। वर्ष १९५७ में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. उपाधि हासिल की। उन्होंने श्री अरविन्द की राजनीतिक विचारधारा पर शोध प्रबन्ध लिख कर दिल्ली विश्वविद्यालय से डाक्टरेट उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया। वे कई वर्षों तक जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे हैं। वे केंद्रीय संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्र मण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहे हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल ऑफ अंडरस्टेंडिंग (एक प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्विश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और विराट हिन्दू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। इनमें - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, तोक्यो से प्राप्त डाक्टरेट की मानद उपाधियां उल्लेखनीय हैं। वे कई वर्षों तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल - प्रोजेक्ट टाइगर - के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षी हैं।
डॉ. कर्ण सिंह ने राजनीति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें, दार्शनिक निबन्ध, यात्रा-विवरण और कविताएं अंग्रेजी में लिखी हैं। उनके महत्वपूर्ण संग्रह ष्वन मैन्स वर्ल्डष् (एक आदमी की दुनिया) और हिन्दूवाद पर लिखे निबंधों की काफी सराहना हुई है। उन्होंने अपनी मातृभाषा डोगरी में कुछ भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टि और पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे भारत और विदेशों में एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में भारतीय राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल हालांकि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल मीडिया कवरेज मिली।