Sunday, 23 March 2014

सियासत में स्वार्थ सबसे बुरी

कोई चार दशकों से, जब भी चुनाव आता है, तो अधिकतर राजनीतिक पार्टियां और उनके दिग्गज नेता देश के सामने विकास का कोई नया व अनोखा मॉडल न रखकर, कांग्रेस के वंशवाद पर हमला बोलने लगते हैं। पहली बार 1967 में समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने उत्तर प्रदेश के फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में ‘नेहरू वंश’ के तर्क के जरिये जवाहरलाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित के खिलाफ जनेश्वर मिश्र की तरफ से मोर्चा खोला था। वह खुद कन्नौज से चुनाव लड़ रहे थे। पर आज कश्मीर से लेकर केरल और महाराष्ट्र से ओडिशा तक की राजनीति में सियासी वंशों की ही हुक्मरानी है। एक आंकड़े के अनुसार, साल 2004 के चुनाव में कोई 120 परिवारों ने 250 क्षेत्रों से चुनाव लडे़ थे। लोग कहते हैं कि ‘शहजादा-शहजादी’ और ‘युवराज’ जैसे शब्द सामंती प्रथा की देन हैं। और ये शब्द गरीबों को परियों की कहानियों की तरह लुभाते हैं। यह एक मानसिकता है, जिसे राजनीतिक विश्लेषक मार्क टुली इंग्लैंड से आयातित सामंती परंपरा की देन मानते हैं।
दरअसल, वंशवाद भारतीय राजनीति का एक ऐसा विषय है, जिसका अध्ययन और आलोचना करते करते कई राजनेता और कई दल इसी की चपेट में आ गए। अक्सर यह बहस सिर्फ गांधी परिवार के संदर्भ में उभरती है और बाकी परिवारों को छोड़ते हुए तू-तू मैं-मैं में बदल कर कोई ठोस राजनीतिक विमर्श में नहीं बदल पाता है। यह मुद्दा किसलिए है? राहुल गांधी को टारगेट करने के लिए या भारतीय राजनीति को वंशवाद से दूर करने के लिए। क्या राहुल गांधी का मामला इसलिए संगीन है क्योंकि वे आए और आते ही परिवार के नाम पर प्रधानमंत्री के दावेदार बन गए या इसलिए है कि वंशवाद हमारी राजनीति को खाए जा रहा है। प्रधानमंत्री पद के लिए गंभीर है या मुख्यमंत्री या संसदीय सीटों पर परिवारों के कब्जे का मसला भी उतना ही गंभीर है। यह अजीब नहीं है कि कोई वंशवाद पर हमला करते हुए खुद अपने परिवार का जिक्र करता है। चाय वाला, दूध वाला या गरीब परिवार वाला। कोई इसका जिक्र कैसे न करें। वंशवाद को लेकर राहुल गांधी को घेरा जाता है और उनसे उनके पिता के बयान का हिसाब पूछा जाता है। क्या यह अजीब नहीं है। बाप का हिसाब बेटे से।
उड़ीसा के वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक वतर्मान में मुख्यमंत्री है। शिरोमणि अकाली दल के संरक्षक और वर्तमान में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखबीर सिंह बादल पार्टी अध्यक्ष के साथ-साथ प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं। 18 सदस्यीय मंत्रिमंडल में आधे दर्जन रिश्तेदार (मनप्रीत सिंह बादल- बादल के भतीजे और वित्त मंत्री, आदेश प्रताप सिंह कैरो- बादल के दामाद और खाद्य आपूर्ति मंत्री, विक्रमजीत सिंह मजीठा-सुखबीर के साले और सूचना प्रसारण मंत्री, जनभेजा सिंह जोहल- सिंचाई मंत्री और बादल कें करीबी रिश्तेदार) भरे पड़े हैं। सुखबीर की पत्नी हरसिमरत कौर भंटिडा सीट से सबसे मजबूत उम्मीदवार हैं तथा बादल की पत्नी सुरिंदर कौर बादल शिरोमणि अकाली दल (महिला ग्रुप) की संरक्षक हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के एक पुत्र चंद्रमोहन विश्नाई (मो. चांद) उपमुख्यमंत्री रहे तो दूसरे कुलदीप विश्नोई भिवानी से सासंद तथा हरियाणा जनहित पार्टी के अध्यक्ष हैं। जम्मू काश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के पिता फारूख अब्दुला और उनके पिता शेख अब्दुला वर्षों तक कश्मीर की रियासत को संभालते रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री महबूबा मुफ्ती सासंद के साथ ही पीडीपी की अध्यक्षा भी हैं।
महाराष्ट्र में राकपा प्रमुख और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार अपनी सुपुत्री सुप्रिया सुले को आसानी से संसद में पहुंचाने के लिए  अपनी बारामती की सीट छोड़ चुके हैं तथा भतीजा अजीत पवार भी जंग-ए मैदान में कूदने को तैयार हैं। बाला साहब ठाकरे ने पुत्र मोह में उद्धव ठाकरे को शिवसेना का अध्यक्ष क्या बनाया भतीजे राज ठाकरे ने एक नई पार्टी महाराष्ट्र नवर्निमाण सेना गठित कर चाचा को ही टक्कर दे दी। 1987 में नादेड़ से लोकसभा पहुंचे महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक चैहान पूर्व मुख्यमंत्री रहे एस बी चौहान के बेटे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री व द्रमुक अध्यक्ष एम करुणानिधि के पुत्र एम के स्टालिन पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं तो पुत्री कानी मोझी को संसद में भेजने की तैयारी हैं। उनके ही परिवार के दयानिधि मारण अभी तक केन्द्र में संचार मंत्री रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री तथा जद (सेकुलर) प्रमुख एच. डी. देवगौड़ा के पुत्र एच. डी. कुमार स्वामी मुख्यमंत्री रह चुके हैं तो दूसरे एच डी खेन्ना दो बार बिजली मंत्री और सार्वजनिक मंत्री रह चुके हैं।  एच. डी. कुमारस्वामी की पत्नी अनिता मधुगिरी विधान सभा से उपचुनाव लड़ चुकी हैं। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह वर्तमान में विधायक है तथा लोकसभा जाने की तैयारी में है। पूर्व मंत्री माधव राव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा राजेश पायलट के पुत्र सचिन पायलट वर्तमान मे सांसद है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह भी बाड़मेड़ से लोकसभा जाने की तैयारी में है। पूर्व सांसद सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त मुम्बई से सांसद है तथा संजय दत्त लखनऊ से संसद पहुंचने की चाहत में है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा की बेटी अगाथा मेघालय के तुरा क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुनी गई है। अभी हाल में कांग्रेस से निष्कासित मागंरेट निरंजन अल्वा की सास वायलट अल्वा राज्यसभा की उपसभापति रह चुकी है तथा पति जोकिभ अल्वा भी सासंद रह चुके हैं।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद को लेकर पैट्रिक फ्रेंच ने एक गंभीर अध्ययन किया है। पैट्रिक ने 15वीं लोकसभा के 545 सांसदों की पारिवारिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया तो 255 सांसदों की पारिवारिक पृष्ठभूमि कुछ खास नहीं लगी, लेकिन 156 सांसद पारिवारिक पृष्ठभूमि से तालुल्क रखते हैं। करीब 29 प्रतिशत सांसदों का फैमिली कनेक्शन है। पैट्रिक फ्रेंच पार्टियों में खानदानी प्रतिशत भी निकालने का अजूबा काम करते हैं, तो पाते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल एक ऐसी पाटी है जो सौ परसेंट खानदानी है। इसके पांचों सांसद खानदानी हैं। आज के दैनिक हिन्दुस्तान में इनका एक विज्ञापन भी छपा है आगरा में संकल्प रैली का। वो भी राजनीति को स्वच्छ करने के लिए। इस विज्ञापन में तीन ही चेहरे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी।
पैट्रिक फ्रेंच के अनुसार पार्टियों में वंशवाद कुछ इस प्रकार है-
एनसीपी ? 77.8 प्रतिसत 9 में से 7
बीजेडी ? 42.9  प्रतिशत 14 में से 6
कांग्रेस ? 37.5 प्रतिशत 208 में से 78
सपा ? 27.3 प्रतिशत 22 में से 6
बीजेपी ? 19 प्रतिशत 116 में से 22
क्यों जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार है, जिससे कांग्रेस और बीजेपी दोनों हाथ मिलाते रहे हैं। फिर क्यों पंजाब में बादल परिवार है, जो बीजेपी की सहयोगी है? फिर क्यों यूपी में यादव परिवार हैं? क्यों बिहार में यादव और पासवान परिवार है? फिर क्यों महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार है, जिससे बीजेपी हाथ मिलाती है। फिर क्यों मध्यप्रदेश और राजस्थान में सिंधिया परिवार है, जो कांग्रेस में भी है, बीजेपी में है। कुछ परिवार तो बढ़ते ही जा रहे हैं। जैसे मुलायम सिंह यादव का परिवार। लालू प्रसाद यादव का परिवार, रामविलास पासवान का परिवार।
असल में वंशवाद उतना बुरा नहीं है, जितना स्वार्थपरता। स्वार्थ वह भी केवल और केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए। नेहरू-गांधी परिवार पर केवल विरोधी केवल राजनीति से प्रेरित होकर बयानबाजी करते हैं। उन्हें इस बात पर गौर फरमाना चाहिए कि इस परिवार का कोई भी सदस्य कभी राज्यसभा के रास्ते संसद में नहीं पहुंचा है। बेशक इंदिरा गांधी लोकसभा चुनाव हार गर्इं थीं, फिर भी उन्होंने राज्यसभा का दरवाजा नहीं खटखटाया। सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने कभी भी सत्ता की कुर्सी पर आने को बेताब नहीं दिखे। इसी परिवार ने पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया। कभी इस परिवार ने लोकसभाध्यक्ष अथवा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति की कुर्सी की ईच्छा नहीं रखीं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि वह राजनीति में वंशवाद की धारणा के खिलाफ हैं, लेकिन वह महसूस करते हैं कि एक बंद व्यवस्था में वंशवाद को अलग नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं कि मैं पूरी तरह से वंशवाद की धारणा के खिलाफ हूं। जो कोई भी मुझे जानता है, वह यह जानता और समझता है। लेकिन आप एक बंद व्यवस्था में वंशवाद को अलग नहीं कर सकते। आपको व्यवस्था को खोलना होगा।
यह अवसरवादिता नहीं तो और क्या है कि जो मोदी देश भर में वंशवाद के खिलाफ जहर उगलते नजर आते हैं, उसे खत्म कर डालने का संकल्प दिखाते हैं , उन्हें ना बिहार में पासवानों का वंशवाद दिखता है ना पंजाब में बादलों का और न महारास्ट्र में ठाकरे कंपनी का। वह खुद को और अपनी पार्टी को जाति-धर्म से ऊपर बताते हैं, जातियों की राजनीति करने वाली सपा बसपा पर भाले बरछी चलाते हैं लेकिन जाति की राजनीतिक ठेकेदारी करने वाले पासवान और उदितराज उन्हें प्रिय हो जाते हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि चुनाव बाद बसपा भी पहले की तरह साथ आना चाहे तो उसकी भी जातीयता आधारित राजनीति पर भी भाजपा की स्वीकृति की मुहर लगने में कुछ ही मिनट लगें। भाजपा इसे स्वीकार करे या न करे, लेकिन अब उसे वंशवाद की राजनीति का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं। भाजपा में ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ती जा रही है, जो अपने पुत्र-पुत्रियों को राजनीति में स्थापित करने में लगे हुए हैं। एक समय था जब गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल कांग्रेस की इसलिए आलोचना किया करते थे कि वह वंशवाद की राजनीति को प्रश्रय दे रही है, लेकिन अब करीब-करीब सभी राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। भाजपा, सपा, राजद, द्रमुक आदि में वंशवाद की राजनीति को खाद-पानी देने की होड़ सी लगी हुई है। वंशवाद पर सबसे आक्रामक दिखने वाले मोदी को यह वंशवाद राहुल गांधी में तो नजर आता है लेकिन अपने साथ खड़े प्रकाश बादल-सुखबीर बादल में वो नहीं दिखता, दिवंगत बाल ठाकरे-उद्धव ठाकरे में वह नहीं दिखता। वह राहुल गांधी को शहजादा बुलाते हैं लेकिन अपने साथ खड़े शहजादे वरुण गांधी और शहजादी वसुंधरा राजे नहीं दिखती, उन्हें वंशवाद तब भी नहीं दिखता जब राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, लालजी टंडन जैसे उनके नेता अपने बेटों के लिए टिकट मांगते और उन्हें चुनाव लड़वाते हैं।
राजनीति में वंशवाद केवल भारत तक महदूद नहीं है। नेपाल में कोईराला परिवार, सामंतवादी राजनीति के लिए मशहूर पाकिस्तान में भुट्टो परिवार का दबदबा है, तो बांग्लादेश में शेख हसीना और खालिदा जिया में ही टक्कर होता है। श्रीलंका में लोग जयवर्धने और भंडारनायके परिवार के जिक्र से लोग रोमांचित हो जाते हैं। वास्तव में, राजनीतिक वंशवाद भारत या एशिया तक ही सीमित नहीं है। यह तो तकरीबन पूरी दुनिया में है। कहते हैं कि अमेरिका में प्रजातंत्र काफी मजबूत है, मगर सभी जानते हैं कि वहां बुश, केनेडी और क्लिंटन वंश हमेशा ही चर्चा में रहे हैं। हाल ही में टाइम पत्रिका ने अमेरिका की ‘पॉलिटिकल डायनेस्टी’ के बारे में लिखा था: हालांकि संविधान ऐसा कुछ नहीं कहता, लेकिन सदियों से अमेरिकी लोग साफ तौर पर ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते रहे हैं, जो किसी न किसी स्थापित परिवार से आते हैं। दस में से एक सांसद के परिवार का कोई सदस्य पहले भी इस पद पर रहा चुका होता है।

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